Saturday, April 9, 2011

नो जी थैंक यू!

फिल्मः थैंक यू
डायरेक्टरः अनीस बज्म़ी
कास्टः अक्षय कुमार, सोनम कपूर, इरफान खान, रिमी सेन, बॉबी देओल, सेलीना जेटली, सुनील शेट्टी
स्टारः डेढ़ 1.5


साउथ के एक्टर चिरंजीवी को लेकर 1990 में एक फिल्म बनी थी। नाम था 'प्रतिबंध।' इसके राइटर थे 'थैंक यू' के डायरेक्टर अनीस बज्मी। अनीस ने उस फिल्म में चिरंजीवी को बनाया बॉम्बे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर सिद्धांत और जूही चावला को खिलौने बेचने वाली शांति। ये सारा का सारा खांचा 'जंजीर' और उसमें अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के कैरेक्टर्स से उठाया गया। अनीस की वो इमेज और एटिट्यूड 'थैंक यू' में भी जिंदा है। ये फिल्म आसानी से टाली जा सकती है। अक्षय कुमार ने अपने पिता के नाम पर बनाई 'हरि ओम प्रॉडक्शंस' तले एक और बुरी फिल्म प्रॉड्यूस की है। एक बांसुरी बजाते मसीहा की कहानी सोचे जाने तक तो ठीक थी, पर स्क्रिप्ट, एक्टिंग और डायरेक्शन की प्रक्रिया में उसे बिखेर दिया गया। एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स का इश्यू भी सीरियस था पर क्रेडिट्स में राइटर्स की जगह जो चार-पांच नाम आते हैं, वो मिलकर भी इसे एक डीसेंट कहानी नहीं बना सके। थियेटर में लोग हंसते जरूर हैं पर फिल्म हिस्ट्री में इस मूवी का नाम कभी याद नहीं रखा जाएगा। न देखें तो बेहतर।

कहें कहानी
इंडिया से बाहर की तमाम खूबसूरत लोकेशन कभी हमारे कैरेक्टर्स का घर बनती हैं तो कभी नाचने-कूदने की जगह। खैर, इस पर गौर भी न करिएगा कि ये कहानी है कहां की। बस सुनिए। तीन दोस्त हैं। विक्रम (इरफान खान), राज (बॉबी देओल) और योगी (सुनील शेट्टी)... इनकी वाइफ हैं शिवानी (रिमी सेन), संजना (सोनम कपूर) और माया (सेलीना जेटली). मैन आर डॉग, जो घर से बाहर मुंह मारते रहते हैं, इसी अंग्रेजी कहावत पर एक और कहानी। तीनों पति एक-दूसरे के दोस्त, बिजनेस पार्टनर और अय्याशियों में राजदार हैं। एक बार संजना को अपने पति राज पर शक हो जाता है। यहां आना होता है माया के दोस्त किशन (अक्षय कुमार) का, जो एक प्राइवेट डिटैक्टिव है। ये बात पतियों को नहीं पता। इससे आगे कोई कहानी नहीं है बस टुकड़ों में बंटे सीन हैं, जो कभी हजम होते हैं कभी नहीं। जाहिर है आखिर में ये तीनों मर्द रंगे हाथों पकड़े जाएंगे, पर लाख टके का (मगर मालूम) सवाल ये है कि फिर क्या होगा? इनकी वाइफ क्या करेंगी? किशन का मकसद क्या है? घबराने की बात नहीं। ये सवाल जितने सीरियस यहां पढऩे में लग रहे हैं उतने, मूवी देखने के दौरान नहीं लगेंगे।

इतनी ढिलाई क्यों?
तीनों हीरोइन दोस्त हैं। एक मॉल में जब पहली बार मिलती हैं तो हाय-हैलो कहते वक्त उनके होठों से वॉयसओवर बिल्कुल नहीं मिलता। एक मल्टीस्टारर और घोर कमर्शियल फिल्म में ये छोटी-छोटी भद्दी गलतियां देखनी पड़ जाएंगी ये सोचा न था। कुछ ऐसा ही होता है अक्षय कुमार के कैरेक्टर के इंट्रोडक्टरी सीन में। टोरंटो जैसे किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर लेटे किशन अंग्रेजी बांसुरी बजा रहे हैं और उनके होठ सिले पड़े हैं। वो बांसुरी में फूंक नहीं रहे पर उसमें से प्रीतम का म्यूजिक निकल रहा है। फिल्म में मुन्नी और शीला के मुकाबले रजिया को उतारा गया। रजिया गुंडों में फंस गई... इस गाने में बस ये पांच शब्द हैं जो नए या रोचक जुमले से लगते हैं। बेहतर होता अगर इनका इस्तेमाल किसी 20 सैकंड के एड में कर लिया जाता। क्योंकि यहां इस गाने में और कुछ भी नहीं है। मल्लिका शेरावत गैरजरूरी और बेढंगी लगीं, अब उन्हें सोच-समझकर कपड़े उतारने चाहिए। एक सेकंड के लिए भी उन्हें या उनके डांस को देखना मुश्किल हो जाता है। डायलॉग कहीं-कहीं काफी फनी हैं और कहीं औसत। मसलन इरफान के कैरेक्टर का ये डायलॉग... औरत को ऋषि-मुनी नहीं समझ सके तो मैं कैसे समझूंगा। फर्स्ट हाफ में फिल्म एडल्ट कंटेंट और भाषा वाली लगती है। लगता है कि कमर्शियल कारणों से ही एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स जैसे गंभीर इश्यू में ऐसी मिलावट की गई। इस पर भी कुछ कमी न रह जाए तो पुराने फिल्मी मसालों में से करवा चौथ का सीक्वेंस उठाकर डायरेक्टर अनीस बज्मी ने यहां लगा लिया।

घिस रहे हैं फ्लॉप चिराग
फिल्म का पहला हाफ देखकर लगता है कि इरफान खान ने (फीस को छोड़ दें तो) अपनी जिंदगी की सबसे व्यर्थ फिल्म चुनी है। सेकंड हाफ में वो तीन-चार अच्छे गुदगुदाने वाले सीन देते हैं। जब इरफान की वाइफ बनी रिमी बताती है कि उसने सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली है तो बीवी पर शेर बने रहने वाले इस कैरेक्टर की आवाज हलक में अटक जाती है। पूरी फिल्म में ये पहला और शायद आखिरी कंप्लीट ह्यूमरस सीन है। इसके अलावा सब कैरेक्टर्स को भांत-भांत के ढेरों फैशनेबल कपड़े पहनाने में 'थैंक यू' जरूर एक सीरियस मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में अपनी वाइफ को मनाने के लिए इरफान का अक्षय से हेल्प मांगने वाला सीन भी छोटा मगर रिझाने वाला है। सोनम कपूर को देखना किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। ये संजय लीला भंसाली ही थे जिन्होंने रणबीर-सोनम को 'सांवरिया' में अदभुत रूप में पेश किया, बस उसके बाद से दर्शक इस हीरोइन को झेल ही रहे हैं। न वो रो पाती हैं, न हंस पाती हैं। ऐसा लगता है जैसे दो दिन से उन्हें खाना नहीं दिया गया है। मुकेश तिवारी तो 'गोलमाल सीरिज' के टाइम से ही साइड किक डॉन बनकर रह गए हैं। वही मूछें, वही बाल और आस-पास काली टी-शर्ट में पिस्टल पकड़े गुर्गे। न लुक में कोई फर्क है न डायलॉग डिलीवरी में और न ही रोल में।

थोड़ी एक्टिंग होती तो अहसान होता
मूवी में सबसे ज्यादा इरिटेट किया है एक्टर्स की एक्टिंग ने, जो उन्होंने की ही नहीं। करोड़ों की फीस लेते हैं, स्टार्स बने बैठे हैं पर बस एक्ट ही नहीं करते। अगर इसका दोष भी डायरेक्शन और स्क्रिप्ट पर डाला जाए तो सिरफिरी फिल्में पहले भी होती थी। प्राण, जगदीप, धर्मेंद्र, सुनील दत्त और असरानी ये कुछ पुराने नाम हैं, जो फिल्ममेकिंग की बाकी कमतरी को अपने अभिनय से ढकते थे। फिर अरुणा ईरानी, कादर खान, गुलशन ग्रोवर और अनिल कपूर जैसे नाम भी रहे जिन्होंने पूरे करियर में एक भी फिल्म में ढीली एक्टिंग नहीं की, फिल्में भले ही घटिया रही हों। पर क्या करें हमारे गोरे दिमाग वाले इंडियन अक्षय कुमारों, बॉबी देओलों और सोनम कपूरों का जिन्हें कैमरे के लेंस के पीछे बैठे ऑडियंस नजर नहीं आते। अक्षय और सोनम के बीच हर फ्रेम में उम्र के तालमेल का टकराव साफ दिखता है। वो भी असहज होते रहते हैं, हम भी। उल्टे सुनील शेट्टी कई सपाट फिल्मों के बाद यहां कुछ अलग करने की कोशिश करते दिखते हैं।

आखिर में...
शुरू होने से पहले ही अहसास हो जाता है कि ये 'मस्ती' और 'नो एंट्री' की सीधी नकल है। क्लाइमैक्स में कुछ देर के लिए हीरो जेल पहुंचते हैं तो यहां आते-आते ये 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया' बन जाती है। आखिर में 'बावर्ची' के राजेश खन्ना की तरह रिश्तों के जग में उजियारा फैलाने वाले मसीहा बनकर अक्षय कुमार चौंकाते कम और हमारा मजाक बनाते ज्यादा लगते हैं। मुझे यकीन नहीं होता कि (ऑरिजिनल हो या किसी दूसरी फिल्म से प्रेरित) इन्हीं अनीस बज्मी ने 'सिर्फ तुम', 'प्यार तो होना ही था', 'दीवाना मस्ताना', 'लाडला', 'राजा बाबू', 'गोपी किशन' और 'आंखें' जैसी फिल्में और उनके डायलॉग लिखे थे। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 2, 2011

बिन थ्रिल का कैसा गेम

फिल्मः गेम
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः अभिषेक बच्चन, साराह जेन डियेज, बोमन ईरानी, जिमी शेरगिल, कंगना रानाउत, शहाना गोस्वामी
स्टारः डेढ़, 1.5


'गेम' के डायरेक्टर अभिनय देव अपनी इस फिल्म के साथ क्लासिक थ्रिलर्स के दौर को वापिस ले आने की बातें कर रहे थे। पर ऐसा हो नहीं पाया। फिल्म बनाना तो वैसे भी किसी एड फिल्म को बनाने से बिल्कुल अलग होता है, ऐसे में ये तो बेहद कठिन जॉनर था। हर सेकंड ऑडियंस को सीट की एज पर रखना जरूरी होता है। जैसा कि क्लासिक दौर में 'हमराज', 'मेरा साया', 'कोहरा', 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वैलथीफ' जैसी फिल्मों में था। 'गेम' में आत्मा जरूर इन फिल्मों वाली है पर इनका ट्रीटमेंट हॉलीवुड फिल्मों जैसा है। याद रखने की बात ये थी कि ऑडियंस आज भी हिंदुस्तानी हैं और उससे भी पहले एक डिमांडिग वॉचर है। फिल्म का क्लाइमैक्स ही आधे-अधूरे ढंग से सीट पर रोककर रखता है, उससे पहले का सारा वक्त बावलों की तरह बैठे-बैठे बीतता है। ये एक ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बजाय आप डीवीडी पर 'बॉर्न आइडेंटिटी' के सारे पार्ट देखकर अच्छा टाइम स्पैंड कर सकते हैं। यकीन मानिए नहीं देखेंगे तो ज्यादा कुछ मिस नहीं करेंगे। अब सिर्फ अभिषेक बच्चन को ही देखने थियेटर जाना है तो बात अलग है।

मिस्ट्री में क्या है...
ऑडियंस को ग्रिप में लेने के लिए मुंबई में 22 अगस्त, 2007 की रात से बात शुरू की जाती है। अंधेरी रात में एक लड़की सूनसान सड़क पर जा रही है और एक गाड़ी उसे उड़ाकर चली जाती है। अब ग्रिप लूज होती जाती है। हम पहुंच जाते हैं ग्रीस के सामोस में। बिलियनेयर कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) का यहां अपना एक द्वीप हैं। इनकी असिस्टेंट हैं समारा श्रॉफ (गौहर खान), इन्होंने दुनिया के चार अलग-अलग शहरों से चार लोगों को बुलाया है। पहले हैं विक्रम कपूर (जिमी शेरगिल), मूवी स्टार हैं। दूसरे हैं ओ. पी. रामसे (बोमन ईरानी) जो थाइलैंड में पीपुल्स पार्टी की तरफ से प्राइम मिनिस्टीरियल कैंडिडेट हैं। तीसरी हैं तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) जो लंदन में क्राइम जर्नलिस्ट हैं। चौथे हैं हमारे अभिषेक बच्चन जो नील मेनन का रोल प्ले कर रहे हैं। तुर्की के इस्तांबुल के सबसे बड़े कसीनो के ओनर हैं। इन चारों के अपने-अपने पास्ट हैं, उससे बचने के लिए ये कबीर मल्होत्रा के पास जाने को राजी हो जाते हैं। जब ये सब सामोस पहुंचते हैं तो कबीर मल्होत्रा अपनी बेटी माया (साराह जेन डियेज) की मौत के लिए इनमें से तीन को जिम्मेदार ठहराता है और तिशा से कहता है कि वो उसकी दूसरी बेटी है। यहां तक कहानी बिल्कुल अलग ट्रैक पर चल रही होती है। अगले ही मोड़ कबीर मल्होत्रा का खून हो जाता है। स्पेशल इनवेस्टिगेशन ऑफिसर सिया अग्निहोत्री (कंगना रनाउत) यहां पहुंचती हैं। आप सोच रहे होंगे कि कहानी को इतनी डिटेल में क्यों सुना रहा हूं। दरअसल जिन फिल्मों को थियेटर में जाकर देखने का धर्म नहीं होता उन थ्रिलर्स की कुछ मिस्ट्री खोल भी दें तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। खैर, चारों यहां से चले जाते हैं और फिर किसी कारण से कहानी आगे बहुत सारे नए ट्विस्ट और टर्न से गुजरती है। नील माया से प्यार करता था, वह उसकी मौत का बदला लेने के लिए ओ. पी. रामसे और विक्रम के पीछे जाता है। फिल्म क्लाइमैक्स तक आते-आते बिल्कुल अलग हो चुकी होती है। नील की सच्चाई कुछ और ही निकलती है और कबीर मल्होत्रा का कातिल कोई अनएक्सपैक्टेड ही होता है।

लक्ष्य क्या है तुम्हारा
फिल्म शुरू होती है तो क्रेडिट्स में एक्सेल एंटरटेनमेंट के बैनर में बनी 'लक्ष्य' फिल्म की धुन अच्छा फील करवाती है। बस पहले पहल ही। उसके बाद ऑडियंस को धीमा जहर दिया जाने लगता है। मूवी के आखिरी बीस मिनटों को छोड़ दें तो थ्रिल जैसा कुछ नहीं लगता है। थ्रिलर फिल्म में किरदारों के चेहरों पर सिचुएशन के हिसाब से आने वाले इमोशन ही सबसे बड़ा रोल निभाते हैं। 'गेम' में ये रिएक्शन बड़े बेसिक से हैं। बोमन चिल्लाते हैं, जिमी डरते हैं, शहाना कन्फ्यूज करती हैं और अभिषेक हीरो माफिक बने रहते हैं। कंगना के सर्जरी करवाए हुए होठ अजीब लगते हैं और वो बैचेनी में पेन हिलाने के अलावा एक इनवेस्टिगेशन ऑफिसर के रोल को कुछ और नहीं दे पाती। अनुपम खेर के मुंह से 'ये 30 साल पहले की बात है, ये तीन साल पहले की बात है' के डायलॉग वाकई तीस साल पहले के डायलॉग ही लगते हैं। ये और बात है कि डायलॉग्स को तीस साल से पहले पैदा हुए फरहान अख्तर ने लिखा है।

बनाने वालों ने क्या बना डाला
कंगना के कैरेक्टर की एंट्री से फिल्म में कुछ जान आती है पर डायरेक्टर अभिनय देव की नाकामयाबी यहां हावी रहती है। उनका डायरेक्शन बेहद सतही है। उन्हें चीजों को ड्रमैटिक करना बिल्कुल नहीं आता है। एलन अमीन के एक्शन दृश्यों को छोड़ दें तो फिल्म के किसी सीन में बिल्कुल जान नहीं है। ये एक्शन दृश्य भी इंग्लिश फिल्मों का हिस्सा लगते हैं, हमारी 'गेम' के प्लॉट का हिस्सा नहीं लगते हैं। सामोस, बैंकॉक, लंदन, इस्तांबुल और इंडिया जैसे बड़े स्कैल को कहानी में शामिल करके मूवी को मैग्नम ओपस बनाने की कोशिश तो की जाती है पर सिर्फ यही पैमाना होता तो डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्रैफिक के हर आधे घंटे के प्रोग्रैम को इंडिया के थियेटरों में रिलीज किया जाता।

आखिर में...
सेकंड हाफ के बाद अभिषेक बच्चन के कैरेक्टर नील के मॉर्निंग वॉक पर जाने का चेसिंग सीन फिल्म में सबसे इंटे्रस्टिंग है। इसमें वह इस्तांबुल की गलियों, बाजारों और पब्लिक प्लेसेज से होते हुए दौड़ रहे होते हैं। कुछ सेकंड्स के लिए 'रॉक ऑन' के डायरेक्टर अभिषेक कपूर भी एक डायरेक्टर के ही कैमियो में नजर आते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, March 12, 2011

ऐसे एलियन अटैक बहुत देखे हैं जी

फिल्मः बैटलः लॉस एंजेल्स और वर्ल्ड इनवेजनः बैटलफील्ड लॉस एंजेल्स
डायरेक्टरः जोनाथन लीब्समैन
कास्टः एरॉन एकार्ट, मिशेल रॉड्रिग्स, माइकल पेना, नजिंगा ब्लेक, ने-यो, ब्रिजेट मॉयोनाहन
स्टारः ढाई स्टार 2.5

जब 1971 के भारत-पाकिस्तान वॉर की ब्लैक एंड वाइट क्लिप्स दूरदर्शन पर नजर आती थी तो उसमें रेगिस्तान सी जमीन पर गोलियां चलाते बहुत सारे सैनिक दिखते थे, किसी की शक्ल या कोई एक कहानी नहीं दिखती थी ये एक बात है जो हॉलीवुड फिल्म 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में भी है। फिल्मी माध्यम के लिए ये एक घातक पहलू हो जाता है जब इस तरह के विषयों वाली फिल्म में कोई व्यक्तिगत मुकाबला हीरो और विलेन में नहीं होता। पूरी फिल्म में एलियन हमलावरों की शक्ल नहीं दिखती या किसी अमेरिकन सैनिक से सीधा मुकाबला नहीं दिखता है। सब ग्रुप्स में है। उधर से भी गोलिया चल रही हैं, इधर से भी। बस बीच में आधा दर्जन दूसरी हॉलीवुड फिल्मों के प्लॉट हैं, जो किसी फटे पैजामे पर पैबंद की तरह लगते रहते हैं। सब-कुछ किसी वीडियोगैम जैसा है। कम ह्यूमन और ज्यादा मशीनी। फिल्म का एक और निराशाजनक पहलू है, किसी ऑरिजिनल बैकग्राउंड स्कोर या म्यूजिक का न होना। अगर डर, हमले, मुकाबले, साहस और जीत के इमोशन से जुड़ी कोई धुन इनवेंट की जाती तो लॉस एंजेल्स का ये नकली बैटल असली लगता। टाइम पास से जरा सी कम मूवी है, कोई दूसरा ऑप्शन नहीं हो तो ही देखिएगा।

एलियन कहां से आएः कथा
कहानी आज ही के वक्त की है। अब से पहले की जितनी अफवाहें एलियंस को लेकर थी वो लॉस एंजेल्स की धरती पर सच हो गई हैं। बाहरी ग्रह की अंजानी ताकतों ने हमला कर दिया है। मरीन स्टाफ सार्जेंट माइकल (एरॉन एकार्ट) को एक नई प्लाटून के साथ कुछ सिविलियंस को बचाने और वहां बम फटने से पहले इवैक्यूएशन करने का काम सौंपा जाता है। प्लाटून में एक यंग ऑफिसर के अंडर उन्हें काम करना है। एक्सपीरियंस और क्षमता उनकी ज्यादा है। ये उलझन है, तो सिर पर बड़ी मुसीबत है एलियन अटैक की। आखिर में उनका उद्देश्य सिर्फ इस छोटे मिशन से बढ़कर पूरे अमेरिका और पूरी दुनिया की रक्षा करना हो जाता है। इस फिल्म में अगर सबसे ज्यादा सही अनुमान लगाने लायक कुछ है तो वो है इसकी कहानी।

विश्व तबाही पर फिल्में
इसमें कोई नई बात नहीं कि इन फिल्मों में हर बार एलियन का अटैक अमेरिका पर ही होता है, और फिर अमेरिकन उन्हें हराकर पूरी दुनिया को बचा लेते हैं। मुझे लगता है कि अगर इस मूल रवैये में बदलाव न भी हो, तो कम से कम हमले के तरीके और दुनिया को बचाने के तरीके में तो कुछ नया किया ही जा सकता है। स्टीवन स्पीलबर्ग की 'सेविंग प्राइवेट रायन' में टॉम हैंक्स की प्लाटून के जिम्मे युद्ध क्षेत्र से एक यंग सैनिक को बचाकर लाने काम आता है, तो यहां एरॉन एकार्ट को चंद पुलिसवालों (जो मारे जा चुके हैं) को बचाना है। 'ब्लैक हॉक डाउन' में भी सोमालिया में भेजी अमेरिकी टुकड़ी की यही कहानी होती है। दोनों ही फिल्मों और 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में सेना की टुकड़ी मिशन पर निकली है और सामने खतरे बहुत बड़े हैं। क्लाइमैक्स में लॉस एंजेल्स से एलिंयस का सफाया करने के बाद एरॉन एकार्ट का कैरेक्टर प्लाटून के साथ कैंप में लौटता है और बिना आराम किए फिर दूसरे शहर के लिए निकलने को तैयार होने लगता है। अपना असला भरने लगता है। ये सिचुएशन बिल्कुल 'ब्लैक हॉक डाउन' के क्लाइमैक्स से मिलती है।

इस सब्जेक्ट पर खास काम
इस विषय पर बनी फिल्मों में 'डिस्ट्रिक्ट नाइन' सबसे अलग रही है। ये पहली एलियन विषय वाली मूवी थी जो अमेरिकन एंगल से नहीं बनी थी। इसकी कहानी साउथ अफ्रीका की धरती पर करवट लेती है। जेम्स कैमरून की 'अवतार' का एक एंगल हॉलीवुड मूवीज के लिहाज से समाजवादी रहा और ये 'बैटल:लॉस एंजेल्स' से भी मिलता है। उसमें अमेरिकी पैंडोरा ग्रह पर जाते हैं, वहां के नेचरल रिर्सोसेज पर कब्जा करने और वहां की लोकल कौम को मिटाने। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में अमेरिकी मीडिया के विजुअल्स दिखते हैं। इनमें एक विशेषज्ञ का कमेंट होता है, 'हर विदेशी अटैक सबसे पहले रिर्सोसेज के लिए होता है। अटैक करने वाले वहां की मूल जनता, देशज जनता को खत्म करते हैं। ऐसे ही उपनिवेश यानी कॉलोनाइजेशन शुरू होता है। अमेरिका का कॉलोनाइजेशन शुरू हो चुका है।'

एंटरटेनमेंट वाली बात
'इंडिपेंडेंस डे', 'मैन इन ब्लैक', 'ट्रांसफॉर्मर्स' और 'टर्मिनेटर' इस कैटेगरी की सबसे एंटरटेनिंग मूवीज हैं। इनमें कॉमेडी, देश पर खतरा, एलियन से डर, वीक कॉमन मैन और मजबूत कॉमन मैन जैसे तत्व है, जो इस तरीके से मिलाए गए हैं कि इन फिल्मों की एक रिपीट वैल्यू बन गई है। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में इन सब तत्वों की कमी पड़ती है। एरॉन एकार्ट और टेक्नीकल सार्जेंट एलेना सेंटोज बनी मिशेल रॉड्रिग्स इस फिल्म के दो ऐसे चेहरे हैं जो फिल्म से जोड़े रखते हैं। वजह शायद ये रही एरॉन हाल ही में बहुत पसंद की गई 'रैबिट होल' में दिखे थे और मिशेल 'रेजिडेंट ईविल' और 'अवतार' जैसी फिल्मों में खुद को ऐसी फिल्मों की खास एक्ट्रेस साबित कर चुकी हैं। इस फिल्म में एक ह्यूमन आस्पेक्ट जो आकर्षित करता है वो है एरॉन के कैरेक्टर का एक्सपीरियंस्ड होते हुए भी एकेडमी से नए निकले लुटेनेंट के अंडर में काम करना। पर बाद में ये अनुभवी स्टाफ सार्जेंट हीरो बनकर उभरता है। डायरेक्टर जोनाथन ने टेक्नीकली फिल्म में नई चीजें की है। उन्होंने थ्री-डी कैमरा से शूट नहीं किया है। ये दिखता भी है। इससे गली के शॉट और बाकी सीन रॉ लगते हैं। एक दो जगहों पर ही सही दर्शक कुर्सियों के सिरों पर रहते हैं।

आखिर में...
फिल्म देखते वक्त मुझे 'द सोशल नेटवर्क' के ओपनिंग बैकग्राउंड स्कोर की याद आई। उस म्यूजिक ने मार्क जकरबर्ग की फिल्मी कहानी को एक नई पहचान दे दी थी। काश, जोनाथन लीब्समैन ने अपनी लॉस एंजेल्स पर हमले वाली इस फिल्म में म्यूजिक पर कुछ ऐसा ही भरोसा किया होता। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 27, 2011

127 घंटों का हौसला

फिल्मः 127 आवर्स
निर्देशकः
डैनी बोयेल
कास्टः जेम्स फ्रैंको
स्टारः साढ़े तीन 3.5

उन लोगों के लिए '127 आवर्स' एक डॉक्युमेंट्रीनुमा छोटी और साधारण फिल्म हो सकती है जो इसे बिना खास कोशिश के देखेंगे डैनी बॉयेल की इस फिल्म का सबसे ज्यादा मजा लेना है तो आप एक फिल्म राइटर, डायरेक्टर या स्टोरीटेलर बनकर इसे देंखे। या फिर आपको इंसानी जज्बे और संघर्ष की कहानियों से लगाव हो। अगर ये सब नहीं है, तो ये फिल्म आपको बोरिंग भी लग सकती है और आखिरकार इंस्पायरिंग भी। साइमन बुफॉय और डैनी की लिखी '127 आवर्स' में बिना ड्रामा के भी बहुत सारा ड्रामा और फिल्मीपन दिखता है। यही इसकी खासियत भी है। अगर तालियां बजाने, पॉपकॉर्न खाने और फन के लिए जाना है तो न जाएं। लेकिन अपनी फैमिली की, एक बूंद पानी की, अपने प्यार की, बचपन की यादों की, मुश्किल वक्त की, हिम्मत की, हौसले की, जिंदगी की और मौत की कहानी सुनना चाहते हैं, तो दिल बड़ा रखकर जरूर जाएं। एक बड़े इरादों वाली छोटी सी फिल्म आपका इंतजार कर रही है।

सत्य है स्टोरी
ये ऑटोबायोग्राफिकल फिल्म अमेरिका के एक माऊंटेन क्लाइंबर एरॉन रेलस्टन (जेम्स फ्रैंको) की जिंदगी पर बनी है। 2003 की बात है। हमेशा की तरह अपनी स्पीड से चल रहे अमेरिका में एरॉन अपनी ही तैयारी में है। भीड़-भाड़ से दूर केनियनलैंड नेशनल पार्क में वह रात के स्टे के बाद सुबह अपनी बाइसाइकल पर ब्लू जॉन केनियन के पथरीले-धूल भरे इलाके में एडवेंचर करने निकलता है। बिल्कुल आश्वस्त से एरॉन का एडवेंचर और जिंदगी उस वक्त थम जाती है जब केनियनरिंग (माउंटेनियरिंग) करते हुए एक बड़ी चट्टान के बीच दरार में उसका हाथ बड़े पत्थर के नीचे दब जाता है। दूर-दूर तक उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है। कोई है तो एरॉन के मरने का इंतजार करती सिर पर मंडरा रही चील, नीचे रेंग रही चींटी और एक गिरगिट। अब तय है कि वह बड़ा सा पत्थर उसके हाथ पर से नहीं हटेगा... तो एरॉन क्या करेगा? ये 127 घंटे यानी पांच दिन उसकी हिम्मत का कैसे इम्तिहान लेते हैं? ये सवाल क्लाइमैक्स में सुलझते हैं। हालांकि एरॉन के नॉवेल 'बिटवीन अ रॉक एंड अ हार्ड प्लेस' को पहले पढ़ा जा सकता है।

डैनी की बात
फिल्में कैसी हों? कमर्शियल मसाला वाली या आर्टिस्टिक रिएलिटी पर आधारित? इस लंबी और अभी आगे भी चलने वाली बहस का एक जवाब डैनी बोयेल की ये फिल्म है। एक ऑटोबायोग्रफी जिसमें हर तरह के इमोशन और ड्रामा हैं, रिएलिटी भी है, सिनेमैटिक एक्सिलेंस भी है, फिल्ममेकिंग में जुड़ती नई चीजें भी हैं। ऐसा लगता है कि 'स्लमडॉग मिलियनेयर' के लिए ऑस्कर जीत चुकने के बाद '127 आवर्स' को उन्होंने ऑस्कर के बोझ तले दबकर नहीं बनाया है। एकदम फ्रैश माइंड से बनी फिल्म लगती है, जिसमें एक फिल्ममेकर के तौर पर खुद को प्रूव करने की कोई कोशिश नहीं है। इंसानों से रहित दुनिया डैनी को आकर्षित करती है। वो एक्ट्रीम ऑपोजिट्स में मूवी बनाते हैं। भीड़ वाली बनाएंगे तो 'ट्रैनस्पॉटिंग' जैसी नशीली, बदबूदार और चिपचिपाहट वाली फिल्म चुनेंगे। फिर 'स्लमडॉग मिलियनेयर' बनाएंगे। इसमें उनकी फिल्म बनाने की ब्रिटिश शैली बॉलीवुड के रास्ते चलती है। वो यहां दो भाइयों के 'दीवार' वाले फॉर्म्युले के साथ अनिल कपूर को लेते हैं और 'हू वॉन्ट्स टु बी ए मिलियनेयर' के टीवी ड्रामा को भी। जब भीड़ के उलट अकेलेपन को लेंगे तो '28 डेज लेटर' बनाएंगे, जिसमें सूनसान लंदन की सड़कें दिखेंगी। अब पूरी '127 आवर्स' भी है। इसमें मोटा-मोटी एक ही कैरेक्टर है और उसे निभाया है जेम्स फ्रैंको ने।

आखिर में...
# जेम्स फ्रैंको के इस रोल के लिए कोई भी एक्टर जिंदगी भर इंतजार करेगा। हर घंटे के साथ उनका फीका पड़ता चेहरा और कमजोरी दिखती है, साथ ही उनके एटिट्यूड में आस से भरी चिंगारी भी। दोनों को साथ रख पाना मुश्किल काम होता है, पर उन्होंने करके दिखाया।
# ए. आर. रहमान के म्यूजिक वाला आखिरी गाना इफ आई राइज... फिल्म में मेरा फेवरेट है। आवाज भी रहमान और डीडो की है। इस फिल्म के साथ रहमान ने अपने म्यूजिक को 'स्लमडॉग मिलियनेयर' से आगे ले जाने की कोशिश की है और वो इसमें सफल भी रहे हैं। एरॉन के संघर्ष के पलों में हल्की तबले की थाप और हल्की वीणा की झंकार भी दिल हुमार लेती है।
# फिल्म के शुरू में क्रेडिट्स पेश करने का तरीका भा गया। स्क्रीन तीन हिस्सों में बांटकर दुनिया के कुछ भीड़ भरे सीन और खेल दिखाए जाते हैं। बस क्रेडिट्स में ही। खेल और खेलों की विनिंग स्पिरिट शायद इस शुरू के सीन का संदर्भ है। बाद में इसमें एरॉन की कहानी जोड़ दी जाती है। फिल्म जब खत्म होती है तो पता चलता है कि डैनी बोयेल ने शुरू के क्रेडिट्स में वैसे भीड़भरे रशेज क्यों डाले थे। इसके साथ ही फिल्म एक पूरा सर्कल ले लेती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 26, 2011

एक फेरा तनु-मनु और पप्पी जी का

फिल्मः तनु वेड्स मनु
निर्देशकः आनंद एल. रॉय
कास्टः आर. माधवन, कंगना रानाउत, दीपक डोबरियाल, स्वरा भास्कर, एजाज खान, राजेंद्र गुप्ता, जिमी शेरगिल
स्टारः तीन स्टार 03

अच्छी बात ये है कि 'तनु वेड्स मनु' बॉलीवुड की कोई फिक्स फॉर्म्युला वाली लव स्टोरी नहीं है। ये अरैंज्ड मैरिज वालों की फिल्म है, जिन्हें कॉलेज या बस स्टॉप पर प्यार नहीं होता। होता है तो सूरज बड़जात्या की 'विवाह' की तरह पहली बार लड़की देखने उसके घर जाने के वक्त से होता है, फिर टूटता-बिखरता रहता है। गुंजाइश थी कि ये इंटरवल के बाद 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' जैसी ड्रमैटिक या लंबे-लंबे डायलॉग वाली फिल्म हो जाती, पर डायरेक्टर आनंद राय ने तनु-मनु के प्यार की जर्नी को उससे बिल्कुल अलग रखा है। ये फिल्म 'ब्रेक के बाद' और 'आई हेट लव स्टोरीज' की तरह फेक या कॉस्मेटिक्स में दबी परतों वाली मूवी भी नहीं है। हां, इतना जरूर है कि कम उम्र वाली जेनरेशन के मन में पप्पीजी, मन्नू, तनु और पायल की कई अदाएं हमेशा के लिए बस जाएंगी। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें एक बार देखा जा सकता है, मगर 'तनु वेड्स मनु' एक ऐसी फिल्म है जिसे एक बार तो जरूर देखना चाहिए। फिल्म का एक भी सेकेंड बासी नहीं लगता, ये मनोरंजन के मामले में कम-बेशी लग सकती है। जो भी हो ऐसी फिल्में जरूर बनती रहनी चाहिए।

आशकां दा दरस
एक बड़ी इनोवेटिव सी स्टार्ट के बाद हम पहुंच जाते हैं चमनगंज कानपुर। लंदन में डॉक्टर मनोज शर्मा उर्फ मनु (आर. माधवन) अपने मां-पिता और दोस्त पप्पी (दीपक डोबरियाल) के साथ आया है त्रिवेदी जी (राजेंद्र गुप्ता) के घर उनकी लड़की तनुजा उर्फ तनु (कंगना रानाउत) को देखने। लड़की को जैसे-तैसे देखने के बाद वह हां कर देता है, पर शादी नहीं होती। अब हम पहुंचते हैं कपूरथला। यहां मनु के दोस्त जस्सी (एजाज खान) और तनु के साथ दिल्ली में पढ़ी बिहार की पायल (स्वरा भास्कर) की शादी है। बगावती और रॉकेट से तेज तनु और भलाई पुरुष मनु यहां भी मिलते हैं। फिर कुछ दिक्कतें सामने आती हैं। अपने अलग ही रंग के साथ मूवी आगे बढ़ती है। फिल्म की प्रेजेंटेशन और फिल्म की कॉमन मैन वाली दुनिया सबसे खास है, जो कहीं भी ग्लैमर-एंटरटेनमेंट कोशंट को कम नहीं होने देती।

एक्सक्लूसिव कॉमन लोग
कानपुर, दिल्ली और कपूरथला की छतें एक्सक्लूसिवली आपको यहां दिखेंगी। छतों पर पप्पी और मनु की खाट दिखती हैं। इनके साथ घर का सामान, छत पर बने कमरे का पुराना घिसा हुआ लकड़ी का दरवाजा, रस्सी पर और इधर-उधर सूखते रोजमर्रा के फीके कपड़े इस घर को फिल्मी नहीं असल रिहाइश बना देते हैं। ऐसी ही मेहनत कैरेक्टर्स पर हुई है। मूवी को खास लोकल और कॉमन कैरेक्टर्स वाली बनाने में मदद करते हैं आस-पास मोहम्मद रफी के पुराने गाने, गोविंदा के टिपिकल ट्रक-टैक्सी छाप गाने, ओल्ड मॉन्क का पव्वा, टीवी पर चलता सीरियल 'बालिका वधू', डिस्कवरी पर घोड़े-घोड़ी
के प्रेम और सहवास की बातें, विविध भारती पर अमीन सयानी की आवाज में फिल्मी गानों का फरमाइशी प्रोग्रैम और क्लाइमैक्स में किसी असल अंधेरी सड़क पर आमने-सामने खड़ी दो बारातें। इन दिनों 'बैंड बाजा बारात' और 'दो दूनी चार' जैसी कई फिल्में आई हैं जिनमें कहानी, किरदार, लोकेशन और घरों की डीटेल्स पर ईमानदारी से काम किया गया। ये फिल्म उनमें से एक है।

ये तो हम हैं
फिल्म की एक खास बात ये रही कि इसमें कोई भी परफैक्ट मॉडल जैसे चेहरे-मोहरे वाला नहीं है। आर. माधवन, दीपक डोबरियाल, कंगना, स्वरा, एजाज, जिमी शेरगिल और फिल्म के सभी साइड आर्टिस्ट अपने-अपने कैरेक्टर की खामियों-खूबियों के साथ हैं। इनमें से कुछ तो दीवाना कर देते हैं। कंगना का दीपक के कैरेक्टर को ओए पप्पी जी... कहने का अंदाज हो या स्वरा का बिहारी एक्सेंट में लगाएंगे दो लप्पड़ अभी... .. दोनों ही अदाओं के साथ आते हैं। शादी के संगीत में कंगना ने नाचते वक्त जो ब्रोकेड का सूट पहना है या क्रेडिट्स के वक्त जुगनी...सॉन्ग में उनकी फुल स्लीव्ज ब्लाउज वाली लाल साड़ी जरूर औरतों और लड़कियों का ध्यान खींचेगी। माधवन कुछएक जोड़ी टी-शर्ट-पैंट और लोअर में पूरी फिल्म कर लेते हैं, ये भी एक तथ्य है।

खास जिक्र
अपने कैरेक्टर को पकड़ने में खुद के मैनरिज्म, बर्ताव, शरीर के ढंग और आवाज में सबसे ज्यादा बदलाव किया है दीपक डोबरियाल ने। दीपक ने अपनी आवाज को यूपी की मूल टोन वाली आवाज सा बनाया है। हालांकि सीधे-सीधे देखने पर इसमें कोई एफर्ट नहीं दिखता है, पर लगा बहुत है। इससे पहले उस प्रदेश की आवाज वाले जिन कॉमेडी करते फिल्मी इंसानों को दिखाया जाता था, वो किरदार नपे-तुले और सांचों में ढले होते थे। दीपक ने अपने इस कैरेक्टर से उन सब किरदारों को इस घिसे-पिटे मजाक से मुक्त किया है।

हैपी मूमेंट
मनु घर की छत पर चारपाई पर लेटा मोहम्मद रफी के सैड सॉन्ग सुन रहा है। पप्पी बात करते हुए कहता है, 'अगर तनु जी आपकी किस्मत में लिखी हैं तो आप उनको लंदन साथ लेकर जाओगे, वरना भईय्या जितने चाहे मोहम्मद रफी के गाने गा लो, कुछ नहीं होना।' ये फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा डायलॉग है। पहले नंबर पर भी है दीपक डोबरियाल का ही सीन और डायलॉग। अपना नाम बताने से पहले पप्पी का झूमकर शरमाकर कहना कि नाम लिखकर बताएं कि दे कर... शायद 'तनु वेड्स मनु' का सबसे मनोरंजक और उम्दा सिचुएशनल डायलॉग है।

रंगरेज संगीत
ट्रेन में तनु और मनु की फैमिली पिकनिक पर जा रही है और लड़कियां शादी-ब्याह के गीत की तरह ..तब मन्नू भइय्या का करिहें .. गाना ट्रेन में गा रही हैं। फिल्म के नएपन और थीम को बेहतर करते हैं इस गाने के बोल। फिल्म की धड़कन का काम करता है वडाली ब्रदर्स की आवाज में गाया राजशेखर का लिखा गीत। कृष्णा ने इसके म्यूजिक को फोक-फिल्मी तेवर का ही रखा है। बोल हैं...ए रंगरेज मेरे, ये बात बता रंगरेज मेरे, ये कौन से पाणी में तूने, कौन सा रंग घोला है.. के दिल बन गया सौदाई।

आखिर में...
बेस्ट परफॉर्मर मुझे लगे दीपक डोबरियाल। 'दाएं या बाएं' इनकी पिछली फिल्म का नाम था, जिसे मौका मिले तो डीवीडी पर जरूर देखें। कोई एक दशक पहले तक टेली सीरिज 'स्टार बेस्टसेलर' में पहली बार नजर आए दिल्ली के इस थियेटर एक्टर ने इस कमर्शियल फिल्म में भी खुद को प्रूव करके दिखाया है। उनको देखना एक डिलाइट है।
(प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, February 24, 2011

'मैं मांसाहारी एक्टर हूं, मुझे मीटी रोल चाहिए'

मिलिए 'तनु वेड्स मनु' फिल्म के लीड एक्टर्स में से एक स्वरा भास्कर से। पायल का कैरेक्टर प्ले कर रही स्वरा इसमें तनु (कंगना रानाउत) की दोस्त बनी हैं...

'माधोलाल कीप वॉकिंग' जैसी छोटी मगर सराही गई फिल्म से पहली बार परदे पर दिखने वाली स्वरा भास्कर को अब भी अपनी पहली फिल्म 'नियति' की रिलीज का इंतजार है। ये बिहार में लड़कों के अपहरण और जबरन विवाह जैसे सोशल इश्यू पर बनी थी। इन दो गैर-कमर्शियल फिल्मों के बीच स्वरा की पहली कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म 'तनु वेड्स मनु' इस शुक्रवार 25फरवरी को थियेटरों में आ रही है। फिल्म में उनका रोल बिहार से ताल्लुक रखने वाली एक एनर्जेटिक लड़की पायल का है जो इंटरकास्ट मैरिज कर रही है। चूंकि फैमिली की कद्र समझती है इसलिए इस शादी के लिए उन्हें भी राजी कर लिया है। फिल्म के पहले हाफ में पायल की शादी के संदर्भ में ही तनु (कंगना) और मनु (आर. माधवन) की मुलाकात होती है। दिल्ली में पली-बढ़ी स्वरा के पिता रक्षा विशेषज्ञ सी. उदय भास्कर हैं तो मां इरा भास्कर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सिनेमा की प्रफेसर।

फिल्म में अपने कैरेक्टर का एक्सेंट कैसे पकड़ा? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मेरी मां बिहार से हैं और बाकी काफी परिवार अब भी बिहार में रहता है। ऐसे में मेरे रोल में उस इलाके के जिस साउंड की जरूरत थी उससे मैं वाकिफ थी। इसके साथ ही फिल्म के राइटर भी यूपी से हैं तो उस इलाके का ट्वेंग उनके पास था। म्यूजिक डायरेक्टर मधेपुरा बिहार से थे।' फिल्म में स्वरा के साथ जोड़ी है टीवी एक्टर एजाज खान की। उनके सरदारों वाले लुक और पंजाब में शूटिंग के अनुभव के सवाल पर स्वरा की आवाज में उत्साह झलकने लगता है। वह बताती हैं, 'एजाज तो इतना असली सरदार लग रहा था कि लोग आ आ कर उससे पंजाबी में बात कर रहे थे। मीका भी आकर पंजाबी बोलने लगे, तो उसने कहा कि सर मैं एजाज हूं मुंबई से। हमने पंजाब में डेढ़ महीने की शूटिंग में इतने मजे किए कि बता नहीं सकती। जालंधर, अमृतसर और बाकी इलाकों से आए आर्टिस्ट इतनी बढ़िया एक्टिंग कर रहे थे कि आपको ये सब स्क्रीन पर दिखेगा।' इसके साथ वह ये भी कहती हैं, 'वो जूनियर आर्टिस्ट बच्चियां मेरी मेंहदी और दुल्हन वाले सीन में इतने देसी तरीके से प्रैंक कर रही थीं कि मैं तो दंग रह गई। जब हम गुरुद्वारे में शादी का सीन शूट कर रहे थे तो वहां बैठे लोग पिन पॉइंट कर रहे थे। कहने लगे कि इतनी बार फेरे ले लोगे तो सच्ची में शादी हो जाएगी ध्यान रखना। जिस घर में शूट कर रहे थे उन्होंने भी असली प्रोसेस बताया। मैंने पहले सिर्फ सुना ही था कि पंजाब के लोग जिंदादिल होते हैं, पर वो सच में जिंदादिल निकले।'

फिल्म की शूटिंग जालंधर, पंजाब, कपूरथला और लखनऊ में हुई है। स्वरा के मुताबिक 'तनु वेड्स मनु' का सेलिंग पॉइंट इसकी कमाल की स्क्रिप्ट है। परफॉर्मेंस में माधवन, दीपक डोबरियाल, एजाज और कंगना सबका काम अच्छा है। दीपक तो दिल्ली में मेरे थियेटर ग्रुप में सीनियर रह चुके हैं। उनका काम भी अमेजिंग है। पर स्क्रिप्ट ऐसी है कि हर दस मिनट में उम्मीद के उलट चीजें मिलेंगी। जो लव स्टोरी इसमें है वो बाकी बॉलीवुड लव स्टोरी जैसी नहीं है। इसमें आपको कोई पुराना क्लीशे नहीं मिलेगा। फिल्म बनने के दौरान के दिलचस्प किस्से बताते हुए वह कहती हैं, 'मैं दो वाकये बताती हूं। एक बार डांस डायरेक्टर सरोज जी का इंतजार कर रही थी। कुछ दूर एक मोटी-छोटी औरत भी खड़ी थी। मैंने किसी टेक्नीशियन से पूछा कि अब तक सरोज जी नहीं आई तो उसने कहा कि तुमने पहचाना नहीं ये ही सरोज जी हैं.. तुमने नमस्ते भी नहीं किया। पहले मैं नहीं मानी पर बाद मैं गई और जैसे ही उनको नमस्ते किया तो वो भी झेंप गईं और सब जोर-जोर से हंसने लगे। मैं पानी-पानी हो गई। बाद में सरोज जी आईं तो मैंने दूर से ही उन्हें नमस्ते किया। तो ऐसी ही हंसी मजाक खूब हुई। हम जालंधर के आसपास जब शूटिंग कर रहे थे तो जालंधर-चंडीगढ़ हाइवे पर एक खाने की जगह थी, जहां मैं और एजाज अकसर जाते थे। वहां एजाज की बहुत सी फैन लड़कियां भी आ जाती थीं और मुझसे पूछती कि क्या आप एजाज के साथ हैं। तो इस तरह मैंने उस दौरान उनके बीच चिट पास करने का काम किया।'

फिल्म के डायरेक्टर आनंद राय इससे पहले फिल्म 'स्ट्रैंजर्स' और 'थोड़ी लाइफ थोड़ा मैजिक' को डायरेक्ट कर चुके हैं। उनके साथ काम करने के अनुभव पर स्वरा कहने लगती हैं, 'वह जाने माने डायरेक्टर रह चुके हैं। उनकी खासियत ये है कि सबसे प्यार से बात करते हैं और हर अदाकार से काम भी प्यार से ही निकलवा लेते हैं।' पंजाबी तासीर वाली 'तनु वेड्स मनु' के दोनों गाने साड्डी गली भुल्ल के वी आया करो...और जुगनी... शीर्ष पर चल रहे हैं, तो इसमें डांस भी बड़ा करना पड़ा होगा? इस पर वह कहती हैं, 'मेरी फॉर्मल ट्रेनिंग डांस में ही है। मैंने भरतनाट्यम सीखा है लीला सेमसन से। इस मूवी में तो बिंदास टाइप डांस है। हम सब ऐसे ही नाचे भी।'

आर्ट और कमर्शियल दोनों ही फिल्मों का अनुभव स्वरा को हो चुका है। ये पूछने पर कि दोनों में कौनसा प्रेफर करती हैं, वह कहती हैं, 'ऑफबीट और आर्ट सिनेमा के साथ समस्या ये होती है कि उसकी पहुंच नहीं होती, कमर्शियल फिल्मों की पहुंच दूर तक होती है। पर एक एक्टर का काम होता है कि वो दोनों ही करे। अगर उसे लंबा करियर देखना है तो कमर्शियल ज्यादा जरूरी है।' अब बॉलीवुड को कैसे लेना है? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मैं बेसीकली अब लीड रोल करना चाहती हूं। ऐसी मूवीज जो लोगों तक पहुंचे, ऐसा नहीं कि एक्ट्रेस है तो बस पेड़ पकड़े नाचते रहो। मैं मांसाहारी एक्टर हूं तो मुझे मीट चाहिए, मीटी रोल चाहिए। ऐसा रोल जिसमें कुछ करने को हो।'(प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी