Tuesday, September 21, 2010

दबंगः मनोरंजन और समाज पर उसके साइड इफेक्ट

'दबंग' रिलीज हुए करीब डेढ़ हफ्ता हो गया। हिंदी और क्षेत्रीय मीडिया ने फिल्म का खूब मजा लिया है। तो अंग्रेजी मीडिया दो-तीन स्टार से ज्यादा नहीं दे पाया। मैं दंबग पर इसकी संपूर्णता में बात करना चाहता था। मगर एक बार रिव्यू लिख चुकने के बाद अब कुछ वक्त तक इसकी दोबारा चीर-फाड़ करने की इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है कि दबंग में मनोरंजन के पहलू की तारीफ नहीं की जा सकती है। दरअसल निर्देशक अभिनव कश्यप से जब पहली बार बात हुई तो उनके जवाब देने के अंदाज से ही जाहिर हो गया था कि उन्होंने क्या बनाया होगा। उनसे जब दबंग के रिलीज होने की तारीख पूछी तो उनका जवाब एकदम ड्रमेटिक यानी नाटकीय था। शायद सुखद नाटकीय। मजा आया बिलाशक। वह ऐसे बोले जैसे कुछ दशक पहले तक तांगे पर बैठा वो शख़्स बोला करता था। गांवों-कस्बों की पगडंडियों में फटे हुए माइक के साथ, सभी को फिल्म के पोस्टर से लेकर हिरोइन के नाच और खूंखार डाकूओं के बारे में बताता।
...मगर ये तो हुआ निर्देशक का पक्ष जिसने सिर्फ और सिर्फ सीटियों का अकाल झेल रहे थियेटरों को नई सांसें देने वाला मनोरंजन बनाया है। मगर फिल्मों के समाज पर पड़ने वाले असर को छानने वाली छलनी लेकर देखें ..तो मजा नहीं आया। ये फिल्म हंसाने वाली दवा जरूर है, पर दीर्घकाल में इसके कई दूसरी फिल्मों की तरह साइड इफेक्ट हैं। अब दर्शक और फिल्म आलोचक इस साइड इफेक्ट को गंभीरता से लेते हैं, या अभिनव की सिर्फ मनोरंजन को दी गई प्रबलता को स्वीकारते हैं। चौपाल पर बैठकर करने लायक बात है।

अभी के लिए तो दबंग की कुछ कमियों पर बात कर रहा हूं। बड़ी व्यापक पब्लिसिटी जब होती देखते हैं, तो कई थोपी गई चीजों को आप अपनी ही सोच मानने लगते हैं, यहां भी कुछ ऐसा नहीं हो इसलिए कुछ एक बातों पर नजर डाल सकते हैं।

मैं एंटरटेनमेंट के मामले में कोई बात नहीं काटूंगा। बात सिनेमैटिक पहलुओं की है। फिल्म का धांसू और पहला फाइट सीन डायरेक्टर लुईस लेटेरिएर की फिल्म 'ट्रांसपोर्टर' से लिया गया है। फर्श पर तेल गिराकर जैसन स्टैथम के अंदाज में फाइट करने की कोशिश करते चुलबुल पांडे और कुछ गुंडे। इस सीन के कुछ पोर्शन एक आम चोरी हैं। दबंग के दूसरे फाइट सीन में कसर कंप्यूटर ग्राफिक्स की रह गई। चुलबुल मार रहे हैं, गुंडे छत से नीचे गिर रहे हैं और थोड़ा गौर करें तो नीचे का नकली आंगन देखा जा सकता है।

फिल्मों को लेकर एक बड़ी सीधी सी बात है। इनमें डायलॉग बिना लॉजिक के चल सकता है, मगर फिल्म का विजुअल नहीं। दबंग में एक्टिंग की बात करें। अरबाज और माही गिल का नदी किनारे वाला सीन आता है और थियेटर में बैठे दर्शक एक-दूसरे से बातें करने लगते हैं। क्यों? शायद इसलिए कि महत्वाकांक्षी मनोरंजन के बीच ये कुछ ढीला शॉट आ जाता है। इंटरवल तक अरबाज फिलर लगते हैं तो फिल्म में माही का रोल न के बराबर है। पुलिस इंस्पेक्टर ओम पुरी को अपनी बेटी की शादी सोनू से करनी है। पूरी फिल्म में नजर आते हैं लेकिन फिल्म के आख्रिर में वो 'चलो हनुमान जी लंका छोडऩे का वक्त आ गया है' .. बोलकर निकल लेते हैं। बिना खास संदर्भ वाले ओमपुरी के रोल को जाया ही किया गया है। 'हमका पीनी है, पीनी है..' गाने पर मेहनत से कोरियोग्राफी हुई है। पर दारू की बरसात और बंदूक से उड़ती गोलियों से ये एक थाना नहीं, किसी बाहुबली या डाकू का अड्डा लगने लगता है। अब इस सीन पर आएं। अरबाज खान तिजोरी से चुलबुल के पैसे निकालकर ले जा रहे है, मां डिंपल रोकती हैं। यहां डिंपल का कमजोर अभिनय खटकता है। ना तो वे मैलोड्रमेटिक मां बन पाती हैं और ना ही 'क्रांतिवीर-दिल चाहता है' जैसी ट्रैडमार्क फिल्मों में की हुई अपनी एक्टिंग दोहरा पाती हैं।

फिल्म में 'साउथ-टैरेंटिनो-बॉलीवुड' का मिक्स मैड वर्ल्ड है फिर भी हर चीज का लॉजिक है। मगर देखिए महेश मांजरेकर यूपी के लालगंज में भी मुंबईया बोल रहे हैं। एक सीन में कहते हैं.. 'ए मेरे को दारू मांगता है...ए दारू की तो मां की आंख..।' शुरू में छेदी सिंह और चुलबुल पांडे के टकराव का सीन सा बनने लगता है, मगर फिर इंटरवल तक के लिए वो गायब सा हो जाता है।

कहानी और कैरेक्टर
लालगंज, उत्तरप्रदेश में पुलिस इंस्पेक्टर हैं चुलबुल पांडे (सलमान खान)। सही-गलत सभी काम करते हैं, पर पूरे टेढ़े और दबंग तरीके से। बचपन से सौतेले पिता प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) से उन्हें वो प्यार नहीं मिला जो छोटे भाई मक्खी (अरबाज खान) को मिला। मां (डिंपल कपाडिय़ा) समझाती हैं कि मक्खी थोड़ा कमजोर है इसलिए उसका ध्यान रखना पड़ता है। पर दर्शकों के लिहाज से एक्साइटेड तरीके से चुलबुल पांडे अपना गुस्सा भाई-पिता पर उतारते रहते हैं। मक्खी मास्टरजी (टीनू आनंद) की बेटी निर्मला (माही गिल) से प्रेम करता है, मगर मास्टरजी राजी नहीं हैं, क्योंकि उनके पास प्रजापति पांडे को देने के लिए दहेज नहीं है। यहां के लोकल नेता हैं दयाल बाबू (अनुपम खेर), जिनका खास आदमी है छेदी सिंह (सोनू सूद)। छेदी अखाड़े में पहलवानी करता है, अपने पर्सनल फोटोग्राफर से फोटो खिंचवाता है, एमएलए का टिकट चाहता है और आपकी-हमारी फिल्म का विलेन है। पियक्कड़ हरिया (महेश मांजरेकर) की सुंदर बेटी राजो (सोनाक्षी सिन्हा) मिट्टी के बर्तन बनाती है।

अब कहानी के धागे खोलें। सलमान डकैती कर भागे गुंडों को को रोकते हैं, और माल अपने पास रख लेते हैं। चुलबुले हैं तो कोई इस बात का लोड नहीं लेता है। छेदी सिंह से ठन जाती है, चोरी का माल छेदी का था। चुलबुल पांडे का दिल राजो पर आ जाता है। मां की मौत हो जाती है और चुलबुल अपने भाई-पिता से अलग हो जाते हैं। हरिया की मौत के बाद चुलबुल राजो से शादी कर लेते हैं। मैं भी क्या कर रहा हूं...एक मसाला बॉलीवुड फिल्म की कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूं। इसकी जरूरत क्या है। मोटी बात ये है कि अच्छी कहानी है।

कुछ देखी परखी
'हमका पीनी है...' और 'हुण हुण..दबंग दबंग..' गानों के फिल्मांकन और म्यूजिक में विशाल भारद्वाज की 'ओमकारा' का असर दिखता है। 'तेरे मस्त-मस्त दो नैन..' गाना अच्छा तो है, मगर इन दिनों आ रहे गानों की लैंथ कुछ कम सी लगने लगी है। क्वेंटिन टैरेंटीनो के अंदाज को डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने कहीं-कहीं बरता है, पूरी फिल्म में नहीं। कुछ ऐसी ही फील क्लामेक्स में गिटार की आती आवाज से होती है। या फिर उस वक्त जब अंतिम फाइट शॉट्स में परदा गहरा गुलाबी-हल्का लाल सा हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे 'रंग दे बसंती' के कुछ सीन में परदा ब्लैक एंड वाइट और रेतीले रंग सा हो जाता है। दबंग में साउथ की फिल्मों सा 'मसाला-एंटरटेनमेंट' कोशंट है। मगर मेरा मानना है कि ये एंटरटेनमेंट देखने वालों की दिमागी हेल्थ के लिए इतना अच्छा नहीं। इस बात में कोई शक नहीं कि दबंग सलमान के करियर की कुछ एक बेहतरीन फिल्मों में से एक है। 'मुन्नी बदनाम हुई...' गाने में हम सोनू सूद के फिल्मी करियर के सबसे लचीले और उम्दा परफॉर्मेंस को देखते हैं। सलमान के नाच के लिए दबंग को लंबे वक्त तक याद रखा जाना चाहिए। डायलॉग यूनीक हैं। अरसे बाद ऐसी फिल्म आई है जिसके एक-एक डायलॉग को मन से लिखा गया है। थियेटर से घर साथ लेकर जाते हैं...'क्या पांडे जी आप भी..' और 'भईया जी इस्माइल...' जैसे ढेर सारे डायलॉग्स को।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 3, 2010

कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई, कैसे देखी जाए प्रहार ?

प्रहार को गांधी जयंती के दिन देखा था। हिंसा और प्रति-हिंसा का दिन और फिल्म। फिल्म में कई पहलू हैं। देखने के कई तरीके हैं। मनोरंजन के लिए देखी जाए? फिल्म निर्देशन की नई ताजा भाषा का विश्लेषण करने के लिए देखी जाए? फासीवाद जैसे वाद की मौजूदगी पर कैसे बात की जाए, यह देखने के लिए देखी जाए? या, जैसे दिखे वैसे देखी जाए? ज़ाहिराना तौर पर सब अलग-अलग आंखों से ही देखेंगे। मगर, फिल्म मनोरंजन-मनोरंजन के बहाने कैसे आपकी रगों में एक वाद इंजेक्ट कर देती है, यह देखना जरूरी होगा। एक बार देखने में प्रहार जरूर मज़ेदार लगे। मगर, क्या इसमें सुझाए तरीके सही हैं? समर्थन करने लायक हैं? इस पर ख़ूब बात होनी चाहिए। कुछ अन्य बातें...


नाना पाटेकर का निर्देशन है। ये निर्देशन प्रहार में एक औसत किरदार (जो किरदार ग्लैमर से भरा नहीं है) में ग्लैमर गर्ल माधुरी दीक्षित को एक सीधे-साधे रूप में लाया है। ये निर्देशन थियेटर के बड़े पुरूष हबीब तनवीर को भी पीटर डिसूजा के पिता के किरदार में लाया है। कौन नहीं है इसमें..? मकरंद देशपांडे माधुरी के भाई के रूप में, डिंपल कपाड़िया एक विधवा के किरदार में और मकरंद-माधुरी के पिता के किरदार में अच्युत पौद्दार है। विलेन और बुरे किरदार हैं, स्टंट निर्देशक-फाइटर चीता यग्नेश शेट्टी। वही चीता शेट्टी, जिन्होंने रित्विक रोशन को कसरती बदन वाला बनाया।


  • कोई और फिल्म होती तो होटल में मेजर चौहान बने नाना पाटेकर से मिलने डिंपल कपाड़िया अकेले आती, लेकिन इसमें माधुरी भी साथ आईं। क्योंकि, कोई भी अकेली औरत एक होटल में एक अनजान आदमी से मिलने अकेले नहीं आएगी। समाज और हमारी फिल्मों के नैतिक ढांचे में यह बात है।
  • कमांडो ट्रैनिंग ले रहे युवक देखे़। उनकी अंगुलियां पत्थर से भी सख्त और काली। उभरे हुए अंगुलियों के जुड़ाव। प्रशिक्षक पाटेकर की त्वचा, चेहरे पर उभरा तेज, हड्डीनुमा मुंह और किसी आम कपड़ों में दिखने वाले किसी फौजी की तरह। एकदम वैसे ही। यही ख़ास है।
  • प्रहार के अलावा कोई ऐसी फिल्म नहीं जहां एक मरे हुए बेटे के पिता से उसके बेटे का सेना प्रशिक्षक मिलने आया है। और, उसके जवान बेटे के मरने का कारण पूछ रहा है। और, बातों के बीच उसका बाप एक तमाचा आर्मी अधिकारी के गाल पर जड़ देता है। यह दृश्य भी ख़ास है।


प्रहार फिल्म है। लक्ष्य भी थी। सेना में जाने के इच्छुक और एनसीसी के कैडेट युवाओं से पूछिए। उनके बीच हमेशा दोनों फिल्मों को लेकर बहस चल रही होती है। कि, आख़िर कौनसी फिल्म सेना के यथार्थ के ज्यादा क़रीब है। जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने पर ही अड़े रहते हैं। सेना में चयन हो जाने या पीछे छूटकर सिविलियन रह जाने पर तर्क और भी पक्के या कच्चे होते जाते हैं। हां, सेना में जाने वाले युवक शहादत की कहानियों को और नायकत्व के आम रोमांसवाद को ख़ारिज करते हुए इस पैशे के साथ बिना किसी ग़लतफहमी के साथ जीने लगते हैं। फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में जो भी है, वह एक आम बॉलिवुडी पुलिसवाला नहीं है।

मीडिया का विश्लेषण यहां भी है। अ वेडनसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, रण, न्यू डेहली टाइम्स, नरसिम्हा और कई ऐसी ही फिल्मों में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने पहले से है। पर यहां सब कुछ धारदार है। मेजर चौहान यानी नाना पाटेकर अख़बार के दफ़्तर जाता है। पीटर को मीडिया के ज़रिए इन्साफ जैसा ही कुछ दिलाने। या शायद परिस्थितियों को टटोलने। वहां बैठे अधेड़ उम्र के पत्रकार से नाना पाटेकर का संवाद चलता है।
" आप इसे न्यूज कहते हैं. बंबई जैसे शहर में यह कोई न्यूज है। रोज़ यहां लोग मरते हैं।"
" पीटर कोई आम इंसान नहीं था। ...उसे शौर्य चक्र मिला था। उग्रवादियों से लड़ते हुए। "
" उग्रवादियों पर तब छापा था। ...अब कोई न्यूज नहीं है। "
(तभी मेज़ पर पड़े फोन की घंटी बजती है)
" हैलौ... क्या? होम मिनिस्टर को ठंडी लग गई ? छापता हूं। क्या? फोरेन जा रहे हैं? ओ भी छापता हूं। "
आगे के संवाद नाना की आंखें कहती है। दृश्य का पटाक्षेप।


  • किराये पर दिए जाने वाले अपने घर के कमरे को दिखाता छोटा लड़का , जो कि लड़की है, विशेष है। चंद्रकांत देवधर यानी प्यार का नाम चीकू। .. फिल्म में किरण का किरदार निभाती डिंपल कपाड़िया का बेटा।
  • एक बूढ़े पिता से उसका जवान बेटा छिन गया। क्योंकि, उसने ग़लत के सामने घुटने नहीं टेके। गर्भवती डिंपल कपाड़िया अपने पति के साथ पिकनिक पर गई, गुंडों ने छेड़खा़नी की तो ग़लत के विरोध में उसका पति मारा गया।
  • शर्ली यानी माधुरी का भाई मकरंद भी विशेष किरदार है। फौज के जीवन आदर्शों से अलग किरदार है शर्ली का भाई। ख़ासतौर पर नाना पाटेकर के लिए। उसके पास भी समाज और देश की कुछ शिकायतें हैं। सिगरेट के काग़ज में मसाला भरकर पीने का डंडा तैयार कर रहा है और अपनी परेशानियां गिनवा रहा है। सामने लाचार वृद्ध बाप बैठा है। पास ही में फौज के अधिकारी बने नाना पाटेकर बैठे हैं। मकरंद का किरदार अपने पिता को बोल रहा है और दर्शक सुन रहे हैं।

" फ्रीडम फाइटर बनते हैं। अरे कंट्री के वास्ते कोई घर बरबाद करता है। जिंदगी भर ईमानदारी की चिंगम चबाते रहे। अरे ईमानदारी से पेट भरता है क्या। अच्छी नौकरी मिल रही थी मुंबई में। लाखों के ढेर लगा देता। मगर, एक 5,000 रुपया नहीं निकला तुम्हारे से। मदद के नाम पर सरकारी भूख मिलती है, .... उसके लिए भी जिंदा होने का सर्टिफिकेट देना पड़ता है।"
यहां संवाद अदायगी में ठहराव और गति इस दृश्य को अक्षुण्ण बनाती है।

सड़क पर से मंत्री की गाड़ी गुजरने वाली है। लोगों को चलने फिरने, सड़क पार करने से रोक दिया गया है। एक पुलिसवाला है, जो एक गर्भवती औरत को सड़क पार कर जाने नहीं देता है। दया की याचना कोई काम नहीं आती है। साथ वाली औरतें फिर भी गिड़गिड़ाती है। सेना के समाज से निकल कर नाना का किरदार नागरिक समाज में आया है। इसलिए घूमकर लोगों, चीजों और समाज के भीतर के समाजों का जायजा ले रहा है। लोगों के बीच बने आर्थिक और सामाजिक वर्गों को देख रहा है। वह इस वक्त खड़ा सबकुछ देख रहा है। पाटेकर पुलिसवाले को झकझोरता है। ".. किस बात की तनख्वाह लेते हैं आप ? किसकी तनख्वाह लेते हैं आप ?अगर आप भी सड़क पर पैदा होते तो। वो देखिए, वो आपकी मां है। और वो आप है.... आप पैदा हुए और मर भी गए।"
हफ्ता लेते गुंडों से भिड़ने पर मुहल्ले के लोग पाटेकर पर ही पत्थर फैंकते हैं। पाटेकर पत्थर खा रहा है। उसका ध्यान पत्थरों पर नहीं है, बल्कि पत्थर मारने वालों पर है। आख़िर ये कैसे लोग हैं। आख़िर ये हमने कैसा समाज बना दिया है। इन गुंडों के ख़िलाफ किसी की नजरें भी नहीं उठती, मगर मेजर चौहान के गुंडों से भिड़ने पर उसे ही मारने के लिए सब अपने-अपने हाथों में पत्थर ले लेते हैं। पाटेकर का किरदार समझ रहा है। माथे से लहू बह रहा है। दिमाग़ लोगों और समाजों को समझने में व्यस्त है। दिल टूट गया है।

अपनी मां को ढूंढने के भ्रम में या कहें तो उसकी यादों और अपने बचपन को ढूंढने नाना पाटेकर नगरवधुओं के इलाके में जाता है। आपके सटीक शब्दों में कहें तो वेश्याओं के मोहल्ले में। मगर, अब क्या। अब वहां कुछ भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में लौटते कदमों में मदद के लिए चिल्ला रही एक लड़की को नाना जबरदस्ती करने वालों से छुड़वाता है। छोटी उमर में तो पाटेकर अपनी मां को गुंडों यानी बुरे लोगों से नहीं छुड़ा पाया, मगर अब उसने ऐसा करके अपना कर्तव्य पूरा किया है। अपने किराये के कमरे की सीढ़ियां चढ़ते वक्त डिंपल उससे पूछती हैं, "क्या राजकुमार को उसकी मां मिली?" जवाब में पाटेकर मुस्कुराता है, आज उसने अपनी मां को बिकने से बचा लिया।

अंत में नाना पाटेकर हफ्ता मांगने और पीटर के सिर पर पत्थर पटककर मारने वाले को उसी की बेकरी की दुकान के आगे मारता हैं। ...मार देता है। संहारक की आवाज कहती है, "तुम्हें ख़त्म करना बहुत मुश्किल है। तुम्हारी तादाद बहुत ज्यादा है। कीड़े-मकोड़ों की तादाद में हो तुम। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं चुप बैठुंगा। मैं तुम्हें मारता रहूंगा।"

अंतिम दृश्यों में एक अदालत का दृश्य है। इसमें थियेटर का प्रभाव साफ है। डिंपल, इंस्पेक्टर, शर्ली का भाई, नाना का वरिष्ठ सैन्य अधिकारी, पीटर का पिता, शर्ली और बाकी सभी बैठे हैं। अदालत कहती है कि मेजर चौहान को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।

मानसिक रूग्णालय में नाना जमीन में पौधे लगा रहा है। चिंटू आता है। चेहरे पर लालिमा आ जाती है
"तुम्हारे हाथ में मिट्टी लगी है। छी...
...चिंटू ....मिट्टी को छी नहीं कहते, इसी में तो फूल उगते हैं.." जैसा संवाद फिल्म की रेंज बताता है। यह बताता है कि देश की नई पौध कैसी हो।

फिल्म का अंतिम दृश्य है। नाना पाटेकर खिड़की के बाहर डूबते सूरज को देख रहा है। कि, अगली सुबह नई सुबह होगी। नई पौध को दुश्मन से लड़ने की ट्रैनिंग देंगे। सुबह की दौड़ से शुरुआत होगी। हालांकि इस सोच को एक आदर्श सोच नहीं कहा जा सकता है। मगर, फिल्म के इस दृश्य को देखें। सेना की पोशाक में प्रशिक्षक नाना दौड़ रहे हैं। और, पीछे हैं सैंकड़ों बच्चे। ये बच्चे दौड़ रहे हैं, उसी अवस्था में जैसे वे मां की कोख़ से इस दुनिया में आते हैं। ये सभी पवित्र हैं और दुनिया में आने के साथ ही यहां अपने निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
दुश्मन से लड़ने का प्रशिक्षण शुरू हुआ है। पार्श्व में गीत बज रहा है.....
" हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा, जब भी खुलेगी चमकेगा तारा...
कभी ना ढले जो, वो ही सितारा, दिशा जिस से पहचाने संसार सारा..."

हथेली पे रेखाएं हैं सब अधूरी, किस ने लिखी हैं नहीं जानना है,
सुलझाने उनको न आएगा कोई, समझना हैं उनको ये अपना करम है।
अपने करम से दिखाना हैं सब को, खुद को पनपना, उभरना है खुद को,
अंधेरा मिटाए जो नन्हा शरारा, दिशा जिस से....

हमारे पीछे कोई आए न आए, हमें ही तो पहले पहुंचना वहां है
जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन ही रास्तों को बनाना हमें है।
जो भी साथ आए उन्हें साथ ले ले, अगर ना कोई साथ दे तो अकेले
सुलगा के खुद को मिटा ले अंधेरा, दिशा जिस से..."



*** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, January 3, 2010

जैम्स कैमरून का नीला सम्मोहन: अवतार

'मैं भगवान को नहीं मानता हूं, मगर जैम्स कैमरून को हमारे बीच भेजने के लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूं। 'अवतार' में जो दुनिया कैमरून ने रची है, वैसी तो भगवान भी नहीं रच पाते। कैमरून और हमारे बीच सिर्फ एक ही सच है। यह कि कैमरून 200 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ रहे हैं और हम 2 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से। बुद्धिमानी इसी में है कि हम घर लौट आएं और अपनी वही पुरानी रोने-धोने और मारधाड़ वाली फिल्में बनाएं।'
- फिल्म निर्देशक रामगोपाल वर्मा ('अवतार' देखने के बाद)
On the set of AVATAR, James Cameron (center)
सन् 1977 में अमेरिकी फिल्मकार जॉर्ज लुकास के निर्देशन में बनी अंतरिक्ष फंतासी फिल्म 'स्टार वॉर्स' सिनेमाघरों में उतरी। इसे देखने वालों में 22 बरस का एक नौजवान जैम्स कैमरून भी था। ट्रक चलाने और ऑरेंज काउंटी के विद्यालयों में खाना पहुंचाने का काम करने वाले कैमरून ने इस दिन के बाद से 'दीवानगी' और 'जज्बा' जैसे शब्दों को नए अर्थ दिए। आने वाले 32 बरसों में कैमरून ने उन लोगों को गलत साबित कर दिया जो कहते थे कि फिल्में बनाना 'रॉकेट साइंस' नहीं होता और फिल्मकार भगवान नहीं होते।

करीब 2,000 करोड़ रुपये में बनी विश्व की अब तक की सबसे बड़ी फिल्म 'अवतार' के निर्माण के साथ कैमरून ने फिल्म निर्माण तकनीक की परिभाषा और पैमाने पूरी तरह बदल दिए हैं। 'अवतार' और 'साधना' भारतीय शब्द हैं, मगर अपने अवतार बनाने के ख्वाब को जैसे उन्होंने साधा है, वैसे किसी ने भी नहीं। 'स्टार वॉर्स' देखने के बाद से विज्ञान फंतासी और अंतरिक्ष के अंजान ग्रहों की दुनिया में खोए रहने वाले कैमरून ने 1995 में करीब 80 पन्नों की एक कहानी लिखी। यह एक अपंग हो चुके सैनिक की एक अंजान ग्रह पर बिताई जिंदगी की कहानी थी। इस अनोखे ग्रह का नाम पेंडोरा था। पेंडोरा पर बिल्ली जैसी शक्ल और स्तनधारियों जैसी पूंछ वाले 10 फुट लंबे नीली त्वचा के इंसान जैसे जीव रहते थे। इनका नाम 'नावी' था। पेंडोरा का वातावरण विषैला होने के कारण वैज्ञानिक 'नावी' के कृत्रिम अवतार वाले और इंसानी दिमाग से नियंत्रित होने वाले जीव बनाते थे। कैमरून ने इस महागाथा का नाम 'अवतार' रखा। इस कथा की प्रेरणा के बीज कहीं न कहीं लुकास की स्टार वॉर्स से निकले थे। ऐसे में कैमरून की चुनौती लुकास को मात देने की थी।
इसके लिए फिल्म निर्माण की तकनीक में ढेरों बदलाव करने की जरूरत थी। अमेरिका के सिनेमाघरों को भी थ्री-डी युक्त करने की आवश्यकता थी। कैमरून के सहयोगियों ने उनसे कह दिया था कि अगर यह फिल्म बनी तो उन्हें बर्बाद कर देगी। इसके लिए अथाह कम्पयुटर शक्ति और नई तकनीक की जरूरत थी। और ऐसी कोई तकनीक या शक्ति दुनिया में मौजूद ही नहीं थी। इसके बाद कैमरून ने एक विशाल ऐतिहासिक जहाज पर दो युवाओं के बीच पनपी प्रेम कहानी पर सफलतम फिल्म टाईटैनिक का निर्देशन किया। कमाई के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए इस फिल्म ने फॉक्स स्टूडियोज को धन में तौल दिया। इसके बाद 12 साल तक कैमरून ने सिर्फ और सिर्फ अवतार पर काम किया।

कैमरून ऐतिहासिक युद्धपोतों पर अंडरवॉटर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के बहाने अवतार के निर्माण के साधन जुटाने में लग गए थे। वर्ष 2000 में उन्होंने विंसेंट पेस को अपने साथ लिया। विंसेंट टाईटैनिक और एक अन्य फिल्म में कैमरून के साथ काम कर चुके थे। कैमरून अवतार के दर्शकों को रहस्यमयी पेंडोरा ग्रह की यात्रा पर ले जाना चाहते थे। वह दर्शकों को ग्रह के वातावरण का स्पर्श करवाना चाहते थे। वह चाहते थे कि लोग पेंडोरा की जमीन को अपनी आंखों से सूंघकर महसूस कर सके। इसी खातिर कैमरून ने पेस के साथ मिलकर ऐसा 'हाई-डेफिनिशन' कैमरा बनाने की ठानी, जो 'थ्री-डी' और 'टू-डी' दोनों ही माध्यमों में फीचर फिल्म की गुणवत्ता दे सके। दोनों ही नए कैमरे के निर्माण से जुड़ी चुनौती को भी भली-भांति जानते थे।

टोक्यो में विश्व प्रसिद्ध कैमरा व अन्य इलैक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनी 'सोनी' का दफ्तर है। कुछ हफ्ते बाद कैमरून 'सोनी' के दफ्तर में थे। उन्होंने विंसेंट को भी अमेरिका से टोक्यो बुलाया। दोनों ने सोनी के हाई-डेफिनिशन विभाग के इंजीनियरों से बात की। उन्होंने इंजीनियरों को इस बात के लिए यकीन दिलाया कि उनके कहे मुताबिक सोनी के 'प्रोफेशनल-ग्रेड हाई-डेफिनिशन' कैमरे के प्रोसेसर से लेंस और इमेज सेंसर को अलग कर दिया जाए। इससे इसके भारी-भरकम सी।पी.यू. को एक तार की दूरी पर लैंस से अलग रखा जा सकता था। अब कैमरा चलाने वाले को पुराने वजनी यंत्र से जुझने की जरूरत नहीं थी। तीन महीने में कैमरा तैयार था और परिणाम बेहद शानदार रहे।

अब बारी सिनेमाघरों की थी। इनमें बदलाव और खर्च की जरूरत थी। मगर जब तक कोई थ्री-डी फिल्म अच्छा कारोबार नहीं करती, कोई प्रदर्शक इस बदलाव का हिस्सा बनने का तैयार नहीं था। अपने बनाए कैमरे को कैमरून ने तब दूसरे निर्देशकों को इस्तेमाल करने के लिए दिया। निर्देशक रॉबर्ट रॉड्रिग्स ने वर्ष 2003 में प्रदर्शित 'स्पाई किड्स' को इस कैमरे से बनाया। मगर मुए प्रदर्शक अब भी अनिच्छुक थे। कैमरून ने मार्च 2005 में सिनेमाघर मालिकों की वार्षिक बैठक में भाग लिया। उन्होंने मालिकों को चेताया कि सही वक्त में अगर सिनेमाघर खुद में बदलाव नहीं लाए तो उन्हें आगे पछताना पड़ेगा। ये अमेरिका में बह रही अलग सी बयार थी या कैमरून की भागदौड़ कि अगले 4 वर्षों में पूरे देश में 3,000 थ्री-डी क्षमता वाले परदे और जुड़ गए। अपने सपने के पीछे किसी नन्हें मगर कटिबद्ध बच्चे की तरह दौड़ रहे कैमरून के रास्ते की एक और परीक्षा पूरी हो गई।

विशेष प्रभाव वाले दृश्यों के मामले में अमेरिकी फिल्म उद्योग का कोई जवाब नहीं था। मगर कैमरून की चाह वाले विशेष प्रभाव के दृश्य अब भी एक बड़ी चुनौती थे। वक्त अच्छा था। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. आर. आर. टॉल्किन के उपन्यास पर बनी महाकाव्यात्मक फिल्म-त्रयी 'लॉर्ड ऑफ द रिंग्स' आई। पीटर जैक्सन के निर्देशन में 2001 में 'द फैलोशिप ऑफ द रिंग', 2002 में 'द टू टावर्स' और 2003 में 'द रिटर्न ऑफ द किंग' परदे पर उतरी। सिर्फ एक अंगूठी को केंद्र में रख कर रची गई इस बेहद रोचक और मनोरंजक फिल्म के किरदार 'स्मीगल' उर्फ 'गोलम' ने कैमरून के दिमागी बोझ को कुछ हल्का कर दिया। इस कम्प्युटर सृजित किरदार ने सब का मन मोह लिया। स्मीगल को लॉर्ड ऑफ द रिंग्स के निर्देशक पीटर जैक्सन की वेलिंगटन स्थित विजुअल इफैक्ट्स कंपनी 'वेटा डिजीटल' ने बनाया था। अब कैमरून तैयार थे। टाईटैनिक की महासफलता के बाद से ही कैमरून के इंतजार में बैठे फॉक्स स्टूडियोज को भी तैयार कर लिया गया।

वेटा डिजीटल और जॉर्ज लुकास की कंपनी 'इंडस्ट्रियल लाइट एंड मैजिक' में सैंकडों लोगों ने विशेष प्रभाव वाले दृश्यों पर काम शुरू कर दिया था। पेंडोरा की नीली त्वचा वाले इंसानों की एक नई भाषा ईजाद करने के लिए कैमरून ने भाषा विशेषज्ञ पॉल फ्रॉमर को लिया। फ्रॉमर ने व्याकरण और उच्चारण के साथ 'स्पीक नावी' पुस्तिका तैयार की। कैमरून ने 13 महीनों में भाषा विकसित हो जाने और अन्य समानांतर कार्यों के पूरा हो जाने पर काम शुरू किया। कैमरून पेंडोरा के रचियता और इस ग्रह के भगवान थे, तो अब वह इस ग्रह पर मौजूद हर चीज को नाम और परिचय देना चाहते थे। पेंडोरा की वनस्पति, जैव विविधता, प्रकाश और प्राकृतिक संपत्ति का विवरण रचने के लिए वनस्पति और पौध विशेषज्ञ जूडी होल्ट को लाया गया। उन्होंने इस ग्रह की प्राकृतिक संपदा का वैज्ञानिक विवरण लिखा। तथ्यों और तर्कों को गढ़ा। इतने बारीक काम से बनी हर चीज परदे पर नहीं आनी थी, मगर कैमरून अपने ही आनंद में मगन थे। विशेषज्ञों की नियुक्तियां जारी रही। पुरातत्व, संगीत और अंतरिक्ष भौतिकी के विशेषज्ञों को भी नियुक्त किया गया। अब अंत में 'स्टार वार्स' के परिचय ग्रंथ की तर्ज पर संपादकों-लेखकों के एक समूह ने मिलकर 350 पन्नों की पोथी 'पेंडोरापीडिया' तैयार की। यह बस चमत्कार ही था।
जैम्स कैमरून ने पेंडोरा का एक-एक कण रचा है। जैसे कि पृथ्वी के सृजनकर्ता ने रचा होगा। पेंडोरा पर उगे एक-एक पत्ते पर एक-एक डिजीटल विशेषज्ञ ने काम किया है। 'जुरासिक पार्क' और 'द लॉस्ट वर्ल्ड' के दानवाकार डायनोसोरों से भी आगे के अलग जानवरों की दुनिया अवतार में समाई है। कैमरून का सपना भले ही 1977 में अकुंरित हुआ हो मगर जैसा कि रामगोपाल वर्मा और पश्चिम के अन्य फिल्म समीक्षक कहते हैं अवतार अपने वक्त से 30 साल आगे की फिल्म है। अंतरिक्ष की फंतासी के अलावा फिल्म में की गई आज की राजनीतिक अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और विस्थापन की टिप्पणियां महानगरों में बसने वालों की आंखें खोलने वाली हो सकती है। सुनीता विलियम्स अगर टॉम क्रूज की फिल्म को देखकर आसमान की दुनिया में उडऩे का ख्वाब सजाती है और अंतरिक्ष के कीर्तिमान कायम करती है तो कैमरून की अवतार से विश्व भर के कितने बच्चे, युवा, कलाकार और पैशेवर प्रभावित होंगे, अंदाजा लगाना मुश्किल है।

अवतार में कहीं भविष्य नजर आएगा तो कहीं दूसरे ग्रहों की दुनिया की मानवीय कल्पना, नावी में दर्शक खुद के चेहरे की नसें ढूंढ पाएंगे तो कही अफ्रीका के कबीलों की जीवन-लय, कहीं प्रेम की बातें हैं तो कहीं आध्यात्म की अनूठी प्रस्तुति, युद्धप्रिय शक्तिशाली राष्ट्रों के सदाबहार तर्कों का ठोस जवाब है तो कहीं कमजोर मुल्कों में सरकारों की नीतियों से हो रहे विस्थापन की असलियत। दुनिया भर के सिनेमाघरों के परदे पर इस बार जैसा नीला सम्मोहन उभरा है, वैसा सिनेमा इतिहास में इससे पहले कभी नहीं महसूस किया गया।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, December 2, 2009

मुंबई मेरी जान, अ वेडनसडे, आमिर और तीन निर्देशक

मुंबई में बीते साल हुई आतंकी घटना की बरसी इस 26 नवंबर को देश भर में उत्सव की तरह मनाई गई। मगर सड़ांध, भूख और आतंक से बैचेन अंतस बस जी रहा है। इसका कोई जवाब नहीं देता है, समझना तो दूर की बात है। बस अपने पीछे बिलखते लोग और शवों के चीथड़े छोड़ गए धमाकों के बाद हर बार गृहमंत्री टेलीविजन पर नजर आए। हर बार.... चेहरे पर चमक, बदन पर आला दर्जे के कपड़े वाली बंद गले की पोशाक और हाथ में एक कागज का टुकड़ा। 'हम इस हमले की निंदा करते हैं। कड़ी कार्रवाही करेंगे' .....यह बोलने के लिए भी लिखा हुआ पढऩा पड़े तो हो चुकी कार्रवाही। व्यथित समाज के अंतर्मन को क्या प्रशासन, निर्वाचित नेता और बुद्धिजीवीयों ने ढांढस बंधाया ? नहीं....।

मगर उस वक्त तीन युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के जरिए बंधाया। मुंबई की पृष्ठभूमि में समाज और लोगों पर आतंकी घटनाओं का क्या प्रभाव है? कारण क्या है? यहां तक की समाधान क्या है? यह भी बताने की शानदार कोशिश निशीकांत कामत, नीरज पांडे और राजकुमार गुप्ता ने की । इनकी फिल्में 'मुंबई मेरी जान ' , 'अ वेडनसडे' और 'आमिर ' अपने समय के समाज की संबंधित विषय पर अभिव्यक्ति के लिए हमेशा याद की जाएंगी।

राजकुमार गुप्ता की फिल्म 'आमिर ' में सूट और टाई पहने आमिर अली डॉक्टरी करके लंदन से स्वदेश लौटा है। परिजनों के लिए उपहार और खुशी से भरे इस नौजवान को इमीग्रेशन और कस्टम अधिकारी दो बार तलाशते-खंगालते हैं। बार-बार पूछताछ करते हैं। ताने मारते हैं। क्योंकि उसका नाम आमिर हैं। आमिर का किरदार इनदिनों के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सच का सामना ' के प्रस्तोता राजीव खंडेलवाल निभाया हैं। हवाई अड्डे पर इन अधिकारियों के इस बर्ताव से मन खिन्न हो जाता है, मगर आमिर सहज और वाकपटु है। वह सोचता है कि देश के कुछ लोग ही ऐसे हैं। इनकी वजह से उसे खुद को पृथक महसूस नहीं करना चाहिए। देश के मुसलमानों की दशा और अवचेतन का बारीक बहु -विश्लेषण करती यह फिल्म आगे बढ़ती है। एयरपोर्ट पर उसका परिवार नहीं है। दो मोटरसाईकिल सवार आमिर को एक फोन सौंप जाते हैं। अब उसे अपने परिवार को जीवित देखना है तो फोन के दूसरे छोर से आते निर्देशों का पालन करना होगा। निर्देशक यहां से आतंक के समानांतर हमारी फिल्मों में हमेशा भुला दिए जाने वाले मुहानों तक पहुंचता है। डोंगरी, भैंडी बाजार की चाल, मल से भरी संकरी गलियां और दुर्गंध भरे शौचालय देखकर आमिर उल्टी कर देता है। फोन के दूसरी ओर से निर्देशक राजकुमार गुप्ता का यह संवाद किसी तेज गति से आती ईंट की तरह नायक और दर्शक को आकर लगता है, 'देखा, हमें हगने की जगह नहीं देते हैं तो जीने की क्या देंगे..। ' आमिर और उसे जिहादी आत्मघाती बम बनाने को प्रतिबद्ध उस आवाज के बीच का यह संवाद निरंतर और बहुआयामी है।

फिल्म 'अ वेडनसडे ' के जरिए निर्देशक नीरज पांडे का जवाब आक्रामक है। बहुतों को गलत तो कईयों को सही लगेगा। मगर हकीकत और बहस को और समृद्ध ही करेगा। नीरज पांडे ने अपनी इस पहली निर्देशित फिल्म से ही काफी लोकप्रियता हासिल की है। वर्षों बाद अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह जैसे शीर्ष अभिनेताओं को एक बार फिर साथ लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इससे पहले दोनों ने शाहरूख खान और पूजा भट्ट के अभिनय वाली फिल्म 'चाहत ' में साथ काम किया था। खैर फिल्म की कहानी साधारण, पर प्रस्तुतिकरण विशेष है। मुंबई पोलिस के कमिश्नर राठौड़ को एक गुमनाम फोन आता है। इसमें कहा जाता है कि अगर कहे मुताबिक चार खूंखार आतंकियों को नहीं छोड़ा गया तो मुंबई के अलग-अलग इलाकों में लगाए गए बम फोड़ दिए जाएंगे। पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर और गुमनाम नसीरुद्दीन शाह के बीच की बातचीत पुलिस प्रशासन, उसकी तकनीकी दक्षता, आधुनिकीकरण, आम आदमी में पसरे डर, आतंकियों के हौंसले और सरकारी नाकामी के प्रति एक आम आदमी के गुस्से के इजहार के बीच चलती है। फिल्म का क्लाईमेक्स कमजोर समझे जाने वाले देश के 'कॉमन मैन ' की सहनशक्ति का विस्फोट है।

मुंबई मेरी जान बेहद विश्लेषण वाली और राह सुझाने वाली फिल्म है। यहां लोगों पर आतंकी घटना के पड़े प्रभाव के साथ मुंबई के बारे में भी बात की गई है। मुंबई में 2006 में हुए ट्रैन बम धमाकों का शहर के छह अलग-अलग किरदारों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसी का फिल्म पीछा करती है। एक युवा पेशेवर की भूमिका में माधवन की कहानी है। यह युवा अपनी गर्भवती पत्नी और परिवार के बार-बार कहने के बावजूद कार सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता है कि उससे शहर के भयावह ट्रैफिक में और इजाफा न हो। मगर एक दिन के धमाकों के बाद वह महसूस करता है कि अब रेल की यात्रा की कल्पना भी उसके लिए डरावना सपना बन चुकी है। सोहा अली खान एक महत्वाकांक्षी पत्रकार की भूमिका में है। धमाकों के बाद वह लोगों से पूछती फिर रही होती है कि 'आपका रिश्तेदार मारा गया, आपको कैसा लग रहा है? ', तभी उसे पता लगता है कि ये धमाके उसके मंगेतर को भी लील गए हैं। अब उसके साथी मीडियाकर्मी उसकी भूमिका में हैं। उस पर प्राइम टाइम कार्यक्रम बनता है, 'रूपाली बनी रूदाली '

इरफान खान दक्षिण भारत से आए एक चाय वाले बने हैं। वह इस शहर के व्यवहार से दुखी हैं। फिल्म का एक दृश्य देखिए। एक 15-16 साल का लड़का मंहगी गाड़ी में कीचड़ उछालता निकलता है। साईकिल पर आ रहे चाय वाले पर इसके छींटे उछलते हैं। आगे वह युवा चाय-पान की दुकान पर 100 रूपये से भी ज्यादा कीमत वाली सिगरेट मांगता है और इरफान खान तीन रूपये का पारले-जी बिस्कुट। अब इरफान चाय-बिस्कुट ग्रहण कर रहा है और देख रहा है कि कैसे सिगरेट फूंकते इस युवा ने कई दसियों हजार वाले अपने मोबाइल को जमीन पर फैंक कर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया क्योंकि उसे गुस्सा आ गया था। फिल्म की इस कहानी में उत्तर भारतीयों के साथ मुंबई में होने वाले बुरे बर्ताव से इतर दक्षिण भारतीय होने का जो दुख इस किरदार ने अभिनीत किया है वह अपने आप में पहली बार सिनेमा के पर्दे पर उकेरा गया है। खैर एक बड़े मॉल से अपनी पत्नी और बेटी के साथ बाहर फैंक दिए जाने से यह किरदार क्रोधित हो जाता है और मॉल में बम होने की नकली अफवाह फैलाने लगता है।

मुंबई मेरी जान में दो अदने कांस्टेबलों की भी कहानी है। परेश रावल और विजय मौर्य ने अपने अभिनय में कमाल ही कर दिया है। दोनों बर्बर और अन्यायसंगत सिस्टम से भीतर ही भीतर फटे जा रहे हैं। एक-दूसरे के अच्छे इरादों को कुचला जाता देखते ये दोनों किरदार आपसी रिश्ते और सहारे से अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। यह कहानी इस फिल्म की सबसे बेहतरीन और आधार मूलक कहानी है। फिल्म में मरीन ड्राइव पर कुछ साल पहले एक बूथ में एक पुलिस वाले द्वारा एक लड़की का बलात्कार किए जाने की सच्ची घटना का संदर्भ है। टीवी पर उस दोषी पुलिस वाले को ले जाते हुए दिखाया जा रहा है और इस पर ये कांस्टेबल बात कर रहे हैं। यह बातचीत उस घटना के वक्त किसी टीवी चैनल की बहस या अखबार के संपादकीय पन्ने पर नहीं नजर आई थी।

एक पढ़े-लिखे बेरोजगार की भूमिका में के. के. मेनन हैं। ये पूरा दिन निठल्ले बैठे सांप्रदायिक साजिशों वाली कहानियां गढ़ते रहते हैं। इन कहानियों की हकीकत अंतत: और कुछ नहीं उसकी भड़ास ही होती है। उसका आंतरिक क्रोध फूटता रहता है। देश में पिछले साठ सालों से चल रही धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की बहस में यह फिल्म भी शामिल होती है। यह बेरोजगार युवा खुद अपने दुख से उपजे दुख से कुछ उत्तर पाता है तो कुछ जवाब कांस्टेबल के रूप में परेश रावल उसे देते हैं।

दरअसल तीनों ही फिल्में आतंक का डीएनए तलाशती फिरती हैं। फिर चाहे वह आतंक ट्रेन धमाकों का हो या गरीब होने का, प्रशासन को बदल पाने की कोशिशों में पूरी तरह असफल होने का हो या बेरोजगार होने का, मीडिया बनकर खड़े होने का हो या मीडिया को सामने खड़ा पाने का, बड़े शहर के तथाकथित विकास का हो या भीड़ भरे शहर में भी एक-दूसरे से अंजान होने का। ये फिल्में सामाजिक विमर्श करने का मिशनरी दावा करने वाले मीडिया का कान मरोड़ती हैं। ये फिल्में सिनेमा में समानांतर और मुख्यधारा दोनों को हाथ पकड़कर साथ ले जाती है। तीनों फिल्मों के निर्देशक बेहद युवा हैं और किन की तो यह पहली निर्देशित फिल्में है। मानव मन की लाल पत्थर वाली गुफाओं में ये फिल्में सफलतापूर्वक जाती हैं। ये फिल्में जोड़ती हैं। बातें करती हैं। बोलती हैं। असर डालती है। वह सब कुछ करती हैं जिसके लिए चित्रपट अस्तित्व में आया था। जिसके लिए सिनेमा बना था।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday, February 9, 2009

आत्मा की शान्ति में नफा नुकसान...'विशाल भारद्वाज की नीली छतरी'


रस्किन बांड ने एक कहानी लिखी ' द ब्लू अम्ब्रेला '। बाल फिल्मों के राजकोष को समृद्ध करते हुए फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने इस पर 2007 में एक फ़िल्म बनाई। नीली छतरी वाली अतिसुंदर फ़िल्म जो उनकी पूर्व फिल्मों के सामने इक्कीस ही ठहरती है उन्नीस नही।

हिमालय के उत्तर में बसे एक छोटे से गाँव की कहानी है। बर्फ़ीले पहाड़ों और हरी जाजम से ढका ......गाँव क्या है, धरती पर जन्नत है। लोग यहाँ सादगी का रसमय जीवन जीते हैं। इस रस के इर्द -गिर्द.... सुन्दरता, लोभ, प्रेम, गर्व, इच्छा और त्याग के मानवीय भावों के गुण-दोष भी चिपकते रहते हैं।

" मेरा टेसू यहीं अड़ा ...खाने को माँगे दही-बड़ा " गीत के साथ फ़िल्म का फीता घूमता है। खुशनुमा चहकती बाल नायिका बिनिया और गाँव के बच्चे यहाँ के सामूहिक धार्मिक आयोजन के लिए गली-गली, घर-घर नाचते-गाते चंदा माँग रहे हैं। महानगरों और उनकी प्रतिलिपि बनने की कोशिश में लगे छोटे शहरों में आज कथित विकास के साथ आपसी मौन और असंवाद की स्थिती है। मगर इस गाँव की गलियों की ही तरह पूरे भारत के ग्रामीण समाज में ऊर्जा और मुखर संवाद कायम है।

बच्चों की इस सामूहिक उछल-कूद के कुछ रूप आपको दिल्ली की गलियों में मिल जायेंगे। जन्माष्टमी की संध्या पर बच्चे ढोलकी लेकर " हाथी-घोड़ा पालकी ..जय कन्हैया लाल की " गाते-बजाते निकल पड़ते हैं। उफनते उत्साह और आनंद के साथ ढोलकी पर मासूम हाथों की थाप और जोर पकड़ती जाती है। नन्हे कंठों से निकलती जयकारे की आवाज निरंतर बढ़ती रहती है। दाँए-बाँए भौंचक खड़े पढ़े-लिखे नौजवान बगलें झाँकते नजर आते हैं। अपनी दार्शनिकता वश ......सामाजिक व्यवहार से दूर और महत्वाकांछी मौन के पास।
'ब्लू अम्ब्रेला' का सबसे रोचक किरदार नंदकिशोर खत्री उर्फ़ नंदू है। अधेड़ उम्र के इस परचूनिए की भूमिका पंकज कपूर ने निभाई है। नंदू का बचपनी लोभ उम्र के इस पड़ाव पर भी ठहरा हुआ है। जो रंग और खिलौने बच्चों को ललचाते हैं वे नंदू का सुख-चैन है। वह गाँव में सब को बड़ी आसानी से उधार देता है ताकि लौटा नही पाने की एवज में कुछ और ले सके। जैसे ..कोई दूरबीन या छतरी या कुछ और.... ।

गाँव में रात को माता का जागरण है। "कह दो ना , कह दो ना ...यू आर माय सोनिया " की तर्ज पर माता के भजन गाये जा रहे हैं। नंदू की नाक प्रसाद में बनी मिठाई पर टिकी है। छिप कर मिठाई खा रहे बच्चे से छीनकर वह ख़ुद खा लेता है। और अब उसकी आनंद-अनुभूति देखने लायक है।
बिनिया हिमाचल के इन हरे-भरे पहाड़ों पर अपने पशु चराती है। एक बार उसकी नज़र लकड़ी के बने एक बेहद सुंदर नीले जापानी छाते पर जा टिकती है। छाताधारी जापानी पर्यटक महिला की नज़र भालू के दो पंजों से बने ताबीज़ पर चली जाती है। छाता मनोरम है ...और बिनिया का ताबीज़ अनिष्ट से बचाने वाला शुभ जंतर.... । थोड़ी दुविधा के बाद बिनिया जंतर देकर छाता ले लेती है। नीली छतरी के साथ इस बच्ची के प्रकृति संग खेलने-कूदने के दृश्य ऐतिहासिक और विहंगम हैं।

छाता बेहद सुंदर है। गाँव की औरतों और नंदू का दिल ईर्ष्या से भरा है। लेकिन बिनिया बेहद खुश है। नंदकिशोर के लालच और झाँसे बिनिया को नहीं ललचा पाते हैं। फ़िल्म में नंदू की बेसब्री का चित्रण कमाल का है। नंदू के मानस में झाँकता एक संवाद देखिये .....उसकी दुकान में काम करने वाला चालाक लड़का राजाराम पूछता है ......" चाचा छतरी की लेकर कोई फ़ायदा होगा क्या ?" अब जरा जवाब सुनिए ...." इन्द्रधनुष को देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पानी में कागज़ की नाँव तैरा के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पहाड़ों के पीछे ..सूरज को डूबते देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ऐ ..तेरे जैसे निखट्टू को काम पे रख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..आत्मा की सांति में नफा - नुस्का नहीं देखा जाता । ....कोई पिछले ही जनम का सम्बन्ध है । .....छतरी और खत्री का।

पशु चराने के दौरान एक दिन बिनिया की छतरी गुम हो जाती है। सुध-बुध खोई बच्ची को "गाँव के ईर्ष्यालु-छाता गुमने पर खुश होने वाले लोग" व्यंग्यमय सहानुभूति देते हैं। मगर बिनिया एक साहसी और चतुर लड़की है। गाँव के कोतवाल की दुलारी बिनिया उसके साथ नंदू की दुकान पहुँच जाती है। पुलिस तलाशी लेती है , पर कुछ मिल नहीं पाता है। अपमानित होने का ढोंग कर नंदू इकट्ठे गाँववालों के सामने प्रण लेता है कि "जब तक ऐसा का ऐसा छाता नहीं खरीद लेता ...अचार नहीं चखुंगा। " फ़िल्म का यह दृश्य बड़ा ही रोचक बन पड़ा है।

फ़िल्म में पंकज कपूर बताते हैं कि अभिनय किसे कहते हैं। " रुई का भार से लेकर...धरम तक " आते-आते उन्होंने फ़िल्म उद्योग के तथाकथित महासितारों का कद नाप डाला है। कोई भी उनके कंधे तक नहीं आता है। उनके अभिनय को जबां से बयां कर पाना संभव नहीं है। सिर्फ़ देखकर ही समझा जा सकता है।

एक लाल-सफ़ेद जापानी छाता कुछ दिन बाद नंदू के लिए कूरियर से आता है। पूरे गाँव में मिठाईयाँ बँटती हैं। अश्वमेघ यज्ञ के अश्व की तरह दमकता नंदकिशोर खत्री साइकिल पर छतरी टिकाए पूरे गाँव से जुलूस निकालता है। सारा गाँव अब नंदू से प्रभावित है। बिनिया को सब उलाहना भरी नज़रों से देखते हैं। नंदकिशोर की इज्ज़त गाँव वालों की नज़रों में बढ़ती ही जाती है। उसे वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिता का मुख्य अतिथि बनाया जाता है।

लेकिन चतुर बिनिया कूरियर लाने वाले से भेजने वाले का पता पूछती है। मालूम चलता है ....रंगरेज़ से रंगवाकर बिनिया का छाता ही भेजा गया था। असलियत सामने आते ही पंचायत गाँव को नंदू से सभी व्यवहार तोड़ लेने का फ़ैसला सुनाती है।

यहाँ से नंदू की दुर्दशा शुरू होती है। राजाराम दुकान छोड़ जाता है। पर्यटक अब यहाँ की चाय नहीं पीते हैं। " दो बिस्किट पर एक टॉफी फ्री " मगर बच्चे उससे बात भी नहीं करते हैं। गाँव वाले मखौल उड़ाते हैं। एक छाते के मोह में इस अधेड़ बच्चे को इतनी बड़ी सज़ा मिली है। बिनिया को यह बात भली नहीं लगती है। एक दिन वह बिस्किट लेने आती है और छाता वहीं छोड़ जाती है। नंदू देखकर गुस्से में उबलता छाते को लकड़ी से पीटता हैं । जैसे कोई बच्ची अपनी गुड़िया को डांट रही हो । जैसे कोई धोबी अपने गधे को पीट रहा हो।

बिनिया बर्फ की चादर पर चली जा रही है। पीछे से नंदू छाता लिए दौड़ा आ रहा है। नंदू कहता है ...." बेटी बिनिया तेरा छाता ?" बिनिया एक त्यागभरी चंचल मुस्कान लिए अंगूठा दिखाते बोलती है " मेरे ठेंगे से .... । " और छाता लिए बिना आगे बढ़ जाती है।

अब गाँव में परिदृश्य बदल जाता है। खत्री चायवाला से दुकान का नाम छत पर लगी लाल-सफ़ेद छतरी से छतरी चायवाला हो जाता है। बच्चे , नंदकिशोर , बिनिया और पर्यटक सभी खुश हैं।

संछिप्त संवाद और बारीक़ अभिनय निकलवाने में जो गलतियाँ रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मों में कर जाते हैं ...विशाल भारद्वाज नहीं करते हैं। उनकी फिल्में तुलनात्मक रूप से ज्यादा रोचक, बेहतर और वास्तविक लगती हैं। साहित्य से फिल्में बनाने में उनका कोई सानी नहीं है। लेखन, निर्माण, निर्देशन और संगीत तक देने वाले विशाल भारतीय सिनेमा के मौजूदा गर्व हैं।

गुलज़ार के लिखे गीत निर्झर बहते हैं। सुकून देते हैं। बिनिया की भूमिका में श्रेया श्रीवास्तव ने सम्पूर्णता दिखाई है। हालाँकि उन्हें अपेछित प्रशंसा नहीं मिल पाई है। फिल्म के निर्माता यू टी वी के रोनी स्क्रूवाला हैं। संपादन आरिफ शेख़ ने किया है जो फ़िल्म की श्रेष्ठता में बराबर के भागीदार हैं। इसका शानदार छायांकन हर दर्शक के लिए दावत है। हिमालय की वादियों से अटा फ़िल्म का हर एक फ्रेम सहेज कर रखने योग्य है।

" सिंग इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी, बचना ऐ हसीनों, गोलमाल रिटर्न्स, ता रा रम पम पम पम, चांदनी चौक टू चाइना ... " जैसी दैत्याकार बजट वाली भोथरी फिल्मों के सामने गौरवान्वित खड़ी यह नीली छतरी अनिवार्यतः सभी को देखनी चाहिए ।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Tuesday, January 13, 2009

" चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन : स्वर्ग के पवित्र बच्चे "



" गुची या प्रादा " आज आप कौन सा जूता पहन रही हैं मैडम ?
फ़िल्म शुरू होते ही इस बाज़ार संसार में से ये बोली सुनाई देने लगती है। उनके लिए .....जो आवश्यकता की सीमा से बहुत ऊपर बसे किसी सितारा लोक में रहते है ।

समाज में दो फाड़ है । एक जिनके पास जूतों के लिए भी महँगे चुनाव मौजूद है । संसाधनों की अतिवृष्टि उन पर बारह महीने होती रहती है। दूसरे जिन्हें जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी नही मिल पाती हैं। आवश्यकता की पूर्ति यहाँ सदैव अनुपस्थित रहती है ।

ईरान में महिलाओं के सिर खुला रखने और पाश्चात्य परिधान पहनने पर समाज में पाबन्दी है। मगर भूमंडलीकरण का ऊँट गुची और प्रादा जैसे जूतों की शक्ल में अरब पार पहुँच चुका है। मजीद मजीदी अपनी फ़िल्म ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन ' में दुनिया भर के बच्चों की मासूमियत का प्रतिनिधित्व करते हैं । फ़िल्म में समाज का यथार्थपरक विश्लेषण मौजूद है ।

9 साल का अली फ़िल्म का मुख्य किरदार है। घर में छोटी बहन जाहरा , माँ और पिता करीम है । पिता दफ्तरों में चाय पिलाता है । माँ लोगों के कपड़े धोती है। फ़िल्म की कहानी अली से शुरू होती है जो अपनी बहन के गंठवाए जूतों को लेकर सब्जी लेने पहुँचता है । अली भीतर नीचे पड़ी सस्ती सब्जियों में से आलू छांटने लगता है। एक बूढा कचरा बीनने वाला अखर आगा की सब्जी की दुकान के सामने पहुँचता है । वह अखर आगा से बाहर पड़ा कचरा उठाने की अनुमति माँगता है । बूढा जूतों को भी कचरे संग बीन ले जाता है । अली बाहर आकर जब जूतों को नही पाता तो उसकी आँखों में पानी बहने लगता है। एक छोटे मेमने की तरह डरा -सहमा इधर - उधर जूते ढूंढ़ता है, लेकिन सब्जीवाला उसे डाँटकर भगा देता है।

घर में क़र्ज़ ग्रस्त माँ - बाप अपनी-अपनी परेशानियों में घिरे हैं । बच्ची जाहरा के जूते गुम है। बच्चा डरा हुआ है कि जाहरा माँ को न बताए ....पिता से न कहे । रात को स्कूल का गृहकार्य लिखते बच्चे ....लिखकर आपस में बातचीत करते हैं। अली लिखता है...."तुम मेरे जूते पहन लो ....मैं तुम्हारी चप्पल पहन लूँगा । ....भगवान के लिए ...... । "

ये मासूम बच्चे इस साँसारिक दुनिया में अपने - अपने पवित्र तरीकों से जीते हैं। बच्ची भाई के बड़े पी टी शू पहनकर जब चलती है तो देखने वालों को हँसी भी आएगी और ..रोना भी। जब जाहरा स्कूल से छुट्टी के बाद संकरी , कीचड़ - खड्डों भरी गलियों में से दौड़ती -हाँफती अली के पास पहुँचती है तब ही जूते-चप्पल बदलकर अली अपनी स्कूल जा पाता है ।

आँगन में बने छोटे पोखर में केसरिया- संतरी मछलियाँ तैरती हैं। मछलियों को दाना खिलाकर और जूते धोते समय पैदा हुए झाग उड़ाकर खुश होते भगवान के ये बच्चे ....अली-जाहरा । दुनिया भर के इन्द्रधनुषी उत्पादों से दूर यही इनका सुख है। गीले जूते अली को दोस्तों संग खेलने जाने से रोकते हैं। रात को बरसात आती है। जूते फिर भीग जाते हैं।

रात का खाना पूरा परिवार साथ खा रहा है। टेलीविजन चल रहा है। कार्यक्रम आ रहा है कि सही जूते न पहने जाएँ तो सरदर्द और कमरदर्द होने लगता है । बाज़ार का ये दावा दोनों बच्चों को भीतर तक सहमा जाता है । तभी टेलीविजन ख़राब आने लगता है । जब इसका परदा सही आता है तो अकस्मात ही एक बम धमाके का दृश्य दिखाई देता है । निर्देशक ने विश्व राजनीति और बाज़ारवाद के बीच का संधान सांकेतिक रूप में इस अन्तिम दृश्य के माध्यम से किया है।

जाहरा के मनोभाव भी तस्वीर के रंगों से शेड्स लेते हैं। बाज़ार में दुकान पर रंग - बिरंगे जूते देख पहनने को आतुर जाहरा , परीक्षा पत्र लिखते सोचती जाहरा कि अली को जूतों बिना स्कूल को देर हो जायेगी और उसे सज़ा मिलेगी , प्रार्थना कि पंक्ति में लड़कियों के पैरों में जूते देखती जाहरा। परीक्षा के बाद वह दौड़ती जाती है कि पानी के तेज़ बहाव वाले नाले में एक जूता गिर जाता है। उसे पाने के लिए हिरणी सी व्याकुल संघर्ष करती , दौड़ती...... कभी इधर-कभी उधर ...रोती जाहरा क्योंकि जूता नाले के अन्दर कहीं कचरे के साथ अटक गया है। सामने खड़ा बूढा दुकानदार रोते देख उसकी मदद करता है । जूता निकल आता है । अली अभी भी इंतजार कर रहा है। जाहरा फिर दौड़ रही है। जूते लंबे हैं। बार -बार पैरों से निकल आते है।

प्रार्थना की कतार में प्यारी बच्ची को दूसरी लड़कियों के पैरों में पड़े जूते ही नज़र आते हैं। ....लाल , काले , अलग-अलग आकर्षक जूते । सहसा उसके जूते किसी दूसरी लड़की के पैरों में दिखाई देते हैं । हमउम्र आबेल के पैरों में। आबेल का पिता अँधा है । अली-जाहरा जूते ढूंढ़ते उसके घर पहुँचते हैं मगर आबेल के अंधे पिता को देखकर लौट आते हैं। इतिहास में त्याग और बलिदान के बड़े उदहारण हैं। बाल फिल्मों के इतिहास में अली-जाहरा का यह त्याग अपूर्व और यादगार है।

रात की नमाज और इबादत के स्वरों के बीच अली अपने पिता करीम की चाय की दुकान पर आए लोगों के जूते सिलसिलेवार करता है । उन्हें चाय पिलाता है। करीम के लिए चाय की दुकान घर चलाने को अपर्याप्त है।

अगले दिन अली अपने पिता के साथ साइकिल पर आगे बैठा शहर के बीच से गुजर रहा है । साइकिल ओवरब्रिज के ऊपर से निकल रही है। हाँफता , साइकिल चलाता , पसीना-पसीना करीम रईसों की बस्ती के संगमरमरी बंगलों में बागवानी कर पैसा कमाने की आस में आया है । संकरी गलियों में रहने और जूतों के लिए संघर्ष करने वाले अली के लिए यह नई दुनिया है।

" यहाँ गेट बजाने पर गाली निकालते ...मना करते बड़े घरों के लोग हैं । घंटी पर घंटी बजाओ ...पर कोई काम नही करवाना चाहता है। एक घर में से कुत्ता भौंकता है.......और बाप-बेटा दोनों साइकिल समेत भाग छुट्तें हैं। ये दुनिया का कैसा विभाजन है ? बड़े घर ....रईस लोग ..लेकिन बात करने को कोई नहीं । घर में झूलों का जमावड़ा है पर साथ में झूलने को कोई नहीं । एक घर में करीम को बागवानी का मौका मिलता है क्योंकि घर के बूढे मालिक का एकलौता पोता अकेला है । साथ में खेलने और बांटने को कोई बच्चा नहीं है । सितारा संसार .....कैसा ? ....सुखी या खोखला ? "

करीम लौटते समय सोचता है कि मोटर साइकिल , प्रेस , अलमारी , बड़ा फ्रिज भी हम खरीद सकते हैं अगर यहाँ काम किया जाए तो । वह खुश है । तभी ढलान आती है । साइकिल के ब्रेक फेल हो जाते हैं। दोनों गिरते हैं और चोटों के साथ घर पहुँचते हैं । परेशानियों या कहें तो इस दुनिया के लोगों के लिए यंत्रणा का दौर जारी है ।

अली के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता होने वाली है । प्रतिभागियों का चुनाव हो चुका है। अली जब देखता है कि तीसरा पुरस्कार जूतों की एक जोड़ी है तो वह शिक्षक के सामने फूट-फूटकर रोता है कि वह जरुर जीतेगा ...उसे ले लिया जाए । उसे रोता देख पी टी आई उसका ट्रायल लेता है । उसकी रफ़्तार देख सहर्ष उसका नाम दर्ज कर लेता है ।

अब भाई -बहन खुश हैं कि जीतने पर जूते मिलेंगे। आज दौड़ का दिन है। इकट्टे सैंकड़ों बच्चे रंग-बिरंगी खेल पौशाक पहने दौड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन अली अपने रोज वाले कपड़ों में बैचेन है कि कब रेस शुरू हो और वह जूते पाए ।

5 किलोमीटर की झील तक होने वाली यह दौड़ शुरू होती है । हजारों बच्चों में एक अली .....दौड़ता जाता है। आँखों के आगे जाहरा के जूते , उन गलियों की स्मृति जहाँ दौड़ते-हाँफते दोनों जूतों की अदला-बदली करते थे और छोटी बहन का चेहरा घूमता रहता है। अग्निपरीक्षा है । अंततः अली जीत जाता है । .....उसका पहला सवाल ....."क्या में तीसरा स्थान जीता ?" ....जवाब आता है .."बच्चे तुम जीत गए ...तीसरा स्थान क्या । "

अली रो रहा है...जीतकर .....हजारों से । क्योंकि वह सोना जीता । एक जोड़ी जूते नहीं । हमेशा देर से आने वाले अली ने आज अपनी स्कूल का नाम रोशन किया है । अभाव में रहकर भी वह.....प्रचुर संसाधन वालों से जीता है।

अली को नहीं पता है कि आज उसके पिता ने दोनों भाई-बहनों के लिए नए जूते खरीदें हैं । वह मायूस घर लौटता है । फटे जूते और मौजे उतारता है । बहन की आशा भरी आँखों से उसकी दुखी नज़रें मिलती हैं । वह समझ जाती है ।

घर के बीच बने छोटे पोखर में अली अपने घायल पैर डाल देता है । तभी केसरिया मछलियाँ तैरती आती है । अपने स्पर्श से उसके घावों को राहत देती हैं । शीतलता के साथ यह बाल कथा यहीं ख़त्म होती है । कहा जाता है कि अली आगे चल कर एक सफल रेसर बनता है ।

1997 में मूल रूप से पर्शियन में बनी " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " 1998 में ऑस्कर पुरस्कारों की विदेशी भाषा की श्रेणी में नामांकित होने वाली पहली ईरानी फ़िल्म थी । मजीद मजीदी ने लेखन और निर्देशन में बेहद शानदार काम किया है । बाल कलाकारों के रूप में आमिर फारुख ने अली के किरदार में जान फूँकी है । परवेज़ जहानशाही का छायांकन फ़िल्म के यथार्थ को उभारने में रीढ़ साबित हुआ है । 90 मिनट की " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " की अधिकतर शूटिंग तेहरान में हुई है ।

आलोचकों ने इसकी तुलना वित्तोरियो दी सीका की 1948 में बनी फ़िल्म " बाईसाइकिल थीव्स " से की है । जेक नियो की 2003 में बनी ' होम रन ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन से प्रभावित थी । हालाँकि होम रन में मुख्य तत्व दोस्ती के इर्द - गिर्द घूमता है । भारत में 2007 में इसकी नक़ल करके " सलाम बच्चे " बनाई गई थी ।

चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन बच्चों की फ़िल्म होते हुए भी सामजिक यथार्थ के विश्लेषण से युक्त है । विश्व सिनेमा से जुड़ा यह पन्ना विशाल भारद्वाज निर्देशित और पंकज कपूर अभिनीत " ब्लू अंब्रेला " की याद दिलाता है ।


गजेन्द्र सिंह भाटी