Sunday, July 31, 2011

गायें जलाते एलियन और हीरोइक चरवाहे

फिल्म: काऊबॉयज एंड एलियंस (अंग्रेजी)
निर्देशक: जॉन फेवरॉउ
कास्ट: डेनियल क्रेग, हैरिसन फोर्ड, ओलिविया वाइल्ड, सैम रॉकवेल, पॉल डेनो
स्टार: तीन, 3.0

पहले ही दृश्य में जब पथरीले खाली लैंडस्केप में कैमरा शांति से मूव कर रहा होता है। अचानक से फ्रेम में डेनियल क्रेग ठिठक आता है। बेहोशी से जागा हुआ। फिर तीन काऊबॉयज उसे परेशान करने लगते हैं और वह करारा जवाब देता है। अच्छा सीन है। एक और सीन में कर्नल बने हैरिसन के मवेशियों को चराने वाला नदी किनारे दारू के नशे में हल्का होने को होता है कि बड़ा धमाका होता है। वह नदी में गिर जाता है। बाहर आकर देखता है तो सारी गायें और मवेशी जल रहे होते हैं। इन दो सीन में जो गैर-मशीनी रोचक बात है, वह मूवी में आगे भी जारी रह पाती तो मजा आ जाता। हालांकि ये एलियंस से न्यूक्लियर हथियारों के साथ लडऩे वाली फिल्मों से काफी दूर है और हमारा टेस्ट बदलती है। मेरे लिए यही खास है। इस जॉनर की कहानियों में इस तसल्लीबख्श फिल्म को फ्रेंड्स को साथ देख सकते हैं। फैमिली के साथ भी। बस अति-महत्वाकांक्षी होकर न जाएं।

चरवाहों और एलियंस की शत्रुता
एरिजोना के बंजर रेगिस्तान की बात है। जेक लोनरगन (डेनियल क्रेग) की बेहोशी एकदम से टूटती है। याददाश्त गायब है। कलाई पर एक रहस्यमयी चीज बंधी है। वह अगले टाउन में घुसता है। धीरे-धीरे पता चलता है कि वह बड़ा लुटेरा है। इस टाउन के सबसे ताकतवर आदमी कर्नल डॉलराइड (हैरिसन फोर्ड) का सोना भी उसने लूटा था। ये सब अपने पुराने हिसाब चुकता करें, उससे पहले इन पर एलियन विमानों का हमला होता है। कर्नल के बेटे पर्सी (पॉल डेनो) को भी बाकी लोगों की तरह ये विमान उड़ा ले जाते हैं। अब जेक, कर्नल और एक घूमंतू लड़की एला (ओलिविया वाइल्ड) अपने दोस्तों-दुश्मनों सबसे मिलकर इन एलियंस से टक्कर लेते हैं।

कंसेप्ट हमें खींचता है
मॉडर्न अमेरिका में एलियन अटैक हमने बहुत देख लिए। 'बैटलफील्ड: लॉस एंजेल्स', 'इंडिपेंडेंस डे', 'वॉर ऑफ द वल्ड्र्स', 'प्रिडेटर' और 'मैन इन ब्लैक' जैसी दर्जनों फिल्में हमारे सामने हैं। ये जो एलियन-काऊबॉय की लड़ाई है यहां कोई अत्याधुनिक हथियार और फाइटर प्लैन नहीं है। काऊबॉयज को लडऩा है तो ले-देकर अपने घोड़ों पर चढ़कर और पिस्टल-राइफल्स के सहारे। बिल्कुल नया और तरोताजा करने वाला ये कंसेप्ट है। साथ ही गुजरे दौर की तासीर वाले 'बॉन्ड' ब्रैंड डेनियल क्रेग हैं और 'इंडियाना जोन्स' छाप (बूढ़े होते) हैरिसन फोर्ड हैं। चूंकि बात 1873 की है, इसलिए एलियंस को सोना चाहिए।

कहानी के वक्त से न्याय
डेनियल ने उस दौर के हिसाब से अपना वजन कम किया है। एलियंस जानवरों की तरह भागते और शैतानों की तरह दिखते हैं, जो कहानी के टाइम के साथ न्याय करता है। लोकेशन और कॉस्ट्यूम्स में कोई नुक्स नहीं हैं। बस कहानी में बहुत सी जगहों पर गैप नजर आते हैं। इंतजार करना पड़ता है। इसे कमी भी माना जा सकता है और शोर-शराबे से दूर एक पीसफुल अलग टेस्ट वाली एलियन मूवी भी। क्लाइमैक्स में भी ज्यादा खौफ और डर पैदा करने की कोशिश नहीं की गई है। आखिर हमारे हीरो लोगों को अजेय जो बताना है भई। जैसे हमारी साउथ की फिल्मों में होता है। हीरो एक भी मुक्का नहीं खाता है। इस फिल्म पर आते हैं। एलियंस किसी लेजर रोशनी से इंसानों को नहीं सोखते हैं, बल्कि जंजीरों और हुक से खींचकर उड़ा ले जाते हैं। इस तथ्य को भी फिल्म के प्लस में रख लीजिए।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 30, 2011

एक स्क्रिप्ट जिसे रद्दी में होना था

फिल्म: गांधी टु हिटलर
निर्देशक: राजीव रंजन कुमार
कास्ट: रघुवीर यादव, नेहा धूपिया, नलिन सिंह, निकिता आनंद, अमन वर्मा, लकी वखारिया
स्टार: एक 1.0

पचास मिनट। पचास मिनट हैं आपके पास। ये फिल्म झेलने के लिए। क्योंकि ज्यादा चांस यही है कि उन चार लोगों की फैमिली की तरह आप भी पचासवें मिनट तक थियेटर से उठकर चले जाएंगे। मैं हिम्मती था तो बैठा रहा। ऐसा नहीं है कि लोग सीरियस फिल्में देखना नहीं चाहते। बस राकेश रंजन कुमार का डायरेक्शन हो और नलिन सिंह का लेखन हो तो सीरियस, पॉलिटिकल और विचाराधारा वाले विषयों पर बनी हिंदी फिल्मों से विश्वास उठ जाता है। हिटलर का भय क्या होता है और उसका ऑरा क्या था ये जानना है तो आप 2008 में आई निर्देशक ब्रायन सिंगर की फिल्म 'वॉलकायरी' देखिए। इसमें हिटलर बने डेविड बैंबर को देखिए, कर्नल स्टॉफनबर्ग बने टॉम क्रूज को देखिए। 'गांधी टु हिटलर' में हम कहानी कहने के निहायती गैर-गंभीर तरीके से किसी भी फिल्मी मनोरंजन वाले भाव को तरस जाते हैं। फिर होता ये है कि रोने वाले सीन में भी हम निर्दयी बनकर हंसते हैं। मेरी सख्त चेतावनी - ये फिल्म कभी न देखें।

विचारधारा की फेल कहानी
दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर (रघुवीर यादव) की सेना कमजोर पड़ रही है। आजाद हिंद फौज बनाने वाले बोस (भूपेश कुमार) जर्मनी छोड़ देते हैं और 1945 में उनके सैनिक जंगलों-पहाड़ों में भटकते हैं। बलवीर सिंह (अमन वर्मा) और उसके पांच-छह साथियों की टुकड़ी भी भटक रही है। बलवीर की गांधीवादी वाइफ अमृता (लकी वखारिया) पति के लौटने का इंतजार कर रही है। इंडिया में गांधी (अविजीत दत्त) अंहिसा का महत्व पढ़ा रहे हैं। कहानी गांधी, हिटलर और बलवीर के तीन सिरों पर चलती है।

सीरियस विषय, बचकाना ट्रीटमेंट
पूरी फिल्म में रघुवीर सैनिक वर्दी की बजाय सूट पहने हैं, जो हिटलर को ऑथेंटिक और प्रभावी नहीं बना पाता। उनका अंग्रेजी एक्सेंट कमजोर है। ऐसे में उनके मुंह से शेक्सपीयर के उद्धरण बेहद अप्रभावी लगते हैं। फिल्म की सबसे बड़ी नाकामी यही है कि इस हिटलर से जरा भी डर नहीं लगता। नलिन शर्मा हिटलर के प्रॉपगैंडा मिनिस्टर जोसफ गॉबेल्स बन हैं। गॉबेल्स को वह क्षण भर भी नहीं जीवित कर पाते। साथी कलाकारों पर वह बोझ की तरह लगते हैं। जर्मनी की गोरी चमड़ी वाली सेना के उलट फिल्म में हिटलर और उनके सब कमांडर सांवले हैं। यही नहीं फ्रांसीसी सेना और रूसी सेना के सैनिक भी सांवले हैं। अब जिसने इतिहास पढ़ा है और ऐसे इश्यू पर बनी हॉलीवुड या यूरोपियन मूवीज देखी हैं, वो इस तथ्य को कैसे निगल पाएगा। इस फिल्म के शॉट्स के साथ दूसरे विश्वयुद्ध की असली रॉ फुटेज मेल नहीं खाती।

फिल्म बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
अविजित दत्त ने गांधी के रोल के साथ न्याय किया है। वो कद, त्वचा, चाल और भावों से ऑथेंटिंक गांधी लगते हैं। पर दो सीन छोड़कर पूरी फिल्म में वह बस चलते रहते हैं। इसका कोई सेंस नहीं बनता। बताया गया था कि हिटलर को गांधी के लिखे खतों पर ये फिल्म आधारित है। फिल्म जब खत्म होने को होती है तब ऐसा जिक्र आता है। दूसरा हिंसा और अहिंसा जैसी सीरियस विचाराधाराओं से साथ न्याय भी नहीं हो पाता है। अमन वर्मा का अभिनय फिल्म में सबसे बेहतर है। मगर जंगलों में भटकते उन्हें अपनी बीवी के और उनकी बीवी को उनके खत कैसे मिलते हैं, ये समझ नहीं आता। स्टोरी डिवेलपमेंट जैसा कुछ भी इस स्क्रिप्ट में नहीं है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, July 27, 2011

वो जो सोसायटी के ढांचे पर प्रहार करना चाहते थे

फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' का केंद्रीय किरदार जो गन चलाकर "न्याय" करता है.

आंदर्स. गिरफ्तार होने के बाद.
आंदर्स बेरिंग ब्रूविंग ने पिछले हफ्ते नॉर्वे में हुए नरसंहार को करना तो कबूल लिया है, मगर उसकी आपराधिक जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं किया है। उसे नहीं लगता कि उसे सजा मिलनी चाहिए। उसके वकील गेर लिपिस्टेड कहते हैं, "आंदर्स ने माना था कि इन कृत्यों को करना बहुत ही निर्मम था, पर उसके दिमाग में इनका किया जाना जरूरी था। वह सोसायटी और सोसायटी के ढांचे पर प्रहार करना चाहता था।"

आंदर्स से आते हैं इस केस के मनोविज्ञान पर और ऐसे विषयों की प्रतिनिधि फिल्मों पर। ऐसी फिल्में जो महीन तरीके से 'मेकिंग ऑफ अ किलर' विषय का स्टडी मटीरियल बनती हैं। जो सोसायटी पर अटैक करने वालों के मन में घुसती हैं। दो महीने पहले रिलीज हुई निर्देशक जेसन आइजनर की कैनेडियन फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' एक हक्का-बक्का करने वाली फिल्म है। इसमें 67 साल के डच एक्टर रुटजर हुवे ने एक ऐसे बिना घर-बार के फक्कड़ की भूमिका अदा की है जो 'होप टाऊन' में आता है। इस कस्बे में होप कहीं नहीं है बस अपराध और अन्याय है। वह मेहनत करने की कोशिश करता है, एक अपराधी को पुलिस स्टेशन तक पकड़कर ले जाता है, पर पुलिस उसे ही पीटती है। उसके सीने पर गर्म लोहा दागकर कचरे के डिब्बे में फैंक दिया जाता है। बिना संवेदना और बिना न्याय वाली व्यवस्था में वह बंदूक हाथ में ले लेता है। कस्बे के अपराधियों को एक-एक करके खत्म करता है। उसके कृत्यों से लोगों में हौसला आता है। मैं इस फिल्म के संदेश, हिंसक कंटेंट और निष्कर्ष से वास्ता नहीं रखता, पर इस बुजुर्ग होबो की कहानी में आप एक किलर को बनाने में सिस्टम और समाज की भूमिका को देखते हैं।

मार्टिन स्कॉरसेजी की कल्ट फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट डि नीरो का किरदार ट्रैविस भी उसी मानसिक ब्लास्ट वाली स्थिति में है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वह उनींदा है। रात-दिन टैक्सी चला रहा है। इसमें चढऩे वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की उसे भली दिखती है, पर धोखा खाता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और
साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस सिस्टम से नाखुश हैं।

'फॉलिंग डाउन' के पोस्टर में माइकल डगलस; 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट.
ठीक वैसे ही जैसे जोएल शूमाकर की 1993 मे आई फिल्म 'फॉलिंग डाउन' का विलियम है। इस रोल को माइकल डगलस ने प्ले किया था। विलियम इस दिन पूरे लॉस एंजेल्स को आड़े हाथों लेता है। अकेले में उसे लूटने की कोशिश करने वाले गुंड़े, परचून की दुकान पर छुट्टे मांगने पर सामान खरीदने की शर्त रखता कोरियाई दुकानदार और फास्ट फूड चेन में ब्रेकफस्ट की जगह जबरदस्ती लंच थोपता व्यक्ति... ये सब विलियम की फ्रस्ट्रेशन का शिकार होते हैं।

होबो, ट्रैविस और विलियम तीनों भले ही सही नहीं हैं, पर सिस्टम और समाज भी इन तीनों से पहले इन तीनों से ज्यादा दोषी है। आंद्रे का केस इनसे अलग है, पर ये बात समान है कि आप अपने मीडिया, समाज और राजनीति के जरिए लोगों को जैसा बना रहे हैं, वो वैसा ही बन रहे हैं। माइकल मूर की 2002 में बनी डॉक्युमेंट्री 'बॉलिंग फॉर कोलंबाइन' नॉर्वे नरसंहार जैसे हादसों को सबसे ज्यादा सार्थकता से देखती है। ऑस्कर से सम्मानित ये डॉक्यु फीचर बताती है कि क्यों 1999 का कोलंबाइन हाई स्कूल नरसंहार हुआ और क्यों अमेरिका में सबसे ज्यादा अपराध दर है। इस असल वाकये में एरिक और डिलन नाम के दो सीनियर छात्रों ने एक सुबह अपने स्कूल कैंपस में अचानक गोलियां चलानी शुरू कर दी और दर्जनों को घायल करते हुए 12 दोस्तों और एक टीचर को मार डाला। बाद में दोनों में खुद को गोली मार ली।

(साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित.)

Tuesday, July 26, 2011

'मेरे सिवा धीरज पांडे का किरदार कोई भी नहीं कर पाता'

अगर प्रशां 'चाणक्य' जैसी क्लासिक टीवी सीरिज में कॉस्ट्यूम डायरेक्टर रहे हैं तो उन्होंने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी और सुभाष घई जैसे डायरेक्टर्स की फिल्मों का आर्ट डायरेक्शन भी संभाला है। वह गाने भी लिखते हैं, गाते हैं, म्यूजिक भी देते हैं। टीवी पर वह 'फुलवा' कर रहे हैं। हाल ही में फिल्म 'ये साली जिंदगी' और 'भिंडी बाजार' में नजर आए। इतना सब करने के बावजूद ज्यादातर लोगों ने उन्हें नोटिस किया 'मर्डर-' में धीरज पांडे का रोल करने के बाद। वह कहते हैं कि इस फिल्म में लोगों ने उनकी तुलना मशहूर हॉलीवुड एक्टर एंथनी हॉपकिन्स तक से कर डाली। बेहद मुंहफट और संजीदा प्रशांत नारायणन से ये बातचीत।

बहुत बरसों से अच्छा काम कर रहे हैं, पर नोटिस हुए 'मर्डर-२' में।
मुझे लगता है मैं आज तक गरीबों और दोस्तों के साथ काम करता आया हूं। इन्होंने न मुझे कभी ढंग के पैसे नहीं दिए और न ही उनके पास अपनी मूवी रिलीज करने के पैसे थे। चाहे आप 'छल' देख लो, 'वैसा भी होता है' देख लो। ऐसी काफी अच्छी फिल्में में बुरी प्लानिंग वाले लोगों के साथ कर चुका हूं। अब कोई पॉइंट प्रूव नहीं करना चाहता हूं, कि अच्छा रोल है तो कर लेता हूं।

1992 से लेकर अब तक आपने टीवी और मूवीज दोनों को बदलते देखा है। डीडीवन के प्रोग्रैम्स से 'बंदिनी' और 'फुलवा' तक। पैरेलल और मैनस्ट्रीम मूवीज की फिक्स कैटेगरी से आज की बदलती लेंग्वेज वाली फिल्मों तक। इस सबको कैसे देखते हैं?
दुख ये होता है कि इतने सालों में हमारे पास तीन-चार अच्छे एक्टर्स ही हैं। इस दौरान न कोई विश्वस्तरीय एक्टर निकला है न कोई टेक्नीशियन। एक ए.आर.रहमान है जो बाहर की चीजें कर रहा है। मैं हूं, इरफान है। हम लोग बाहर की फिल्में करते हैं। टेक्नॉलजी, प्रैशर और मनी सब कुछ बढ़ गया है। पर पहले हम लोगों के पास टीवी में जो क्वालिटी होती थी, वह सेडली कम हुई है।

तो अपने काम के बारे में आगे क्या सोचा है?
मेरा काम आप बीस-तीस साल बाद भी देखेंगे तो वही फ्रैशनेस, जोश और जज्बा पाएंगे। मैं चाहता हूं कि मेरा माइंडब्लोइंग डीवीडी क्लेक्शन बने जो कोई भी इंडियन एक्टर सपने में ही देखे। यही लक्ष्य है। मुझे बस स्टूपिड मनी नहीं कमानी है। ये सारे एक्टर लोग तेल वेल बेच रहे हैं। कच्छे, बनियान, दारु और पान पराग बेच रहे हैं। अरे यार क्या करोगे, कितना पैसा डालोगे, कहां डालोगे। अगर जरा सी एक्टिंग की तमीज होती तो ये सब नहीं करते। मैं यार सिर्फ एक्टिंग ही बेचता आया हूं। इन लोगों को मेरे लेवल तक पहुंचते-पहुंचते लाइफ में काफी टाइम लगेगा।

भट्ट कैंप की 'मर्डर-2 में आपका चेहरा नहीं जुड़ता तो फिल्म में देखने लायक कुछ था नहीं?
मैं तो कहता हूं न यार, कि अगर किसी और ने किया होता तो ये रोल वो बर्बाद कर चुका होता। क्योंकि इस रोल में बर्बादी के बहुत चांसेज हैं। जो भी एक्टर थोड़ी समझदारी से काम नहीं लेगा तो वो सिर्फ बेवकूफ दिखेगा यहां। इसमें खुल के मूर्खता करने का मौका है और कहीं-कहीं उससे आप जितना बचोगे उतना ही दिखोगे।

कैरेक्टर के स्पेस में कितना घुसना है, कैसे घुसना है, क्या एड करना है, कैसे तय करते हैं?
बस अपने राइटर और डायरेक्टर पर भरोसा करो। आप उनसे मिलते हैं, बात करते हैं, उनका लहजा सुनते हैं। ये सब ऑब्जर्व करना पड़ता है। मैं पूरा स्लिप याद रखता हूं कि सीन 26 में क्या है और सीन 23 का ए सेक्शन कहां 72 बी में कनेक्ट करता है। यहां लोग सिर्फ अपनी डायलॉग कॉपी मंगवाते हैं, मेरे पास काफी टाइम से स्लिप पड़ा होता है। मेरा मैथड एक्टिंग से दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे बकवास किस्म का काम लगता है वो। अब सिर मुंडवाने और ये वो करवाने से एक्टिंग हो जाती तो क्या बात थी।

अपने बारे में कुछ बताइए?
मैं मूलत: केरल से हूं, जो दिल्ली का है और मुंबई का हो गया है। चौथी क्लास में दिल्ली आ गया। फादर डिफेंस में रहे। ग्रेजुएशन किरोड़ीमल कॉलेज से की, फिर दिल्ली स्टेट बैडमिंटन प्लेयर रहा। फिर ये सब छोड़-छाड़ के इस लाइन में आ गया प्रॉड्यूसर बनने। एक्टिंग नहीं करनी थी यार। बहुत साल खो दिए अपने। कॉस्ट्यूम डायरेक्शन किया, डायरेक्शन किया, चीफ असिस्टेंट डायरेक्शन किया। गोविंद निहलानी की फिल्म में असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर था। 'रुकमावती की हवेली', फिर 'सौदागर', फिर 'सरदार पटेल'। केतन मेहता का भी असिस्टेंट रहा एक साल।

सिर्फ प्रॉड्यूसर ही क्यों बनना चाहते थे?
हमारे साथ प्रॉब्लम ये है कि ज्यादातर प्रॉड्यूसर्स योग्य नहीं हैं। वो निगरानी नहीं रख सकते कि डायरेक्टर क्या कर रहा है। मतलब सेट पर, स्क्रिप्ट, थोड़ा कमांडिंग आदमी होना चाहिए, क्योंकि प्रॉड्यूसर का हाथ सिर्फ पैसे बांटने में नहीं जाता है। उसे तो ये भी पता है कि कैमरे में कौनसा लेंस लगा है। मतलब मैं उस किस्म का क्रिएटिव हैड बनना चाहता था।

अब क्रिएटिव हैड बनेंगे या एक्टिंग करनी है?
मैं सब कुछ करना चाहता हूं। कंपोजर भी हूं। गाने लिखता हूं। कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट भी तैयार है। एक शॉर्ट स्टोरी बुक और कॉफी टेबल बुक लिख रहा हूं।

इन बरसों में कितनी बार बहुत निराश हुए?
जब भी हुआ अपनी नॉन प्लानिंग की वजह हुआ। इसमें गैर-भरोसेमंद लोगों पर भरोसा करना भी शामिल है। पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि आर अब क्या करेंगे।

डिफेंस फैमिली से हैं तो पेरंट्स कहते नहीं कि ये तू क्या कर रहा है?
नहीं 'मर्डर-२' केरला में भी रिलीज हुई। तो बड़े खुश थे, पिक्चर देखी भी उन्होंने। मेरे डैड ने धीरे से मेरी मां को बोला, किसी को कानों कान खबर नहीं होनी चाहिए कि ये हमारा बेटा है। फिर फिल्म जैसे ही खत्म होगी, चुपचाप से चले जाएंगे। (ठहाके लगाते हैं)

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 23, 2011

एक बड़ी इमेज के फ्रेम में शेरदिल कॉप बाजीराव सिंघम

फिल्म: सिंघम
डायरेक्टर: रोहित शेट्टी
कास्ट: अजय देवगन, प्रकाश राज, अशोक सर्राफ, काजल अग्रवाल
स्टार: तीन 3.0

इस फिल्म से हमें हमारे वही 'फूल और कांटे' वाले अजय देवगन वापस मिल गए हैं। 'सुहाग', 'दिलजले' और 'नाजायज' वाले भी। मूछों के साथ खाकी वर्दी और ह्रष्ट-पुष्ट बॉडी में उनके संवादों और महाशक्तिशाली मुक्कों-लातों का असर डबल हो जाता है। रोहि शेट्टी मेहनती फिल्ममेकर हैं और समाज के सबसे बड़े ऑडियंस ग्रुप की सेंसिबिलिटी के हिसाब से फिल्में बनाते हैं, ऐसे में कुछ ऑडियंस को फिल्म हवा-हवाई ल सकती है, मगर कुल मिलाकर ये डीसेंट एंटरटेनर है। आप अपने फ्रेंड सर्किल के साथ जा सकते हैं। फैमिली के साथ भी। कहानी के ताने-बाने में, म्यूजिक में और फिल्म के अंत में कुछ अद्भुत नहीं है इसलिए कमतर लगता है। पुलिसवालों की ईमानदार कोशिशों, पॉलिटिकल प्रेशर और उनकी तकलीफों को कमर्शियली ही सही फिल्में एक बार फिर सामने रखती है।

गांव का न्यायप्रिय पुलिसवाला
गोवा के नक्शे पर एक छोटा लेकिन खुशहाल गांव है शिवगढ़। सब-इंस्पेक्टर बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) इसी गांव का है और हर मसले को चतुराई से हल करता है इसी वजह से यहां अपराध नहीं है। उसके पिता के दोस्त की बेटी काव्या (काजल अग्रवाल) उससे प्यार करती है। जयकांत शिक्रे (प्रकाश राज) वैसे तो गोवा का बड़ा कारोबारी है, पर असल में धन उगाही, अपहरण, हत्या और गुंडागर्दी का काम करता है। एक मर्डर केस में उसे हाजिरी देने शिवगढ़ जाना पड़ता है। यहां बाजीराव से सामना होने पर उसके अहंकार को चोट पहुंचती है और यहीं से शुरू होता है ट्विस्ट। इसके बाद फिल्म पुलिस सिस्टम, बाजीराव और जयकांत के बीच से आगे बढ़ती है। ये कहानी अपनी मूल तमिल वर्जन वाली 'सिंगम' से इंटरवल के बाद अलग हो जाती है।

जहां सीटियां बजती हैं
बाजीराव सिंघम के किरदार के जितने भी अपीयरेंस हैं उन्हें डायरेक्टर रोहित शेट्टी हीरोइक अंदाज में पेश करते जाते हैं। मंदिर के सरोवर में डुबकी लगाकर निकलने के पहले सीन से लेकर मेघा कदम (सोनाली कुलकर्णी) को सेल्यूट करने के आखिरी सीन तक बस सीटियां ही बजती हैं। मशहूर फाइट मास्ट एम.बी.शेट्टी के बेटे रोहित अपनी फिल्म में एक्शन पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। स्टंट ऐसे डिजाइन करते हैं जैसे कोई एपिक फिल्म बना रहे हों। 'गोलमाल' जैसी कॉमेडी मूवी में ही इतनी कारें उड़ती हैं तो ये तो फिर 'सिंघम' है। हालांकि चलती गाड़ी से निकलते हुए अजय जैसे गोली चलाते हैं वह सीन पिछले साल आई हॉलीवुड मूवी 'रेड' के ऐसे ही ब्रूस विलिस सीन से हूबहू लिया गया है। फिल्म में तीन बड़े एक्शन सीक्वेंस हैं, जो बहुत खतरनाक हैं। इनका श्रेय जाता है रोहित और स्टंट डायरेक्टर जय सिंह निज्जर को। अशोक सर्राफ (हैड कॉन्स्टेबल प्रभु) के हिस्से आए एक-दो कॉमिक सीन और सचिन खेड़ेकर को गोटिया नाम से बुलाए जाने का शुरुआती सीन फिल्म में कॉमेडी की डोज है। प्रकाश राज भी क्लाइमैक्स के दौरान अपनी उचकती डायलॉग डिलीवरी में हंसाते हैं।

ये होता तो अच्छा होता
फिल्म में अजय के कैरेक्टर की इमेज बिल्डिंग और एक्शन सीक्वेंस के अलावा किसी चीज पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। एक्टिंग में तो किसी से शिकायत नहीं है, बस काजल अग्रवाल की रंगत में अकडऩ अजीब लगती है। डिजाइनर सलवार-कमीज दिखाने के अलावा उनके रोल की कोई संजीदा प्लानिंग नहीं की गई है। एक सबसे कमजोर हिस्सा है फिल्म का म्यूजिक। पहला इंट्रोड्यूसिंग गाना मन भंवर उठे, तन सिहर उठे, जब खबर उठे, के आवे सिंघम... 'दबंग' के इंट्रो सॉन्ग हुड़ हुड़ दबंग दबंग.. की तर्ज पर है। गाने के बोल अच्छे हैं, बस सुखविंदर की भन्नाती आवाज में समझ नहीं आते। ये बड़ा माइनस पॉइंट है। दूसरा रोमेंटिंक गाना साथिया... भी कोई भावनाएं नहीं जगा पाता। प्रकाश राज की एक्टिंग उनकी सभी कमर्शियल हिंदी फिल्मों (वॉन्टेड, सिंघम, बुड्ढा होगा तेरा बाप) में एक जैसी बासी लगने लगी है। हर फिल्म में उनका थुलथुल शरीर, क्लीन शेव्ड चेहरा, अजीब डायलॉग डिलीवरी और कपड़े एक जैसे लगते हैं, जो कि स्टूपिड बात है। अगर अजय क्लीन शेव्ड से मूछों वाले हो सकते हैं तो प्रकाश की फिजिकल पहचान भी तो कुछ बदली जा सकती थी। मतलब, उन्हें देखकर किसी खूंखार विलेन वाली फीलिंग नहीं होती, जब ऐसा नहीं होता तो फिल्म का नेगेटिव पक्ष कमजोर हो जाता है और हम उसे सीरियसली नहीं लेते। इससे कहानी हमें इमोशनली इस्तेमाल नहीं कर पाती।

आखिर में..
जैकी चेन की फिल्मों की तरह रोहित की फिल्मों की भी ये पहचान बन चुकी है कि अंत में के्रडिट्स के साथ शूटिंग की रॉ फुटेज दिखाई जाती है। ये स्टंट सीन्स की मेकिंग की एक्सक्लूसिव वीडियो होती हैं। इसलिए 'सिंघम' खत्म हो तो सीटों से उठकर दौड़ें नहीं, बैठकर क्रेडिट्स को पूरा देखें।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, July 21, 2011

'इस बार स्टीयरिंग सिर्फ मेरे हाथ है'

निर्देशक अश्विनी चौधरी को आज भी 10 साल पहले बनाई उनकी हरियाणवी फिल्म 'लाडो' के लिए सबसे ज्यादा पहचाना जाता है। इस पहली ही फिल्म ने उन्हें 47वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलवाया था। उसके बाद उन्होंने 'धूप' जैसी अच्छी फिल्म भी बनाई। इस रीजन से ताल्लुक रखते हैं, मुंबई में रहते हैं और इन दिनों 'घायल' के सीक्वल 'घायल-2' के निर्देशन को लेकर बहुत एक्साइटेड हैं।

खुद के बारे में कुछ बताएं।
हरियाणा के चौटाला गांव से हूं। करियर इंडियन एक्सप्रेस के जनसत्ता अखबार से शुरू किया। दो साल चंडीगढ़ एडीशन में काम किया। कल्चरल बीट देखता था, लिटरेचर और फिल्म रिव्यू पर लिखता था। फिर दिल्ली एडीशन चला गया और 1999 में पहली फिल्म 'लाडो' बनाई।

फिल्में क्यों बनाने लगे?
घर में पढ़ाई का माहौल था, बाऊजी गांव के कुछ सबसे पढ़े-लिखे लोगों में आते थे। दिल्ली में जॉब के दौरान इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट जाया करता था। एक बार गेस्ट कमल हसन थे। ऑडियंस में मेरे पास बैठा दोस्त बोला, यार कितने साल हो गए, दूसरों की फिल्मों पर तालियां बजाते हैं। तो मैंने कहा, कि अगले साल स्टेज पर मैं होऊंगा और लोगों से तालियां बजवाऊंगा। अगले साल मैंने 'लाडो' बना ली थी।

मतलब आपने फिल्म बनाने की टेक्निकल ट्रेनिंग नहीं ली है?
नहीं ली। पर सिनेमा इज अबाउट स्टोरी टेलिंग। मैं जब सात-आठ साल का था तो राजस्थान बॉर्ड बसे हमारे गांव में ठंड बहुत पड़ती थी। हम बच्चे दिनभर खूब खेलते और रात में रजाई में नानी से दो-ती घंटे लंबी कहानियां-किस्से सुनते। ये बात मुझे बहुत साल बाद पता चली कि अगर आप अपनी कहानी से एक आठ साल के बच्चे को दो-ढाई घंटे तक बांध कर रख सकते हैं तो आप बहुत अच्छे कथावाचक हैं। मेरी नानी कभी गांव की हद से बाहर नहीं गई, पर चाहती तो एक फिल्म बना सकती थी, क्योंकि उसे कहानी कहनी आती थी। बाकी टेक्नीक और क्राफ्ट जरूरी है पर कहानी पहले है। 'लाडो' मेरे लिए वो कहानी थी जिसे मैं कहना चाहता था। मेरी वाइफ कुमुद ने स्क्रिप्ट लिखी।

'लाडो' एनएफडीसी ने फाइनेंस की। उसकी फिल्मों के धीमे और नॉन-कमर्शियल पहलू के उलट इसमें गाने हरियाणवी स्टाइल में ही पूरे हिंदी फिल्मों जैसे थे।
फ्राइडे दर्शकों के लिए होता है। लोग पचास-सौ रुपए खर्च करके फिल्म देखने जाते हैं। अगर आप फिल्म में कुछ कहना चाहते हैं तो ऐसे कहिए कि वह दर्शक निराश या चीटेड फील न करे। मैंने 'लाडो' के साथ यही कोशिश की। ये पहली ऐसी हरियाणवी फिल्म थी जिसमें कहानी भी सीरियसली कही गई और मनोरंजन भी पूरा था।

ये फिल्म हरियाणा और राजस्थान के अंदरूनी इलाकों जैसी थी। लड़की की शादी हो गई है और वह अपने देवर से शारीरिक संबंध बनाती है। इन इलाकों में व्यवस्था इतनी क्रूर है कि कहानी के इस मोड़ के बारे में सोचकर ही सिहर जाता हूं। क्या आपको ये सिहरन नहीं हुई?
ये रिएलिटी है। मैं खुद भी वहीं से आता हूं इसलिए हरियाणा-राजस्थान की इस जमीनी सच्चाई को जानता हूं। चूंकि प्रेजेंट सोसायटी पुरुष प्रधान है, तो महिला को यहां दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया है। अब खाप और ऑनर किलिंग भी दिखने लगे हैं। तो ये थोड़ा रिस्की तो था पर मुझे सब्जेक्ट उठाना था, मैंने उठाया। पहली फिल्म में मैं स्ट्रॉन्ग कंटेंट चाहता था।

आपकी मूवीज में जब भी कुछ इमोशनल होता है तो बरसात होती है। ऐसा क्यों?
(हंसते हुए) एक जाट ने ये मुझे रोहतक में कहा था कि फिल्म शूट तो आपने हरियाणा में की है लेकिन लगता है असली शूट चैरापूंजी में हुआ है। हर डायरेक्टर का एक ऑब्सेशन होता है। मेरे साथ भी है। शायद सब-कॉन्शियस माइंड में बरसात से कोई लगाव रहा होगा। इससे सीन निखर जाता है।

सोशल रेलेवेंस वाली फिल्मों के बीच आपने 'गुड बॉय बैड बॉय' कैसे बना दी?
सोशल कंसर्न अपनी जगह होती है, पर शाम को बच्चों को खाना भी खिलाना होता है। मैं कोई फिल्मी आदमी नहीं था। पहली ही फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिल गया। पर समाज से, सरकार से जितनी उम्मीद थी उतनी मदद मिली नहीं। हरियाणा में मेरी फिल्म को चलने नहीं दिया गया। कोर्ट केस हुए। घर-वर बिक गया। फिल्म अच्छी बनी पर जिंदगी भर जो कमाया था वो उसमें लग गया। तो फिल्म ने नाम के अलावा मुझे कुछ नहीं लौटाया। ये मेरे लिए बड़ा झटका था। फिर मुंबई आकर 'धूप' और 'सिसकियां' बनाई। पर इस दौरान अस्तित्व पर बन आती है। अपनी लड़ाई खुद लडऩी पड़ती है। इस दौरान कुछ अच्छी फिल्में बनती हैं कुछ बुरी। और मैं अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचा हूं जहां मैं मार्केट फोर्सेज की परवाह किए बगैर अपने मन की फिल्में बना सकूं।

'गुड बॉय...' में जो कमर्शियल कमी रह गई वो क्या 'घायल-2' में पूरी करेंगे?
देखिए सुभाष घई बहुत बड़े प्रॉड्यूसर हैं और मुक्ता आट्र्स जैसे बड़े बैनर ने गुड बॉय... बनाई थी। ये अनुभव बहुत बुरा रहा। उन्होंने मुझे वैसी फिल्म नहीं बनाने दी जैसी मै बनाना चाहता था। क्रिएटिव डिफरेंसेज की वजह से मैंने वो फिल्म 60 पर्सेंट पूरी होने के बाद छोड़ दी थी। फिर बचा डायरेक्शन और एडिटिंग सुभाष जी ने खुद की। पर फिल्म गई मेरे नाम से। इसलिए मुझे मानना पड़ता है कि वो मेरी फिल्म थी, अदरवाइज वो है नहीं।

'घायल-2'से बहुत उम्मीदें हैं, इन्हें बरकरार रखने में सिरदर्दी हो रही है?
ये फिल्म राजकुमार संतोषी ने बनाई थी और अपने टाइम की कल्ट फिल्म थी। ऐसे में जब आप घायल का सीक्वल बनाते हैं तो पहली फिल्म से इक्कीस न हो तो बनाने का कोई मतलब नहीं है। मैं तय करके चल रहा था कि स्क्रिप्ट जब तक बहुत बढिय़ा नहीं होगी फिल्म नहीं बनाउंगा। सनी और मैं बहुत वक्त से इस पर सोच रहे थे, एक दिन दिमाग में कुछ आया और मैंने उसे सुनाया तो वो बहुत एक्साइटेड हो गया। फिर सोच-विचारकर ही हमने फिल्म अनाउंस की।

पिछले ग्यारह-बारह साल में आपने सिर्फ चार-पांच फिल्में ही बनाईं हैं?
पिछले दो साल से मैंने कोई फिल्म नहीं बनाई है। इन 11 साल में कम फिल्में बनाई पर ये वो वक्त होता है जब आप अपने हथियार पैने करते हैं। अब मेरा ब्रेक खत्म हुआ है। आठ जुलाई से आर.माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य और मिलिंद सोमन के साथ एक रोमैंटिक कॉमेडी की शूटिंग शुरू कर रहा हूं। ये फिल्म सितंबर तक खत्म हो जाएगी और अक्टूबर से 'घायल-2' शुरू होगी।

जलेबी-शीला-मुन्नी अब कॉर्पोरेट प्रैशर से फिल्मों में जबरदस्ती रखे जाने लगे हैं। आपकी फिल्मों पर ऐसा कोई दबाव है क्या?
'गुड बॉय..' के अनुभव के बाद मैंने फैसला लिया था कि बेमर्जी की फिल्म नहीं बनाऊंगा। तभी तो लंबे वक्त से फिल्म नहीं बनाई। अब जो माधवन-बिपाशा वाली फिल्म है, उसमें पूरी फ्रीडम है। 'घायल' को भी सनी बना रहे हैं अपने बैनर विजेता फिल्म्स के तले। पिछले एक-डेढ़ साल से चूंकि इसपर काम हो रहा है तो मुझपर उनका भरोसा है।

कैसी फिल्में देखना पसंद करते हैं?
मेरे पसंदीदा इस वक्त राजकुमार हीरानी हैं, उनका कोई जवाब नहीं। अनुराग कश्यप के प्रॉड्क्शन में 'उड़ान' बहुत अच्छी बनी। 'शैतान' देख नहीं पाया हूं। 'दबंग' अच्छी लगी, क्योंकि मैं गया ही उस माइंडसेट के साथ था कि दबंग देखने जा रहा हूं। बाकी मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं।