Thursday, February 13, 2014

मानो मत, जानोः “रब्बा हुण की करिये” ...बंटवारे की टीस

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Thus Departed Our Neighbours (2007), by Ajay Bhardwaj.

लाल सिंह दिल नजर आते हैं, शुरू में। पहली डॉक्युमेंट्री में वे इस्लाम के प्रति अपने अनूठे नेह और दलितों के साथ मुस्लिमों को भी सदियों के व्यवस्थागत-सामाजिक शोषण का पीड़ित बताते हैं। यहां उनकी संक्षिप्त झलक मिलती है। वे उर्दू की बात करते हैं। तेजी से दौड़ता और फिर लौटकर न आने वाला दृश्य उनका कहा सिर्फ इतना ही सुनने देता है, “...पंजाबी दी ओ तु पख्ख है। उर्दू, अरबी-पंजाबी नाळ इ मिळके बणया है। ओ अपणी लैंगवेज है। आप्पां अपणे पांडे बार सिट सिरदे हैं, वी साड्डे नी है साड्डे नी है। हैं साड्डे...। (उर्दू पंजाबी का ही तो हिस्सा है। ये अरबी और पंजाबी से ही तो मिलकर बनी है। ये हमारी ही भाषा है। हम अपने ही असर को बाहर फेंक रहे हैं कि ...हमारे नहीं हैं... ये हमारी ही है।)”

Pro. Karam Singh ji, in a still.
फिर इस डॉक्युमेंट्री के सबसे अहम पात्र प्रो. करम सिंह चौहान आते हैं जो बठिंडा, पंजाब से हैं। वे मुझे देश के सबसे आदर्श व्यक्तियों में से लगते हैं। जैसे हम में से बहुतों ने अपने गांवों में देखें होंगे। मख़मली ज़बान वाले, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, बेहद सहनशील, अनुभवों से समृद्ध, हर किसी के लिए रब से प्रार्थना करने वाले, समाज की समग्र भलाई की बात कहने वाले और उन्हें तक माफ कर देने वाले जो बंटवारे के क़ातिल थे। सिर्फ ‘रब्बा हुण की करिये’ की ही नहीं, अजय भारद्वाज की तीनों डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी ख़ासियत, ऐसे पात्र हैं। हर फ़िल्म में ऐसे एक-दो, एक-दो लोग हैं जिन्हें कैमरे पर लाना उपलब्धि है। इन सलवटी चेहरों के एक-एक शब्द को सुनते हुए कलेजा ठंडा होता है, मौजूदा दौर की बदहवासी जाती है, समाजी पागलपन का नशा टूटता है और समाज का सही पर्याय दिखता है। अगले 10-15 साल बाद ऐसे विरले बुजुर्ग सिर्फ दंतकथाओं में होंगे। मैं सिर्फ करम सिंह जी को सुनने के लिए ‘रब्बा हुण की करिये’ को पूरी उम्र देख सकता हूं। वे हमें तमाम तरह की अकड़ की जकड़ से निकालते हैं। उन जैसे लोग हमारे लिए मानवता का संदर्भ बिंदु हैं।

करम सिंह जी उर्दू के बारे में बात जारी रखते हुए पंजाब के मानसा जिले की बात करते हैं, “कुछ महीने बाद (विभाजन के) मैं मानसा के रेलवे स्टेशन गया। वहां जाकर क्या देखा, कि वहां जो उर्दू में मानसा लिखा हुआ था, वो नाबूद था। बड़ा दुख हुआ। मैंने सोचा, इन्होंने तो जिन्ना साहब को सच्चा कर दिया, जिन्होंने कहा था कि हम आप लोगों के साथ क्या रहें, आप तो हमारी भाषा को भी नहीं रहने देंगे”। अगले दृश्य में उधम सिंह का 1940 में लिखा ख़त पढ़ा जा रहा है। पास ही में पहली फ़िल्म के पात्र बाबा भगत सिंह बिल्गा बैठे हैं। जिक्र हो रहा है कि ख़त में कैसे उधम सिंह ने अपने लंदन में ब्रिक्सटन जेल के अधिकारी से कहा कि उनका नाम न बदला जाए जो मोहम्मद सिंह आजाद है। बिल्गा बताते हैं कि उधम को जेल में हीर पढ़ना बहुत पसंद था और खासकर हीर व क़ाज़ी के संवाद। फिर हम जालंधर के लोकप्रिय गायक पूरण शाहकोटी की आवाज सुनते हैं जिन्होंने अपने गांव शाहकोट के नाम को अपना नाम बना लिया। वे हीर गा रहे हैं। कहते हैं कि वारिस की हीर और सूफीयत से पंजाब का गहरा ताल्लुक है और आज भी दोनों पंजाबों का सभ्याचार एक ही है। मसलन, हीर। जो एक ही तरह से गाई जाती है। आप सरहद के किसी ओर वाले पंजाब में इसे सुनकर फर्क नहीं बता सकते। पूरण शाहकोटी नकोदर दरबार के अपने मुर्शिद (गुरू/स्वामी) बाबा लाडी शाह, बाबा मुराद शाह का जिक्र करते हैं, जिनके लिए गाने पर उन्हें तसव्वुर मिलता है। यानी सवाल खड़ा होता है कि आपने किसको अलग कर दिया? क्या आप वाकई में अलग कर पाए? क्योंकि ये तो उन्हें आज भी अपना ही मानते हैं। खैर, हम उनसे हीर का अनूठा हिस्सा सुनते हैं। वो हिस्सा जब हीर अपनी मां को गाते हुए पूछती है, “...दो रोट्टियां इक गंडणा नी मा ए, पाली रखणा कि ना ए”। सुनकर नतमस्तक होते हैं। हीर के मायने बड़े गहरे हैं जो सामाजिक टैबू, सांप्रदायिकता और बैर का विरोध करने वाली अजर-अमर छवि है। जैसे मीरा अपने वक्त में थीं। वो अपनी मां से कहती है कि वो बस दो रोटियां और एक प्याज लेगा, इतनी तनख़्वाह में ही उसे अपने जानवर चराने के लिए पाली रख ले मां। (किसी भी तरह से वो रांझे के करीब होना चाहती है)। वाकई तसव्वुर होता है।

इसके बाद करम सिंह जी रात के अंधियारे में बात करना शुरू करते हैं। वे शुरू करते हैं तुलसीदास जी की पंक्ति से, “पैली बणी प्रारब्ध, पाछे बणा शरीर...” यानी पहले आपकी नियति बनी थी, उसके बाद शरीर बना। वे बताते हैं कि उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था, कोई पढ़ने का उपाय नहीं था, दो कोस दूर स्कूल था। फिर लुधियाना से करम इलाही नाम के एक पटवारी तबादला होकर उनके गांव आए। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर उनके कोई बच्चा नहीं था। उनका नाम शम्स-उल-निसा बेग़म चुग़ताई था। उन्होंने उन्हें करमिया कहकर बुलाना, पढ़ाना और स्नेह देना शुरू किया। उन्हीं की बदौलत वे पढ़ पाए। बाद में उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से 1947 में फ़ारसी में एम.ए. की। करम सिंह द्रवित हो कहते हैं, “बीब्बी जी ने मैनूं बड़ा ही मोह दीत्ता, मिसेज करम इलाही पटवारी ने। मैनूं पार्टिशन दा ए बड़ा दुख औन्दा ए। वी मैं एहे जे बंदेया कौळों बिछोड़या गया”।

फिर हम हनीफ मोहम्मद से मिलते हैं। वे अटालां गांव के हैं जो समराला-खन्ना रोड पर स्थित है। अहमदगढ़ के जसविंदर सिंह धालीवाल हैं। ये दोनों विभाजन के वक्त के क़त्ल-ए-आम के चश्मदीद रहे हैं। हनीफ बच्चे थे और उन्होंने वो वक्त भी देखा जब उनके गांव की गली में पैर रखने को जगह नहीं बची थी, बस चारों ओर लाशें और ख़ून था। जसविंदर ने अपनी छत से खड़े होकर सामने से गुजरते शरणार्थियों के काफिले देखे। क़त्ल होते देखे। वो दौर जब मांओं ने अपनी जान बचाने के लिए अपने बच्चे पीछे छोड़ दिए। करम सिंह जी भी उस दौर के नरसंहार के किस्से बताते हैं। ये भी मालूम चलता है कि, वो लोग जिन्होंने निर्दोषों की बेदर्दी से जान ली और बाद में अपनी क़ौम से शाबाशियां पाईं, बहुत बुरी मौत मरे। तड़प-तड़प कर, धीरे-धीरे।

विभाजन के दौर की ये सीधी कहानियां हैं जो इतनी करीब से पहले नहीं सुनाई गईं। ‘उठ गए गवांडो यार, रब्बा हुण की करिये...” वो पंक्ति है जो बींध जाती है। आप पश्चिमी पंजाब के आज के लोगों के मन में तब सरहद खींच उधर कर दिए गए पड़ोसियों, दोस्तों के लिए अपार प्रेम देखते हैं। ये गीत रातों को और स्याह बनाता है, मन करता है बस सुनते रहें। कि, उन्हें याद करने को और रब से शिकायत करने को, मुझसे कोई नहीं छीन सकता।

डॉक्युमेंट्री के आखिर में करम सिंह जी जो कहते हैं, वो हमारी सामूहिक प्रार्थना है। 1947 की मानवीय त्रासदी के प्रति। बर्बरता से, नृशंसता से मार दिए गए दूसरी क़ौम के हमारे ही भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों से क्षमा-याचना है। उनकी रूहों की शांति के लिए। जिन्होंने क्रूरता की हदें पार की, उनके लिए भी। उनकी रूहों को भी नेक रास्ते लाने के लिए। वे क़लमा पढ़ते हैं, हम भी...

“ मज़लूमों, थोड्डा
थोड्डा
इल्ज़ाना देण वाला
अल्ला-पाक़ ए
रहमान-ओ-रहीम ए
ओस ने थोड्डा
होया नुकसान
थ्वानूं देणा ए
ते मैं दुआ करदा हां,
परमात्मा थ्वानूं जन्नत बख़्शे
ओन्ना मूर्खा नूं
ओन्ना पूलयां नूं वी
रब्ब
ओन्ना दीयां रूहां नूं
किसे पले रा पावे
किसे नेक रा पावे
ओन्ना उत्ते तेरी मेहरबानी होवे
इनसान आख़िर नूं
तेरा इ रूप ए
तेरा इ बंदा ए
इनसान ने इनसान उत्ते कहर करेया
जिदे उत्ते इनसान सदा रौंदा रहू
जेड़ा इनसानियत नूं समझदा ए
या अल्ला
तेरी मेहर…”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Thus Departed Our Neighbors” - Watch an extended trailer here:


While India won her independence from the British rule in 1947, the north western province of Punjab was divided into two. The Muslim majority areas of West Punjab became part of Pakistan, and the Hindu and Sikh majority areas of East Punjab remained with, the now divided, India. The truncated Punjab bore scars of large-scale killings as each was being cleansed of their minorities. Sixty years on, ‘Rabba Hun Kee Kariye’ trails this shared history divided by the knife. Located in the Indian Punjab where people fondly remember the bonding with their Muslim neighbours and vividly recall its betrayal. It excavates how the personal and informal negotiated with the organised violence of genocide. In village after village, people recount what life had in store for those who participated in the killings and looting. Periodically, the accumulated guilt of a witness or a bystander, surfaces, sometimes discernible in their subconscious, other times visible in the film. Without rancour and with great pain a generation unburdens its heart, hoping this never happens again.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Tuesday, February 11, 2014

Interview: 'RoboCop' director José Padilha

Recently Padilha, the Brazilian director of 'Elite Squad' fame, answered some of my questions regarding his February 14, 2014 release, his interest in the subject and a little more.


Joel Kinnaman and Gary Oldman in a still from RoboCop 2014.

“The future brings a concussion of integrating man and machine; it’s unavoidable, it’s happening right now and it’s going to be ever-present more and more and that’s the fact of the matter. Robots and Machines are here to stay and they are going to get better and better.” – José Padilha

The original Robocop came in 1987. Directed by Paul Verhoeven (Total Recall, Basic Instinct) this dystopian Sci-fi did fairly well as it spawned a franchise including merchandise, two sequels, TV productions, comic book adaptations and video games. Peter Weller played police officer Alex Murphy in the film, who is murdered and then revived by the malevolent corporation Omni Consumer Products as a superhuman cyborg law enforcer 'RoboCop'. Now on February 14, 2014 a reboot of this film series is coming to theatres in India. The new RoboCop stars Joel Kinnaman in the title role. Gary Oldman plays Dr. Dennett who created RoboCop. Two important negative roles are played by Samuel L. Jackson and Michael Keaton.

Earlier, in 2005, Darren Aronofsky (Black Swan, Noah 2014) was to direct the film for a tentative 2010 release, but, it was delayed numerous times. Then José Padilha signed on in 2011 whose latest movie, Elite Squad: The Enemy Within, became the most commercially successful Brazilian film in history. This sequel to the 2007 movie, Elite Squad, was selected as Brazil's official Academy Awards' entry in 2012 for Best Foreign Language Film, though it didn't make the final shortlist.

Padilha's first feature was Bus 174 (2002) a documentary about a poor young man, Sandra Do Nascimento, who bungled a robbery and ended up holding the passengers on a bus hostage for four hours. It's about the incident, the poor conditions of people living in Rio de Janeiro and how the criminal justice system in Brazil treats the lower classes. His film Secrets of the Tribe premiered at the 2010 Sundance Film Festival to critical acclaim.

Q & A with him:

Padilha, during the shoot of Elite Squad-2.
Do you think Joel Kinnaman was the right choice for the film as a lead, since very few global audiences know the Swedish-American actor?
I spent a lot of time trying to find the right actor for this role, and Joel Kinnaman, after delivering a great first audition, was the one that kept coming back and doing it better and better. And even though we didn’t have a finished script then, but only a couple of scenes for him to read, every time he returned he just nailed it. And that kept on happening until the moment I said: ‘Guys, let’s stop looking. We have him!’

Still, he might not be able to compete with movies stars like Robert Downey, Jr., Hugh Jackman or Henry cavill.
Actually, our RoboCop is a little bit different. He’s got more emotions and he isn’t completely shut down. In our movie he suddenly wakes up in China, and when he sees what’s left of him he wants to die. So in a character that goes through all this transformation, you need a great actor and not necessarily a movie star. Joel was an excellent actor and he played this character brilliantly!

Have you seen Indian Superhero flicks such as "Krish-3" or "Ra.One"?
No, not really.

You haven't seen any Indian movie?
I have not seen any Indian Superhero movies, but yes, I have seen some Indian films. I have seen a documentary by an Indian Filmmaker at Sundance, and it was a really good film and a lot of fun as it showed us a lot about India and the culture. That was the last Indian movie that I saw and I really liked it.

What is your perception of our cinema?
Indian Cinema is one of the most alive Cinemas today; if I have to think in the world today India is one of the only few places where Cinema is striving without any false effort. I know that in India the format of films is longer and it has a lot of music in them and it’s a completely different kind of filmmaking and I honestly don’t know if I’d be capable to make a movie in India with the same kind of style.

If an Indian remake was being planned would you be OK with the idea of Hindi RoboCop? Would you direct?
I would of course, you know and I mean I would love to! And the fact is I would be completely ok with it, but other people might not (laughs).

In this age of drones, unnatural limbs and scientific progress, the idea of RoboCop seems quite possible. What do you think?
RoboCop as a concept is merging Mankind and Machines, and it’s very present now. If you go on to the internet and google you’ll find everything you need; you can see that ships are able to procure gigantic chemical viles just by beeping; and you can see for yourself that all of this is possible, it’s all on the web. The future brings a concussion of integrating man and machine; it’s unavoidable, it’s happening right now and it’s going to be ever-present more and more and that’s the fact of the matter. Robots and Machines are here to stay and they are going to get better and better.
    Paul Verhoeven created an iconic character that embodied the philosophical concept that automated law enforcement could lead to fascism. Funnily enough he did this in 1987, but now we are very close to this actually happening.
    If you open the newspaper every day you are going to end up reading about drones at least 50 times a year, if not more... Now they are piloted, but we are soon going to move on to drones that pilot themselves and robots that go to war and make their own decisions according to very sophisticated hardware and software without people being involved. This is going to happen. It was already in Verhoeven’s movie and it is also the reason I wanted to make this one, because what is being discussed in RoboCop is happening now and is going to be very prominent in the future.

Elite Squad-2
'Elite Squad' seems your finest movie till date. Have you been able to bring the human-emotional-situational details of 'Elite Squad' in 'RoboCop'?
I mean, one thing that’s very different in the movie is how RoboCop becomes RoboCop. He wakes up one morning to lose all his emotions to become a machine, and we show all the drama and we show what happens when he goes through with that transformation. Another big difference in our film is the family. We show what’s going on over there and the changing relationship with his son, and how it’s awkward for him, and impossible for him to have a normal life again. Those things are very different and unexplored in the new movie you know.
    So a big part of the movie focuses on the on-going human drama and Murphy’s humanity as he is half-man and half-robot. He cannot make love to his wife, he cannot touch his son and I mean his life has been changed forever, and he has to finally manage it with his emotions because that’s what left of him, that’s all. The movie is, in a certain attempt about the human ambition and what would it be to be human again. So yes I have focused a lot on the situational-emotional details for this film.

Why "Police/crime films" seem to be your favourite subject?
You know, for me, I think in order to develop a state you have to develop a quality security force. So in mankind anybody who has ever developed a state, nation or region has also developed security. You can learn a lot about society, and a country and the nature of a country by looking at the security. It’s very interesting to look at, so if a country is honest people and honest security forces with lesser crime, it is a developed country as opposed to if you have corrupt law enforcements or corrupt politicians. So sometimes you can just look at the police force of the country and it will tell you everything, that’s why I find it so interesting as a filmmaker.

होज़े पजीला ब्राजील के फ़िल्मकार हैं। हालांकि उन्होंने 2002 में 'बस 174' और 2007 में 'एलीट स्क्वॉड' जैसी दो बेहतरीन फिल्में बनाकर अपने मुल्क में अच्छा मुकाम पा लिया था लेकिन उन्हें वैश्विक पहचान मिली 2012 में, जब उनकी 'एलीट स्क्वॉड: द एनिमी विदिन' को ऑस्कर की बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज श्रेणी में ब्राजील ने देश की आधिकारिक एंट्री के तौर पर भेजा। हालांकि फिल्म जीती नहीं। ...लेकिन 46 साल के होज़े की इस फिल्म से प्रभावित होकर एमजीएम स्टूडियो ने उन्हें अपनी मशहूर 'रोबोकॉप फ्रैंचाइजी' की रीबूट का निर्देशन डैरेन एरॉनफस्की (ब्लैक स्वॉन, नोआ-2014) से लेकर दे दिया। 'रोबोकॉप' की कहानी 2028 में स्थित है जहां एक पुलिसकर्मी एलेक्स मर्फी (जोएल किनामैन) कार बम धमाके में बुरी तरह जख्मी हो जाता है और उसके क्षत-विक्षत शरीर को रोबोकॉप प्रोग्रैम में शामिल किया जाता है। उसके बेकार अंगों के स्थान पर रोबोट-अंग लगाए जाते हैं और वह देश का हीरो बनकर उभरता है। फिल्म में गैरी ओल्डमैन, माइकल कीटन और सेमुअल एल. जैक्सन जैसे हॉलीवुड अभिनेता भी होंगे।
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Tuesday, February 4, 2014

25 फ़िल्म दृश्यों में, तकड़े अभिनेता फिलिप सीमूर हॉफमैन

Philip Seymour Hoffman

“Well, I think everyone struggles with self-love. That’s pretty much the human condition, you know, waking up and trying to live your day in a way that you can go to sleep and feel OK about yourself . . . I got to remember to not kill myself, not beat myself up, not get too worked up about it. There will be another film, there will be another relationship, or I’ll die and then I’ll be dead.”
 - Philip Seymour Hoffman
2011, Talking to The Guardian

उनकी ट्रूमैन कपोटी जैसी प्रभावी फ़िल्में बाद में आईं, 
पर शुरू से शुरू करते हैं, बीच में महानता से गुजरते चलेंगे... 
  
1. Law & Order (1991): Steven – आवारा हूं

2. Twister (1996): Dusty – म्यूजिक और तूफान का शिकार

3. Hard Eight (1996): Craps Player - बेशरम

4. Boogie Nights (1997): Scotty J. - समलैंगिक

5. The Big Lebowski (1998): Brandt – बिग लेबोवस्की का असिस्टेंट

6. Patch Adams (1998): Mitch Roman – 3 ईडियट्स, राजकुमार हीरानी, चतुर रामालिंगम

7. Flawless (1999): Rusty – अर्धनारीश्वर और असाधारण मानव

8. Magnolia (1999): Phil – खोजी

9. The Talented Mr. Ripley (1999): Freddie – हीरो का होशियार दोस्त

10. Almost Famous (2000): Lester Bangs – रॉक सीन का गर्भज्ञान देता “अनकूल” क्रिटिक

11. Punch-Drunk Love (2002): Dean – शट, शट, शट, शट, शट, शट अप / गद्दों की दुकानवाला

12. Love Liza (2002): Wilson – पत्नी की खुदकुशी वाला पत्र, अत्यधिक वेदना, विचित्र हास्य

13. Owning Mahowny (2003): Dan Mahowny – जुआरी बैंककर्मी

14. Cold Mountain (2003): Reverend Veasey – भ्रष्ट और तिकड़मी पादरी

15. Along Came Polly (2004): Sandy – ऐसा दोस्त भगवान सबको दे…

16. Capote (2005): Truman Capote – महान अभिनय, अमरता और ऑस्कर

17. Before the Devil Knows You're Dead (2007): Hanson – कारोबार-रिश्तों में घोटाले

18. Charlie Wilson's War (2007): Gust Avrakotos – दिग्गज सीआईए एजेंट

19. Synecdoche, New York (2008): Caden Cotard – जवान कला, बूढ़ा कलाकार

20. Doubt (2008): Father Brendan Flynn - शक

21. Moneyball (2011): Art Howe – असंतुष्ट कोच

22. The Ides of March (2011): Paul Zara – अनुभवी कैंपेन मैनेजर

23. The Master (2012): Lancaster Dodd – नए कल्ट का लीडर

24. A Late Quartet (2012): Robert Gelbart – वॉयलिन, मन और महत्वाकांक्षाएं

25. A Most Wanted Man (2014): Gunther Bachmann – जर्मन जासूसी इकाई का मुखिया
1967-2014
 अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

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Sunday, February 2, 2014

फिल्में ही नहीं मैं जिंदगी के दूसरे अध्यायों पर भी ध्यान देता हूं, बच्चों को रोज कहानी सुनाता हूं, वक्त क्षणभंगुर है, जो अभी आसपास है एक सेकेंड बाद नहीं होगाः अमित कुमार

 Q & A. .Amit Kumar, film director (Monsoon Shootout).

Nawazuddin Siddiqui in a still from 'Monsoon Shootout.'

उनकी ‘द बाइपास’ काफी वक्त पहले देखी। दो चीजों ने ध्यान आकर्षित किया। पहला, इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी को एक साथ किसी फ़िल्म में कांटेदार अभिनय करते देखना। दूसरा, बिना किसी शब्द के तकरीबन सोलह मिनट की इस फ़िल्म को बनाने वाले किसी अमित कुमार के निर्देशन और नजरिए को लेकर जागी जिज्ञासा। उनके बारे में ढूंढा, पर वे गायब थे। फिर उनके नए प्रोजेक्ट के बारे में सुना... ‘मॉनसून शूटआउट’। इसमें भी प्रमुख भूमिका में नवाज थे। उनसे बात करनी थी, संपर्क किया और कुछ महीनों के इंतजार के बाद कुछ महीने पहले उनसे बात हुई।

बेहद अच्छे मिजाज के अमित भारत में जन्मे और अफ्रीका में पले-बढ़े। पढ़ाई के बाद कई बड़ी होटलों, बैंकों और अमेरिकन एक्सप्रेस जैसे बहुराष्ट्रीय समूह में नौकरी की। पर रुचि शुरू से फ़िल्मों में थी। पैरिस के एक फेमिस फ़िल्म स्कूल वर्कशॉप का भी हिस्सा बने। बाद में दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की। यहां से रुख़ पुणे के फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की प्रवेश परीक्षा का किया और दाखिला हो गया। उनकी पत्नी अनुपमा भी एफटीआईआई में पढ़ चुकी हैं और लेखिका-निर्देशिका हैं। यहां से निकलने के बाद वे निर्देशक आसिफ कपाड़िया की फ़िल्म ‘द वॉरियर’ में सहयोग करने लगे। दोनों का नाता यहां से गहरा हुआ। फ़िल्म को बाफ्टा मिला और इरफान खान को अभूतपूर्व प्रसिद्धि। 2003 में अमित ने अपनी शॉर्ट फ़िल्म ‘द बाइपास’ बनाई। इसे बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म का बाफ्टा मिला। इसी दौरान उन्होंने ‘मॉनसून शूटआउट’ बनाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। उन्होंने ब्रिटेन की फ़िल्म काउंसिल से संपर्क किया जहां से सहयोग मिला। ‘द बाइपास’ के प्रोड्यूसर ट्रेवर इंगमैन भी फ़िल्म से जुड़े। अमित को एक भारतीय निर्माता की भी तलाश थी। यहां दुविधा ये थी कि काउंसिल का बजट ज्यादा था लेकिन शर्त थी कि राशि का उपयोग सिर्फ ब्रिटेन में ही किया जाए, और कोई भारतीय निर्माता इसलिए नहीं जुड़ रहा था क्योंकि बजट काफी ऊंचा था। बाद में यूके फ़िल्म काउंसिल ने अपने हाथ खींच लिए। स्क्रिप्ट तैयार थी पर फ़िल्म लटक गई।

फिर आठ साल बाद यानी 2011 में फ़िल्म शुरू हुई। भारतीय निर्माता के तौर पर गुनीत मोंगा (सिख्या एंटरटेनमेंट) और अनुराग कश्यप जुड़े। फ़िल्म के निर्माण के दौरान आसिफ कपाड़िया क्रिएटिव प्रोड्यूसर रहे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विजय वर्मा और नीरज कबी (शिप ऑफ थिसीयस), तनिष्ठा चैटर्जी और श्रीजीता डे की भूमिकाओं वाली ये फ़िल्म एक साल से बनकर तैयार है और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में दिखाई जा रही है। पिछले साल मई में 66वें कान फ़िल्म फेस्ट में इसकी आधी रात के बाद की स्क्रीनिंग हुई। अब इस 4 और 5 फरवरी को बर्लिन के फ़िल्म वीक में इसे दिखाया जाना है।

अमित अपनी अगली फ़िल्म की योजना बना चुके हैं। ये दूसरे विश्व युद्ध की कहानी पर आधारित होगी। फ़िल्म का नाम ‘गिव मी ब्लड’ रखा गया है। इसका प्रोडक्शन जल्द ही शुरू हो सकता है। इससे पहले ‘मॉनसून शूटआउट’ को भारत में रिलीज किया जाना है। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीतः

Amit Kumar
कहां रहते हैं?
मुंबई में। काम के सिलसिले में बाहर के चक्कर लगते हैं, घर मुंबई में ही है। पेरेंट्स दिल्ली में रहते हैं।

‘मॉनसून शूटआउट’ भारत में कब लगेगी?
कुछ भारतीय प्रदर्शकों को दिखाई थी, उम्मीद है कि इस साल रिलीज हो जाएगी।

बीते साल ‘द लंचबॉक्स’, ‘शिप ऑफ थिसीयस’ और ‘शाहिद’ जैसी फ़िल्में सिर्फ वैश्विक फ़िल्म महोत्सवों तक नहीं सिमटकर रहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर प्रदर्शित हुईं। अपनी फ़िल्म के लिए भी क्या वैसी ही अपेक्षाएं हैं?
हां, बड़े स्केल पर रिलीज करना चाहते हैं। बाकी देखते हैं, कैसे होता है। अभी कुछ फाइनल नहीं है।

आपने इस फ़िल्म को बनाने में जिंदगी के दस साल दे दिए। क्या ‘मॉनसून शूटआउट’ इस काबिल थी कि उसे आप जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा दे दें?
 एक तरह से निजी चीज है। क्या ये फ़िल्म इतना डिजर्व करती थी या नहीं? इसका उतर तो मैं नहीं दे सकता। क्योंकि, अंततः बात ये है कि आप क्यों बना रहे हैं? कोई कहता है, पैसा कमाने के लिए बना रहा हूं। ऐसे में एक फ़िल्म दस साल में बनाओगे तो कोई फायदा नहीं। मेरा मोटिवेशन ये आइडिया था। मेरा मोटिवेशन ये एक पॉइंट है कि जो मेरे दिमाग में है वो लोगों को स्टोरी की फॉर्म में दिखना चाहिए। चाहे कितनी भी बाधाएं आएं पर फ़िल्म बनानी है। और भी कई रहे होंगे जो दस साल लगाकर भी एक फ़िल्म नहीं बना पाए। और भी कई हैं जो नए आइडिया पर ही लगे हैं, बनाना तो बहुत दूर है। तो ये (मॉनसून...) बन गई। अब फ़िल्म फेस्टिवल्स में घूम रही है। दर्शकों के साथ कनेक्ट करेगी। मेरे लिहाज से तो ये वर्थ इट (काबिल) थी। जब बनी तो, इंडि फ़िल्ममेकर्स के लिए जो सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म होता है कान फ़िल्म फेस्टिवल, वहां सम्मान मिला। हालांकि ये कान का सम्मान नहीं भी होता तो मेरे लिए फ़िल्म वर्थ इट है।

इतना वक्त क्यों लगा, आगे भी इतना ही वक्त लगाएंगे? यदि हां, तो कैसे चलेगा? क्योंकि कमर्शियल फ़िल्म होगी तो कोई आर्थिक प्रारूप इतने लंबे वक्त में फ़िल्म को सपोर्ट नहीं करता, अगर इंडिपेंडेंट भी बनाएंगे तो इस हिसाब से पूरी जिंदगी में कितनी कहानियां कह पाएंगे?
मेरी पर्सनैलिटी का असर पड़ता है फ़िल्म पर। कई लोग सिंगल माइंडेड होते हैं। मैं बैंलेस्ड हूं। मेरे दो बच्चे हैं। उनके साथ टाइम बिताता हूं, सब कुछ करता हूं। दूसरा ये कि कहानी या फ़िल्म को लेकर सिंगल माइंडेड ऑब्सेस्ड हूं तो विचार आते हैं कि इस तरह से ये-ये बनाना है और उसके लिए फिर प्रोजेक्ट के सही हिस्से मिलने चाहिए जो आपके विजन से मेल खाते हों। फ़िल्म को ऐसे ही बनाना चाहिए। मेरे लिए फ़िल्म में वो हिस्से ढूंढने मुश्किल थे। उसमें वक्त लगा। अब स्वीकार्यता आ गई है इंडि सिनेमा में कि नई स्टोरी है, पर अच्छी है। अलग टाइप को स्वीकार करते हैं। आसान हो गया है, ऐसे विचारों पर बनाना। अंतत ‘मॉनसून शूटआउट’ एक थ्रिलर ही है, बस अलग अप्रोच से बनाई गई है।
   खैर, मेरा तो यही तरीका है। अलग तरीका हुआ तो ये हो सकता है कि लिखने में टाइम ज्यादा लगे पर जल्दी बन जाए। ‘मॉनसून शूटआउट’ में कहानी लिखने में टाइम लगा, फिर प्रोसेस में मोटे बदलाव करने पड़े। शुरू से शुरू करना पड़ा। आपकी बात सही भी है। आगे वाली फ़िल्म, आशा है अच्छे ढंग से बनाएंगे। कम टाइम लगेगा। लेकिन कहना चाहूंगा, मैं किसी दौड़ में नहीं हूं, कोई जल्दी नहीं है।
   साइड बाइ साइड दूसरा काम भी चलता रहता है। सिर्फ फ़िल्में ही नहीं हैं। पर्सनल चॉयस में लोग जिंदगी के दूसरे अध्यायों पर ध्यान नहीं देते, मैं देता हूं। बाकी जितनी फ़िल्में बना पाया उतना अच्छा। कुछ खास कहानियां हैं, कुछ खास पार्टनर हैं तो उन्हीं पर ध्यान है। कई चीजें संयोगवश होती हैं। एक साल में भी हो जाता है और दस साल भी लग जाते हैं। एक स्क्रिप्ट में तीन साल लगे और एक है जो एक साल लिखी है।

The Bypass (2003)
‘द बाइपास’ कैसे बनी? आज के दो बेहद प्रभावी अभिनेता इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी पहली बार 2003 में आपकी इसी शॉर्ट फ़िल्म से साथ दिखे थे। उन्हें कैसे कास्ट किया?
मैं ‘द वॉरियर’ (2001) में उसके निर्देशक आसिफ कपाड़िया के साथ काम कर रहा था। हम साथ घूमते थे। मैं सहयोगी निर्देशक था। उनकी ग्रेजुएशन फ़िल्म के दौरान मिला था। साथ में हुए, लोकेशन रेकी की। तब मैं अपने आइडिया उन्हें बताता रहता था। एक ‘द बाइपास’ का बताया था और एक ‘मॉनसून शूटआउट’ का। फिर काफी दिन बाद उन्होंने मुझे फोन किया। बोले कि एक फ़िल्म कॉम्पिटीशन (UKFC Cinema Extreme short film programme) है, उसमें अपनी कहानी जमा करवा दो, कौन सी करवाना चाहोगे? मैंने कहा कि ये दो हैं पर मैं ‘मॉनसून शूटआउट’ को करवाना चाहता हूं। पर वे बोले कि ‘द बाइपास’ कर दो, ये अच्छी कहानी है। हालांकि मेरा मन नहीं था पर उनकी बात मानी और वो ही किया। फिर बनाने की बात आई तो ‘द वॉरियर’ के कास्टिंग डायरेक्टर रह चुके तिग्मांशु धूलिया से संपर्क किया। उन्होंने ‘द बाइपास’ की कास्टिंग की। इरफान को लिया। उसके बाद नवाजुद्दीन को लिया। नवाज का जिक्र हुआ तो बोले कि स्टार बेस्टसेलर्स में एक लड़का था वो अच्छा है। मैंने सीरियल देखा, उसमें एक दृश्य है जिसमें नवाज का किरदार मुड़कर आइने में देखता है, तो मुझे उसकी आंखें बहुत अच्छी लगीं, मेरे जेहन में बस गई। मैंने उसे बुलाया, ऑडिशन लिया। मुझे तुरंत लगा कि यही है मेरा दूसरा किरदार। यूं बनी।

फ़िल्ममेकिंग के इतने लंबे बाधा भरे सफर में निराश नहीं हुए? दूसरा, आपने ‘मॉनसून...’ की कहानी 2003 से भी पहले सोच रखी थी। ऐसे में जब इंसानी दिमाग में हर पल विचार, विजुअल, भाव बदल जाते हैं, आपने इतने लंबे वक्त तक अपनी इस फ़िल्म की कहानी और तीव्रता को कैसे जस का तस सहेजकर रखा?
मेरा एक दार्शनिक नजरिया (Philosophical Approach) जो है जिंदगी को लेकर, वो एक तरह से फिक्स है। उसी के आसपास जिंदगी के बाकी अध्यायों और हिस्सों को देखता हूं। उसमें आमतौर पर फ्रस्ट्रेशन का कॉलम नहीं आता। नहीं तो वो बाधा बन सकती है, कि यार इतने साल से कर रहा हूं। तो वो नहीं आने देता। दूसरी बात कि स्टोरी की इमोशनल इंटेग्रिटी को बनाए रखना एक लंबे वक्त तक। मेरे लिए दिमाग में वो जमा है, एक तकरीबन ठोस आकार में है। यानी विजुअली है। सिर्फ शब्द ही नहीं है। एक तरह से वो फ़िल्म बन गई है दिमाग में। अब चाहे अगले दिन शूट करूं या चार दिन बाद, दिमाग से ही निकालनी है। हां, लिखते हुए स्टोरी बदलती है, लेकिन जो भी उसका दिल है वो इस पूरे सफर के दौरान मन में पूरी छत्रछाया में रहता है। ये अब तक का अनुभव है।

आगे किस कहानी पर फ़िल्म बनाएंगे?
अपने जर्मन फ़िल्ममेकर दोस्त फ्लोरियन गॉलनबर्गर (Florian Gallenberger) के साथ 2007 में उसकी फ़िल्म (City of War: The Story of John Rabe, 2009) के निर्देशन में सहयोग किया था। इसकी रिसर्च (‘सिटी ऑफ वॉरः द स्टोरी ऑफ जॉन रेब’, दरअसल जॉन रेब नाम के जर्मन बिजनेसमैन की कहानी थी जिसने अपनी नाज़ी सदस्यता का इस्तेमाल 1937-38 में नेनकिन नरसंहार के दौरान 2 लाख से ज्यादा चीनी नागरिकों की जान बचाने में किया था) कर रहा था तो मुझे एक कहानी मिली। ये दूसरे विश्व युद्ध के दौरान की बात है। तभी से तय कर लिया कि इस पर फ़िल्म (Give Me Blood) बनानी है। ये मेरी अगली फ़िल्म हो सकती है।

आप कैसे इंसान हैं? क्योंकि बातचीत से लग रहा है कि बहुत तनाव में नहीं रहते, बेहद कूल हैं। ऐसे कैसे?
मैं बहुत शांतचित्त और ढीला आदमी हूं। टकराव ज्यादा पसंद नहीं करता। रिलैक्स होना पसंद करता हूं। आमतौर पर ज्यादा गुस्सा नहीं करता। जिंदगी के प्रति रवैया ये है कि हम लोग समझते हैं कि कंट्रोल में हैं पर होते नहीं हैं। इसलिए किसी चीज को कंट्रोल में करने की कोशिश कर रहे हैं और हो नहीं रही। ये ‘मॉनसून...’ की जर्नी में बहुत हुआ। ब्रिटिश फ़िल्म काउंसिल ने आधे रास्ते में ही हाथ खींच लिए तो दोस्त चिल्लाने लगे, बहुत चिंतित हुए, लेकिन मैंने कहा, कोई बात नहीं। मैं आम मध्यमवर्गीय परिवार से हूं जो बच्चों को इंजीनियर बनाने के सपने देखते हैं। मैंने जैसे-तैसे अपने सपने फ़िल्म बनाने के, पूरे कर लिए। मुझे कोई शिकायत नहीं है। नहीं हुआ यार तो कोई बात नहीं, मेरा यही रास्ता है, ठीक है। मुझे हंसने में बहुत मजा आता है। जोक करने में आता है। खाना बनाना बहुत अच्छा लगता है। हर तरह की फ़िल्म देखना पसंद है। कमर्शियल, आर्टहाउस, रोमैंटिक, मसाला। ये नहीं कि जैसी बनाता हूं वैसी ही देखता हूं। परिवार के साथ बहुत वक्त बिताना चाहता हूं।

पर आपको ईर्ष्या, दुख या पछतावा नहीं होता कि 2003 में आपने ‘द बाइपास’ बनी ली थी, जिसे बाफ्टा तक में सम्मान मिला? उसके बाद 2014 तक में आपकी दूसरी फ़िल्म लोगों के बीच पहुंच नहीं पाई है जबकि इतने वक्त में लोगों ने कितनी शानदार फ़िल्में बना ली और बतौर फ़िल्ममेकर अपने सफर में बहुत आगे पहुंच गए। आप अब तक शुरू भी ढंग से नहीं हुए, बहुत पीछे रह गए। जलन नहीं होती कि यार उस लड़के ने, जो बच्चा ही था, इतनी जोरदार फ़िल्म बना दी और मुझे वो सम्मान नहीं मिला?
मेरा दृष्टिकोण है कि मेरा ये पथ है और आपको वो है। है न? दूसरे फ़िल्ममेकर ने फाड़ू फ़िल्म बना दी हो 20 की उम्र में और मैं 50 का हूं, तब मैं सोचूं, यार मैंने नहीं बनाई। हो सकता है वो 23 के बाद कोई न बनाए, मैं 55 के बाद फाड़ू बना दूं। तो अपने पथ में खुश हूं। उसने ये कर लिया मैंने क्यों नहीं किया? ये तुलना नहीं करता। अगर मुड़ें तो देखेंगे कि आज अगर निराशा आती है तो कल पॉजिटिविटी आ जाती है। जब निराशा आती है तो लगता है दुनिया ख़त्म हो गई। पर पिछली बार ऐसे ही मौके को देखो तो पता चलेगा कि ये बीतेगा। मैं तो प्रेरणा की तरह ले लेता हूं। बड़ी फ़िल्म हो तो सोचता हूं, यार... कमाल, ऐसी फ़िल्म बन गई। मैं मानता हूं कि ये अकेले डायरेक्टर का नहीं है, पूरी टीम का है। ‘द बाइपास’ में आप राजीव रवि (कैमरा वर्क) का काम देखिए। एक्टर्स को देखिए। मैं तो इस तरह से लेता हूं।

बचपन से लेकर अब तक ऐसी कौन सी फ़िल्में रही हैं जिन्होंने सम्मोहित कर दिया जो शानदार लगीं?
एक फ़िल्म अभी आई ‘वंस अपॉन अ टाइम इन ऐनेटोलिया’ (Once Upon a Time in Anatolia, 2011)। बहुत बढ़िया लगी। लगा, यार, लोग ऐसा कमाल का काम कर रहे हैं। मतलब, होप है कि मैं भी करूंगा और कमाल की फ़िल्में बनाऊंगा। फिर 2012 में देखी ‘अ सैपरेशन’ (A Separation, 2011)। कमाल की फ़िल्म बनाई यार। कोई बोलेगा, कोई एक्शन नहीं, छोटा सा कमरा, लव अफेयर भी नहीं चल रहा। सिंपल है, पर क्या ग्रिपिंग बना ली। ‘पल्प फिक्शन’ (Pulp Fiction, 1994) पहली बार देखी तो एक-एक चीज, डायलॉग्स, स्टेजिंग, एक-एक चीज कमाल लगी। ‘चारूलता’ (Charulata, 1964) बहुत बढ़िया लगती है। हर कोई ‘पाथेर पांचाली’ (Pather Panchali, 1955) को महान कहता है, मैं ‘चारूलता’ को डिफाइन नहीं कर पाया, पर बहुत अलग है। ‘सत्या’ (Satya, 1998) बहुत अच्छी लगी थी। उससे पहले रामू (राम गोपाल वर्मा) की ‘शिवा’ (Shiva, 1989) बहुत अच्छी लगी। तब मैं दिल्ली में कॉलेज में था। पोस्टर लगा तो देखा कि यार कौन सी है, कमाल है। मैंने उसके बाद फिर हालांकि देखी नहीं। ‘शोले’ (Sholay, 1975)। मैं बचपन में इंडिया में रहता था। फिर हम अफ्रीका चले गए। वहां मैं और मेरा भाई इस फ़िल्म के किरदारों की नकल उतारते थे। शायद उसी की वजह से मैं फ़िल्ममेकर बना हूं। वहीं से कर-कर के स्टोरीटेलिंग सीखी। कि जय और वीरू ही क्यों बने हैं, स्पाइडरमैन बन जाते हैं। एक फ्रेंच फ़िल्मकार हैं लियो कैरेक (Leos Carax), उनकी फ़िल्म ‘मोवे सांग’ (Mauvais Sang, 1986) देखी। दिल्ली में फ्रेंच एंबेसी में एक फ़िल्म फेस्टिवल में देखी, तब मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ रहा था। इसके अलावा ‘वंस अपॉन अ टाइम इन द वेस्ट’ (Once Upon a Time in the West, 1968)। कमाल की फ़िल्म है। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa) की ‘सेवन सामुराई’ (Seven Samurai, 1954)। ‘स्टॉकर’ (Stalker, 1979), आंद्रेई तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky) की। ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ (A Short Film About Killing, 1988)। एक शानदार चिलियन फ़िल्ममेकर हैं मिग्वेल लिटिन (Miguel Littín) उनकी फ़िल्में कमाल की हैं, अगर आपको किश्लोवस्की की ‘अ शॉर्ट फ़िल्म अबाउट किलिंग’ फाड़ू लगती है न, कि क्या मासूम लोग हैं और इनके साथ क्या हो रहा है, तो आप इनकी फ़िल्में देखिए।

क्या आप फ़िल्मों की श्रेष्ठता को उस लिहाज से देखते हैं कि विमर्श और आलोचना पर खरी कौन उतरी है, या यूं ही? जैसे सत्यजीत रे हैं। उनकी फ़िल्में आलोचना के तकरीबन सभी मानकों के पार जाती हैं। स्क्रीनप्ले, सौंदर्य, तकनीक से प्रयोग, विचार, एडिटिंग, कुल कंपोजिशन, और भी बहुत कुछ। सबमें वे अव्वल खड़े हैं। क्या उनके समकक्ष या उस लिहाज से आपके पसंदीदा कोई निर्देशक हैं? क्या आप फ़िल्मों को ऐसे देखते हैं?
रे साहब की तरह विट्टोरियो डी सिका (Vittorio De Sica) थे। वैसे सच कहूं तो मैंने कभी फ़िल्मों को उस तरह से नहीं देखा। मेरे लिए फ़िल्म उस तरह मायने रखती है कि मैंने देखी और मेरे दिल में क्या भाव पैदा किए और मैं कितने दिन उसके बारे में सोचता रहा। जब ‘अ सैपरेशन’ देखी तो शॉट्स के बारे में नहीं सोचता रहा। बस देखने के बाद तक महीनों देखता रहा। जैसे आपको ‘चारूलता’ का जिक्र करता हूं तो दिमाग में उसका सीन क्रिएट होता है। तो वो एक्चुअली बताना बड़ा मुश्किल है। बहुत सारी चीजें उसमें शामिल होती हैं। कई बार गलत हो सकती हैं, परफेक्ट बन सकती हैं। मैं उस तरह से देखता हूं। फैलिनी (Federico Fellini) की ‘8 एंड अ हाफ’ (8½, 1963) ले लीजिए। ये जादुई फ़िल्में हैं। मेरे लिए ‘स्टॉकर’ बड़ी जादुई है। मैं ये नहीं सोचता कि रे अकेले खड़े हैं।

फ़िल्म को आप कैसे देखते हैं? खासकर ऐसी फ़िल्मों को जो किसी आइडियोलॉजी की बात करती हैं या जो बहुत गूढ़ और घने विचार लिए होती हैं। जैसे, कोपोला (Francis Ford Coppola) की ‘अपोकलिप्स नाओ’ (Apocalypse Now, 1979) को देखें तो चुंधिया देने वाली फ़िल्म है। अब इसे समझने के लिए आप किस स्तर तक जाएंगे? क्या आप उतना समझ लेंगे जितना निर्देशक को खुद समझ आया होगा? वो पूरा विमर्श, वो अमरत्व की बात, वियतनाम युद्ध का संदर्भ और सही-गलत का पूरा व्यापक प्रश्न।
मेरे लिए जरूरी ये है कि फ़िल्म का मुझ पर प्रभाव क्या होता है। मैं ब्रेक डाऊन नहीं करता या उसे तोड़ता नहीं कि ये फिलॉसफी रही होगी। फाइनली फ़िल्मकार ने जो भी हलवा बनाया होगा या जो भी विषय-वस्तु है, ...मूल उद्देश्य ये है कि लोग देखें और असर पड़े। एंटरटेनमेंट भी हो सकता है असर। कॉमेडी फ़िल्म है तो उद्देश्य है लोगों को हंसाना। हॉरर का डराना है। पॉलिटिकल का कुछ और है। मैं सवाल नहीं करता कि उन्होंने ऐसे बनाई। मुझे याद है जब पहली बार देखी तो सोचा, कि क्या बनाई है यार ‘अपोकलिप्स नाओ’। मैं ये नहीं सोच रहा हूं कि क्या पागलपन बनाया है। कभी-कभी समझ ही नहीं पाता हूं। ‘नो स्मोकिंग’ देखी हॉल में तो थोड़ी समझ आई, पर बाद में उलझ गया कि डायरेक्टर ये नहीं वो दिखा रहा है, कुछ और चक्कर है। तो ऐसे ही एंजॉय करता हूं न। पूरा देखा तो अंत में एक असर था। मैंने पहली बार फ़िल्म के बारे में बात की तो कहा कि यार प्रभावित हूं।

टैरेंस मलिक की फ़िल्में कितनी समझ आती हैं?
मैं कुछ देखता हूं, समझ आती है तो ठीक, नहीं आती तो ठीक। जैसे कोई शेफ बहुत बढ़िया सुशी बनाता है तो बनाए, मैं पावभाजी ही खाना चाहता हूं। ‘वंस अपॉन अ टाइम इन ऐनेटोलिया’ मेरी वाइफ ने मुझे रेफर की थी। बोली कि गजब है, देखो! मैंने देखी तो सो गया, क्या कमाल-वमाल। फिर एक बार दोबारा देखी तो ग्रिप में रह गया, देखता ही रह गया। वो तब की मानसिक अवस्था भी थी। उसका भी फर्क पड़ता है। कहने का मतलब ये है कि कुछ हो फ़िल्म में, तो चांस दो। मुझे कोई अनिवार्यता नहीं लगती।

अपनी फ़िल्म में आप न जाने कितनी बातें कहते हो, संदर्भ रखते हो, कितने इशारे करते हो लेकिन दर्शक उनमें से ज्यादातर नहीं देखता। ऐसे में दुख नहीं होता कि जितनी कोशिश की वो पूरी तरह कोई समझा ही नहीं? जैसे आपने कहा कि पहली बार में ‘वंस अपॉन अ टाइम इन ऐनेटोलिया’ आपने खारिज ही कर दी थी, जबकि तब भी उसमें उतनी ही शानदार चीजें थीं।
अब जैसे मैंने ‘मॉनसून शूटआउट’ बनाई। मैंने मान लीजिए उसमें 50 चीजें डाली। और 90 परसेंट दर्शकों ने उन 50 चीजों में से सिर्फ 20 चीजें लीं। कोई दिक्कत नहीं। क्योंकि वो 20 भी मैंने ही डाली थीं। कुछ लोग 40 चीज लेंगे। कुछ लोग 60 ले लेंगे। उनके पर्सनल एक्सपीरियंस से वो लेते होंगे। कोई बोलेगा कि आपने फ़िल्म के उस सीन में वो किया था न, कमाल था। और उस वक्त मैं मन ही मन सोचूंगा कि यार ऐसा तो मैंने सोच कर डाला ही नहीं था। तो ये मेरी ड्यूटी है कि जो डालना चाहता हूं डालूं, और लेने वाले का अपना है वो क्या ले। 10 ले, 50 ले, मेरे डालने से ज्यादा ले। हर इंसान का अलग होता है। जितना ज्यादा लोग देख पाएं।

‘मॉनसून...’ को लेकर सबसे यादगार प्रशंसा आपको क्या मिली है?
कान (Cannes International Film Festival) में आधी रात की स्क्रीनिंग थी फ़िल्म की। बारिश हो गई थी तो थोड़ा सा आगे खिसक गई थी। 12 की जगह रात 1.30 बजे फ़िल्म शुरू हई। खत्म हुई 2.30-3 बजे। तब फ़िल्म को 10 मिनट का स्टैंडिंग ओवेशन मिला। कोई औपचारिकता नहीं थी, अच्छी नहीं लगती तो लोग चले जाते हैं। दुनिया भर के लोग आए हुए थे, वो रात को पब में जा सकते थे लेकिन ‘मॉनसून...’ देखने आए। इसका मतलब ये हुआ कि मैंने जो 50 चीजें डाली हैं उनमें से ज्यादातर पकड़ में आईं उनके। मुख्य बात ये है कि फ़िल्म से जुड़ाव बना उनका। इतने सारे लोग थे और खड़े होकर तालियां बजा रहे थे आधी रात को, तो ये अच्छा लगा।

आप छोटे थे तो ऐसी कौन सी चीजें थीं जिन्होंने कहानियों की रुचि आपमें डाली? किताबें, फ़िल्में, साहित्य, पड़ोस, दोस्त, माहौल, परिवार के लोग... क्या? क्या यादे हैं?
मेरे बाबा थे। वो कहानियां सुनाते थे, जब हम छोटे थे। एक याद है। कोई किंगकॉन्ग की थी। वो विजुअली याद है। वो एक किंगकॉन्ग है, लड़की है, बाल बना रही है। तो वो यादें, दृश्य दिमाग में बैठे हुए हैं। ‘शोले’ का असर था। मैं और मेरा भाई गेम्स खेलते थे। फ़िल्म को लेकर अभिनय करते थे। एक-दूजे के सामने बैठकर फ़िल्म की कहानी सुनाते थे। ये खेल खूब खेलते थे। क्योंकि हम लोग अफ्रीका में रहते थे, तो सब अमेरिकन शो आते थे। कॉमिक्स पढ़ता था। विश्व युद्ध-2 की कॉमिक्स खूब थीं। हो सकता है रूचि वहीं से आई हो। बैटमैन-स्पाइडरमैन नहीं पढ़ी। फैनटैस्टिक फोर और सुपरमैन पढ़ता था। अब अपने बच्चों को रोज कहानी सुनाता हूं। दो बच्चे हैं, दोनों को एक-एक शब्द चुनने को कहता हूं। और उन्हें मिलाकर कहानी बना देता हूं।

बच्चों को कहानी सुनाने का वक्त कैसे निकाल लेते हैं? जबकि गीक्स या अन्य तरह के फ़िल्मकारों को अपनी फ़िल्मों के अलावा कोई चीज नहीं दिखती।
देखिए, मैं मानता हूं कि वक्त बहुत क्षणभंगुर है। जो है आसपास, वो एक सेकेंड बाद नहीं है। कोई बोले कि यार टाइम नहीं है, बहुत फ़िल्में बनानी हैं। कोई बोले कि लाइफ में इतने सुख हैं, परिवार वगैरह। तो दोनों ही चीजें निकल ही रही हैं न। अभी बच्चे छोटे हैं तो कहानियां सुना सकता हूं। बड़े हो जाएंगे तो अपनी कहानी खुद सुनेंगे। अभी कैसी भी कहानी की तारीफ करते हैं, बाद में नहीं करेंगे। कभी-कभी मीटिंग होती तो छूट जाता है। लेकिन ये रात का रिचुअल है जो मैं करता ही हूं। अपना दृष्टिकोण है। मुझे लगता है कि बात करनी जरूरी चीज है।

2012-13 में कौन सी फ़िल्में बेहद अच्छी लगीं?
‘शाहिद’ की शुरुआत ही देख पाया, पूरी नहीं देखी, मुझे लगा कि बहुत बढ़िया होगी। ‘द लंचबॉक्स’ बहुत बढ़िया फ़िल्म है यार। रितेश की ‘कैफे कायरो’ भी बहुत अच्छी लगी। कन्नड़ फ़िल्ममेकर हैं पवन कुमार उनकी ‘लुसिया’। लंदन में अवॉर्ड मिला था। कमाल की फ़िल्म लगी मुझे। ‘पैडलर्स’ अच्छी है। कम से कम लोग इन फ़िल्मों को देख तो लें। और भी कई फ़िल्में रहीं, मैं सबको देख नहीं पाया।

आपके जीवन का दर्शन क्या है?
मेरी फिलॉसफी है कि जो होना है वो होगा। वो आपके कंट्रोल से बाहर है। मैं चिंता नहीं करता। ‘मॉनसून...’ अभी के अभी रिलीज हो! क्यों नहीं हो रही? क्या है यार! ये नहीं करता। प्रोग्रैमर या आपके भगवान को आपका पथ पता है, तो एक हफ्ते तक मैं क्यों परेशान होता रहूं? कौन करेगा? कब करेगा? नहीं सोचता।

वेद-पुराण भी पढ़े हैं क्या? पुराणों में किसी फिलॉसफी को मानते हैं?
ये मेरी मम्मी मजाक करती हैं कि तुम तो ज्ञानी हो। वो पूजा-पाठ करती रहती हैं। मैं पूछता हूं कि पूजा तो रोज करती हैं कि फिर टेंशन क्यों लेती हैं। मेरे ख्याल से माइथोलॉजी में मैं श्रीमद्भगवद्गीता का फैन हूं। ये नहीं कि दो साल पहाड़ी में जाकर पढ़ा है, जो भी पढ़ा वो कनेक्शन हो गया है। जो विचार हैं न, वो फ्रेजेज में भी होते हैं। टीवी में, किताबों में, कहानियों में, सब में उस विचार का निचोड़ (एसेंस) आ जाता है। घर में मम्मी कुछ-कुछ रेफर करती थीं पढ़ने के लिए और एक बार मैंने गीता का साधारण संस्करण देखा, वैसे भी देखता रहता था। एकदम सटीक याद नहीं कब-क्या पढ़ा।

मंदिर जाते हैं? धर्म को लेकर आपके रिचुअल क्या हैं?
सबका अपना विचार होता है। मैं कभी धार्मिक नहीं था। मैं पूजा करना और मंदिर जाना वगैरह नहीं करता था। मेरा ये नहीं कि जाना ही है। कोई मंदिर कला और स्थापत्य का अद्भुत नमूना है तो देखने जाता हूं। भगवान तो दिल में रहता है। कर्म-कांड पहले किए हों तो याद नहीं लेकिन अब नहीं करता हूं। कई चीजें मैं देखता था बचपन में, अब एक फ़िल्मकार के तौर पर देखता हूं तो पता चलता है कि खास नहीं थीं। अब तो बच्चे कार्टून देखते हैं तो मैं भी मजे से देखता हूं। वो फीलिंग जबरदस्ती नहीं पैदा करनी चाहिए।

‘मॉनसून...’ की कहानी क्या है? क्या एक पुलिसवाले और अपराधी की है जो बरसात में खड़े हैं और कुछ पलों में पूरी फ़िल्म सिमटी है?
हां, वो ही है। एक कॉप (विजय वर्मा) है। उसने अपराधी (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) पर रिवॉल्वर तान रखी है। पलों में ही सबकुछ हो रहा है। वो सोच रहा है कि गोली मारूं या नहीं मारूं? तुरंत फैसला लेना है। लेकिन उन चंद पलों में उसके दिमाग में कई कहानियां, घटनाएं, नैतिक सवाल तैर रहे हैं।

फ़िल्म शूट करने की आपकी प्रक्रिया क्या होती है? आप अपने सिनेमैटोग्राफर के साथ मिलकर सीन्स की योजना कैसे बनाते हैं, उसके लुक को लेकर क्या बातें करते हैं? अभिनेताओं को आप कैसे ब्रीफ करते हैं, उनसे क्या भाव निकलवाने की कोशिश करते हैं?
मेरी दोनों ही फ़िल्मों के सिनेमैटोग्राफर राजीव रवि रहे हैं। हम दोनों एफटीआईआई में साथ पढ़े हैं। हमारी आपसी समझ अच्छी है। हम लोग शूट करने से पहले संदर्भों पर बात करते थे कि दृश्य कैसे चाहिए, कैसे नहीं। जैसे ‘द बाइपास’ में हमने तय किया कि रेत का रंग मौलिक रहे। वो सुनहरे रंग की ग्लैमरस रेत नहीं होगी जो फ़िल्मों में दिखाई जाती है। वो साधारण रेत होगी। लोग सूर्यास्त के वक्त शूट करते हैं, हमने चिलचिलाती धूप में किया। उसी तरह ‘मानसून...’ में हमने इस पर बहुत बात की कि बरसात को कैसे दिखाएंगे। तो बरसात हमारा विजुअल रेफरेंस पॉइंट है। सब उसी से निकला। जहां तक अभिनेताओं से बात करने का सवाल है तो उनके साथ शुरुआती प्रक्रिया गहरी होती है। जब तक हम वर्कशॉप खत्म करते हैं सब एक्टर्स को पता होता है कि अपने और फ़िल्म के परफॉर्मेंस को कहां ले जाना है। इस तरह योजना बनाने से थोड़ा आसान हो जाता है। एक सीन के लिए सही बिंदु मिल गया तो सारी फ़िल्म के लिए मिल जाता है। तो एक-एक सीन का गहराई से अभ्यास करने की जरूरत नहीं होती।

कैमरे कौन से इस्तेमाल किए?
एलेक्सा डिजिटल (Alexa digital) है, वो ही यूज किया। फाइव डी (Canon 5D) भी। कुछ पलों के लिए।

Tannishtha Chatterjee and Nawaz in a still from 'Monsoon Shootout.'
Amit Kumar is a film writer and a director. He lives is Mumbai. He's a graduate from FTII, Pune. He's worked with BAFTA-winning British director Asif Kapadia (Senna) as associate director on his 2001 feature The Warrior, starring Irrfan Khan. He's also worked on Oscar-winning German director Florian Gallenberger's 2004 feature Shadows of Time, which was set in India, and on City of War: The Story of John Rabe, which was released in 2009. Kumar debuted with his acclaimed 2003 short The Bypass, which picked up various awards, including a BAFTA for best short film. His feature debut Monsoon Shootout is doing the rounds for various international film fests. It was in the Midnight Screenings program at 66th Cannes film fest last year. Kumar is planning to release the movie in India this year. His next film is set in WW II called 'Give Me Blood.'
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Tuesday, November 19, 2013

राजकुमारी कागुया: कथा हमारी सब राजकुमारियों की

अविरल. सरल. नम.
लकड़हारे की लोक कथा पर आधारित इसाओ ताकाहाता की लिखी, निर्देशित की जापानी एनिमेटेड फिल्म "राजकुमारी कागुया की कथा" का लंबा ट्रेलर। फिल्म 23 नवंबर को जापान में प्रदर्शित होगी।



The Story of Princess Kaguya (Kaguya-hime no Monogatari) is an upcoming Japanese animated film directed and co-written by Isao Takahata. Based on the folktale The Tale of the Bamboo Cutter, the film releases in Japan on 23 November.
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Friday, July 19, 2013

शोएब मंसूर की ‘बोल’ के बाद अब पाकिस्तान से आ रही है ‘जिंदा भाग’; बातें निर्देशकों मीनू गौड़ व फरज़ाद नबी से

 Q & A. .Meenu Gaur & Farjad Nabi, director duo of Pakistani film “Zinda Bhaag”.

Farjad Nabi and Meenu Gaur, during the shooting of "Zinda Bhaag."
भारी टैक्स और सेंसरशिप के बीच छटपटाती पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री में बनीं तो ‘जट्ट दे गंडासे’ जैसी ही फ़िल्में, जैसी भारतीय पंजाब में काफी वक्त तक बनती रहीं। इस बीच भारत में बैठकर हमें अगर पाकिस्तानी सिनेमा की ख़ैरियत मिलती रही तो सबीहा सुमर की फ़िल्म ‘ख़ामोश पानी’ (2003) से, शोएब मंसूर की ‘ख़ुदा के लिए’ (2007) से और मेहरीन जब्बार की ‘रामचंद पाकिस्तानी’ (2008) से। बेहद अच्छी फ़िल्में रहीं। दो साल पहले मंसूर की ही फ़िल्म ‘बोल’ भी आई। कोई भी दर्शक, चाहे वो मामूली समझ-बूझ वाला हो या बेहद बुद्धिजीवी, ऐसा नहीं था जिसे इस फ़िल्म ने भीतर तक नहीं छुआ। जब-जब ‘बोल’ की बात आज भी होती है, आदर के साथ होती है। पाकिस्तानी सिनेमा को वहां से आगे ले जाने की कोशिश करती एक और फ़िल्म तैयार है। नाम है ‘जिंदा भाग’। वहां के सिनेमा के लिए ये वही काम कर सकती है जो भारतीय सिनेमा के लिए ‘खोसला का घोंसला’ ने किया।

इस फ़िल्म को बनाया है प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी और डायरेक्टर द्वय फरज़ाद नबी और मीनू गौड़ ने। अपनी ही मेहनत, सोच और छोटी-छोटी संघर्ष भरी कोशिशों से इन्होंने एक परिपूर्ण फ़िल्म बनाने का ख़्वाब देखा है। फ़िल्म की कहानी तीन पाकिस्तानी लड़कों की है जो अपनी-अपनी जिदंगी की परेशानियों को दूर करने और समृद्ध होने के ख़्वाबों को पाने के लिए ‘डंकी मार्ग’ यानी गैर-कानूनी इमिग्रेशन का रास्ता अख़्तियार करते हैं। बेहद सच्ची परिस्थितियों और सार्थक मनोरंजन के बीच ही फ़िल्म को रखने की कोशिश की गई है। नसीरूद्दीन शाह भी एक प्रमुख भूमिका कर रहे हैं। इसमें ‘बोल’ में दकियानूसी ख़्यालों वाले पिता की बेहतरीन भूमिका करने वाले मंजर सहबई भी थोड़ी देर के लिए नजर आएंगे। फ़िल्म में एक अभिनेत्री और तीन नए अभिनेता (आमना इल्यास, खुर्रम पतरास, सलमान अहमद ख़ान, जोएब) केंद्रीय भूमिकाओं में हैं। संगीत साहिर अली बग्गा ने दिया है जो पंजाबी फ़िल्म ‘विरसा’ का लोकप्रिय गीत “मैं तैनू समझावां की...” गा चुके हैं। ‘जिंदा भाग’ के गाने राहत फतेह अली ख़ान, आरिफ लोहार, अमानत अली और सलीमा जव्वाद ने गाए हैं।

प्रोड्यूसर मज़हर और फरज़ाद पहले जर्नलिस्ट रहे हैं, बाद में फ़िल्म निर्माण में आ गए। गंभीर मिजाज के फरज़ाद को उनकी डॉक्युमेंट्री ‘नुसरत इमारत से निकल गए हैं... लेकिन कब?’ (Nusrat has Left the Building... But When?) और ‘प्रोफेसर का यकीन कोई नहीं करता’ (No One Believes the Professor) के लिए जाना जाता है। इसे साउथ एशिया में कई पुरस्कार मिले। इसके अलावा उनके लिखे पंजाबी स्टेज प्ले ‘अन्ही चुन्नी दी टिक्की’ (Bread of Chaff & Husk) और ‘जीभो जानी दी कहानी’ (The Story of Jeebho Jani) हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। वहीं मीनू भारत की ही रहने वाली हैं। मज़हर से शादी के बाद वह पांच साल से कराची और लंदन के बीच बसेरा करती हैं। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से पढ़ी हैं। 2010 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से फ़िल्म और मीडिया स्टडीज में पीएचडी की। इसके लिए उन्हें फेलिक्स स्कॉलरशिप और चार्ल्स वॉलेस स्कॉलरशिप प्राप्त हुई। वह एक पुरस्कृत डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ‘पैराडाइज ऑन अ रिवर ऑफ हेल’ (Paradise On A River Of Hell) का निर्देशन कर चुकी हैं।

अपनी फ़िल्म को अगले महीने यानी अगस्त तक पाकिस्तान, पश्चिमी देशों और भारत में रिलीज करने की योजना बना रहे फरज़ाद और मीनू से बातचीत हुई:

Poster of the movie.
 Q.. जिंदा भाग का ‘आइडिया’ सबसे पहले कब आया? किस्सा क्या था?
फरज़ाद नबीः जब आप गैर-कानूनी अप्रवासियों (इमिग्रेशन) की कहानियां सुनते हैं तो फैक्ट और फिक्शन की लाइन मिटती चली जाती है। इन कहानियों में हीरोइज़्म और ट्रैजेडी आपस में उलझते होते हैं। जब हमने अपने दोस्तों से ऐसी कहानियां इकट्ठी कीं तो हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल था कि वो कौन सी जरूरत, ख़्वाहिश या दबाव हैं जो हमारे मुल्क (भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका) के नौजवान लड़कों को गैर-कानूनी इमिग्रेशन या ‘डंकी का रास्ता’ चुनने पे मजबूर करते हैं। इसी सवाल के जवाब में ये स्क्रिप्ट लिखी गई।
मीनू गौड़ः हमारी फ़िल्म ‘जिंदा भाग’ एक साउथ एशिया फ़िल्म प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी है, जिसकी थीम मैस्क्युलिनिटी है। जब हम इस फ़िल्म की रिसर्च पर निकले तो हमें एहसास हुआ कि अपनी जान पे खेल के, डंकी के रास्ते फॉरेन जाने को मर्दानगी का इज़हार माना जाता है। इस नज़रिए में जिदंगी को एक जुए के तौर पर बरता जाता है और नौजवान लड़के हर समय किसी शॉर्टकट या जैकपॉट की ताक में रहते हैं। रिसर्च के दौरान हमें इन लड़कों की खीझ का अंदाजा हुआ। आज के दौर में सक्सेस और सक्सेसफुल होने का प्रैशर एक तरफ और दूसरी तरफ ये एहसास कि हर जायज रास्ता आपके लिए बंद है, हमारी फ़िल्म इसके दरमियां की कहानी बयां करती है।

 Q.. उस कहानी को स्क्रिप्ट की शक्ल देने तक आप दोनों में क्या विमर्श चले? फ़िल्म और उसके संदेश के पीछे पूरी बहस क्या रही?
 मीनूः असल मैं स्टोरी और स्क्रिप्ट साथ-साथ डिवेलप हुए। कुछ राइटर्स के पास पहले स्टोरी होती है और कुछ को पता नहीं होता कि ये स्टोरी क्या दिशा लेगी। हमारे पास शुरू में कुछ सीन्स थे, पूरे-पूरे, डायलॉग्स समेत। हमें फिर बाकी सीन तक पहुंचने का रास्ता बनाना पड़ता। आई थिंक, ये तरीका ज्यादा मुश्किल है और अगली बार हमने ठान ली कि पहले कहानी और फिर सीन और डायलॉग्स की डीटेल। लेकिन हमारे इस तरीके का फायदा ये था कि हमें हर डायलॉग और सीन के पीछे बहुत खास मोटिवेशंस सोचने पड़ते। शायद ज्यादा स्पॉनटेनियस भी था ये प्रोसेस। एक राइटर के तौर पर बहुत संतुष्टि होती है जब आप ये नहीं जानते कि आपके कैरेक्टर्स अब क्या करने लगेंगे। इस प्रोसेस में ज्यादा एक्साइटमेंट भी होती है और ये ज्यादा तकलीफ भरा भी होता है।
फरज़ादः मैसेज पर ये स्पष्टता थी कि फ़िल्म की आवाज असली होनी चाहिए, नक़ली नहीं। कुछ कैरेक्टर्स मुक़म्मल तौर पर रीराइट हुए क्योंकि उनकी आवाज स्वाभाविक नहीं थी। फिर स्ट्रक्चर के ऊपर बहुत मेहनत हुई क्योंकि इस फ़िल्म के ढांचे में एक बहुत अनोखा तत्व है जो देखिएगा, अभी ज्यादा नहीं कह सकता।

 Q.. क्या ऐसा भी है कि फरज़ाद ने कहानी के तीन लड़कों की हरकतें, अदाएं और सोच बचपन या जवानी के असल दोस्तों से पाई? और कहानी की बड़बोली हीरोइन के चारित्रिक गुण मीनू ने अपनी किसी सहेली में देखे और याद रखे?
फरज़ादः ऐसा सख़्त विभाजन तो बिल्कुल नहीं था। तमाम किरदार एक मुसलसल बहाव का हिस्सा हैं। कभी मुझे कोई आइडिया आता तो मीनू उसको शेप करतीं, और कभी मीनू के आइडिया को मैं शक्ल देता। अंत में ये किसी को याद भी नहीं रहता कि आइडिया किसका था और लाइन्स किसकी। ये हमारी ताकत है।
मीनूः हर राइटर अपने आस-पास के लोगों से प्रेरित किरदार और व्यक्तित्व लिखते हैं। लेकिन लिखने के प्रोसेस के दौरान वो किरदार इतने तब्दील हो जाते हैं कि फिर पहचाने नहीं जाते। एक कैरेक्टर सिर्फ एक रियल पर्सन से नहीं बल्कि सैकड़ों लोगों को मिला के बनता है। तो रुबीना के किरदार के डीटेल्स एक से ज्यादा लोगों से प्रेरित हैं। जब कल्पना उस प्रेरणा पे काम शुरू करती है तो ओरिजिनल प्रेरणा बहुत पीछे छूटती जाती है।

 Q.. नसीरूद्दीन शाह को कैसे प्रस्ताव भेजा? क्या उन्हें लेने से सबका ध्यान सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होकर नहीं रह जाएगा?
मीनूः जब हम ‘पहलवान’ का किरदार लिख रहे थे तो हमें पता था कि इस रोल को सिर्फ और सिर्फ एक बहुत पहुंचे हुए एक्टर अदा कर सकते हैं। ये एक मुश्किल रोल था। जब हम सोचने लगे तो बस बार-बार नसीरूद्दीन शाह साहब का ही जिक्र होता। फिर हमने तय किया कि हमें अपनी स्क्रिप्ट उन्हें भेजनी चाहिए। हमें उम्मीद नहीं थी कि कोई जवाब आएगा। मैं आज तक हैरान हूं कि नसीर साहब ने एक डाक में आई हुई स्क्रिप्ट पढ़ी।
फरज़ादः इसमें हमारे प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी का भी बड़ा रोल है। जब हमने उन्हें कहा कि हम इस रोल में नसीर साहब को देखते हैं तो उन्होंने हमें हतोत्साहित करने के बजाय कहीं से नसीर साहब का पता निकाला और स्क्रिप्ट भेजी। जब नसीर साहब ने स्क्रिप्ट पढ़ी तो बहुत प्रेरित हुए और कहा कि “ये मैं जरूर करूंगा क्योंकि ये रोल लाखों में एक है”। सेट पर वो सबको साथ लेकर चले जिससे हमारे नए एक्टर्स का आत्म-विश्वास बहुत बढ़ा। फ़िल्म देखते हुए बिल्कुल भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि नसीर साहब एक स्टार हैं।

 Q.. “मैं आपको रसगुल्ले की मिठास से ज्यादा, इमली की खटास से ज्यादा और पाकिस्तान में करप्शन से ज्यादा प्यार करती हूं,” …ऐसे डायलॉग का जन्म कैसे हुआ? कितनी आजादी से लिख पाए?
फरज़ादः जिसको कहते हैं न, असली घटनाओं से प्रेरित, बस इस डायलॉग की उत्पत्ति भी कुछ ऐसी ही रही। जो पहले दीवारों की पुताई से लिखे होते थे, अब टेक्स्ट मैसेज हो गए हैं।
मीनूः हमारी ये कोशिश थी कि हम उस भाषा में लिखें जो कि लाहौर के किसी मुहल्ले की एक पीढ़ी की नेचुरल ज़बान लगे, ऑथेंटिक लगे। इसके लिए हमने अपने एक्टर्स के साथ बहुत वर्कशॉप कीं, इम्प्रोवाइजेशन किए। इसी वजह से हमने ये फैसला भी लिया कि हम प्रफेशनल एक्टर्स को कास्ट नहीं करेंगे, मेन लीड में ऐसे लड़कों को कास्ट करेंगे जो उसी मुहल्ले से हों और उसी पर्सनैलिटी के हों, जिस तरह के हमारे तीन लीड कैरेक्टर हैं। फिर हमने बहुत ऑडिशन किया और सलेक्शन के बाद दो महीने तक वर्कशॉप और रिहर्सल्स भी किए। इनमें एक वर्कशॉप नसीर साहब ने भी करवाई। कुल-मिलाकर हम ये कहानी उसी तरह और उसी अंतरंगता के साथ परदे पर लाना चाहते थे जिस तरह हमने खुद उसे देखा... एक दोस्त, कजिन या पड़ोसी की कहानी।

 Q.. अपनी फ़िल्म के लिए आप लोग कैसा संगीत चाहते थे? उसके लिए साहिर अली बग्गा पहली पसंद कैसे बने?
फरज़ादः ‘जिंदा भाग’ का संगीत परिस्थितिजन्य है और कहानी के नैरेटिव को आगे लेकर बढ़ता है। हमने हर गाने की सिचुएशन विस्तार से सोची हुई थी और हमारे पास काफी संदर्भ भी थे कि किस किस्म का साउंड चाहते हैं। ये बग्गा का कमाल है कि उसने स्क्रिप्ट के मुताबिक म्यूजिक बनाया और सिंगर्स चुने।
मीनूः फरज़ाद और मैं दोनों ही पुरानी फ़िल्मों और गानों के फैन हैं। और फिर एक जमाना था जब लॉलीवुड एक फलती-फूलती इंडस्ट्री थी। मैडम नूरजहां और मेहदी हसन जैसे प्लेबैक सिंगर थे। हम दोनों की सोच है कि फिल्मी गानों का जो कायापलट हुआ है हाल ही के सालों में, वो अकल्पनीय है। गानों को ‘आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। फ़िल्म कोई वैरायटी शो तो नहीं कि उसमें आइटम हों। पुरानी फ़िल्मों के गाने उन हालातों या इमोशंस को जाहिर करते थे जिनको आप डायलॉग के जरिए नहीं कह सकते थे। जैसे कि एक निचले या गरीब वर्ग का इंसान अमीरों की ओर तंज करे, या कोई आध्यात्मिक असमंजस (spiritual dilemma) हो, या प्यार की बात हो। हम फिल्मी गानों के उस दौर को रेफरेंस रख कर चलना चाहते थे। बग्गा का ये कमाल है कि वो इस सोच को और भी आगे तक लेकर गए। उन्होंने पूरी तरह लाइव इंस्ट्रूमेंट्स से हमारी फ़िल्म का म्यूजिक तैयार किया है।

 Q.. पोस्ट-प्रोडक्शन इंडिया में कहां किया? अब जब बेहद कम टेक्निकल संसाधनों में भी एडिटिंग, डबिंग, साउंड मिक्सिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन हो जाता है, फिर इस काम के लिए पाकिस्तान क्या उपयुक्त स्थान नहीं था? इससे पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाओं को भी वहां बढ़ावा मिलता।
फरज़ादः कुछ पोस्ट-प्रोडक्शन मुंबई में हुआ और कुछ कराची में। इनमें से कई सुविधाएं पाकिस्तान में उपलब्ध नहीं हैं। आमतौर पर डायरेक्टर्स बैंकॉक जाते हैं, हमने इंडिया इसलिए चुना क्योंकि वो सस्ता विकल्प था और हमारी ज़बान और सिनेमैटिक परंपरा एक हैं, तो साथ काम करना ज्यादा आसान होता है और मजा भी ज्यादा आता है।

 Q.. इंडिया में ‘बैंड बाजा बारात’, ‘विकी डोनर’ और ‘मेरे डैड की मारूति’ जैसी फ़िल्में बनी हैं। उन जैसी ही गति, शोख़पन, चटख़पन, गली-मुहल्ले वाले डायलॉग और चुस्त किरदार ‘जिंदा भाग’ में भी हैं। आपको क्या लगता है, मौजूदा दौर के सिनेमा में ये विशेषताएं और गति तमाम मुल्कों में एक साथ क्यों नज़र आ रही हैं?
फरज़ादः चुस्त और सुस्त में थोड़ा ही फर्क है और वो है कंटेंट का। अंत में तो आपको कहानी सुनानी है और अगर कहानी कमजोर है तो जितनी मर्जी चाहें चुस्ती कर लें आपकी फ़िल्म सुस्त ही रहेगी।
मीनूः शायद इन सब मुल्क में यंगर जेनरेशन फ़िल्म बना रही है और वो सब ऐसी कहानियां कहना चाहते हैं जिनका रिश्ता उनके खुद की रोजमर्रा की जिंदगी से हो?

 Q.. बचपन में कौन सी फ़िल्में आपने सबसे पहले देखी थीं और क्या तब जरा भी लगा कि ये सम्मोहन आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनेगा? छुटपन में किन डायरेक्टर्स की फ़िल्में पसंद थीं, कौन सी फ़िल्में पसंद थीं?
फरज़ादः सबसे पहले तो सिनेमा की प्रेरणा मुझे म्यूजिक से मिली जो आज भी मिलती है। जहां तक फ़िल्ममेकर्स का ताल्लुक है, किसी एक का नाम लेना मुश्किल है। एक जमाने में जर्मन सिनेमा से मैं बहुत प्रेरित था, फिर ईरानी फ़िल्मों का दौर आया। क्यूबन सिनेमा बहुत कम देखा है लेकिन हमेशा कुछ नया होता है उसमें। आजकल फिर पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्मों की तरफ वापसी है। तो ये सफर जारी रहता है। लेकिन इन सब प्रेरणाओं को लेकर हमें अपनी कहानियां अपने तरीके से कहनी हैं। अगर सब टैरेंटीनो, कोपोला या तारकोवस्की बनना चाहेंगे तो फिर क्या बनेगा। जिस तरह बॉलीवुड और हॉलीवुड की अलग-अलग जॉनर वाली फिल्मों से समान उम्मीदें होती हैं, उसी तरह यूरोपियन आर्ट सिनेमा का भी एक तय ढांचा या टेम्पलेट है। इस साल मैं बर्लिनैल गया तो हैरान था कि कितनी ज्यादा फ़िल्में अलग-अलग मुल्कों से होने के बावजूद भी एक हूबहू टेम्पलेट पे बनीं थीं। ये फंदे हैं जिनसे बचना एक फ़िल्ममेकर का संघर्ष है।
मीनूः हमारे घर में बहुत ज्यादा फ़िल्में देखी जाती थीं। बॉम्बे की फ़िल्में भीं और आर्ट फ़िल्म भी। शुरू से ही काफी थियेटर वगैरह से जुड़ाव रहा। हाई स्कूल के टाइम से ही काफी वर्ल्ड सिनेमा देखना शुरू कर दिया था लेकिन कॉलेज में ये और सीरियस पैशन बन गया। वहां फ़िल्म क्लब मैं हम हर नए डायरेक्टर को आज़माते थे। सैली पॉटर की ‘ऑरलैंडो’ (Orlando, 1992) जब देखी तब याद पड़ता है कि स्क्रीनिंग के बाद ये फीलिंग थी कि काश ये फ़िल्म बनाने में मेरा भी कोई छोटा-मोटा हाथ होता। सिनेमा डायरेक्टर्स तो बहुत सारे हैं जिनकी फ़िल्में इंस्पायर करती हैं। कई ऐसे भी हैं जिनकी फ़िल्में बहुत ज्यादा पसंद हैं और मैं जब फ़िल्म पढ़ती हूं तो उनको ही पढ़ना पसंद करती हूं जैसे कि आजकल हेनिके साहब (Michael Haneke) की फ़िल्में... लेकिन उसका ये मतलब नहीं कि मैं उन्हीं की तरह की फ़िल्में बनाना चाहती हूं।

Mazhar Zaidi, producer of the movie.
 Q.. आप दोनों में जब रचनात्मक मतभेद (creative differences) होते हैं तो कैसे सुलझाते हैं? दूसरे शब्दों में पूछूं तो जब दो लोग एक क्रिएटिव चीज को बनाने में साथ होते हैं तो तालमेल बनाए रखने का फंडा क्या है?
फरज़ादः क्रिएटिव डिफरेंस की टर्म का उस वक्त इस्तेमाल होता है जब आपके अहंकार का मसला बन जाए कोई बात। असल क्रिएटिविटी में ईगो की कोई जगह नहीं होती। ये बहुत प्रैक्टिकल और रियल प्रोसेस है। जब आप इस प्रोसेस में होते हैं तो एक एनर्जी आपको ड्राइव कर रही होती है और आप एक ही विजन की तरफ जा रहे होते हैं। फिर उसमें चाहे जो भी डिसकशन हो उसका नतीजा पॉजिटिव ही होता है। मीनू के साथ भी काम कुछ इस बेसिस पर होता है इसलिए हम बहुत डीटेल में हर चीज को तोड़कर दोबारा जोड़ सकते हैं। और जैसे कि मैंने पहले कहा, हम एक-दूसरे के आइडियाज को एक कदम आगे ले जाते हैं, पूरा करते हैं।
मीनूः मज़हर (ज़ैदी) और फरज़ाद पहले से ही साथ काम करते थे। उन्होंने मटीला रिकॉर्ड्स साथ शुरू की और काफी आर्टिस्ट्स को रिकॉर्ड किया। हम सब साथ मिलके अपने आइडियाज डिसकस किया करते थे और फिर हमने कुछ फ़िल्में साथ शुरू कर दीं। फ़िल्म तो एक साथ काम करने वाली चीज ही होती है। डायरेक्टर उसका एक छोटा पुर्ज़ा है। ट्रफो (Francois Traffaut) की डे फॉर नाइट (Day for Night, 1973) या फैलिनी (Federico Fellini) की इंटरविस्ता (Intervista, 1987) देखें, मेरी ये बात सही तौर पर जाहिर हो जाएगी कि आप कितने ही बड़े ऑटर क्यों न हों, फ़िल्म मेकिंग का मूल तो सहभागिता ही होता है। ये एक तथ्य है कि कई हजार चीजें आपकी फ़िल्म में, सेट पर मौजूद दूसरे लोगों के छोटे-छोटे प्रयासों से, होती हैं। इसलिए फरज़ाद और मैं बहुत आसानी से साथ काम कर लेते हैं क्योंकि हम हमारे आइडियाज, स्क्रिप्ट या फ़िल्म को निजी संपत्ति की तरह नहीं लेते।

 Q.. जिंदगी का लक्ष्य क्या है?
मीनूः अपनी फ़िल्म स्क्रीन तक पहुंचाना और उसके बाद अपनी दूसरी फ़िल्म बनाना!

“Zinda Bhaag (2013)” - Watch the trailer here:

Nusrat has Left the Building...But When?” - Watch Farjad Nabi's documentary here:

“Paradise On A River Of Hell” - Watch Meenu Gaur's documentary here:

Slated to release in August, 2013 ‘Zinda Bhaag’ is a Pakistani feature film directed by Meenu Gaur and Farjad Nabi. Meenu was born in India. She did her PhD in Film and Media Studies from the University of London in 2010. She received the Felix scholarship and Charles Wallace Scholarship for the same. She is also the director of award winning documentary film, 'Paradise on a River of Hell'. After her marriage with Mazhar Zaidi, producer of Zinda Bhaag, Meenu now lives in London and Karachi. Farjad Nabi has directed documentaries including ‘Nusrat has Left the Building... But When?’ and ‘No One Believes the Professor’, which won awards at Film South Asia. He has also documented the work of Lahore film industry’s last poster artist in The Final Touch. His Punjabi stage play ‘Annhi Chunni di Tikki’ (Bread of Chaff & Husk) and ‘Jeebho Jani di Kahani’ (The Story of Jeebho Jani) has been recently published.

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