Sunday, July 7, 2013

अब तक जितना भी विकास (evolution) हुआ है विचार का, अगर एक फ़िल्म उसे एक कदम आगे नहीं ले जाती तो उसके होने का मेरे लिए कोई मतलब नहीं हैः आनंद गांधी

 Q & A. .Anand Gandhi, film director (Ship of Theseus).

Official poster of 'Ship of Theseus.'

आनंद गांधी कौन हैं?

इन फ़िल्मकार का एक रोचक रूप देखना हो तो आगे बढ़ने से पहले Doppelgänger देखें, हैरत होगी।

वह 1980 में पैदा हुए तो इस हिसाब से 32 के हो गए हैं। मराठी रंगमंच में उन्होंने कई नाटक लिखे। 2000 के बाद टेलीविज़न के लिए उन्होंने लिखना शुरू किया। वह ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के डायलॉग और ‘कहानी घर घर की’ के स्क्रीनप्ले लिखने वाली टीम का हिस्सा थे। 2003 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म ‘राइट हियर राइट नाओ’ (1, 2) बनाई। तीन साल बाद आनंद ने पांच अध्याय वाली फ़िल्म ‘कंटिन्युअम’ (हंगर, ट्रेड एंड लव, डेथ, एनलाइटनमेंट, कंटिन्युअम) बनाई।

पिछले साल वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘शिप ऑफ थिसीयस’ लेकर आए। एक ऐसी फ़िल्म जो विश्व के तमाम सम्मानित फ़िल्म समारोहों में जाकर आई है और सबको चौंका कर आई है। ‘धोबी घाट’ की निर्देशिका किरण राव और यूटीवी मोशन पिक्चर्स, आनंद की निर्माण कंपनी रीसाइकिलवाला फिल्म्स के साथ मिलकर इसे प्रदर्शित करने जा रहे हैं। मुंबई, दिल्ली, पुणे, कोलकाता और बेंगलुरु के सिनेमाघरों में फ़िल्म 19 जुलाई को लगेगी। अलग सोच वाली फ़िल्मों के प्रदर्शन में आने वाली समस्याओं को देखते हुए ‘शिप ऑफ थिसीयस’ के साथ एक नया रास्ता शुरू किया गया है। इसमें इस फ़िल्म को देखने के इच्छुक बाकी भारतीय शहरों के दर्शक-प्रशंसक इस फेसबुक पन्ने पर जाकर अपना वोट डाल सकते हैं। अगर पर्याप्त मात्रा रही तो मांग आने वाले शहर में भी फ़िल्म लगाई जाएगी।

फ़िल्म तीन कहानियों और कई सारे प्रश्नों से मिलकर बनी है। इसके विजुअल और विचार मिलकर दर्शकों की नैतिकता, बुद्धिमत्ता, यथार्थ, विज्ञान और मानवीयता में जाते हैं। भारत में फ़िल्में तो हर किस्म और गुणवत्ता की बनी हैं, लेकिन ‘शिप..’ इस लिहाज से अनोखी है कि जो बातें और तर्क अब तक सिर्फ बुद्धिजीवियों की बैठकों, शैक्षणिक हलकों और बेहद एक्सपेरिमेंटल सिनेमा में आ पाती थीं, वे चुंबकीय स्वरूप में हमारे हिस्से आती है। इसके रचियता आनंद गांधी से ये बेहद विस्तृत बातचीत फ़िल्म के निर्माण पर तो बात करती ही है, उससे भी कहीं ज्यादा आनंद के निर्देशक मन के निर्माण की प्रक्रिया में जाती है। आप जानते हैं कि उनके ज़ेहन में क्या चलता है। उनकी सोच का स्तर क्या है। उनका समाज के लेकर नज़रिया क्या है। और आगे उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है।

और भी बहुत कुछ इस वार्ता में पाएंगे। प्रस्तुत हैः

अभी क्या करने में व्यस्त हैं?
मेरी जो दूसरी फ़िल्म है उसकी एडिटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है। ‘तुम्बाड’ नाम है। मैंने प्रोड्यूस की है और राही बरवे ने डायरेक्ट की है। सोहम शाह जो एक्टर-प्रोड्यूसर हैं हमारी सारी फ़िल्मों में, हम लोगों ने मिलकर अपनी प्रोडक्शन कंपनी रीसाइकिलवाला फिल्म्स के अंतर्गत इसे बनाया है।

‘तुम्बाड’ कब तक रिलीज होगी?
शायद सितंबर तक।

‘शिप ऑफ थीसियस’ किन-किन फ़िल्म फेस्ट में जाकर आ चुकी है?
टोरंटो, लंदन, टोक्यो, ब्रिसबेन, मुंबई, दुबई, रोटरडैम, बर्लिन... और भी जगह गई है और सारे फेस्ट में कुछ न कुछ अवॉर्ड मिले हैं।

ये फ़िल्म है क्या?
‘शिप ऑफ थीसियस’ तीन कहानियों से बनी हुई है। फ़िल्म का शीर्षक एक थॉट एक्सपेरिमेंट है। इसका मूल प्रश्न यह है कि थीसियस ने एक जहाज बनाया था जिसका एक सदी के बाद हरेक पुर्जा बदल दिया गया था। जब हर पुर्जा बदल दिया गया है तो अब वह नया जहाज है कि पुराना वाला है? अगर कहें कि नया जहाज है तो वो कब शिप ऑफ थीसियस होना खत्म हुआ और कब नया जहाज होना शुरू हुआ? वो रेखा कहां बनाई जा सकती है? यही कॉन्सेप्ट इंसानों पर भी लागू करें और इस दृष्टिकोण से देखें तो सात साल में इंसान का हर पुर्जा भी बदल जाता है। हर सेल, हर कण रिप्लेस हो जाता है। ये बदलाव सिर्फ फिजीकल नहीं है, मटीरियोलॉजिकल, साइकोलॉजिकल हर प्रकार से इंसान बदलता है। हर सेल जो आपके शरीर में आज है वो सात साल पहले नहीं था, तो क्या आप अभी भी वही इंसान हो, ये प्रश्न उठता है। मूल प्रश्न फ़िल्म में आइडेंटिटी और परिवर्तन का है। आप कौन हो? क्या है जो सतत परिवर्तन में है? आप जो हो और आपके आसपास जो ब्रम्हांड है, उसके बीच का ये रिश्ता क्या है, ये संबंध क्या है? ये सारी बात तीन कहानियों के जरिए की गई है। पहली कहानी एक अंधी फोटोग्राफर के बारे में है। वह एक ईजिप्शियन लड़की है। मुंबई में रहती है। वह जीनियस है। बहुत ही खूबसूरती से अपने आसपास की दुनिया को तस्वीरों में उतार पाती है। हम उसे और उसके प्रोसेस को समझने की कोशिश करते हैं कि किस तरह वह उसमें खुद को ढाल पाती है। दूसरी कहानी एक साधु की है। वह शास्त्री ज्यादा और साधु कम है। वह पंडित हैं और बहुत पढ़े-लिखे, एकेडमिक हैं। उन्होंने पूरी जिंदगी एनिमल राइट्स वायलेशंस के खिलाफ याचिकाएं डाली हैं और लड़ी हैं। अभी वह खुद बीमार हैं और उनको वो दवाइयां लेनी हैं जो कहीं न कहीं पशु हिंसा से बनी हैं। तो अगर वह दवाइयां ले लेते हैं तो अब तक जो लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं, वो सारी व्यर्थ हो जाती हैं। तो वो दवाइयां नहीं लेते हैं और कहीं न कहीं मृत्यु की ओर जाने लगते हैं। और जैसे ही मृत्यु नजदीक आती है, वो सारे विचार जो कहीं न कहीं स्थित हो चुके थे, वो एक बार फिर से प्रश्न बन जाते हैं। तीसरी कहानी एक स्टॉक ब्रोकर के बारे में है। उसकी दुनिया बहुत ही सिमटी है, वह बहुत ही सीमित है। उसका अपनी नानी मां के साथ बहुत ही अलग प्रकार का रिश्ता है। नानी मां की दुनिया बहुत ही विस्तृत है, उनकी दुनिया बहुत ही खुली हुई है और वो हमेशा चाहती हैं कि वह लड़का भी अपनी दुनिया खोले और जीवन के साथ जुड़े किसी तरह से। फिर एक मौका आता है जब पता चलता है कि इस स्टॉक ब्रोकर का किडनी ट्रांसप्लांट हुआ है। जब वह अपनी नानी मां का ख़्याल रख रहा होता है तो अस्पताल में एक ऐसे व्यक्ति से मिलता है जिसकी किडनी चुराई गई है। पहले उसे लगता है कि कहीं उसे ही तो चुराई हुई किडनी नहीं मिली। फिर डॉक्टर्स, एनजीओ और बाकी सब लोग उसे आश्वासन देते हैं कि उसे चुराई हुई किडनी नहीं मिली, उसे एक मरे हुए आदमी की किडनी मिली है। यहां उसमें जिज्ञासा हो उठती है कि फिर ये चुराई हुई किडनी किसे गई है। अब उस चुराई हुई किडनी को ढूंढने के लिए वह और उसका दोस्त एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन जाते हैं। वहां उसे उस आदमी का पता मिलता है जिसे चुराई हुई किडनी मिली है। और उस आदमी से मिलने वह स्वीडन, स्टॉकहोम जाता है। वहां जाकर वह उस आदमी से मिलता है और उसके आमने-सामने होता है। उस आमने-सामने के बारे में ये तीसरी कहानी है। और ये तीनों कहानियां कहीं न कहीं एक जगह पर जाकर मिलती हैं। जहां ये सारे सवाल एक बड़ा सवाल बनते हैं।

जैसे मणिरत्नम की ‘युवा’ में भी था कि कुछ किरदारों की स्टोरी मिलती है। वासन बाला की ‘पैडलर्स’ में भी यूं ही कई किरदार और उनके मानसिक गलियारों में टहलते इंडिविजुअलिस्टिक सवाल हैं। इसी तरीके से निशिकांत कामत की ‘मुंबई मेरी जान’ में किरदारों की कहानियां भी इसी तरह की थीं। तो ये जो मल्टी स्टोरीज होती हैं ये क्यों आकर्षित करती हैं? हां, इनका रोचक होना और पसंद किया जाना तकरीबन निश्चित होता है। हमारी एक दर्शक के रूप में और आपकी एक फ़िल्मकार के रूप में इनके प्रति इस आकर्षण की वजह क्या होती है?
देखिए, मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी बात को परिपूर्ण तरीके से समझने और परिपूर्ण तरीके से कहने के लिए उसके आसपास की बहुत सारी कहानियों को कहने की जरूरत होती है। खासकर के अगर हम ओरिएंटल ट्रेडिशन देखें, जो पूरब का स्टोरीटेलिंग ट्रेडिशन है, उसके कोई भी नैरेटिव्ज़ देखें, तो वो सारे नॉनलीनियर मल्टी नैरेटिव्ज़ हैं। कि अगर पूछें कि महाभारत कहां से शुरू होती है, तो न मैं और न आप बहुत ही छाती ठोककर कह सकते हैं कि महाभारत यहां से शुरू होती है। उसका कारण ये है कि जैसे ही मैं आपको बताना शुरू करता हूं कि भारतवर्ष की कहानी ये है, कि एक राजा भारत हुआ करता था, तो आप कहोगे नहीं उससे पहले तो कहीं सूर्य की कहानी थी और सूर्य के पुत्र की कहानी थी, और आप कहोगे नहीं उससे पहले तो कुछ साधु बात कर रहे थे, वो बात करके बता रहे थे कि वेदव्यास नाम के एक ऋषि हैं जो एक कहानी लिख रहे हैं, तो आप कहोगे नहीं उससे भी पहले एक कहानी शुरू होती है जहां पर हजारों घोड़ों की बात कही गई है और हजारों हाथियों की बात कही गई है। तो बात हो ही नहीं पाएगी। इसका कारण यह है कि किसी भी चीज़ को ठीक तरह से समझने के लिए, एक होलिस्टिक व्यू लाने के लिए, मेरा मानना ये है कि बहुत सी कहानियों को कहना जरूरी होता है। किसी भी चीज का एक पूर्ण दृष्टिकोण प्राप्त करने के लिए, पूर्ण दर्शन प्राप्त करने के लिए ये बहुत जरूरी है कि हम बहुत सारे दृष्टिकोणों से उसे देखें। और जब हम इतने सारे एंगल से चीजों को देखते हैं तब कहीं न कहीं हम नजदीक पहुंचते हैं उस ... वो हाथी और सात अंधों की बात है कहीं न कहीं। कि हम वो सात अंधे लोग हैं और एक हाथी को समझने या देखने की कोशिश कर रहे हैं। अब अगर मैं उसका कान पकड़कर कह दूं कि हाथी तो पंखे जैसा प्राणी है, या उसका पैर पकड़कर मैं कह दूं कि यार ये तो खंभे जैसा प्राणी है, उसकी पूंछ पकड़कर कह दूं कि ये तो सांप जैसा प्राणी है। तो पूरा सच मैं कभी नहीं कह पाऊंगा। पर इन सारे सत्यों को मैं जोड़ लूं एक सत्य में, और मैं कहूं कि यार कान उसके पंखे जैसे हैं, पैर उसके खंभे जैसे हैं, पूंछ उसकी सांप जैसी है... तो कहीं न कहीं मैं हाथी का एक रूप प्रकट कर पाऊंगा। जो मल्टीपल नैरेटिव स्टोरी होती हैं वो इसलिए होती हैं कि वो हमें और नजदीक ले जाती है उस हाथी के रूप के।

थीसियस का पौराणिक संदर्भ फ़िल्म बनने के बाद आया या शुरू करने से पहले इसे आधार बनाया और ऊपर एक-एक चीज जोड़नी शुरू की? या ये बीच में आया या फ़िल्म बनने के बाद इसके नाम को आपने जोड़ा और आपको लगा कि इन सभी कहानियों में ‘शिप ऑफ थीसियस’ का दर्शन फिट हो रहा है?
नहीं, मेरे लिए हमेशा दार्शनिक बात (philosophical paradigm) पहले आती है। दर्शन का जो प्रश्न होता है वो सबके बीचों-बीच होता है, वहां से हमेशा मेरे लिए कहानी शुरू होती है। जो प्रश्न है और जो फिलोसॉफिकल प्रश्न है, वहां से मेरी कहानी शुरू होती है और फिर उसके आसपास हमेशा कहानियां बनती हैं। उन प्रश्नों को अच्छी तरह पूछने का तरीका क्या है, वो कौन से रूपक या मेटाफर हैं जिनके इस्तेमाल से मैं ये कहानी अच्छी तरह बता पाऊंगा, उस हिसाब से मैं आगे की कहानियां बनाता हूं। टाइटल सबसे पहले आया था, उसके बाद सारी कहानियां आईं।

बड़ी चौंकाने वाली चीज ये है कि ज़्यूस, थीसियस और पसाइडन को लेकर हॉलीवुड में इतनी स्टोरीज यूज़ हुई हैं कमर्शियल बिग बजट में, लेकिन उनकी मिट्टी पलीद कर दी गई है। जैसे तरसेम सिंह की ‘इम्मॉर्टल्स’ जो एक-दो साल पहले आई थी, उसमें कुछ था नहीं। वहीं आपकी इस फ़िल्म में इतनी चीजें और विचार हैं कि बैचेनी होती है। ये क्या वजह है कि अरबों रुपये लगाने के बावजूद एक ढेले भर का दर्शन उनमें नहीं आ पाता और आप बिना किसी मोटे पैसे के इतने विचार डाल देते हैं? ये क्यों होता है हमारी फ़िल्ममेकिंग में?
यार मुझे लगता है कि जितना ज्यादा पैसा लगाया जाए एक फ़िल्म में, उतना डर बढ़ जाता है। उतना ही स्टूडियो वाले आ जाते हैं, दुकानदार आ जाते हैं जो बड़ी-बड़ी दुकानें खोलकर बैठे हैं। जिनका कोई गहरा रिश्ता नहीं है विचार के साथ या कला के साथ या संस्कृति के साथ। मैं एक जगह पर बोलने गया था। कोमल नाहटा मॉडरेटर थे। प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा भी बुलाए गए थे। और वहां कुछ ऐसा ही प्रश्न खड़ा हुआ कि ऐसा क्यों होता है? और क्यों ऐसी फ़िल्में बिकती भी हैं? तो मैंने एक प्रश्न पूछा कि आप में से कितने लोग ये कहेंगे कि आपकी मां मैकडॉनल्ड से बेहतर खाना बनाती हैं, और सबके हाथ खड़े हो गए। पर मैकडॉनल्ड सबसे ज्यादा बिकता है। तो हम सभी शिकार हैं निर्मित सहमति (manufactured consent) के। वो सहमति धीरे-धीरे कई सालों में मैन्युफैक्चर की गई है। उस सहमति के पीछे कोई सत्य नहीं है, उसके पीछे कोई तथ्य नहीं है। वो धीरे-धीरे दबा-दबाकर मैन्युफैक्चर की गई है, बहुत ही बेवकूफी से चीजें बेचने के लिए। एक देश जिसके ज्यादातर लोग ब्राउन हैं, उनको गोरापन बेचने के लिए, उनको तेल वाला सड़ा हुआ खाना बेचने के लिए, उनको शक्कर वाले चीज़ बेचने के लिए जो उनकी सेहत के लिए बहुत हानिकारक हैं। वो सारी चीजें जो सामाजिक सेहत के लिए, वैचारिक सेहत के लिए, आध्यात्मिक सेहत के लिए हानिकारक हैं उन्हें बेचने के लिए सारी की सारी चीजें मैन्युफैक्चर की गईं हैं। तो जो ये अरबों रुपये लगाकर बेचते हैं, उनको वही बेचते रहना पड़ता है, जो आसान है और हानिकारक हैं। उनको पॉपकॉर्न ही बेचना है, वो गाजर का जूस या करेले का जूस नहीं बेच पाएंगे। तो एक तो ऐसे में इस सत्य के नजदीक जाना उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है, बहुत हानिकारक हो जाता है और बहुत ही डरावना हो जाता है। जो हमारे जैसे लोगों के लिए बिल्कुल भी डरावना नहीं होता। हमारी तो खोज ही वही है, हम तो सिर पर कफन बांधकर निकले हैं तो हमें तो ढूंढना है। हमें तो खोजकर रहना है कि यार ये क्या है और क्यों है? मेरा मानना है कि अगर बुद्ध जिंदा होते तो शायद वो भी फ़िल्म बनाते। क्योंकि ये बहुत-बहुत पावरफुल टूल है सत्य की खोज के लिए। ये एक बहुत ही परफैक्ट प्रतिबिंब खड़ा करता है अपने जीवन का और अपने ब्रम्हांड का। ये इतना शक्तिशाली टूल है कि इसके अंदर सब आ जाता है। साहित्य आ जाता है, विचार आ जाता है, संगीत आ जाता है, रंग आ जाता है, इसके अंदर विज्ञान आ जाता है, अध्यात्म आ जाता है, सबकुछ आ जाता है, एक-एक चीज आ जाती है। इसे मैं जीवन का बहुत ही जबरदस्त शक्तिशाली टूल कह सकता हूं। अब तक जितना भी विकास (evolution) हुआ है विचार का, पिछले तीन-चार हजार साल में, अगर एक फ़िल्म उस इवोल्यूशन को एक कदम आगे नहीं ले जाती है तो उस फ़िल्म के होने का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है। मुझे लगता है कि एक फ़िल्ममेकर का काम या मेरा काम है कम से कम कि बुद्ध से लेकर, डार्विन से लेकर, आइंस्टाइन से लेकर, डॉकिन्स तक जिन लोगों ने भी काम किया है उन सारे लोगों का काम एक कदम आगे ले जाऊं मैं।

इतनी अलग सोच वाला फ़िल्ममेकर होने के नाते आपके सामने दिक्कत ये आ जाती है कि आपके समकालीन जो बना रहे हैं, जो कमा रहे हैं, जिस तरह का रहन-सहन शुरू कर रह हैं, वही आपको भी करना पड़ता है। क्योंकि मैंने बहुत से फ़िल्ममेकर्स देखें हैं जिनकी दाढ़ी अजीब सी बढ़ी होती है लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते जाते हैं उनकी दाढ़ी सैटल होने लगती है, एकदम सेट करवा लेते हैं और उनके चश्मे अलग हो जाते हैं, उनकी जैकेट्स अलग हो जाती हैं, और वो, वो सारी बातें कहना छोड़ देते हैं जो उन्होंने कहनी शुरू की थी।
जी बिल्कुल...

आप कब तक संघर्ष करते रहेंगे इस तथ्य के साथ कि जिस क्षेत्र में आप हैं, उसमें पैसा तो आपको खींचेगा ही खींचेगा। कि भई एक एपिक बनानी है और फिलोसॉफिकल एपिक बनानी है, लेकिन पैसा चाहिए और वो ही दुकानदार आ जाएंगे जैसे ही आप इस बारे में सोचेंगे या बताएंगे। उसमें कैसे आप डिगेंगे नहीं, उसके लिए क्या जाब्ता किया है अब तक?
आपकी बात बिल्कुल सही है। कई बार इस पड़ाव और दोराहे पर आकर मैं रुका हूं। ये पहली बार नहीं है। मैं 19 की उम्र से लिख रहा हूं। हर बार कोशिश की है कि जो मेरा उच्चतर उद्देश्य है... और ये बात भी है कि मेरा संघर्ष आसान होता गया है। ये अपनी बात पर जिद्दी होकर अड़ने से भी आसान हुआ है। जो अब से छह-सात साल पहले का संघर्ष था मेरा, वो आज नहीं है। चीजें आसान हुईं हैं। लोगों ने देखा है मेरा काम और कहा है कि हां यार, इसे पैसे दे दो, ये कुछ न कुछ कर लेगा। आज से 10-12 साल पहले मैं टेलीविज़न के लिए लिखता था। टेलीविज़न सीरियल लिखता था। तब लिखते-लिखते ये ख़्याल आया कि जो मैं कर रहा हूं उससे कहीं न कहीं अपनी समग्र बुद्धि (collective intelligence) को हानि पहुंचा रहा हूं। पहले ही हमारी कलेक्टिव इंटेलिजेंस पर सवाल खड़े हैं। पहले ही हमारे यहां पब्लिक डिस्कोर्स नहीं है। पहले ही हमारे यहां एक सामाजिक डिबेट नहीं है, एक वार्तालाप नहीं है। मुझे कहीं न कहीं लगने लगा कि जो कर रहा हूं वो गलत कर रहा हूं। जो कलेक्टिव इंटेलिजेंस है इस मुल्क की, उसे मैं छिछला कर रहा हूं, बेइज्जत कर रहा हूं और उस निर्मित सहमति को बढ़ाने में योगदान दे रहा हूं। तो मैंने वो काम छोड़ दिया। तब से मैंने नहीं किया है वो काम वापस। मैंने 19 की उम्र में लास्ट किया था, फिर कई ऑफर आए लेकिन कभी नहीं किया वापस। उसके बाद ऐसे वक्त भी आए जब बहुत ही गरीबी रही और लगा कि इससे अच्छा तो कर लेता। पर कहीं न कहीं वो फैसला ले पाया हूं और खुश होकर ले पाया हूं। आज से सात-आठ साल पहले जब मैंने टेलीविज़न छोड़ दिया था और कहा था कि अब कभी नहीं करूंगा टेलीविज़न तो मेरे आसपास दोस्त थे जो कर रहे थे। टेलीविज़न, कमर्शियल फ़िल्में कर रहे थे, ऐसी सभी चीजें कर रहे थे जिनसे मुझे सिर्फ सिरदर्दी ही नहीं थी बल्कि दुख भी था। मैं अपने सिद्धांतों की वजह से नहीं कर पा रहा था। जो सिर्फ मेरे सिद्धांत थे, उसमें कोई बहुत बड़ी महान बात नहीं कह रहा हूं। ये बस मेरे लिए जरूरी था।

और मैंने कहीं न कहीं अपनी बोली लगाई कि यार मेरे सामने जिंदगी के ये 10 साल हैं जिनमें मैं खोज कर पाऊंगा, विचार कर पाऊंगा, एक्सप्लोर कर पाऊंगा, इन्वेंट कर पाऊंगा और अपने आप को एनलाइटन (प्रकाशमान) कर पाऊंगा, मैं घूम पाऊंगा, लोगों से मिल पाऊंगा, वो सब कर पाऊंगा जो मुझे करना है। मैं बेहतर कलाकार बन पाऊंगा, बेहतर इंसान बन पाऊंगा, बेहतर लोगों से मिल पाऊंगा। एक तरफ ये है और दूसरी तरफ ये है कि वो सब काम करता रहूंगा जो बाकी सब कर रहे हैं और अंत में मैं कुछ पैसे कमा लूंगा। तो मैंने जिदंगी के इन दस सालों की बोली लगाई दिमाग में। मैंने कहा क्या होगी इनकी बोली। पांच करोड़, सात करोड़, दस करोड़। सोचा, यार पचास करोड़ भी इसके लिए काफी नहीं हैं। बहुत ही हल्का लगा वो पचास करोड़। तो उसे मैं बहुत फायदा समझता हूं, खुशकिस्मती समझता हूं अपने लिए कि मैं वो ऐसा कर पाया। जो नहीं कर पाते हैं मैं उन पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर सकता हूं क्योंकि उनमें बहुत सारे तो मेरे दोस्त ही हैं जो नहीं कर पाए। नहीं ले पाए वो फैसला। मेरी खुशकिस्मती थी कि ले पाया। कि मैं उस संघर्ष में से निकल आया। अभी जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो मेरे पास वो दस साल का खजाना है जिसका हर एक दिन मैं जिया हूं। जिसके हर एक दिन में मैंने संशोधन किया है, प्रयास किया है। मैं घूमा हूं, बहुत ही अद्भुत लोगों के साथ उठा हूं बैठा हूं, मैंने चीजें इन्वेंट की हैं, मैं चीजें समझ पाया हूं। ये तो बहुत ही बड़ा खजाना है जिसके सामने आज की तारीख में मेरे पास पांच-सात करोड़ ज्यादा कम होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। और आज की तारीख में मेरे पास सबकुछ है। मेरे पास बढ़िया सा घर है, गाड़ी है, सब चीजें लोगों ने दे दी हैं। कहीं न कहीं वो फकीरी वाली पैदाइश और परवरिश है। मैं 14 साल की उम्र तक एक झोंपड़े में रहता था। उसकी वजह से कहीं न कहीं वो अपरिग्रह रहा है। चीजों को लेकर एक फकीरी रही है। खुशनसीब हूं कि वो मुझे मिली है। मैं चीजों के साथ आसानी से अटैच नहीं होता हूं। मेरे लिए चीजों को छोड़ना बहुत ही आसान होता है।

मुझे डर है कि कहीं इनटू द वाइल्ड (Into the Wild, 2007) वाले लड़के (क्रिस्टोफर) की तरह आप निकल न जाएं कभी और मिले न आपकी लाश कभी...
हा हा हा... नहीं यार मैं काम करना चाहता हूं, बहुत काम करना चाहता हूं। मैं अपना रोल प्रासंगिक बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि थोड़ी चीजें बदल पाऊं। मैं चाहता हूं कि थोड़ी सी खूबसूरती ला पाऊं, थोड़ा सा विचार ला पाऊं। आसपास में बहुत गंदगी है। मैं चाहता हूं कि थोड़ा सा उसमें बदलाव ला पाऊं।

फ़िल्ममेकिंग के अरविंद केजरीवाल बनना चाहते हैं आप? कोशिश कर रहे हैं?
बिल्कुल, बिल्कुल।

कितना हो पाएगा?
केजरीवाल से मैं सहमत हूं यार। मैं चाहता हूं कि ऐसे चार-पांच लोग खड़े हो जाएं तो मजा आ जाएगा।

हालांकि सोशल मीडिया में लोग उनकी टांग खींचते हैं...
मैं भी बीस चीजें ढूंढ सकता हूं जिनसे असहमत होऊंगा। ठीक है यार, डिसअग्री करेंगे हम। असहमत होने के लिए वो प्लैटफॉर्म तो बनाने दो उसे। अभी तो प्लैटफॉर्म ही नहीं है, हम किससे असहमत हों। मनमोहन सिंह से क्या असहमत होंगे। उनका तो एग्रीमेंट ही डिसअग्रीमेंट है। नरेंद्र मोदी के साथ क्या डिसअग्रीमेंट करेंगे हम लोग, है न। केजरीवाल से साथ असहमत भी हो सकते हैं हम लोग, ठीक है। हम असहमत होकर भी साथ एक प्लैटफॉर्म बना सकते हैं। जिसमें अलग-अलग विचार खड़े करके एक प्लैटफॉर्म तो बनाए वो। तो टांग खींचना तो बहुत ही आसान है। चार कमियां हैं तो बहुत ही आसान हैं देख पाना। मुझे लगता है कि अभी बहुत ही ज्यादा जरूरत है उन चीजों की। खासकर के प्रशांत भूषण। प्रशांत भूषण पर मुझे पूरा भरोसा है।

अच्छा, लौटते हैं ‘शिप ऑफ थीसियस’ पर। कब शुरू की? कितना वक्त लग? और क्या मुश्किलें पेश आईं?
2008 से शुरुआत हुई। उस साल कुछ दूसरे कॉन्सेप्ट भी थे जो मैं बनाना चाहता था। 2009 में इसकी राइटिंग शुरू हुई। 2010 में शूट हुई। 2011 में पोस्ट प्रॉडक्शन हुआ जो अगले साल तक चलता रहा। 2012 में टोरंटो फ़िल्म फेस्टिवल में इसका प्रीमियर हुआ। बनाने में वही प्रॉब्लम आए तो हर इंडि (Independent) फ़िल्ममेकर को आते हैं और शायद थोड़े ज्यादा, क्योंकि मुश्किल फ़िल्म थी। सिर्फ हिंदुस्तानी ऑडियंस के लिए ही नहीं पर बाहर की ऑडियंस के लिए भी मुश्किल ही है, इतनी आसान फ़िल्म नहीं है। ये फ़िल्म आपकी हिस्सेदारी चाहती है, आपको बिल्कुल पैसिवली पॉपकॉर्न नहीं खिलाती है। आपको सीधे बैठकर ढाई घंटे इसमें हिस्सा लेना होता है, मेडिटेट करना पड़ता है। एक किस्म से योग है। तो जाहिर तौर पर मुश्किलें थीं। सबसे पहली तो यही थी कि इसके लिए पैसे कौन देगा। फिर कहूंगा, मैं बहुत ही प्रिविलेज्ड हूं। दुनिया के चंद आर्ट फ़िल्ममेकर इतने खुशकिस्मत होंगे जितना मैं हूं। मुझे बहुत ही आसानी से इतने अच्छे पार्टनर मिल गए, सोहम शाह जैसा पार्टनर बहुत आसानी से मिल गया। कहीं न कहीं हम दोनों एक-दूसरे को तुरंत समझ गए और तय किया कि जिंदगी भर साथ में फ़िल्में बनाएंगे। सोहम का काम जिसने भी देखा है मेरी फ़िल्म में, उसके साथ काम करना चाहता है। दीपा मेहता ले लो, अशीम अहलुवालिया (Miss Lovely) ले लो, सब ने मैसेज किया... अनिल कपूर ले लो, हर किसी ने कहा कि सोहम बहुत ही कमाल का एक्टर है। आमिर ने तारीफ की सोहम की। इससे उसके लिए फ़िल्में बना पाना और उनमें काम कर पाना आसान होगा। उसकी और भी फ़िल्में आ रही हैं। ‘तुम्बाड’ में भी उसने मुख्य भूमिका निभाई है, राही की फ़िल्म में। मेरे लिए आसान यह हुआ कि सोहम जैसा कमाल का पार्टनर मिल गया इसलिए मैं बहुत चीजों से बच गया। बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस के बच गया, बड़े प्रोडक्शन हाउस से बच गया, जो शायद इस ‘शिप ऑफ थिसीयस’ को उस वक्त नहीं समझ पाते। अब ये फ़िल्म बन गई है तो वो सब समझ पा रहे हैं, सब खुश हैं और आनंद लेकर देख रहे हैं। अच्छी बातें कह रहे हैं फ़िल्म के बारे में। नहीं बनी होती तो शायद बहुत कम लोग जान पाते कि ये कैसी फ़िल्म बनती और क्या बनती। मुश्किल यही थी, क्योंकि बहुत ही नई भाषा बनानी थी फ़िल्म की, वो सिर्फ हिंदुस्तान की ही नहीं, अगर आप वर्ल्ड सिनेमा को भी देख लो तो उनके लिए भी नई भाषा है। एक इन्वेंशन के साथ जो मुश्किलें आती हैं, वही यहां भी थीं।

Anand & DoP Pankaj. Photo: Shriti Banerjee
फ़िल्म में जितने भी विजुअल हैं उन्हें पन्नों पर लिखने के बाद व्यवस्थित तौर पर शूट करना शुरू किया था, या चार-पांच साल में अलग-अलग मौकों पर उन्हें आपने दिमाग में सोच लिया था?
डीओपी (director of photography) पंकज कुमार बहुत ही करीब से जुड़ा हुआ है मेरे साथ। हम हमेशा साथ में सोचते हैं, बहुत सारा वक्त बिताते हैं, विचारों को एक-दूसरे से बांटते हैं, एक-दूसरे को चैलेंज करते हैं, सवाल करते हैं, तर्क करते हैं, फ़िल्में डिकंस्ट्रक्ट करते हैं, समझते हैं। साथ में ये हमारी बहुत ही लंबी यात्रा रही है। मेरी शॉर्ट फ़िल्म ‘कंटिन्यूअम’ भी पंकज ने शूट की थी। ‘कंटिन्यूअम’ के बाद से ही हम विचारों और कहानियों को बांटते थे। बहुत ही शुरुआती स्तर पर यह होता है कि जब मैं स्क्रिप्ट लिखता हूं, उसमें सारे के सारे विजुअल्स समाहित होते हैं। तो जो विजुअल लैंग्वेज है स्क्रिप्ट की, वह लिखने के दौरान आधी तो तैयार हो गई होती है, क्योंकि उसे डीओपी के साथ डिस्कस करके ही लिखता हूं। उसके बाद हम लोग रिहर्सल्स करते हैं, एक्टर्स कास्ट होना शुरू होते हैं, लोकेशन ढूंढना शुरू करते हैं... तो बाकी जो विजुअल लैंग्वेज है वो बनना शुरू हो जाती है।

‘शिप ऑफ थीसियस’ में आप जिस प्लेन पर जाकर बात कर रहे हैं चाहे फोटोग्रफिक लाइट हो, रिएलिटी का एग्जिस्टेंस हो, मृत्यु हो... वो धरातल आपकी सोच में कब आया, क्यों आया और कैसे आया?
ये बहुत ही लंबी यात्रा रही है। बचपन से शुरू हो गई थी। सेक्युलर परिवार में पैदा हुआ। काफी सादे लोअर-वर्किंग-मिडिल क्लास मूल्य और विचार थे। 12-13 की उम्र में वास्ता धर्म से, ईश्वर से हो गया था। बहुत सारे प्रश्न उठ रहे थे, बहुत सारे विचार क्लियर हो रहे थे। जैसे, पता चल गया था कि ये जो पूरी माइथोलॉजी है, उसके पीछे इंसानों के डर हैं। उन डरों ने भगवान को जन्म दिया है। जिन विचारों या डरों ने इस सारे कॉन्सेप्ट को जन्म दिया है। बहुत शुरुआती उम्र में मैंने सोचना शुरू कर दिया था कि जो ट्रांससेंडेंस है, अमरत्व के जितने विचार हैं, वो उस डर की पैदाइश हैं। उस मृत्यु के भय की पैदाइश है जो मानव, ईश्वर, नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म... जैसे विचारों को जन्म देता है। क्योंकि मृत्यु का जो भय है वो बहुत ही भयानक है। 13-14 की उम्र से ही मृत्यु के भय को मैंने सींगों से पकड़ा है। उससे टकराया हूं। अमरत्व के कॉन्सेप्ट से बहुत जुड़ा रहा हूं। मैं एक फ़िल्म बना रहा हूं इस विषय पर जिसका वर्किंग टाइटल है, ‘अ बैटर प्लेस’। उसका केंद्रीय विचार यही है कि पिछली 13,000 साल की सिविलाइजेशन में, सभ्यता में, एक झूठ जो बार-बार बोला गया है, दोहराया गया, जिस झूठ के लिए लाखों लोगों की बलि दी गई है, वो झूठ है ‘अ बैटर प्लेस’। कि इससे ज्यादा बेहतर एक जगह कहीं और है। उससे बड़ा कोई झूठ नहीं बोला गया है। और कहीं न कहीं ये सारे प्रश्न मेरे मन में उठने लगे थे। यात्रा तब से शुरू हो गई थी। 16-17 साल की उम्र में मैंने हिंदुस्तान के बाहर के कुछ फिलॉसफर पढ़ लिए थे और एक स्पिरिचुअल शॉपिंग पर निकल पड़ा था, देश भर। अलग-अलग जगहों पर जाकर रहा था। कुछ आश्रमों में रहा था, कुछ लोगों से मिला था। इस वजह से यात्रा तो बहुत पहले शुरू हो गई थी। कॉलेज छोड़ दिया क्योंकि कॉलेज एजुकेशन बहुत ही असंतुष्टिदायक थी। यह तय किया कि मैं अपनी एजुकेशन खुद डिजाइन करूंगा। इस वजह से बहुत जल्दी अपनी एजुकेशन डिजाइन कर पाया। जो सारी चीजें सीखना चाहता था सीख पाया। ज्यादा ध्यान दिया मैंने इवोल्यूशनरी साइकॉलजी पर, फिलॉसफी पर। ये सोच मेरे पहले के नाटक बने, मेरी पहले की शॉर्ट फ़िल्में बनी और अभी ‘शिप ऑफ थीसियस’।

आप कभी आश्रमों में रहे, लोगों से बात की... तो एक बहुत बारीक रेखा है, धार्मिक होने में, धर्म का ज्ञान ढूंढने में और ऐसा करते हुए उसके साथ रहने में... जैसे आप आश्रम में रह भी रहे हैं लेकिन मूर्ति पूजा हुई या लोगों को बरगलाने वाला धर्म हुआ या भगवान का अस्तित्व हुआ, इन सबका विरोध भी कर रहे हैं या उसी जगह रहकर उस चीज को भीतर से जानने की कोशिश भी कर रहे हैं। तो उस दौर में जब आप रह रहे थे या लोगों से मिल कर या उनका हिस्सा बनकर उनसे मिल रहे थे तो ऐसा नहीं था कि यार कुछ करप्ट तो नहीं हो जाएगा थोड़ा सा मेरे भीतर या मुझे वो थोड़ा सा उस तरफ खींच लेंगे या कहीं भिड़ जाऊंगा उनसे मैं, गुस्सा हो जाऊंगा...?
मेरे लिए समझना और चीजों को बहुत ही शैक्षणिक तरीके से तोड़ना, उनके सत्य के पीछे के सत्य के पीछे के सत्य तक पहुंचना... बहुत ही जरूरी था। मैं जब किसी को भी पढ़ना शुरू करता तो मानकर चलता था कि सत्य यहां से मिलेगा मुझे। मैंने जब पहली बार जे. कृष्णमूर्ति को पढ़ा तो ये सोचकर बिल्कुल नहीं पढ़ा कि यार इस सत्य में मुझे बहुत सारी खामियां मिलेंगी, या इस सत्य में मुझे बहुत सारी धोखाधड़ी मिलेगी। मैंने ये सोचकर पढ़ा कि यार शायद इस बंदे को कुछ पता था और शायद इससे मुझे कुछ पता चल जाएगा। जब भी मैं कुछ पढ़ाई करता था या लिखाई करता था या सोचता था या लोगों से मिलता था तो बहुत ही समर्पण के साथ और बहुत ही ईमानदारी के साथ और बहुत ही विनम्र जिज्ञासा के साथ मिलता था। और उस प्रोसेस में प्योरिटी भी रहती है क्योंकि मुझे अंततः जब-जब लगा कि इसमें ये-ये खामियां हैं, ये गलतियां हैं उनके प्रति आत्मानुभूति (empathy) रही है। जो मेरी फ़िल्मों में भी दिखेगी आपको। उन सारे लोगों के लिए आत्मानुभूति रही है जिन्होंने सत्य खोजने की कोशिश की है और उसके बाद भले ही फेल हुए हैं। मेरी नजरों में वो फेल हुए हैं लेकिन उनके लिए बहुत आत्मानुभूति है। इस वजह से कि यार उसने कोशिश की और उस वजह से वो दो कदम आगे बढ़ पाया। मैं एक इकोनॉमिस्ट को पढ़ रहा था, मैट रिडली। वह एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स को गालियां दे रहा था, सबको गालियां दे रहा था। और एक बिंदु पर आकर उसने बहुत ही इंट्रेस्टिंग बात कही। उसने कहा कि “मैं ये दावा नहीं कर रहा हूं कि आई एम स्मार्टर देन एडम स्मिथ, पर एडम स्मिथ के ऊपर मुझे एक बेनिफिट ये है कि मैंने एडम स्मिथ को पढ़ा है। एडम स्मिथ के पास वो लाभ नहीं था कि उन्होंने एडम स्मिथ को पढ़ा हुआ था”। तो मेरे पास वो बेनिफिट है, बुद्ध के ऊपर, महावीर के ऊपर, आइंस्टाइन के ऊपर, डार्विन के ऊपर, डॉकिन्स के ऊपर... कि मैंने इन लोगों को पढ़ा है। तो अभी मुझे पहिया बनाने की जरूरत नहीं है, अब मुझे साइकिल बनाने की जरूरत नहीं है, मुझे मर्सिडीज बनाने की जरूरत नहीं है, मुझे जेट बनाने की जरूरत नहीं है। ये सब बन चुका है। इनके बाद जो आएगा उसे बनाने में मैं अपना पूरा प्रयास लगा सकता हूं।

क्या जो आपने कहा है या जो विचार बताए हैं, फ़िल्म के संदर्भ में उनको जानने के लिए हमको भी उन्हीं किताबों और विचारों में डूबना होगा जिनमें आप डूबे कभी?
मुझे लगता है उन किताबों में डूबे होंगे तो फ़िल्म के और पहलू आपको दिख पाएंगे। अगर नहीं भी डूबे होंगे तो कोई बात नहीं। जैसे, अभी जो लोग देख रहे हैं। लंदन में सदरलैंड ज्यूरी ने स्पेशल अवॉर्ड दिया, टोकयो में बेस्ट आर्टिस्टिक फ़िल्म का अवॉर्ड दिया, मुंबई में टेक्निकल एक्सिलेंस का अवॉर्ड दिया, दुबई में बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड दिया। पूरी दुनिया में फ़िल्म को पसंद किया गया है। रिव्यूअर्स ने पूरी दुनिया में अच्छी रेटिंग दी है। दर्शकों ने आकर मुझे गले लगाया है। मुझे लगता है कि ये एक आसान फ़िल्म भी है और एक मुश्किल फ़िल्म भी है। आपकी जितनी यात्रा रही होगी, आप उतना गहराई में कनेक्ट कर पाओगे फ़िल्म के साथ। और आपकी वह यात्रा नहीं भी शुरू हुई होगी तो मेरा मानना ऐसा है, इसमें मैं शायद गलत भी हो सकता हूं हालांकि कहीं न कहीं मेरा ये मानना मुझे भी सही लगने लगा है, कि ये फ़िल्म उस यात्रा की वो शुरुआत हो सकती है।

ऐसे अनूठे धरातल वाली कौन सी फ़िल्में और फ़िल्मकार आपको बहुत पसंद हैं?
बेला तार (Béla Tarr) हैं, निश्चित तौर पर। रॉय एंडरसन (Roy Andersson) स्वीडन के फ़िल्ममेकर हैं जो इस सूची में पक्के तौर पर हैं। उनकी ‘सॉन्ग्स फ्रॉम द सैंकेड फ्लोर’ (Songs from the Second Floor, 2000) बहुत ही प्रचंड अद्भुत फ़िल्म है। माइकल हेनिके (Michael Haneke) जाहिर तौर पर, खासकर के उनकी ‘द सेवंथ कॉन्टिनेंट’ (The Seventh Continent, 1989) जो बहुत ही नजदीक है मेरे सवालों के। वह और उनकी ‘द वाइट रिबन’ (The White Ribbon, 2009) मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से हैं। बेला तार की जो ‘द टुरिन हॉर्स’ (The Turin Horse, 2011) थी वो मेरे ख्याल से प्रचंड अद्भुत फ़िल्म थी। और जो साउंड डिजाइनर हैं ‘द टुरिन हॉर्स’ के गाबोर इरदेई (Gábor ifj. Erdélyi), वो ही मेरी फ़िल्म के भी साउंड डिजाइनर हैं। गाबोर का ऐसा कहना है, अगर आप गाबोर से बात करेंगे तो वो आपको बता पाएंगे क्यों, कि “द टुरीन हॉर्स एक प्रश्न है और शिप ऑफ थिसीयस उसका जवाब है”। मेरे लिए ये बहुत बड़ी तारीफ है। इसे सीधे-सीधे स्वीकार कर लूं तो मेरा बहुत घमंडी होना होगा। पता नहीं स्वीकार करना चाहिए कि नहीं। पर ऑब्जेक्टिवली बताऊं तो कहीं न कहीं सच भी है कि ‘शिप ऑफ थिसीयस’ में ऐसे बहुत से जवाब हैं जिनके प्रश्न ‘द टुरिन हॉर्स’ में होते हैं। किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) का सारा ही काम मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी फेवरेट किश्लोवस्की फ़िल्म ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ (A Short Film About Killing,1988) है। उसे जितना छीलो उतनी ही परतें निकलती हैं। किश्लोवस्की की ह्यूमैनिटी, उसकी ऑब्जर्वेशन, उसका छोटे-छोटे किस्सों में अध्यात्म बुनना, मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा है। तारकोस्की (Andrei Tarkovsky) के वातावरण में अध्यात्म ढूंढना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा है। बर्गमैन (Ingmar Bergman) की कहानियां बहुत महत्वपूर्ण रही हैं। बर्गमैन अपने पात्रों को जैसे ट्रीट करते हैं, उनके भीतर से जैसे संवाद आते हैं, उसके साथ मुझे बहुत दिक्कत है, क्योंकि ऐसा करते हुए वो बहुत ही आसान तरीका ढूंढते हैं चीजों को बताने का। मुझे पसंद नहीं जब चीजों को इतनी आसानी से बता दिया जाए। पर उन्होंने जैसे विषयों को लिया है, जिस तरह से मुश्किलों को पर्सोनिफाइ किया है, जिस तरह से किस्से सुनाए हैं, वो मुझे बहुत पसंद हैं। बहुत कंटेंपरेरी फ़िल्ममेकर्स में लार्ज वॉन् त्रियेर (Lars von Trier) की फ़िल्में मुझे हिट एंड मिस होती हैं जो कई बार बहुत अंदर तक पहुंचती है और कई बार बाहर से ही टकराकर चली जाती हैं। उनकी ‘डॉगविल’ (Dogville, 2003) मुझे बहुत पसंद है जो बहुत ही आध्यात्मिक तौर पर काम करती है मेरे लिए।

कोरियन फ़िल्ममेकर्स में...
यार कोरियन फ़िल्ममेकर्स मुझे इतने ज्यादा पसंद नहीं हैं सच बताऊं तो। वो अच्छा बैलेंस ले आते हैं, कमर्शियल फ़िल्मों को थोड़ा और ठीक बना देते हैं ताकि शर्मिंदा करने वाला न हो, ऑफेंडिंग न हो, पर इनका कोई बहुत फैन नहीं हूं। न किम कि-डूक (Ki-duk Kim) का इतना बड़ा फैन हूं, न ही जॉन हू बॉन्ग (Bong Joon-ho) का फैन कह सकता हूं। उनकी वैसे दो-तीन चीजें अच्छी दिखीं है, पर ऐसी एक भी फ़िल्म नहीं है जो मुझे पूरी तरह से पसंद हो। ‘स्प्रिंग समर...’ (Spring, Summer, Fall, Winter... and Spring, 2003) के कुछ-कुछ हिस्से पसंद हैं पर वो पूरी तरह से पसंद नहीं है मुझे। क्योंकि बनाने की बहुत ही कोशिश होती है उसमें। जॉन हू बॉन्ग का जो ह्यूमर है, जिस तरह से वो विडंबना ढूंढता है ‘मेमोरीज ऑफ मर्डर’ (Memories of Murder, 2003) में, वो विडंबनाएं दरअसल पसंद हैं मुझे, लेकिन वो विडंबना तो आज हर कोई कर ही रहा है। अभी मैंने किम कि-डूक की नई फ़िल्म ‘पिएटा’ (Pietà) देखी। ठीक लगी, तो दो-चार आइडियाज उसमें अच्छे थे। उसमें जो लैंडस्केप रचा था वो ठीक था, लेकिन इतनी गज़ब नहीं थी।

इंडिपेंडेंट सिनेमा पर बीते एक-दो साल के जिन नए फ़िल्ममेकर्स से बात हुई है, उन्हें निराशा है कि कोई सपोर्ट नहीं है, बन जाए तो वितरण में हजार झंझट, लोग लेते नहीं हैं, फिर उन्हें किन सिनेमाघरों में लगाएं क्योंकि अलग से हॉल नहीं हैं। स्वतंत्र सिनेमा को भारत में प्रोत्साहित करने की क्या कोशिश हो सकती है? कैसे मदद कर सकते हैं, क्या ढांचा बना सकते हैं?
मैं बहुत आशावादी हूं तो निराशा के साथ खुद को ज्यादा जोड़कर भी नहीं देखता हूं। ये तो जाहिर है, कि हां भई मुश्किल है, पर वो इतनी बड़ी निराशा नहीं है। वो इतना भी मुश्किल नहीं है कि सिर्फ उसके ही बारे में बात की जाए। मुझे थोड़ा सा गुस्सा आने लगता है जब इंडि फ़िल्ममेकर्स सिर्फ यही बात करते हैं। पैसा नहीं है, डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं हैं, ये नहीं है... नहीं है तो फ़िल्में भी कहां आती हैं। फ़िल्में भी तो नहीं थीं अब तक। ये तो पहली बार है कि दो-चार फ़िल्में आई हैं। बीस-चालीस फ़िल्में आएंगी तब हम बात कर पाएंगे इस बारे में। दर्शकों को हमें बताना पड़ेगा, घर-घर जाकर। मेरा ये मानना है कि बहुत प्रचंड ऑडियंस है इंडिया में जो तरस गई है ऐसा सिनेमा देखने के लिए जो उनके लिए प्रासंगिक है, उनके लिए अच्छा है। मैंने तो आज तक जितने भी लोगों से बात की है, उनकी ये प्रतिक्रिया रही है कि यार हमें तो ऐसी फ़िल्म देखनी है। जब प्रोड्यूसर और वितरक यह कहते हैं कि “ये उन लोगों को समझ में नहीं आएगी” तो ये पता नहीं किन लोगों की बात करते हैं। किन लोगों को समझ में नहीं आएगी? क्या वो मानते हैं कि उनको समझ में नहीं आएगी? और क्या वो ऐसा मानते हैं कि वो पूरे हिंदुस्तान की जनता से ज्यादा बुद्धिमान हैं, ज्यादा ज्ञानी हैं। ये जो पूरा चक्कर चला हुआ है न कि यार समझ में नहीं आएगा, लोग स्वीकार नहीं करेंगे.. इस बात को मैं थोड़ा चेतावनी के साथ देखता हूं। लोग तो देखना चाहते हैं, निश्चित तौर पर देखना चाहते हैं, अब ये हमारे सिर पर है कि लोगों तक कैसे पहुंचाएं। इसके लिए हम नहीं निर्भर रह सकते उन लोगों पर जो... अब जैसे हमने आईफोन अगर बनाया है तो उसे उन जगहों पर तो नहीं लेकर जा सकते न जहां एमटीएनएल के फोन बिकते हैं, उसके लिए तो एक नई चेन की बनानी पड़ेगी, उसके लिए एक नए तरीके से लोगों तक पहुंचना पड़ेगा। अगर एक नए तरीके का प्रोडक्ट बन रहा है तो उसका वितरण भी नए तरीके से करने पड़ेगा। वो ढूंढना पड़ेगा। हम सबको मेहनत करके वो बनाना पड़ेगा।

आपने शुरू में कहा कि अपनी एजुकेशन को खुद डिजाइन किया। वो डिजाइनिंग कैसी रही? कितना वक्त लग गया फ़िल्मों से जुड़ी सारी तपस्या करने में?
कुल मिलाकर उतना ही टाइम लगा जितना एक सर्जन को लगता है, या किसी आर्किटेक्ट को तैयार होने में लगता है। जिंदगी के 10 साल लगते हैं मुझे लगता है तकरीबन, जिसमें आपको तपस्या करनी पड़ती है, अभ्यास करना पड़ता है। मेरी जिदंगी में भी संभवतः वह 10 साल का अभ्यास रहा है। 16 की उम्र में मैंने निश्चय किया कि फ़िल्में बनानी हैं जिंदगी में। 19 की उम्र में कुछ नाटक बनाए और कुछ टेलीविज़न सीरीज लिखी। 20-21 साल की उम्र में कुछ और पढ़ाई की। 22 की उम्र में पहली शॉर्ट फ़िल्म बनाई। उसके साथ ही दुनिया घूम पाया। 26 की उम्र में दूसरी शॉर्ट फ़िल्म बनाई। यहां आते-आते थोड़ी दुनिया और घूम पाया, देख पाया। इस दौरान सिर्फ फ़िल्मों का ही नहीं हर चीज का अभ्यास रहा। जैसे आपने मल्टीपल नैरेटिव की बात कही, तो एक मल्टी फेसेटेड एजुकेशन भी रही। मेरा ये मानना है कि एक फ़िल्ममेकर की बहुत सारी-बहुत सारी स्पेशलाइजेशन होनी चाहिए। सोशयोलॉजी में, साइकोलॉजी में, एन्थ्रोपोलॉजी में, इकोनॉमिक्स में, पॉलिटिक्स में... इन सभी चीजों में उसका बहुत ही गहरा अभ्यास होना चाहिए। उसके अलावा जाहिर तौर पर क्राफ्टमैनशिप में। सिनेमैटोग्राफी में, फोटोग्राफी में, आर्ट में, पेंटिंग में, थियेटर में, इन सारी चीजों में एक फ़िल्ममेकर का अभ्यास बहुत पक्का होना चाहिए। मेरा वो 10-12 साल का अभ्यास रहा जिसमें एक-एक करके चीजें जुटती गईं। लगता है कि थोड़ी सी तैयारी हो रखी है जिससे मैं फ़िल्में बनाऊंगा।

आपने इतने विषयों का नाम लिया, क्या 12 साल पर्याप्त थे क्राफ्टमैनशिप और उन तमाम विषयों के लिए? क्योंकि हरेक की इतनी ज्यादा ब्रांचेज खुलती जाती हैं कि...
जैसे-जैसे मैं बनाता गया, तैयार होता गया। जैसे, मेरी पहली फ़िल्म देखोगे तो पाओगे कि मैं बहुत सारी चीजों के लिए तैयार नहीं था। मैंने 22 साल की उम्र में बनाई ‘राइट हियर राइट नाओ’। उसमें फिर भी आपको लगेगा कि थोड़ा कच्चापन है। एक यंग आदमी वाला कच्चापन है। मैं बस उसे ही पक्का करता गया।

आनंद गांधी को जिंदगी में आगे कैसे विषयों पर फ़िल्में बनानी हैं?
ऐसे ही सब्जेक्ट जो अब तक एक्सप्लोर किए हैं। ट्रांसेंडेंस (अमरत्व) के बारे में, उन कॉन्सेप्ट्स के बारे में जो मेरे लिए बहुत ही प्रासंगिक हैं, मृत्यु के बारे में, रोगों के बारे में, उम्र के बारे में, बढ़ती उम्र के बारे में, संस्थानों के बारे में, शासनों और सत्ताओं के बारे में। मैं बहुत ही उत्सुक हूं उन विषयों को लेकर जिन पर अभी स्क्रिप्ट्स लिख रहा हूं। उनमें एक है कि क्या हम एक ग्रैंड यूनफाइड थ्योरी (grand unified theory) कभी ढूंढ पाएंगे? बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका जवाब ढूंढना चाहता हूं। इस बारे में बहुत आकर्षित हूं। इल्यूजन (भ्रम/भ्रांतियां) कैसे बनाए गए, उनसे बहुत प्रभावित हूं। मैं अपने आप को विज्ञान और फिलॉसफी दोनों का स्टूडेंट मानता हूं तो जो भी विषय मुझे ये दोनों और भी पढ़ा पाएं और ज्यादा समझा पाएं, विज्ञान के दृष्टिकोण से चीजों को, उन सारे सब्जेक्ट्स को मैं ज्यादा एक्सप्लोर करना चाहूंगा।

दीर्घकाल में बॉलीवुड होना चाहेंगे या हिंदी सिनेमा ही कहलाना पसंद करेंगे खुद को?
अपने आप को न मैं भाषा में सीमित कर पाता हूं, न बजट में सीमित कर पाता हूं। मैं खुद को बस सब्जेक्ट्स में सीमित कर पाता हूं कि ये सारे विषय हैं जिनको लेकर फ़िल्में बनाऊंगा। अभी मैं दो-तीन स्क्रिप्ट डिवेलप कर रहा हूं जिनके बजट 20 से 40 करोड़ के होंगे। तो जब ये फ़िल्में बनेंगी तो निश्चित तौर पर न हिंदी होगी न इंडि होगी। ये वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्में होंगी जिनमें इंग्लिश भाषा होगी, यूरोपियन भाषाएं होंगी, हिंदी होगी। जैसे ‘शिप ऑफ थिसीयस’ है। वो 40 प्रतिशत हिंदी है, 40 प्रतिशत अंग्रेजी है और बाकी 20 प्रतिशत अरबी और स्वीडिश हैं। मैं हमेशा मानता हूं कि जो भी किरदार बना रहा हूं उसे अपनी भाषा में बोलना चाहिए। मुझे हमेशा से खटका है कि आप एक तमिल कैरेक्टर दिखाते हो जो अपने ही एक्सेंट में हिंदी में बात करता है। ऐसा मैं कभी नहीं करूंगा। आपने ‘राइट हियर राइट नाओ’ देखी है, मेरी पहली शॉर्ट फ़िल्म, मैं तब से ही यह करता आया हूं और वो ही मैं जिंदगी भर करता रहूंगा कि जहां का पात्र होगा वो वहीं की भाषा बोलेगा। अगर स्वीडन का पात्र होगा तो वो स्वीडिश में बात करेगा, अगर बिहार का पात्र है तो वो छोटा नागपुरी में बात करेगा या भोजपुरी में बात करेगा।

आपने वैसे बता दिया है कि 16 की उम्र में फ़िल्में बनाना तय किया, थोड़ा सा उस साल के बारे में बताएं कि ऐसा क्या था कि कह दिया फ़िल्में ही बनानी हैं? क्योंकि वो एक मुश्किल टाइम होता है तय करना।
बचपन से ही तय कर लिया था कहीं न कहीं। बचपन से दो-चार चीजें तय की थीं। 4-5 साल की उम्र में यह कर लिया था कि जोकर बनना है। ‘मेरा नाम जोकर’ देखकर तय किया था कि जोकर बनना है। फिर ये तय किया था कि वैज्ञानिक बनना है। बहुत ही समर्पण के साथ एक वैज्ञानिक बनना चाहता था। दिन-रात उसी के सपने देखता था और हर वक्त वैज्ञानिक बनने की ही बातें करता था। और बहुत समर्पण के साथ जादूगर बनना था। उसके बाद बहुत साल तक स्कूल टाइम में एक्टर बनने का समर्पण था। ये सब एक साथ था। वैज्ञानिक भी बनना था, एक्टर भी बनना था, जोकर भी बनना था, जादूगर भी बनना था, फिलॉसफर भी बनना था, कलाकार भी बनना था। जब 14-15 का हुआ तो समझ में आने लगा कि यार फ़िल्म एक जगह है जहां पर आप वैज्ञानिक, फिलॉसफर, कलाकार, लेखक, सबकुछ बन सकते हो। तो 16 की उम्र तक वो विचार स्थापित हो गया कि सबकुछ यहीं बन सकते हो।

घरवाले नहीं कहते कि ये फील्ड छोड़ दो, कुछ और ढंग का कर लो? कौन हैं परिवार में?
मेरी माताजी बहुत ही बड़ी दीवानी रही हैं पॉपुलर कल्चर की। मेरी परवरिश रंगमंच पर हुई। बहुत रंगमंच दिखाया गया है बचपन से। माताजी रंगमंच, सिनेमा, साहित्य और खासकर पापुलर साहित्य बहुत पसंद करती हैं। वो जब पढ़ती और देखती थीं तो मुझे साथ-साथ दिखाती थीं। बचपन से बड़े होते वक्त तक हमेशा मेरे हीरोज वैज्ञानिक थे और पोएट्स थे। उन्हें बहुत ही ऊंचे दर्जे पर देखा जाता था। मेरी मां लेखकों, कवियों और कलाकारों को विस्मय के साथ देखती थीं। लगता है वो सेलिब्रेशन मेरे अंदर गया है। मेरी नानी मां और मां ने मुझे बड़ा किया है। मां सिंगल मदर रहीं। जब मैं 7 साल का था तब वह पिता से अलग हो गईं। मुझे बड़ा करते वक्त नानी और मां के हीरोज बड़े इंट्रेस्टिंग किस्म के लोग होते थे। मेरी नानी मां के सारे के सारे हीरो साधु और संत थे, दुनिया भर के, जिनको वह पढ़ती थीं और जिनके बारे में वह हमेशा बातें करती थीं। मां के हीरो बहुत सारे हुआ करते थे, खासतौर पर पोएट्स और राइटर्स। तो बचपन से वो बात अंदर चली गई कि कूल होता है ऐसा बनना। प्रैक्टिकली मेरी मां और नानी मां यही चाहते थे कि बड़ा होकर कुछ सी.ए. – एम.बी.ए. टाइप बन जाऊं। लेकिन जो अंदरूनी तौर पर बनने-बनता देखने की ख्वाहिश थी वो पहले ही अंदर जा चुकी थी। कोई मुश्किल नहीं हुई जब मैंने तय किया कि इस ओर जाने वाला हूं। मेरे पर विश्वास बहुत था सबका। ऐसा हमेशा माना गया कि मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं। क्योंकि मैं सिंगल चाइल्ड था, जिसे सिंगल मदर ने पाला-पोसा था और आर्थिक दरिद्रता में। इस वजह से मैं 7 की उम्र में ही मैच्योर हो गया था। चीजों को समझने लगा था। इस वजह से सब को मेरे ऊपर विश्वास भी जल्दी आ गया था। इसलिए जब मैंने फैसला लिया तो इतनी दिक्कत नहीं हुई। थोड़े-बहुत सवाल उठे कि क्या करेगा कैसे करेगा। थोड़ी शंकाएं उठीं, पर उन शंकाओं के लिए ज्यादा जगह नहीं थी। वो निगोशियेबल ही नहीं था।

इस उम्र के बाद अपने पिता को एक व्यक्ति के तौर पर आप कैसे याद करते हैं? क्या रुचियां थीं उनकी?
मैं उनको ज्यादा जानता नहीं था। मैं 6-7 साल का था जब माता-पिता अलग हो गए। जब मैं 12-13 का था तब वो चल बसे किसी जेनेटिक डिसऑर्डर की वजह से। मुझे कुछ-कुछ चीजें पता हैं उनके बारे में। 6-7 साल तक की कुछ याद्दाश्त है। तो मेरी दुनिया मेरी माताजी, मेरी नानी मां और नाना थे। फिर जब मैं 15 का था तो मेरी माताजी ने पुनर्विवाह किया तो मेरे ये डैड भी इस दुनिया का हिस्सा बन गए। मैं खुशकिस्मत था कि पैसे की तंगी होते हुए भी बहुत सी दूसरी चीजें आस-पास थीं। विचार था, खुद्दारी थी।

लेकिन अगर जिदंगी में वो चीजें नहीं होती तो आज हम ऐसे होते ही नहीं, जो हैं, बिल्कुल सतही हो जाते...
बिल्कुल। ... मेरी नानी मां ने तो मेरे सीरियल्स में एक्ट करना भी शुरू कर दिया और वो बहुत फेमस हो गईं। वो जब भी गांवों या छोटे शहरों में जाती हैं तो लोग जमा हो जाते हैं, उनकी तस्वीरें खींचने के लिए।

आपके लिखे कौन से सीरियल में उन्होंने एक्ट किया है?
सीरियल तो मैंने बहुत ही घटिया लिखे तो आप मेरी नानी मां को देखिए। एक तो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में। और भी एक-दो सीरियल में जिनका नाम मुझे याद नहीं है। ‘क्योंकि सास...’ में उन्होंने गोदावरी दादी का रोल किया था, जो कॉमिकल रिलीफ के लिए आती थीं। वह जरा ऊंचा सुनती थीं या कुछ अजीबोगरीब सुनती थीं।

निराशा के पल आते हैं क्या? आते हैं तो कौन सी फ़िल्में देखते हैं जो सब भुला देती हैं?
4-5 साल से तो मैं बहुत व्यस्त रहा हूं अपनी फ़िल्मों पर काम करने में। ऐसी किताबें कुछ जरूर हैं। कुछ लेखक हैं जिनसे मैं बहुत प्रेरित हो जाता हूं। रिचर्ड डॉकिन्स हैं, उनके विचारों से बहुत प्रेरित हो जाता हूं और लगता है फिर से लिखने लगूं। एक फ़िल्म है जो मैं बार-बार देख लेता हूं और जो मेरा गिल्टी प्लेजर है, कोई 30-35 बार जिंदगी में अब तक देख ली होगी, जिसकी एक-एक लाइन मुझे याद है, जो मैं अकसर देख ही लेता हूं... वो है ‘द मेट्रिक्स’ (The Matrix, 1999)। कुछ बहुत ही हल्की-फुल्की सी हैं और मुझे पसंद हैं, कैमरन क्रो (Cameron Crowe) की ‘ऑलमोस्ट फेमस’ (Almost Famous, 2000)। वो कहीं न कहीं मेरी मां की कहानी है इसलिए मुझे बहुत पसंद आती है। ‘गुड विल हंटिंग’ (Good Will Hunting, 1997) मुझे बहुत पसंद आई है। वो मुझे बहुत एंटरटेनिंग लगती है। मुझे मेरे और मेरे दोस्तों की कहानी लगती है।

‘द मेट्रिक्स’ की तर्ज पर क्या ‘लूपर’, ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ और ‘द डार्क नाइट राइजेज’ पसंद आई?
‘द डार्क नाइट राइजेज’ तो मुझे बहुत घटिया लगी थी...

पर उसमें जो ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ वाला विचार था...
लेकिन वो ऐसी इमेज छोड़ती है न, कि बहुत आसान होता है आजकल करना। और हर कमर्शियल फ़िल्म इतना तो कर ही लेती है। वो भाषा तो पहले से ही सेट कर दी गई है। इतना टिपिकल रहा नहीं है। ‘लूपर’ मैंने देखी नहीं है। देख लेता हूं अगर आप कह रहे हैं तो। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ भी नहीं देखी है क्योंकि अपनी फ़िल्म को लेकर बहुत बिजी था।

‘इनसेप्शन’ कैसी लगी?
‘इनसेप्शन’ तो बहुत ही घटिया है यार। बहुत आसान है।

लेकिन नोलन की फ़िल्म जब भी आती है, विश्व भर में उनके प्रशंसकों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं?
क्या पता, लेकिन ‘इनसेप्शन’ एक वैसी फ़िल्म है कि देखने के बाद आपको लगता है कि आप इंटेलिजेंट हो लेकिन क्या पता आप इंटेलिजेंट हो कि नहीं, क्योंकि उसमें इतना आसान करके दिया जा रहा है सबकुछ। इतना परोसा गया है। ऐसे कोई उसमें कठिन कॉन्सेप्ट नहीं हैं, पर ऐसा बनाया गया है कि लगता है आप बहुत की कठिन कॉन्सेप्ट को समझ रहे हो और उस बात की आपको खुशी होती है। तो वो मैनप्युलेटिव स्ट्रक्चर बनाना तो मुझे बहुत ही आसान लगता है। वो मैं बचपन में बहुत बनाता था अपने नाटकों में। जिससे दर्शकों को लगे कि यार मैंने कुछ बहुत ही अद्भुत देख लिया है, बहुत ही इंटेलिजेंट देख लिया है जबकि वो बहुत ही आसानी से परोसा गया होता है आपको। ‘इनसेप्शन’ में कोई भी कॉन्सेप्ट जो खोला गया था उसे पूरा नहीं किया गया था। कॉन्सेप्ट को पूरा करना ही मुश्किल होता है, खोल देना तो बहुत ही आसान बात होती है। ‘इनसेप्शन’ में जिस पैराडॉक्सिकल आर्ट की बात की गई थी उसका कुछ यूज नहीं था। दिखाया गया कि वो बस घूम रहे हैं, घूम रहे हैं। वो तो बहुत ही आसान होता है। कोई चीज अंदर फैंक देना और दर्शक को लगता रहे कि यार कुछ प्रचंड अद्भुत देख लिया है और उसी कॉन्सेप्ट को बार-बार फ़िल्म में घुमाते रहना ताकि आपको लगे कि हां, आपने कोई कॉन्सेप्ट समझ लिया है। ज्यादा मुश्किल होता है उनको जोड़ना, उनको एक कॉहरेंट (सुसंगत) फ़िल्म में तब्दील कर पाना।

अडूर गोपालकृष्णन, रे, बेनेगल, निहलाणी, जैसे जितने भी हिंदी, मलयाली, मराठी, बांग्ला, कन्नड़ फ़िल्मकार हुए हैं, आप इन लोगों के काम को कैसे देखते हैं? क्या आज उनकी प्रासंगिकता उतनी ही है?
मैं जब यंग था तब ये लोग मेरे लिए बहुत जरूरी थे। पर कुल मिलाकर औसत ही रही हैं उनकी फ़िल्में। दुर्भाग्य से एक भी फ़िल्ममेकर ऐसा नहीं है जिसके काम को देखकर कह सकूं कि ये मेरे लिए आदि और अंत है। सत्यजीत रे अकेले ऐसे हैं जो उस क्षेत्र में कुछ नजदीक आते हैं। उनकी चार-पांच फ़िल्में ऐसी रही हैं जिनका मेरी परवरिश, पढ़ाई और सिनेमा की क्राफ्टमैनशिप सीखने में योगदान रहा है। बाकी किसी हिंदुस्तानी फ़िल्ममेकर से मेरा ऐसा रिश्ता नहीं बन पाया है, जो मैं बहुत मिस करता हूं। मैं 16-17-18 की उम्र में प्रभावित था, इन लोगों के काम को देखता था, निहलाणी और श्याम बेनेगल और अडूर गोपालकृष्णन और जॉन अब्राहम और कुमार साहनी और मणि कौल के। मैंने पहली बार जब कमल (स्वरूप) का काम देखा था, जब पहली बार ‘ओम-दर-ब-दर’ (1988) देखी तो लगा कि ये क्या अद्भुत फ़िल्म है। इन सब चीजों से मैं प्रभावित था एक जमाने में। 20 साल की उम्र तक। पर वो संबंध टिक नहीं पाया है। किसी इंडियन साहित्यकार और फ़िल्मकार के साथ मेरा ऐसा संबंध हो, इसे बहुत मिस करता हूं।

बचपन की सम्मोहक फ़िल्में जो अब भी याद हैं। आज भले ही बचकानी लगती हैं पर उस बचकानेपन को आप दरकिनार करते हैं क्योंकि उन फ़िल्मों को आपने उस वक्त देखा था जब आप कुछ नहीं जानते थे?
अभी मैं इन्हें देख पाऊंगा कि नहीं, पर बचपन की मेरी फेवरेट फ़िल्में थीं, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘जागते रहो’, ‘उत्सव’ (गिरीष कर्नाड), ‘दीवार’ और ‘कर्मा’। ये सारी बचपन की फेवरेट फ़िल्में थीं जिनको देखकर लगता था कि यार ऐसी होनी चाहिए फ़िल्में।

सर्वकालिक पसंद वाली भारतीय और विदेशी फ़िल्में जो सभी को देखनी चाहिए।
इंडियन फ़िल्मों में तो सर्वकालिक ‘अप्पू ट्रिलजी’ (The Apu Trilogy, 1955-1959) ही रहेगी। उनको एक फ़िल्म बनाकर देखना चाहूंगा। दुनिया भर की फ़िल्मों में बता सकता हूं जो कभी हिली नहीं ज़ेहन से, जब से देखी तब से वैसी ही प्रभावशाली बनी हुई हैं। ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ (A Short Film About Killing,1988) किश्लोवस्की की, तारकोवस्की की ‘सोलारिस’ (Solaris, 1972), रॉय एंडरसन की ‘सॉन्ग्स फ्रॉम द सैकेंड फ्लोर’ (Songs from the Second Floor, 2000), माइकल हेनिके की ‘द वाइट रिबन’ (The White Ribbon, 2009) और बेला तार की ‘वर्कमाइंस्टर हार्मनीज’ (Werckmeister Harmonies, 2000)।

वैसे तो आपने नाम लिया डॉकिन्स का लेकिन फिलॉसफी में ओशो या कृष्णमूर्ति या गीता या एल्डस हक्सले या दीपक चोपड़ा... किसको आपने पढ़ा है?
इन सभी को पढ़ा है। 16-17 साल की उम्र में उठता था कृष्णमूर्ति (Jiddu Krishnamurti) के साथ, बैठता था हक्सले (Aldous Huxley) के साथ और रसल (Bertrand Russell) और स्पेंसर (Herbert Spencer) के साथ। ये सभी बहुत बड़े प्रेरणास्त्रोत थे। बहुत महत्वपूर्ण प्रेरणाएं थी ये। 15 साल की उम्र में कुछ और लोग थे, उस उम्र में फिलोसॉफिकल प्रेरणा अयान रेंड (Ayn Rand), गांधी (Mahatma Gandhi) और जॉन डॉनी (John Donne) थे। फिलॉसफी की प्रेरणा फिक्शन से शुरू हुई थी, फिर नॉन-फिक्शन पर गई। जहां हक्सले, कृष्णमूर्ति और ओशो को कुछ-कुछ पढ़ा था। ओशो के साथ संबंध पहले से ही ठीक-ठाक था क्योंकि 17 की उम्र तक जो मैं पढ़ चुका था उससे कहीं न कहीं जानता था वो क्या कह रहे थे। ओशो को पढ़कर कभी ये नहीं लगा कि यार कुछ ऐसा सुना या देखा है जो पहले नहीं पता था। यानी तब तक वो बातें मेरे लिए ज्यादा नई नहीं रही थीं। पर कबीर के साथ का रिश्ता हमेशा कायम रहा है। अभी भी उनसे कुछ मिल जाता है। क्योंकि वो कविता है, रूपक है। क्योंकि वो उसका विस्तार है, वो खुला हुआ है वो कहीं पर भी जा सकता है। कबीर से वो इक फकीरी वाली दोस्ती भी है। यहां तक कि डॉकिन्स (Richard Dawkins) को भी जब तक पढ़ा, ईमानदारी से बताऊं तो तब तक फिलोसॉफिकली कोई ऐसी बात नहीं रही थी जो बाकी रह गई थी। डॉकिन्स को पढ़कर जो माइक्रोबायोलॉजी और इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी के बारे में चीजें समझ में आईं और उसकी वजह से बाद में डेनिस ब्रे (Dennis Bray) से जो इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी के बारे में चीजें समझ में आईं। तो डॉकिन्स से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए डेनिस ब्रे हैं जिन्होंने ‘वेटवेयर’ (Wetware: A Computer in Every Living Cell, 2009) नाम की किताब लिखी है। डेनिस भी माइक्रोबायोलॉजिस्ट हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं मेरे लिए। लुई थॉमस (Lewis Thomas) बहुत महत्वपूर्ण हैं उन्होंने ‘द लाइव्ज ऑफ अ सेल’ (The Lives of a Cell: Notes of a Biology Watcher, 1974) नाम की किताब लिखी थी। तो डॉकिन्स, डेनिस और लुई फिलॉसफी में एक विज्ञान वाला हिस्सा भरते हैं जो कॉन्सेप्चुअल आइडिया है क्योंकि फिलोसॉफिकली आइडिया तो मैं एक्सप्लोर कर चुका था।

इन जितने भी दार्शनिकों को पढ़ते हैं तो कई बार ऐसा हो जाता है कि आदमी का दिमाग खराब हो जाता है, कि यार ये क्या बात कर रहे हैं, इतना ठगा गया हूं क्या मैं? इनके पीछे चलूं क्या मैं? या क्या वो पहुंचाएगा या वो नहीं पहुंचाएगा? या उसके बीच जोन्सटाउन जैसी घटना भी हो जाती है और आदमी को लगता है कि यार ये तो कुछ और ही चीजें हैं, ये तो कहीं और ही ले जा रहे हैं। क्या ये उलझाते ज्यादा हैं या रास्ता ज्यादा दिखाते हैं?
रास्ता तो यार मैं खुद ही ढूंढ रहा था अपना, खुद ही बना रहा था। मेरे लिए तो प्रासंगिक था ही नहीं कि कौन क्या दिखा रहा है मुझे। मेरे लिए तो प्रासंगिक ये था कि तथ्य कौन बता रहा है मुझे। जो चीजें तथ्यपरक (फैक्चुअल) नहीं थीं उन्हें मैं निकालता चला गया। जो चीजें तथ्यपरक थीं उन्हें रखता गया और अपनी खुद की फिलॉसफी बनाता गया। वैसे भी मैंने कभी भी किसी को फॉलो नहीं किया था। संस्थानों के साथ मुझे बचपन से ही दिक्कत रही है। मेरी एक दोस्त हाल ही में एक कहानी लिख रही थी कि जिसमें वह एक ऑब्जर्वेशन कर रही थी कि सार्त (Jean-Paul Sartre) से लेकर नीत्शे (Friedrich Nietzsche) से लेकर सुकरात (Socrates) जैसे महान फिलॉसफर्स में एक चीज कॉमन रही है कि इनमें से किसी के भी बाप नहीं थे। ये सभी या तो अनाथ थे या सिंगल मदर द्वारा पाले-पोसे गए थे। तो इस वजह से हुआ होगा कि बचपन से ही उनमें एक फादर फिगर या संस्थान के आगे आज्ञाकारी होने की आदत नहीं रही होगी। माता भी संस्थान होती है, बहुत बड़ी संस्थान होती है पर बहुत अलग प्रकार की होती है, पर बहुत ही फ्लूइड होती है। तो हो सकता है मनोवैज्ञानिक रूप से मेरे साथ भी वही हुआ हो। एस्टैबलिशमेंट के साथ कभी कोई रिश्ता बना नहीं पाया हूं मैं। इसलिए ऐसा कभी रहा नहीं है कि कोई मुझे गुमराह कर देगा या कोई मुझे रास्ता दिखा देगा। बेहद स्वतंत्र रहा हूं मैं।

आपने कहा कि जो तथ्यपरक आपको मिला उसे पकड़ा और बाकी छोड़ा, इसे किसी उदाहरण के साथ समझाएं...
जैन विचार और बौद्ध विचार, ये दो 17 की उम्र में मेरे विचारों को आकार देने में बहुत मददगार रहे। अभी जैन विचार में बहुत से ऐसे विचार हैं जो फैक्चुअल हैं, बहुत से ऐसे विचार हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। उस माइथोलॉजी को बनाने के पीछे दूसरे कारण हैं। सोशल बैलेंस लाना कारण है, पॉलिटिकल बैलेंस लाना कारण है। जैसे, जैन विचार में ये भी बात है कि प्रकृति की ओर जिम्मेदार होना एक कॉज-कॉन्सीक्वेंस रिलेशनशिप (cause-consequence relationship) बनाएगा, नहीं करेंगे तो आप पर प्रकोप होंगे, जो तार्किक तौर पर जांचा जा सकता है, समझा जा सकता है। अब इसमें ये विचार भी है कि भई मेरू पर्वत हैं और उसके इर्द-गिर्द पूरी पृथ्वी घूम रही है, पूरा ब्रह्मांड घूम रहा है, जहां सात नरक हैं सात स्वर्ग हैं। तो ये बिल्कुल ही तथ्यपरक बात नहीं है। ये एक मेटाफर है, एक रूपक है जिसका एक संबंध रहा होगा तब के विचारकों के पास। लेकिन इसका मेरे साथ कोई संबंध नहीं है तो मैं इसे छोड़ सकता हूं। उसमें मेरे लिए जब जो वैलिड था, साबित करने योग्य था, उसे मैं लेता गया। उसके बाद उस पूरे विचारशास्त्र की ही जरूरत नहीं रही मुझे। उसमें से जो सत्य था वो मैंने ले लिया था और मैं आगे बढ़ चला। यात्रा हमेशा ये वाली रही है। मैंने खुद को न कभी जैन कहा है, न बौद्ध कहा है, न हिंदु कहा है, न वैदिक कहा है। संस्थानों के साथ मुझे बचपन से ही दिक्कत रही है। न मैं कभी ओशो पंथी बना हूं न जे. कृष्णमूर्ति का अनुयायी बना हूं। मैं पहली बार कृष्णमूर्ति की बायोग्राफी पढ़ रहा था पुपुल जयकर की लिखी। तब 16-17 साल का था। उसमें कृष्णमूर्ति ने एक बात कही थी जो मुझे लगा कि यार ये तो बढ़िया है, इस आदमी ने कह दी। उन्होंने कहा था कि “अगर आप मेरे पीछे आओगे तो सत्य के पीछे नहीं जा पाओगे” (If you follow me, you’ll cease to follow the truth)। जब उन्होंने खुद ने ये बात कह दी तो मेरी ही बेवकूफी होगी अगर फॉलो किया तो। ओशो आश्रम गया था, वही अपने स्पिरिचुअल शॉपिंग के दिनों में। वहां मैंने एक टेप निकालकर सब को दिखाई, वह वीडियो टेप आज भी उस आश्रम में है, जिसमें ओशो ने कहा है कि “ये तो प्रेम मिलाप है, हम लोग साथ में मिलकर मजे ले रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं। मेरे जाने के बाद, अगर मुझसे प्यार है आपको तो आप एक चीज मेरे लिए कर लेना, (If you really love me then just do one thing for me when I die, disperse…) ...सब अपने-अपने घर बोरिया-बिस्तरा बांधकर चले जाना। कोई आश्रम मत करना कोई दुकान मत खोलना”। तो ये बात तो जो आधे भी समझते हों उनके लिए उसने कह दी कि मेरे बाद कोई दुकानें मत खोलना। क्योंकि उसमें कहीं न कहीं सड़न आ जाती है, कहीं न कहीं विचार इवॉल्व होना थम जाता है। थ्योरी ऑफ ग्रैविटी गलत नही है। अगर सेब जमीन पर गिर रहा है तो क्यों गिर रहा है, वो प्रश्न सही है। उस प्रश्न के तुरंत बाद जो जवाब आता है कि भई क्योंकि ये गुरुत्वाकर्षण है। जो बड़ी बॉडी है वो छोटी बॉडी को अट्रैक्ट करती है इसलिए। वो गलत नहीं है पर वो अधूरा है। वो क्यों अधूरा है ये आइंस्टीन बताता है। उस प्रश्न का जवाब गुरुत्वाकर्षण होने में नहीं है। गुरुत्वाकर्षण जवाब होना ऐसा मान लेना है कि ये फंडामेंटल लॉ है प्रकृति का। जबकि वो फंडामेंटल लॉ नहीं है। प्रकृति का फंडामेंटल लॉ रिलेटिविटी है। शायद वो भी नहीं है, पर रिलेटिविटी ज्यादा क्रिस्पर लॉ है। रिलेटिविटी ने हमें कई दूसरी चीजें समझाईं। उससे ग्रैविटी गलत साबित नहीं होती है बल्कि वह इनकॉरपोरेट (समाहित) होती है। तो जो मैं मैट रिडली की बात बता रहा था कि मैं ये नहीं कहता कि कृष्णमूर्ति से स्मार्टर हूं पर मेरे पास ये फायदा है कि मैंने कृष्णमूर्ति को पढ़ा है। और मैं ये कह सकता हूं कि ये सब चीजें छोड़कर के एक बड़ा सच बनता हैं।

फ़िल्म ‘गाइड’ में आखिरी दृश्यों में राजू भगवा ओढ़े दर्शन वाली बातें कहता है। ‘शिप ऑफ थिसीयस’ से पहले कौन सी हिंदी फ़िल्मों में प्रभावी दर्शन आपको याद आता है?
दुर्भाग्य से मैंने ‘गाइड’ देखी नहीं है और ‘गाइड’ शायद वो फ़िल्म हो सकती हो, चूंकि देखी नहीं है तो ज्यादा क्या कह पाऊंगा। ऐसी अन्य कोई फ़िल्म मेरे ध्यान में आ नहीं रही है। अगर आप याद दिलाओ तो शायद बता सकूं। ऐसी कोई याद नहीं आ रही है जहां पर कोई बहुत ही महान संवाद हुआ हो।

‘सारांश’ में आखिरी दृश्य में जब पार्क में वह बूढ़ा जोड़ा बैठा होता है और कहता है कि “मौत आती है लेकिन जिंदगी चलती रहती है”, बेहद महीन स्तर पर वह है...
उस महीन स्तर पर तो तकरीबन हर हिंदी फ़िल्म में है। राज कपूर की फ़िल्मों में है। जो मैंने बचपन की फेवरेट्स बताईं ‘मेरा नाम जोकर’ या ‘उत्सव’... उतना तो उनमें और हर फ़िल्म में था। हर अच्छी फ़िल्म में कहीं न कहीं। मतलब वो गानों में भी जीवन के पहलू आ जाते हैं। जैसे हरियाली और रास्ता। फ़िल्म बहुत वाहियात थी पर गानों में बातें थीं। उतनी फिलॉसफी तो हिंदी फ़िल्मी गानों में अकसर रहती ही थी।

मैं कुछ शब्द बोलूंगा, आप उनसे क्या समझते हैं, एक शब्द में उत्तर दें...
मौत – चैलेंज
जिंदगी - प्रोसेस
पैसा – इररेलेवेंट टूल
नग्नता - सच्चाई
गालियां - जरूरी
खून – बहता लाल
दोस्ती - गहराई
फांसी – रिवेंज ऑफ स्टेट
फलसफा – लगातार बदलता

अपनी जिंदगी के फलसफे को थोड़ा और बताएं।
मैं मीनिंग ढूंढना चाहता हूं। फलसफा मेरा यही है कि मैं फलसफा ढूंढना चाहता हूं। चाहता हूं उसे इस तरह ढूंढ लूं कि इस्तेमाल हो सके जिदंगी बरकरार रखने में। जिदंगी से मेरा मतलब है कॉस्मिक लाइफ। मैं चाहता हूं कि जिंदगी बरकरार रहे, ब्रम्हांड में। और मुझे लगता है कि सही तरीके से उस फलसफे को ढूंढने से हम ऐसी जिंदगी बरकरार रख पाएंगे।

‘शिप...’ अब तक इतने फ़िल्म समारोहों में गई है, इतने लोगों ने देखी है तो फ़िल्म को लेकर सबसे खास तारीफ आपको किन-किन ने दी, जो छू गई?
फेसबुक पर किसी ने टिप्पणी की थी, हालांकि वो मेरे मुंह से मेरी ही तारीफ हो गई लेकिन उसे लेकर मैंने गर्व महसूस किया, कहीं न कहीं गाबोर वाली ही बात उसमें थी, जिसमें उसने कहा था कि “ये कमेंट उन सभी लोगों के लिए है जो आंसू बहा रहे थे ये सुनकर कि बेला टार रिटायर हुए हैं, उन्हें ग़मज़दा होने की जरूरत नहीं है क्योंकि अभी आनंद गांधी फ़िल्म बना रहे हैं”। ये मुझे बहुत ही प्रचंड बात लगी थी कि ये क्या कह दिया।

‘शिप...’ लोगों तक पहुंचेगी या इस फ़िल्म तक लोगों को खुद पहुंचना होगा?
दोनों। मुझे लगता है बीच में आना पड़ेगा। मैं लेकर आ रहा हूं लोगों तक। इस महीने रिलीज कर रहे हैं और अच्छी तरह रिलीज कर रहे हैं ताकि ऐसा न हो कि कुछ लोग ही देख पाएं। अब तक जितनी भी आर्ट हाउस फ़िल्में हुई हैं हमारे देश में, उनमें संभवतः ये सबसे बड़ी रिलीज होगी। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बीच तक आएं, बाकी रास्ता तय करने की मेहनत लोगों को करनी पड़ेगी।

क्योंकि अगर ज्यादा लोगों को नहीं दिखा पाए तो दोनों ही पक्षों को हानि होगी...
मुझे लगता है कि अंततः लोग देखेंगे ही देखेंगे। अंततः जिसको देखनी है वो फ़िल्म देख ही लेगा किसी न किसी तरह से। इस फ़िल्म की शेल्फ लाइफ भी बड़ी है। थोड़े सालों तक ये जीती रहेगी और लोग तब तक देख लेंगे।

Still from 'Ship of Theseus.' The movie is shot entirely on Canon EOS 1D MK4 DSLR Camera.
Anand Gandhi's 'Ship of Theseus' has surprised many prominent filmmakers and viewers in India. It has changed the perception of Indian films across the world via many International Film Festivals. Title of the movie is a thought experiment. It alludes to Theseus’ paradox, most notably recorded in Life of Theseus, wherein the Greek philosopher Plutarch inquires whether a ship that has been restored by replacing all its parts, remains the same ship.

Behind the movie is An unusual photographer grapples with the loss of her intuitive brilliance as an aftermath of a clinical procedure; an erudite monk confronting an ethical dilemma with a long held ideology, has to choose between principle and death; and a young stockbroker, following the trail of a stolen kidney, learns how intricate morality could be. Following the separate strands of their philosophical journeys, and their eventual convergence, Anand's movie explores questions of identity, justice, beauty, meaning and death.

Anand began his writing career in 2000 with popular TV show ‘Kyunki Saas Bhi Kabhi Bahu Thi’ (dialogues) and ‘Kahaani Ghar Ghar Kii’ (screenplay). Before 'Ship...,' Anand made 'Right Here, Right Now' (2003) and 'Continuum' (2006). Now, 'Ship of Theseus' is slated to release on July 19, 2013.
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Wednesday, July 3, 2013

बहुत विरोध हुआ घर पर, मैं आज्ञाकारी बेटी थी, पता नहीं कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं, मैंने पहली बार बग़ावत कीः नम्रता राव

 Q & A. . Namrata Rao, film editor .

Poster of 'Shuddh Desi Romance', a soon to be released Yash Raj film, edited by Namrata Rao.

मनीष शर्मा की फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमैंस’ की एडिटिंग में व्यस्त नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी. में नौकरी के बाद कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘इश्किया’, ‘लव से-क्-स और धोखा’, ‘शंघाई’ और ‘जब तक है जान’ एडिट कीं। ‘कहानी’ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए यह साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है। जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः

कहां जन्म हुआ? बचपन कैसा था? घर व आसपास का माहौल कैसा था?
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।

कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।

सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।

ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।

बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।

फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।

Namrata with Filmfare Trophy.
हाई-स्कूल और कॉलेज कहां से किया? उस दौरान फ़िल्में कितना देखना शुरू किया और तब चाव कितना बढ़ा?

दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।

फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।

सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।

संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।

तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।

आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।

जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।

मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।

किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।

जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।

ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।

डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।

फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।

दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।

अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।

आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।

नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।

फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।

आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।

मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।

कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।

अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।

आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।

कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।

आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।

आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।

डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।

सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।

फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।

इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जी के साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।

संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।

Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year.
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