बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

फालके की कालिया मर्दन जंग लगे केन में पड़ी मिट्टी हो जाती, पी. के. नायर ने जोड़ी, सहेजीः शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर

हमारे वक्त की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक सेल्युलॉयड मैन के निर्देशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर से बातचीत, उनकी डॉक्युमेंट्री भारत में फिल्म संरक्षण के पितामह पी. के. नायर के बारे में है


सन् 1912 में मानसून के बाद बंबई के दादर इलाके में ‘राजा हरिश्चंद्र’ की शूटिंग शुरू हुई। ‘मोहिनी भस्मासुर’ 1914 में प्रदर्शित की गई। उनकी तीसरी फिल्म ‘सावित्री-सत्यवान’ थी। ‘लंका दहन’ सन् 1917 में बनकर तैयार हुई। हनुमान की समुद्र पर उड़ान इस फिल्म का मुख्य आकर्षण थी। हनुमान उड़ता हुआ आकाश में पहले बहुत ऊंचाई तक जाता है और फिर धीरे-धीरे छोटा-छोटा होता जाता है। ‘कृष्ण जन्म’ और ‘कालियामर्दन’ दोनों ही फिल्मों में कृष्ण की भूमिका फालके की बेटी मंदाकिनी ने की थी जो उस समय सात वर्ष की थी। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि ‘कालियामर्दन’ में नाग के फन से नदी में कूदते समय मंदाकिनी साहस नहीं कर पाती थीं लेकिन फालके निर्भीकतापूर्वक उसका साहस बढ़ाते रहते थे। फालके की रुचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में थी। इन कथा फिल्मों के साथ-साथ वे लघु फिल्में भी बनाया करते थे। ‘लंका दहन’ के समय उन्होंने एक लघु हास्य फिल्म ‘पीठाचे पंजे’ बना कर मूल कथा फिल्म के साथ प्रदर्शित की थी। ‘लक्ष्मी का गलीचा’ में उन्होंने ट्रिक फोटोग्राफी और मनोरंजक तरीके से सिक्के तैयार करने की विधि बतायी थी। ‘माचिस की तीलियों के खेल’ में माचिस की तीलियों से बनने वाली विभिन्न आकृतियां दर्शायी गयी थीं। ‘प्रोफेसर केलफा के जादुई चमत्कार’ में फालके ने स्वयं जादूगर का अभिनय किया था। सन 1918 में ही उन्होंने ‘फिल्में कैसे बनायें’ जैसी शिक्षाप्रद फिल्म बनाई थी।

... सोलह फरवरी सन् 1944 को जब दादा साहब फालके का नासिक में देहान्त हुआ, तब तक लोग भारतीय सिनेमा के इस पितामह को भूल चुके थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने गुमनामी और अकेलेपन में बिताये। वर्षों बाद जब कुछ शोधार्थी नासिक पहुंचे तो वहां उन्हें फालके के घर से फिल्मों के जंग खाये डिब्बे मिले। बहुत सी फिल्में मिट्टी हो चुकी थीं। फालके की फिल्मों के इन टुकड़ों को जोड़कर राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ने एक कार्यक्रम तैयार किया।

मनमोहन चड्ढा की 1990 में आई किताब ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास’ में धुंडिराज गोविंद फालके का अध्याय जहां खत्म होता है, हमारी कहानी वहां से शुरू होती है। कहानी पी. के. नायर की। नासिक से पहुंचे जिन शोधार्थियों ने फालके के घर उनकी फिल्मों के जंग खाये डिब्बों की सुध ली थी, वो नायर ही थे। राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के संस्थापक। वो नींव के पत्थर जिन्हें सिनेमा के कद्रदानों के बीच लगभग न के बराबर जाना जाता है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दशकों में बनी दुर्लभ 1700 फिल्में नष्ट हो गईं और उनमें से 9-10 संरक्षित की गईं तो नायर की बदौलत। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (1913), कालिया मर्दन (1919), अछूत कन्या (1936), जीवन नैया (1936), कंगन (1939), बंधन (1940), किस्मत (1943), कल्पना (1948) और चंद्रलेखा (1949) को आने वाली भारतीय सभ्यताओं के लिए बचाकर रखा है। फिल्म संरक्षण के अलावा भी उनका योगदान मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों और कलाकारों तक रहा। रिलीज के दस साल बाद दिलीप कुमार को पहली बार ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अभिलेखागार में से निकाल उन्होंने ही दिखाई थी। आशुतोष गोवारिकर नाम के युवक को अभिनय से निर्देशन में जाने की प्रेरणा देने वाले वही थे। बाद में आशुतोष ने ‘लगान’ और ‘जोधा अकबर’ बनाई। भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे (एफ.टी.आई.आई.) और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय, पुणे (एन.एफ.ए.आई.) में आने-जाने वाले हजारों-हजार फिल्म निर्माण विधा से जुड़े लोगों की जिंदगी का वह हिस्सा रहे हैं। लेकिन पी. के. नायर ने न तो कभी सुर्खियों में आने की कोशिश की, न अपने किए का श्रेय लेने के लिए हाथ-पैर मारे और न ही ये मुल्क इस लायक था कि उन्हें वो इज्जत दे सके। जिन्होंने दादा साहब फालके का खोया ‘भारतीय सिनेमा के पितामह’ होने का गौरव उनकी विलुप्ति के कगार पर खड़ी फिल्मों को बचाकर लौटाया, उन्हीं नायर को अभी तक फालके सम्मान नहीं मिला है। मगर ऐसा लगता है कि अब हमारी तमाम गलतियां सुधरेंगी।
P. K. Nair at his residence in Thiruvananthapuram, Kerala. Photo: Shivendra Singh Dungarpur
 
मुंबई और डूंगरपुर स्थित फिल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने अपने एफ.टी.आई.आई. दिनों के श्रद्धेय व्यक्तित्व नायर साहब पर बीते साल एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई है। उनकी फिल्म ‘सेल्युलॉयड मैन’ नायर के योगदान के अलावा भारत में फिल्म संरक्षण पर बात करती है। बनने के वक्त से ही ये फिल्म दुनिया भर के तमाम विशेष अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है और अभी भी आमंत्रण आ रहे हैं। शिवेंद्र के बारे में बात करें तो वह पहले गुलज़ार की कुछ फिल्मों में उनके सहयोगी रहे और फिर फिल्ममेकिंग की पढ़ाई की। उसके बाद इत्तेफाक (संभावित शीर्षक) फिल्म का निर्देशन शुरू किया जिसमें संजय कपूर, चंद्रचूड़ सिंह, रानी मुखर्जी और करिश्मा कपूर की मुख्य भूमिकाएं थीं। फिल्म पूरी न हो पाई और बाद में वह विज्ञापन फिल्में बनाने लगे। देश के प्रभावी विज्ञापन फिल्मकारों में वह शुमार हुए। बीच में वह ‘गुरुदत्त’ शीर्षक से बायोपिक बनाने वाले थे लेकिन उस पर काम शुरू नहीं हुआ। शिवेंद्र खुद भी लगातार विश्व सिनेमा के संरक्षण में लगे हुए हैं। अल्फ्रेड हिचकॉक की एक फिल्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने आर्थिक सहयोग किया था। मार्टिन स्कॉरसेजी को उन्होंने उदय शंकर की दुर्लभ फिल्म ‘कल्पना’ ले जाकर दी, जब मार्टिन को फिल्म मिल नहीं रही थी। शिवेंद्र लगातार विश्व का भ्रमण कर रहे हैं और दुनिया के अलग-अलग मुल्कों के दिग्गज फिल्म निर्देशकों और सिनेमैटोग्राफर्स से वीडियो साक्षात्कार कर रहे हैं। वह अब तक पॉलैंड के आंद्रे वाइदा (Andrzej Wajda), क्रिस्ताफ जेनोसी (Krzysztof Zanussi), वितोल सोबोचिंस्की (Witold Sobociński), येज़े वोइचिक (Jerzy Wójcik), हंगरी के इज़्तवान साबो (István Szabó), मीक्लोश इयांचो (Miklós Jancsó), पुर्तगाल के मेनुवल जॉलिवइरा (Manoel de Oliveira), स्लोवाकिया के यूराई हेरेस (Juraj Herz), चेक रिपब्लिक के यानी निमेच (Jan Němec), यीरी मेंजल (Jiří Menzel), यारोमीर शोफर (Jaromír Šofr), वीरा ख़ित्येरोवा (Věra Chytilová) और फ्रांस के राउल कूतार्द (Raoul Coutard) से मिल चुके हैं और उनके लंबे इंटरव्यू कर चुके हैं। निजी तौर पर अभी के दिनों में मैंने सिनेमा जगत में इससे उत्साहजनक बात नहीं जानी है। यीरी मेंजल पर तो शिवेंद्र फिल्म भी बना रहे हैं जो जल्द ही हमारे सामने आ सकती है।

तो ‘सेल्युलॉयड मैन’ के सिलसिले में मेरी शिवेंद्र सिंह से बातचीत हुई।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को लेकर कैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं?
अब तक 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है, कुछ और में जाने वाली है, इस तरह कोई 22-25 फेस्टिवल हो जाएंगे। किसी भी भारतीय डॉक्युमेंट्री फिल्म के लिए ये एक रिकॉर्ड होगा। शाजी करुण की ‘पिरवी’ और सत्यजीत रे की ‘पथेर पांचाली’ ही ऐसी फिल्में थीं जिन्हें सबसे ज्यादा फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया गया। उनके बाद ‘सेल्युलॉयड मैन’ ही है। इसका श्रेय नायर साहब को जाता है। पूरे हिंदुस्तान में प्रिजर्वेशन (फिल्म संरक्षण) का माहौल उभरकर आ रहा है। लोगों में जागरुकता आ रही है। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि इतना होगा। आर्काइव्स में हमारी इतनी फिल्में हैं जो यूं ही पड़ी हैं, कोई देखभाल नहीं कर रहा है। मैंने सोचा था कि थोड़ा-बहुत शूट करके कुछ करूंगा। करते-करते तीन साल बीत गए। बिल्कुल नहीं सोचकर चला था कि इतना रिस्पॉन्स आएगा। इतना भारी रिस्पॉन्स कि कुछ ऐसे समारोहों में गई है जहां बहुत ही मुश्किल है जाना। जैसे टेलेराइड जो कोलोराडो में है, वो बहुत ही सलेक्टिव हैं, हॉलीवुड का गढ़ है, वहां बड़ी-बडी हॉलीवुड फिल्में होती हैं, स्टार होते हैं, वहां घुसना बड़ा मुश्किल है, पर उन्होंने चुना। मैं आभारी हूं उनका कि उन्होंने हमें जगह दी और दो-तीन स्क्रीनिंग कराई, अकेडमी (ऑस्कर्स) को दिखाई। फिल्म यूरोप के कई देशों में भी गई है, भारत में हर फिल्म फेस्टिवल में लगी है।

Shivendra at the Il Cinema Ritrovato, Bologna.
सिनेमाघरों में कब तक लाएंगे?
मार्च का सोचा था लेकिन मैं चाहता हूं कि रिलीज ढंग से हो। ये नहीं चाहता हूं कि ऐसी जगह रिलीज हो जाए जहां लोग जाने तक नहीं। इसमें सरकार का भी योगदान चाहता हूं। चूंकि ये एक एजुकेशनल फिल्म है इसलिए पैसे कमाने से ज्यादा जरूरी ये है कि लोगों तक पहुंचे। फ्री होनी चाहिए या इतने कम पैसे की टिकट हो कि लोग बिल्कुल आकर देखें और फिल्म में नायर साहब की बातों का ज्ञान लें। खुद की फिल्म संस्कृति को हम कैसे बचाएं और आगे वाली पीढ़ी के सुपुर्द करें, ये बात है। रिलीज जरूर होगी पर मेरी चिंता यही है कि टिकट की कीमत कम हो, जिनसे भी बात कर रहा हूं ये बात सामने रख रहा हूं। नहीं तो आप उसे मल्टीप्लेक्स में कंपीट करवा रहे हैं और कोई एजुकेशनल फिल्म देखने के लिए पांच सौ रुपये नहीं देगा। आम या आर्थिक तौर पर असमर्थ लोग भी देखना चाहेंगे तो ऐसी फिल्मों में टिकट न्यूनतम कीमत वाली होनी चाहिए।

राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना पी. के. नायर ने की…
हां, एन.एफ.ए.आई. की स्थापना उन्होंने अकेले ही की, और कोई था नहीं उसके साथ। उस वक्त का जमाना अलग था, नेहरुवियन पीरियड था। वो अच्छे विचारों के इंसान थे, कला और कलाकारों के लिए उन्होंने दिल्ली में काफी कुछ किया। मिसेज गांधी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं तो उन्होंने भी काफी योगदान दिया। ये आर्काइव उसी वक्त खुला जब उन्हें लगा कि हमें एक आर्काइव खोलना है। मेरे ख्याल से नायर साहब ये कर पाए क्योंकि उस वक्त ये लोग उनके साथ थे, सहयोग था। आज के माहौल में अलग बात है। आज सबकुछ होने के बाद भी सरकार का ध्यान इस और नहीं जा रहा।

दादा साहब फालके को फादर ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाता है, इसमें नायर का कैसा योगदान रहा?
बहुत बड़ा योगदान था। नायर साहब नासिक गए, फालके के परिवार से मिले, उनकी यूं ही पड़ीं फिल्में उठाईं और सहेजीं। उनकी एक फिल्म कालिया मर्दन (1919) की फुटेज टुकड़ों में पड़ी थी। पी. के. नायर ने फालके के हाथ से लिखे डायरी नोट्स के आधार पर फिल्म को नए सिरे से जोड़ा। उन्होंने फालके के बड़े बेटे से पूछा, उनकी बेटी मंदाकिनी जिन्होंने कालिया मर्दन में काम किया था उनसे पूछा। इस तरह ये फिल्म बची। बाद में उसे मुंबई में 1970 में हुए फालके सेंटेनरी सेलिब्रेशन में दिखाया गया। 1982 में उसे लंदन के एन. एफ. टी. फेस्टिवल में भारतीय हिस्से के तौर पर दिखाया गया। बाद में एविग्नां, फ्रांस में हुए साइलेंट फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। गुलज़ार साहब ने ‘सेल्युलॉयड मैन’ में कहा है कि अगर हम फालके के बारे में आज कुछ भी जानते हैं, वो नहीं जान पाते अगर नायर साहब नहीं होते। हम फालके के बारे में सिर्फ सुनते लेकिन उनकी फिल्म नहीं देख पाते। नायर साहब की बदौलत हम फालके को आज देख पा रहे हैं। वो हर जगह जाकर खुद फिल्में इकट्ठा करते थे, क्लीन करते थे, कैटेलॉगिंग करते थे और आर्काइव में रखते थे।

एक हिला देने वाला आंकड़ा है कि 1700 मूक (साइलेंट) फिल्में भारत में बनीं और बची हैं सिर्फ 9 से 10। इतनी भी बची हुई हैं सिर्फ नायर साहब की वजह से। नहीं तो पहले ही खत्म हो जाता है। आर्काइव खुला 1964 में और हमारी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनी 1913 में यानी उससे पहले 50 साल तो सब खत्म हो चुका था। 50 साल तक तो कोई संरक्षण हुआ ही नहीं। ये बहुत बड़ा वक्त होता है। और फिर फिल्में भी बदल रहीं थीं, साउंड आ गया था।

मैं विदेश जाता हूं तो लोग हैरान हो जाते हैं सुनकर। आप देखिए स्वीडिश फिल्म आर्काइव की वेबसाइट क्या कहती है। उनकी सिर्फ चार फिल्म मिसिंग है, बाकी आज तक के उनके इतिहास में बनी तमाम साइलेंट फिल्में उनके पास सुरक्षित हैं। चार भी वो गायब हैं जो प्रोड्यूसर्स ने दी नहीं हैं या कोई दूसरा चक्कर है। कभी-कभी तो मैं इतना हैरान हो जाता हूं कि हिंदुस्तान की संस्कृति और परंपरा जो इतनी प्राचीन है उसे बचाने का कष्ट हमने कभी किया ही नहीं। नायर साहब अकेले इंसान कितना कर सकते हैं वो भी ऐसे हिंदुस्तान में जहां हर साल हजार फिल्में बनती हैं और हर इंसान को राजी करना, हर इंसान से बात करना कि आप आर्काइव में फिल्म देने के बारे में सोचिए, आप ही की चीज सहेजी जाएगी लेकिन हर सामने वाला सोचता है कि इनसे मैं कितना पैसा निकाल पाऊं।

आपका बचपन कहां बीता? कैसा बीता? आसपास कैसी फिल्में रहीं? फिर फिल्मकारी में कैसे आए?
मैं डूंगरपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। राजपरिवार (पूर्व) से हूं। राजपरिवार से होने का एक फायदा ये हुआ कि मुझमें प्रिजर्वेशन की परंपरा आई। डूंगरपुर का हाउस सबसे पुराने रॉयल ठिकाणों में से है। हम लोग सब सिसोदिया हैं और चित्तौड़ से हैं। हम ओल्डर ब्रांच हैं उदयपुर से। अरविंद सिंह मेवाड़ मुझे काका बोलते हैं। हमारा परिवार सिसोदिया खानदान में हेड ब्रांच है। हमारा जो पैलेस है जूना महल वो 800-900 साल पुराना है इसलिए हम लोग जानते थे कि हिस्ट्री कितनी जरूरी है, प्रिजर्वेशन कितना जरूरी है। मेरी मां डुमरांव (बिहार) स्टेट से हैं जहां से बिस्मिल्लाह खान थे, वह वहां कोर्ट म्यूजिशियन थे, बाद में उनका परिवार बनारस चला गया था। डुमरांव बक्सर से जरा पहले पड़ता है। पटना में दो सबसे बड़े स्टेट हुआ करते थे। एक था दरभंगा और दूसरा डुमरांव। बहुत बड़ी जमींदारी थी। मेरी पैदाइश पटना में हुई क्योंकि मैं अपने पिता का पहला बच्चा था। मेरे पिता समर सिंह जी आईएएस थे, एनवायर्नमेंट मिनिस्ट्री में थे, वहीं से रिटायर भी हुए। मैं पटना में जन्मा इसलिए अपनी नानी के पास डुमरांव में काफी वक्त बिताया। वह नेपाल से थीं। तब राजपरिवार की काफी शादियां नेपाल में होती थीं। मेरी फर्स्ट कजिन सिस्टर राजमाता साहब (पूर्व) जैसलमेर हैं और महारानी ऑफ कश्मीर भी उनकी फर्स्ट कजिन हैं।

मेरी नानी बहुत शौकीन थीं फिल्मों की। वह मुझे अकसर सिनेमाहॉल ले जाती थीं और पूरा सिनेमाहॉल बुक करवाती थीं। तो मेरे ख्याल से मेरा लगाव फिल्मों से उस तरह हुआ। डूंगरपुर में हालांकि मेरा बचपन बीता मगर वो इतने शौकीन नहीं थे, थोड़ी-बहुत इंग्लिश फिल्में देखते थे, लेकिन डुमरांव का परिवार बहुत जुड़ा हुआ था। मुझ पर नानी का बहुत असर था। उनकी वजह से मैंने फिल्में देखीं। जैसे ‘पाकीजा’ मीना कुमारी की और कई ऐसी फिल्में। मैं जब शिक्षा प्राप्त करने दून बोर्डिंग स्कूल गया तो वहां मैंने ठान लिया कि मैं फिल्मों में डायरेक्टर के तौर पर जुडूंगा। वहां चंद्रचूड़ सिंह (एक्टर) मेरे क्लासमेट थे। उन्होंने ठान लिया था कि वह एक्टर बनेंगे और मैंने ठान लिया था कि मैं डायरेक्टर बनूंगा। इन्हीं भावनाओं के साथ हम वहां से निकले। मैंने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज से हिस्ट्री में ऑनर्स किया, उन्होंने भी। हम साथ ही बॉम्बे आए। काफी दबाव था डूंगरपुर परिवार से। वो चाहते नहीं थे कि मैं फिल्मों से जुड़ूं। मेरे ग्रैंड अंकल डॉ. नागेंद्र सिंह इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (हेग) के अध्यक्ष थे और वह चाहते थे कि मैं ऑक्सफोर्ड जाऊं जैसे मेरे दादा गए और मेरे परिवार के बाकी सदस्य गए। डूंगरपुर का परिवार शिक्षा के मामले में काफी आगे था। ...लेकिन मेरे सबसे बड़े सपोर्ट मेरे काकोसा थे राज सिंह डूंगरपुर (क्रिकेटर)। वो एक ऐसी पर्सनैलिटी थे कि उनके जैसी पर्सनैलिटी मैंने देखी नहीं है कहीं। उन्होंने मुझे बेटे की तरह रखा। मैं बॉम्बे उनके पास आया, वहां गुलजार साहब को असिस्ट करना शुरू किया। उनके पास रहकर मुझे इतनी शक्ति मिली कि ठान लिया इसी लाइन में कुछ करूंगा। गुलज़ार साहब के साथ मैंने ‘लेकिन’ में काम किया। एक थोड़ी अधूरी फिल्म थी ‘लिबास’ और कई डॉक्युमेंट्रीज पर काम करते हुए भी मैं उनके साथ ही रहा। वह मेरे गुरु हैं। उन्होंने सोचा कि मुझे फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफ.टी.आई.आई.) जाना चाहिए जहां मैं और बेहतर शिक्षा प्राप्त कर सकूं। लेकिन उस वक्त मैंने अपने पिता के कहने पर लॉ कॉलेज जॉइन कर लिया था। मैं मुंबई की डी रोड़ पर रहता था, वह वानखेड़े स्टेडियम के ठीक सामने है। राज सिंह जी ने अपना घर हमेशा क्रिकेट स्टेडियम के पास ही रखा था क्योंकि क्रिकेट से ज्यादा उनको कुछ सूझता नहीं था। मेरा लॉ कॉलेज ए रोड़ पर था। मैं सुबह जाता था, क्लास करता था और गुलज़ार साहब के पास चला जाता था लेकिन उन्होंने ठान लिया और आदेश कर दिया था कि आप एफ.टी.आई.आई. जाइए। मैंने आवेदन किया, वहां का एडमिशन प्रोसेस काफी मुश्किल था, एंट्रेंस था, इंटरव्यू थे और सीट सिर्फ छह थीं लेकिन मुझे वहां पर एक स्थान मिल गया। तीन साल यानी 1994 की शुरुआत तक मैं वहां पढ़ता रहा।

वहां से आने के बाद मुझे एक फिल्म डायरेक्ट करने का मौका मिला जिसमें संजय कपूर और रानी मुखर्जी थे। रानी मुखर्जी बिल्कुल नईं थी उस वक्त, उनकी फिल्म रिलीज हो रही थी, मैं उनको कंप्यूटर क्लास में मिलने गया था। चंद्रचूड़ सिंह ने कहा था कि “मेरी क्लास में एक लड़की पढ़ती है, उसका नाम रानी मुखर्जी है और वह काजोल की बहन लगती है और उसको देखिए वो हीरोइन के लिए बहुत जंचेगी।” तो हम उसको मिलने गए। काफी बड़ी कास्ट थी। हमने ए. आर. रहमान को लिया। रहमान उस वक्त काफी नए थे, कोई भी साइन करने को तैयार नहीं था उन्हें। लोग कह रहे थे कि इल्याराजा फ्लॉप हो गए तो रहमान क्या चीज हैं। खैर, उस माहौल में मैंने पिक्चर शुरू की। 40 फीसदी फिल्म बनकर तैयार हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर थे मिलन जवेरी, उन्हें पैसा आ रहा था टिप्स से। उस वक्त क्या हुआ कि टिप्स वालों पर गुलशन कुमार मर्डर केस में शामिल होने के आरोप लगे। फिल्म बंद हो गई। और एक-दो पिक्चर जो मैंने साइन की थीं वो भी बंद हो गईं। ये ऐसा वक्त था जब कोई फिल्म पूरी नहीं होती या अटक जाती तो उसे शुभ नहीं मानते थे। अभी दौर बदल चुका है, इंडस्ट्री बदल चुकी है। उस वक्त पुराने यकीनों में लोग चलते थे। उसके बाद काफी स्ट्रगल रहा मेरा। आप विश्वास करिए मुझ पर घर से इतना दबाव पड़ा... उन्होंने कहा कि “तुम ये फिल्म लाइन छोड़ दो, ये क्या है, बकवास है, तुम डूंगरपुर के परिवार से हो, परंपरा से हो, परिवार में पहले कभी किसी ने ऐसा काम नहीं किया है” और बहुत दबाव पड़ा। मेरी मां का मेरे साथ आशीर्वाद था। उन्होंने कहा कि “तुम जो करना चाहो करते रहो।” 1995 से 2001 तक मेरा स्ट्रगल चलता रहा, छह साल स्ट्रगल चला। मैं स्टेशनों पर खाता था खाना। उसी तरह रहता था जैसे कोई स्ट्रगलर रह रहा हो। राजपरिवार से होने का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। फिर विज्ञापन आए। किसी ने मुझे एड फिल्म ऑफर की और वो दौर आज तक चल रहा है। मैंने स्थापना की डूंगरपुर फिल्म्स की 2001 में। विज्ञापन फिल्म एक के बाद एक करने लगा और बहुत कामयाबी मिली। इतनी कामयाबी मिली कि हम दिल्ली में सबसे बड़े प्रोडक्शन हाउसेज में से बन गए। चार सौ कमर्शियल कर चुका हूं अभी तक लेकिन ध्यान हमेशा फिल्मों में था। विज्ञापन फिल्मों में मैंने बहुत कामयाबी हासिल की लेकिन प्यार फिल्मों से ही था। फिल्मों के लिए ही आया था, फिल्मों के लिए ही जी रहा था। राज सिंह जी ने मुझसे एक बात कही थी कि “तुम इस लाइन को तभी जॉइन करो जब उससे उतना ही प्रेम करो जितना मैं क्रिकेट से करता हूं” मैं उनकी वो बातें आज भी नहीं भूला हूं। उन्होंने मुझे ये पहली शिक्षा दी थी और आज भी मैं फिल्मों से ही जुड़ा हुआ हूं। मेरी जिंदगी फिल्म है, सुबह से शाम मैं फिल्में ही सोचता हूं। फिर एक मौका मिला मुझे फिल्म संरक्षण में घुसने का।

एक दिन मार्टिन स्कॉरसेजी का इंटरव्यू पढ़ा मैंने कि बलोना (इटली) में फिल्म प्रिजर्व होती है। मैं वहां का फेस्टिवल देखने चला गया जो जून-जुलाई में होता है इल सिनेमा रित्रोवातो (Il Cinema Ritrovato)। वहां पुरानी फिल्मों को वो रेस्टोर करके दिखाते हैं। उस दौरान मैंने सोचा कि यार हिंदुस्तान में तो इतना खजाना है, उन फिल्मों का क्या होगा। एफ.टी.आई.आई. में नायर साहब का प्रभाव इतना ज्यादा था कि उनसे डरते थे हम लेकिन पर्सनल लेवल पर मैं नहीं जानता था। तो मैंने दोस्तों के साथ मिलकर सोचा कि जाकर नायर साहब से मिला जाए। तब मार्टिन स्कॉरसेजी को ‘कल्पना’ फिल्म की जरूरत थी इंडिया से और वो ट्राई करके बैठ चुके थे, जाहिर है इंडिया में जो सरकारी पॉलिसी है, वह उनकी मदद नहीं कर पाई। मैंने कहा कि मैं आपको ‘कल्पना’ लाकर देता हूं। मैं आर्काइव्स के चक्कर काटता रहा और उन्हें मनाने में बहुत महीने लग गए। मुझे पता था कि ये एक बेहतरीन फिल्म है, इसे उदय शंकर ने बनाया था। बीच में मैंने और अनुराग कश्यप ने मिलकर एक फिल्म लिखी थी गुरुदत्त पर और मैं यूटीवी के लिए उसे डायरेक्ट करने वाला था। उस वक्त ‘कल्पना’ पर हमारी नजर पड़ी। वो इसलिए क्योंकि उदय शंकर का एक स्कूल हुआ करता था अल्मोड़ा में, जिसमें गुरुदत्त पढ़ते थे और गुरुदत्त ने ‘कल्पना’ को टाइप किया था। तो हमने वो फिल्म देखी थी। क्या कमाल फिल्म थी। जब उसे लेने आर्काइव गए तो मेरी नजर पड़ी, मुझे लगा कि नायर साहब पर कुछ करना चाहिए। वहां से मैंने ‘सेल्युलॉयड मैन’ बनानी शुरू की। ‘कल्पना’ भी तब पुनर्जीवित हुई और मेरा पूरा दौर चला रेस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन का। मैं अभी अपना फाउंडेशन खोल रहा हूं जिसमें हम सहेजेंगे और संरक्षित करेंगे। मैंने पूरी फिल्म फिल्म स्टॉक पर शूट की है। मेरा मानना था कि नायर साहब अगर फिल्में इकट्ठा कर रहे हैं और फिल्म केन इकट्ठा कर रहे हैं तो उन पर बनने वाली फिल्म भी फिल्म यानी रील पर ही होनी चाहिए।

नानी मां ने और कौन सी फिल्में दिखाईं? और किसने दिखाई? वो दिन कैसे थे? बाद में क्या पड़ाव आते रहे फिल्म देखने के अनुभवों में?
‘पाकीजा’ का गाना “इन्हीं लोगों ने...” आज भी कहीं चलता है तो मुझे नानी की याद आ जाती है। राज कपूर की ‘श्री 420’ का गाना “रमैया वस्ता वैय्या...” याद है। बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ देखी थी मैंने। ये कुछ ऐसी फिल्में और फिल्ममेकर थे जिनके गाने सुनते रहते थे हम लोग। मेरे ग्रैंडफादर चार्ली चैपलिन, लॉरेल हार्डी और जॉन फोर्ड की अमेरिकी वेस्टर्नर्स और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में देखते थे। उनके साथ मैंने भी देखी। हमारे यहां डुमरांव में उनका खुद का प्रोजेक्शनिस्ट था, प्रोजेक्टर था तो वो अकसर 16 एमएम फिल्में कैलकटा से लाकर दिखाते थे। ये रोज का होता था। फैमिली की जो रोजाना फिल्में शूट होती थीं वो भी देखते थे। थियेटर में जाकर दो-दो शो देखते थे। कभी पटना में देखते थे कभी डुमरांव में, जहां एक शीला टॉकीज होता था। नानी पूरा शीला टॉकीज बुक करती थीं, वो नीचे बैठती थीं और मैं भी नीचे उनके साथ स्टॉल में बैठता था। मेरे पिता भोपाल में पोस्टेड थे और मैं बहुत मुश्किल से उन्हें मना पाता था। जब मैं चार-पांच साल का था तब ‘शोले’ लगी थी और मुझे वो देखनी थी। पर मुझे याद है उन्होंने मना कर दिया था कि आप नहीं जाएंगे और मैं पूरे दिन रो रहा था। फिर अगले दिन मां ने कहा कि ठीक है इसे जाने दो ‘शोले’ देखने के लिए। मैं बच्चन साहब का बहुत बड़ा फैन था और मेरी दोस्ती चंद्रचूड़ से उस कारण ही हुई। क्योंकि दून स्कूल में हम दोनों उनके दीवाने होते थे। हमारे पास एक डायरी थी जिसमें बच्चन साहब की फिल्मों के पूरे ब्यौरे लिखे होते थे। कार, क्रू, क्रेडिट्स सबकुछ। हम सेंट स्टीफंस में भी थे तो कई बार बात करते थे बच्चन साहब के ऊपर। हम लोग इस वजह से बहुत बार क्लास से बाहर निकाले गए। लेकिन लाइफ में गुलज़ार साहब के आने के बाद उन्होंने मुझे अलग किस्म की फिल्में दिखाईं। मैंने पहली बार ‘पथेर पांचाली’ देखी, सत्यजीत रे की। तब मुझे यकीन हुआ कि फिल्म एक आर्ट फॉर्म भी है और इसका पूरी दुनिया में कितना ज्यादा प्रभाव है। इस चीज ने मेरी मदद की। वहां नायर साहब ने दुनिया की नायाब फिल्में दिखाईं और भारतीय क्लासिक्स दिखाईं जो कमाल थी। उससे मुझे काफी ज्ञान प्राप्त हुआ। नायर साहब की फिल्मों की वजह से ही हम आज जो हैं वो हैं। शायद वो न होते तो हमारा वो विजन और फिल्ममेकर बनने की आकांक्षा नहीं आ पाती। तीन महत्वपूर्ण इंसान हैं मेरी जिंदगी में जो मेरे फिल्ममेकर बनने की वजह हैं। पहली मेरी नानी जिनका नाम महारानी ऊषारानी था। उन्होंने मेरा फिल्मों से लगाव लगाया। दूसरे हैं गुलज़ार साहब, वो गुरु हैं, उन्होंने मुझे दिशा दिखाई। और सबसे महत्वपूर्ण हैं नायर साहब जिन्होंने हमें बनाया और जिनकी वजह से हम हैं।

एफ.टी.आई.आई. में आपके बैचमेट कौन-कौन थे जो आज सफल हो गए हैं?
कैमरामैन काफी हैं। सुबीत चैटर्जी हैं जिन्होंने कई फिल्में शूट की हैं। ‘डोर’, ‘चक दे’, ‘गुजारिश’, ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’। संतोष ठुंडिल मेरे कैमरामैन थे जिन्होंने ‘कुछ कुछ होता है’, ‘पिंजर’, ‘कृष’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्में कीं। डायरेक्शन में कोई इतना उभरकर नहीं आया है। प्रीतम (म्यूजिक डायरेक्टर) मुझसे दो साल जूनियर थे। रसूल पोकट्टी (साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर जीते) मेरे से एक साल जूनियर थे।

याद वहां की कोई...
विजडम ट्री तो जिदंगी ही था। वहां बैठकर डिस्कस करते थे क्या फिल्म बनाने वाले हैं क्या नहीं बनाने वाले हैं। पूरी जिंदगी हमारी वहां गुजर गई।

आपने क्या डिप्लोमा फिल्म बनाई थी वहां?
डिप्लोमा फिल्म में इरफान थे पहले, बाद में राजपाल यादव भी थे, शैल चतुर्वेदी करके एक पोएट थे। ये सब थे। अलग फिल्म थी। एक आदमी खुद के प्रतिबिंब से डरता है, उसकी कहानी थी। उसे हमने एक शॉर्ट स्टोरी से लिया था। नाम फिलहाल जेहन में नहीं आ रहा।

एल्फ्रेड हिचकॉक की ‘द लॉजर: अ स्टोरी ऑफ द लंडन फॉग’ क्या आपने डोनेट की थी?
नहीं, मैंने कुछ पैसा दिया था उसे रेस्टोर करने के लिए। हुआ यूं कि मैं हिचकॉक का बहुत बड़ा फैन था। जब मुझे पता लगा कि बीएफआई यानी ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट को पैसा चाहिए उस फिल्म को रेस्टोर करने के लिए तो मैंने कहा कि मैं कुछ पैसा देना चाहूंगा इसके लिए।

उदय शंकर की ‘कल्पना’ (1948) का पुनरुत्थान कैसे हुआ? हाल ही में इसका कान फिल्म फेस्ट में प्रीमियर भी हुआ...
जी, वहां प्रतिक्रिया बहुत ही बेहतरीन रही। देखिए, ‘कल्पना’ इतनी जरूरी फिल्म है, ये अकेली ऐसी फिल्म है जो इतने डांस फॉर्म को एक-साथ फिल्म के रूप में लाती है जिन्हें उदय शंकर ने बनाया था। उनकी डांस एकेडमी में जोहरा सहगल स्टूडेंट रह चुकी हैं, उन्होंने पढ़ाया भी था वहां पर। उनकी डांस एकेडमी बहुत फेमस थी और उन्होंने बड़े इंट्रेस्टिंग और नाटकीय तरीकों से फिल्म को शूट किया था चेन्नई जाकर। जब मुझे पता चला कि ये फिल्म स्कॉरसेजी को चाहिए तो मैंने काम किया और कैसे न कैसे उन्हें लाकर दी। मुझे पता था कि एक बार ‘कल्पना’ रेस्टोर हो गई तो बाकी फिल्मों का भी दौर चालू हो जाएगा और भारत भी उस नक्शे पर आ जाएगा।

नायर साहब की बदौलत अथवा आपकी फिल्म के बाद जो भी प्रिजर्व हुआ है वो लौटकर लोगों तक कितना जा रहा है, या अभी उन्हें आर्काइव्ज में ही रखा जा रहा है?
अभी तक तो आर्काइव में ही रखा है। मैं अपना फाउंडेशन लॉन्च कर रहा हूं। उसका काम होगा फिल्मों को प्रिजर्व करेगी। उसके जरिए हम जितना सेव कर सकते हैं करेंगे, मदद कर सकते हैं करेंगे।

जब फिल्म नई-नई थियेटर में लगती है तो हम बड़ा जजमेंटल होकर देखते हैं, आलोचनात्मक होकर देखते हैं, उनके सामने एक किस्म की प्रतिरोधी शक्ति खड़ी कर देते हैं, लेकिन जैसे ही वो फिल्म कुछ सालों में हमारे नॉस्टेलजिया में जाकर कैद हो जाती है और फिर हमारे सामने आती है तो हम जरा भी जजमेंटल नहीं होते, वो हमारे लिए बस एक प्यार करने वाली, सेहजने वाली चीज बन जाती है। क्या इस सोच या परिदृश्य के बारे में आपने कभी सोचा है?
बहुत सोचा है, बहुत सोचा है। कई बार हम सोचते हैं कि हमें नहीं पता या हम नहीं जानते लेकिन ऐसा होता है कि वही फिल्म कुछ साल बाद जाकर क्रिटिकल तारीफ हासिल करती है। कई बार हम फिल्म को उस वक्त देखते हैं जब हालात कुछ और होते हैं, प्रस्तुतिकरण कुछ और होता है। बाद में देखते हैं तो उसका टाइम कुछ और होता है, फ्रेम ऑफ माइंड कुछ और होता है। कई बार फिल्म वक्त के साथ मैच्योर होती हैं। ये हमेशा रहा है। जब ‘शोले’ की ओपनिंग आई तो लोगों को पसंद नहीं आई, हफ्ते दो हफ्ते शायद कोई नहीं आया लेकिन बाद में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी हुई और लोगों ने आकर देखा तो उन्हें कुछ नई चीज लगी।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को बनाने में कितना वक्त लगा और क्या ज्यादा सिनेमैटोग्राफर इस्तेमाल करने की वजह ये थी कि ज्यादा से ज्यादा अपना योगदान देना चाहते थे?
तीन साल लगे। ग्यारह सिनेमैटोग्राफर हैं और सभी इंडिया में टॉप के हैं। के. यू. मोहनन हैं जिन्होंने ‘तलाश’ शूट की, पी. एस. विनोद हैं जिन्होंने फराह खान की आखिरी फिल्म शूट की थी। संतोष ठुंडिल हैं, किरण देवहंस हैं जिन्होंने ‘जोधा अकबर’ शूट की, विकास शिवरमण हैं जिन्होंने ‘सरफरोश’ जैसी कई बड़ी फिल्में शूट की। अभीक मुखोपाध्याय हैं जिन्होंने ‘रेनकोट’, ‘चोखेर बाली’ और ‘बंटी और बबली’ जैसी कई फिल्में शूट कीं। ये सब 11 लोग इस फिल्म से जुड़े इसकी मुख्य वजह ये रही कि ये सब स्टूडेंट रह चुके हैं एफ.टी.आई.आई. के। इन सबने नायर साहब को देखा है और उनसे प्रभावित रहे हैं। तीन साल में फिल्म अलग-अलग क्षेत्र में शूट हुई तो अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से हमने सिनेमैटोग्राफर लिए। मैं ये दिखाना चाहता था कि कैसे इतने लोग लगे होने के बावजूद फिल्म एक लग सकती है। ये भी कि इतने लोग नायर साहब को पसंद करते हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं।

आपका फिल्म स्टॉक कोडेक का था या कोई और था?
अधिकतर हमने कोडेक किया। कोडेक 16 एमएम कैमरा और कुछ 35 एमएम है। दिलीप साहब वाला हिस्सा हमने पैनाविजन पर किया क्योंकि मैं जानता था कि दिलीप साहब ये आखिरी बाहर इंटरव्यू दे रहे हैं या उसके बाद कोई उन्हें परदे पर इंटरव्यू के लिए नहीं ला पाएगा और वो भी मूवी कैमरा में क्योंकि आपको मालूम है सेल्युलॉयड कैमरा जा रहा है। 16 एमएम कैमरा आमिर खान प्रॉडक्शन से लिया गया किराए पर। कोडेक हमारा मुख्य आपूर्तिकर्ता था, उन्हीं से ज्यादातर लिया। हालांकि छह-सात केन हमें फूजी ने भी दिया, लेकिन मुख्य कोडेक के साथ था।

Shivendra with Dilip Kumar & Saira Banu at their residence.
इसमें दिलीप कुमार और सायरा बानो भी नजर आएंगे?
हां। दिलीप साहब का पूरा इंटरव्यू सायरा बानो जी ने लिया है। मुख्यतः उन्होंने शायरी वगैरह ही पढ़ी हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ दिलीप साहब ने देखी नहीं थी जब रिलीज हुई क्योंकि उन्हें प्रॉब्लम हो गई थी के. आसिफ साहब के साथ। नायर साहब ने वो फिल्म रखी हुई थी। करीब दस साल बाद उन्होंने दिलीप साहब को वो फिल्म आर्काइव्स में से निकालकर दिखाई। रिलीज के दस-बारह साल बाद दिलीप साहब ने वो फिल्म देखी।

मुख्यधारा के हिंदी फिल्म सितारों का भी नायर साहब से यूं जुड़ाव रहा?
जी, जैसे नायर साहब ने एक बार बताया कि संजीव कुमार सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में काम करना चाहते थे। वो आर्काइव्स में नायर साहब से मिलने आए और बोले कि मैंने आर्काइव्स के बाहर घर ले लिया है और आप मुझे रोज सत्यजीत रे की फिल्में दिखाइए ताकि मैं काफी कुछ सीख सकूं उनकी फिल्म में काम करने से पहले। ये बात सिर्फ संजीव कुमार जैसा एक्टर कर सकता था, यही बात नायर साहब ने कही कि इतना लगाव इतना प्रेम, इसलिए वो इतने बेहतरीन एक्टर थे। तो संजीव कुमार महीना भर आर्काइव्स में आते रहे। देखिए, नायर साहब का योगदान ये रहा है। उन्होंने उभरते निर्देशकों को मदद की, इंडस्ट्री को मदद की। विधु विनोद चोपड़ा तो पागल हैं उनके पीछे। राजकुमार हीरानी पागल हैं। आशुतोष गोवारिकर डायरेक्टर बने ही नायर साहब की वजह से। वो एक्टर थे और वहां पर एप्रीसिएशन कोर्स करने आए थे। नायर साहब फिल्में गांव-गांव लेकर गए। नसीरुद्दीन शाह ने बोला है, जया बच्चन ने बोला है कि हम फिल्मों में हैं तो श्रेय जाता है नायर साहब को। शबाना आजमी हों, जानू बरूआ हों, गिरीष कासरवल्ली हों... सब लोगों ने एक ही बात दोहराई है कि आज वो जो भी हैं, नायर साहब की बदौलत।

विज्ञापन फिल्मों और डॉक्युमेंट्री बनाने की आपकी प्रक्रिया क्या रहती है?
विज्ञापन फिल्मों का तो अलग ही होता है, अगर डॉक्युमेंट्री की बात करें तो मैंने एक कॉन्सेप्ट और ओपनिंग सीन लिखे थे। बाकी सब ऑर्गेनिक था। मैं नायर साहब के साथ बैठा, मैंने सोचा कि क्या क्या करना चाहिए, सवाल लिखे।

वर्ल्ड सिनेमा के अजनबी दिग्गजों को आप जाकर इंटरव्यू कर रहे हैं?
वो मेरा आर्काइवल मामला है। मैं चाहता हूं कि जितना आर्काइव कर सकूं हिंदुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में। तो मैं घूमता रहता हूं और जिन निर्देशकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है उनसे मिलने चला जाता हूं। उतना अच्छा।

इन इंटरव्यू की लंबाई कितनी है?
तकरीबन तीन-तीन घंटे के होंगे।

भाषाई मुश्किल आई होगी?
नहीं, जहां भी गया वहां मेरे साथ ट्रांसलेटर रहे। हम लोग एंबेसी से बात करके ट्रांसलेट करते थे। काफी लंबा प्रोसेस हो जाता है।

इन्हें शेयर भी करेंगे?
हां, हमारी अगली डॉक्युमेंट्री एक चेज़ फिल्ममेकर हैं जीरी मेंजल (Jiří Menzel), उन पर है। धीरे-धीरे शेयर करेंगे। अगर ये डॉक्युमेंट्री एक साल में तैयार हो जाएगी तो उसे शेयर करेंगे।

कुछ वक्त पहले आपने एक फोटोग्राफर जितेंद्र आर्य की जिंदगी पर भी इस स्टाइल में एक डॉक्युमेंट्री प्रोड्यूस की थी ‘की-फिल कट’?
वह ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में थे और बहुत ही जानी-मानी हस्ती थे। इतने बड़े फोटोग्राफर थे कि उन्होंने बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री के बहुत सारे लोगों को प्रभावित किया था। हमने ये सोचा कि क्यों न उनपर एक छोटी सी डॉक्युमेंट्री बनाई जाए। क्योंकि ये ऐसे लोग हैं जिन्हें धीरे-धीरे सब भूल जाएंगे। उसे एक लड़की है अरवा मामाजी उसने डायरेक्ट किया था।

पर क्या ये प्रसारित हो नहीं पाई?
ये दरअसल उनकी वाइफ के सुपुर्द की गई थी फिल्म। उन्होंने ही इसे बांटा। एक आर्काइवल प्रोसेस था। जितने भी फोटोग्राफी क्लब हैं, सोसायटी हैं, काला-घोड़ा फेस्टिवल है, इन सभी में इसे दिखाया गया। क्योंकि एक तो इसकी लंबाई काफी छोटी थी और दूसरा ये निजी भी थी आर्काइवल महत्व की इसलिए।

किसी चैनल पर दिखाने की कोशिश नहीं हुई?
अब हिंदुस्तान में भला कौन सा चैनल लेगा, उन्हें डेली सोप से फुर्सत ही कहां है।

आपके कश्मीर में साक्षरता और कोढ़ व एड्स पर बनाए सरकारी विज्ञापन बाकी आम विज्ञापनों से जुदा हैं...
दरअसल कोढ़ और एड्स दोनों ही सरकार के प्रोजेक्ट थे तो बनाने का अंदाज मैंने नेचुरल रखा। आइडिया था कि वहीं के लोगों को चुना जाए। वो मेरा निजी मानना था कि लोग वहीं के हों, उस गांव के हों और नेचुरल रहें। ताकि जो बात कहनी है वो जाकर उन्हें छुए। वो जो फिल्म है वो कश्मीर पर है और उसे वहीं कश्मीर के बॉर्डर पर शूट किया, बच्चे भी वहीं के थे। मेरा हमेशा ये अंदाज रहा है कि जितने नेचुरल लोग रहें, जिनती नेचुरल जगह रहें और जितना स्पोंटेनियस मेरा अंदाज रहे तो ही फिल्म अच्छी बना पाएगी।

जब इंटरनेशनल ब्रैंड या मल्टीनेशनल्स के विज्ञापनों को आप करते हैं, बतौर फिल्मकार या बतौर विज्ञापन फिल्मकार आप उनमें संवेदनाएं, मासूमियत और त्याग वाले इमोशंन डालते हैं, रिश्तों को पिरोते हैं। ये सब दिखने में बहुत सुंदर और शानदार बन पड़ता है लेकिन उसकी जो एंटी-कैपिटलिस्ट या सोशलिस्ट आलोचना है कि बड़े ब्रैंड्स का हम मानवीयकरण करके उन्हें बेचने की कोशिश करते हैं, उसे आप कैसे लेते हैं? आपका निजी मत उस ब्रैंड और ऐसा करने पर क्या रहता है? इन लॉजिक को आप ध्यान में रखते हैं या सिर्फ कहते हैं कि मैं तो अपना काम कर रहा हूं, आप बहस या जो समझना है समझो। आप ये समाज पर छोड़ देते हैं?
नहीं, ये डिबेट अकसर रहती तो है। मुश्किल रहता है हमेशा लेकिन मैं एक फिल्ममेकर के तौर पर उसे लेता हूं क्योंकि समाज इतना बेवकूफ नहीं है। मैं ये मानता हूं। आप अगर कोई चीज लेने जा रहे हो मार्केट में तो आपको पूरा यकीन है कि वो क्या है। लेकिन कुछ ऐसे ब्रैंड हैं जो मैं करता नहीं हूं जैसे फेयर एंड लवली हैं। मैंने इन ब्रैंड को हमेशा मना किया है। मेरा उस पर एक निजी टेक रहता है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिनके सिक्के की तरह दोनों पहलू देखता हूं। मैं आपको बताता हूं, एक फिल्म मैंने की, वेदांता पर। पीयूष पांडे उसमें क्रिएटिव थे, वह राजस्थान से हैं, जयपुर के हैं। उन्होंने विज्ञापनों में हिंदुस्तानी परंपरा डाली जो पहले पूरी तरह अंग्रेजों के थे। तो पीयूष भाई मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि एक एड फिल्म बनानी है वेदांता पर, वो भी उदयपुर में और गांव होगा डूंगरपुर के पास में। तुम अपने तरीके से बनाओ। मुझे कई लोगों ने कहा कि वेदांता पर तुम कैसे कर सकते हों शिवी... उनका तो उड़ीसा में और वहां-वहां ये चल रहा है। जब मैंने खोदकर निकाला तो सिटी बैंक और आई.सी.आई.सी.आई. बैंक उन्हें सपोर्ट कर रहे थे, तो मैंने सोचा कि यार 80 फीसदी हिंदुस्तान इन बैंकों से जुड़ा हुआ है और यही बैंक वेदांता को सपोर्ट कर रहे हैं तो किस नजरिए से इसे देखें। क्या सही है क्या गलत है। तो इसका मतलब क्या आई.सी.आई.सी.आई. बैंक को हम बंद कर दें क्या। दरअसल जिस समाज में आज हम रह रहे हैं, उसमें ये बहुत मुश्किल चुनाव हमारे सामने रख दिए गए हैं। क्या गलत है क्या सही है, हर चीज के दो पहलू हैं, हर चीज कैपिटलिस्ट है और हर चीज नहीं भी। आपको बस अपना काम करना है। वो ही जरूरी है कि कितनी ईमानदारी से आप काम कर सकते हो। फिर मैंने गांव में जाकर चुना और अपने तरीके से उसे दिखाया और जो दिखाया वो बातें सच थीं। क्योंकि मैं खुद गया था वहां और स्कूलों में उन्होंने प्रभावित था और दूसरे काम करवाए थे। जितना डेमेज वो कर रहे होंगे, उससे ज्यादा तो कई और लोग कर चुके होंगे। सब कुछ एक चक्र हो चुका है, हम उस चक्र से बने समाज में आ चुके हैं। ऐसे समाज में जो है, अब नहीं बदलने वाला। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हुए खुद को चॉकलेट, वॉशिंग पाउडर जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर ही रखा है जहां पर मैं समझता हूं लोग जानते हैं कि कौन सा सर्फ या पाउडर बैटर है। वो तो हमारे रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज है, उसे तो कम्युनिस्ट भी इस्तेमाल कर रहा है। वो भी दुकान में जाकर उसको ले रहा है, चॉकलेट भी खा रहा है। तो कोशिश पूरी करता हूं कि वहां न जाऊं जहां हम बच्चियों-बच्चों को ललचा रहे हैं, पर हो तो रहा है। पर डिबेट तो रहती ही है और मैं नहीं कहता हूं कि मैं बाहर आ गया हूं इससे, मैं भी फंसा हूं इसी चक्र में जैसे बाकी लोग फंसे हैं।

जैसे डोमिनोज का आपका विज्ञापन है, उसे देखकर लगता है कि क्या आप पिज्जा बेच रहे हैं संवेदनाओं के सहारे या फिर आप एक विकल्प दे रहे हैं कि दूसरों के बारे में सोचो या मिल बांटकर खाओ, चाहे पिज्जा हो या जलेबी?
उसमें अगर आप देखें तो डोमिनोज भी बहुत बाद में आता है। उसमें भी हमने बहुत जोर नहीं डाला है। उसे बहुत सामान्य रखा है कि फोन किया, ऑर्डर दिया और डोमिनोज आ गया। आप चाहें तो उसे महज एक फिल्म के तौर पर भी देख सकते हैं बच्चों ने मिलकर एक बुजुर्ग के लिए कुछ किया। बाद में डोमिनोज की तरफ इशारा जाता है तो मेरे ख्याल से वो एड ज्यादा तो बच्चों के बारे में है।

तो क्या जिस चक्र की बात आप कर रहे हैं वो एक न पलटी जा सकने वाली प्रक्रिया बन चुका है?
लेकिन हम ये कोशिश जरूर कर सकते हैं जो भी काम अब करें वो नए सिरे से करें, उस प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए न करें, सच्चाई के लिए करें। बाकी ये दुविधा हमेशा बनी रहने वाली है। हम बस वैल्यूज को बनाए रखें कि जहां हो सके दूसरे के बारे में सोचें, उसकी मदद करें। इससे ज्यादा कुछ करना भी चाहेंगे तो वो छद्म जीवन जीना हो जाएगा।

आपकी जितनी एड फिल्में मैंने देखी, उनमें डीटीएच है, ग्रीनप्लाय है या टाइम्स ऑफ इंडिया है, व्हील है... उनमें काफी रंग, इंसान और परते हैं। इन्हीं सब चीजों से अच्छी-खासी फीचर फिल्में बन सकती थीं, तो फिल्में क्यों नहीं?
मेरी सफलता की एक वजह ये रही कि मैं जब विज्ञापन जगत में आया तो सब लोग स्टूडियो में शूट कर रहे थे, उनके विज्ञापन परफेक्शन और ब्यूटी वाली छवियों से भरे लगते थे। मेरी शुरुआती एड फिल्मों में एक थी विम साबुन की, उसमें रीमा सेन और राजपाल यादव थे। उसे मैंने वीटी स्टेशन के बाहर शूट किया। मुझे कहा गया कि यार ये क्या कर दिया तुमने। लेकिन मैं विज्ञापनों को सड़क पर लेकर गया। क्योंकि तब जितने बन रहे थे उनमें जिंदगी होती ही नहीं थी। जैसे ऐश्वर्या का एक आता है... इतना ब्यूटीफुल सा होता है कि लाइफ लगती ही नहीं है उसमें। मेरे लिए जो जिंदगी मैं जी रहा हूं वही विज्ञापन हैं। अपने हर विज्ञापन में संस्कृति, विविधता और भारतीय डांस फॉर्म को शामिल करता रहा हूं। क्या ये एंटरटेनमेंट नहीं है, अगर आप देखते नहीं हैं तो क्या है नहीं। ये विरोधाभास मैंने दिखाया। वैसे मैं हमेशा से फिल्ममेकर ही था। हर एड को फिल्म समझकर ही शूट किया। क्योंकि न मैंने एड फिल्म बनानी अलग से सीखी थी न मुझे आती थी, मुझे फिल्म बनानी आती थी, मैं उन्हीं से एड फिल्मों में आया था। मुझे लगता है कि जो एडवर्टाइजिंग से फिल्मों में आए हैं वो ज्यादा गहराई में जा नहीं पाते, कुछेक ही हैं जो बहुत सफल हो पाए हैं। क्योंकि एक 30 सैकेंड के एड में आपको कैरेक्टर डिवेलप करना है, उसमें आप अलग माहौल में जी रहे हैं, लोगों की नब्ज के बारे में सोच रहे हैं.. लेकिन अगर आप फिल्मों से एडवर्टाइजिंग में आए हैं तो आपने लोगों को देखा है, उनके जीवन को जाना है।

फीचर फिल्में कब बनाएंगे?
फिल्मों में मैं हमेशा से ही था। बेहद यंग डायरेक्टर था उस वक्त मैं, कोई 23 साल का था और डायरेक्शन कर चुकने के बाद मुझे एड फिल्मों में जाना पड़ा। गुरुदत्त पर भी स्क्रिप्ट लिख रहा था लेकिन कुछ प्रॉब्लम्स आ गईं और वो ठहर गई, बनती तो अभी तक पूरी हो गई होती। अब फिर स्क्रिप्ट लिख रहा हूं, जल्द ही पूरी कर लूंगा, मेरा असल प्यार तो फिल्ममेकिंग ही है न।

शुरू में जो फिल्म बना रहे थे, उसके बारे में बताएं?
उसमें संजय कपूर, करिश्मा कपूर, रानी मुखर्जी, ओम पुरी, चंद्रचूड़ सिंह, काव्या कृष्णन, नम्रता शिरोड़कर, डैनी, फरीदा जलाल, जॉनी लीवर वगैरह सब थे। ए. आर. रहमान का म्यूजिक था। गुलज़ार साहब गाने लिख रहे थे। वो लिखी थी श्रीराम राघवन, मैंने और करण बाली साहब ने। श्रीराम मुझसे एक साल सीनियर थे। करण बाली भी एक साल सीनियर थे, फिलहाल वो एक अच्छी साइट अपरस्टॉल चलाते हैं। उसमें सीनियर पर्सन थीं रेणु रलूजा जो एडिटर थीं, बाकी सब नए थे। शर्मिष्ठा रॉय जो आर्ट डायरेक्टर थीं वो भी नईं थीं। तब उन्होंने यशराज की बड़ी-बड़ी फिल्में नहीं की थीं। उसका संभावित शीर्षक इत्तेफाक रखा था, राइट्स नहीं लिए थे। वो राइट्स बी. आर. चोपड़ा साहब के पास थे।

आपकी हरदम पसंदीदा फिल्में कौन सी रही हैं?
पथेर पांचाली (1955)। एक याशुजीरो ओजू की जापानी फिल्म टोकियो स्टोरी (1953) थी। एक आंद्रेई टारकोवस्की की द मिरर (1975) थी। ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा (1960)। ला वेंचुरा (1960) मिकेलेंजेलो एंटिनियोनी की। अकीरा कुरोसावा की राशोमोन (1950)। विट्टोरियो डि सीका की बाइसिकिल थीव्स (1948)। एल्फ्रेड हिचकॉक की नॉर्थ बाइ नॉर्थवेस्ट (1959)। ग्रैंडफादर जॉन फॉर्ड और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में लाते थे, वो भी थीं। ये सब फिल्में देखकर मेरा दिमाग अलग ही दिशा में चला गया।

अभी भी देखते हैं वर्ल्ड सिनेमा में जो रचा जा रहा है?
हर वक्त। सुबह, शाम, रात फिल्में ही देखता हूं। शूटिंग, मीटिंग, प्रोजेक्ट, फिल्म फेस्टिवल्स इनकी वजह से ट्रैवल बहुत करता हूं। फाउंडेशन का काम चल रहा है। मेरा खुद का वॉल्ट है जहां फिल्में रखता हूं उसकी क्लीनिंग चल रही है। जीरी मेंजल पर डॉक्युमेंट्री बना रहा हूं, सेल्युलॉयड मैन पर काम चल रहा है। एड फिल्में चलती रहती हैं, आर्काइव का काम चलता रहता है, मेरी स्क्रिप्ट चल रही है। चार ऑफिस हैं, उन्हें संभालना आसान नहीं है। दिन कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता, कभी-कभी तो वक्त के इतने तेजी से गुजर जाने से डरता हूं। मैं लिखता भी बहुत हूं। रोज की डायरी है, सेल्युलॉयड मैन की डायरी है उस पर लिखता हूं। आज भी इंक और पैन से लिखता हूं इसलिए मैं मेल बहुत कम लिखता हूं। लेटर्स लिखता हूं, पोस्टकार्ड लिखता हूं... ये सब मेरे शौक हैं। मैं बॉम्बे में एक लैब को स्पॉन्सर करता हूं जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट में गोल्ड प्रिंट निकलता है।

फिल्में देखने का जरिया क्या रहता है?
बड़ी स्क्रीन पर देखता हूं। मेरे ऑफिस में मिनी थियेटर है। वैसे मैं सिनेमा हॉल प्रेफर करता हूं, क्योंकि फिल्ममेकर ने उन्हें इसी लिए बनाया है। मगर जब कोई फिल्म निकल जाती है तो डीवीडी पर।

राजस्थानी फिल्में देखी हैं आपने? वहां का क्या सीन लग रहा है?
मुझे मालूम है कई लोगों ने वहां हिस्टोरिकल फिल्में भी बनाई हैं। लेकिन अभी तक कोई फिल्म नजर नहीं आई है जिसे कह सकूं कि मुझे पसंद आई हो। मुख्य चीज हमारे वहां ये है कि डायलेक्ट या बोलियां बहुत ज्यादा हैं, रीजनल बहुत ज्यादा है इसीलिए वहां हिंदी ज्यादा चल रही है। आप एक रीजन को लेकर बनाएंगे तो वो राजस्थान के बाकी इलाकों में नहीं चलेगी। ये समस्या है। आप रीजनल बंगाली में बना सकते हैं, पूरे बंगाल में वही चलता है। उड़ीसा में उड़िया पूरे में चलती है। कर्नाटक में वहां की एक भाषा है। लेकिन राजस्थान में दिक्कत ये है कि जो भाषा जयपुर में है वो बीकानेर या जैसलमेर में नहीं है, जो वहां है वो बाकी हिस्सों में नहीं है। किसी भी एक में राजस्थान करके फीलिंग नहीं आएगी।

P. K. Nair at the archive, 2009.
Shivendra Singh Dungarpur is an Indian filmmaker. He's directed over 400 commercials. His latest is a 2012 documentary ‘Celluloid Man’. The FB page of Celluloid Man says, "It is a tribute to an extraordinary man called Mr. P.K. Nair, the founder of the National Film Archive of India, and the guardian of Indian cinema. He built the Archive can by can in a country where the archiving of cinema is considered unimportant. The fact that the Archive still has nine precious silent films of the 1700 silent films made in India, and that Dada Saheb Phalke, the father of Indian cinema, has a place in history today is because of Mr. Nair. He influenced generations of Indian filmmakers and showed us new worlds through the prism of cinema. He is truly India’s Celluloid Man. There will be no one like him again."
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