Wednesday, November 9, 2011

देखें अपंग विंटर की हेल्दी कहानी

फिल्मः डॉल्फिन टेल (अंग्रेजी)
निर्देशकः चार्ल्स मार्टिन स्मिथ
कास्टः नाथन गैंबल, कोजी जूल्सडॉर्फ, हैरी कॉनिक जूनियर, मॉर्गन फ्रीमैन, एश्ले जूड, ऑस्टिन स्टोवल
स्टारः साढ़े तीन स्टार, 3.5

जापान में हर साल होते 20,000 मासूम डॉल्फिनों के गुप्त नरसंहार पर बनी थी 2009 में आई ऑस्कर विनर डॉक्युमेंट्री ' कोव'। कोव मतलब आड़, ओट, खंदक या खोह। इस फिल्म के डायरेक्टर और नेशनल जियोग्रैफिक के फोटोग्रफर लूई फिहोयो ने शुद्ध पानी में रहने वाली इस बेहद सेंसेटिव और सोशल मछली की करूण कहानी पर अदभुत फिल्म बनाई। दो साल बाद डायरेक्टर चार्ल्स मार्टिन स्मिथ लेकर आए हैं एक सच्ची घटना पर बनी 'डॉल्फिन टेल'। फिल्म बेहद पवित्र, सरल और सिनेमैटिकली संपूर्ण सी है। असल में विंटर नाम की वो डॉल्फिन आज भी जिंदा है और स्वस्थ है। शायद दुनिया की अकेली ऐसी डॉल्फिन जो अपनी तैरने वाली पूंछ कटने पर भी जिंदा है और जिसे कृत्रिम पूंछ लगाई गई। बच्चे खासतौर पर इस फिल्म को देखें। पानी और मछलियों को छूने के उस चाव को महसूस करने के लिए जो शायद बचपन वाले ही कर पाते हैं। मासूम बने रहने के लिए देखें। फिल्में सार्थक होती हैं ये मानने के लिए देखें। फैमिली के बड़े भी साथ इसलिए देखें क्योंकि ऐसी हेल्दी मूवीज बहुत कम आती हैं। ये कोई 'लूट', 'बॉडीगार्ड', 'रेडी' और 'गेम' नहीं है, पर इतना दावा है कि पूरे वक्त आप गाल पर अपनी कलाई टिकाए फिल्म में डूबे रहेंगे।

डॉल्फिन की टेल यूं है...
सोयर नेल्सन (नाथन गैंबल) दिखने में 9-10 साल का लड़का है। वैसे तो छोटे हैलीकॉप्टर बनाने का शौकीन है पर अपने स्वीमिंग चैंपियन कजिन ब्रदर काइल (ऑस्टिन स्टोवल) से बहुत प्रेरित है। चाहता है कि काइल ओलपिंक्स तक जाए। मगर काइल फौज में चला जाता है। अब बुझा-बुझा रहने वाला सॉयर एक दिन समंदर किनारे एक घायल बॉटलनोज डॉल्फिन को देखता है। उसका फंदा काटता है और सहलाता है। उसके बाद से उस मरीन हॉस्पिटल जाने लगता है जहां उसे रखा गया है। वैसे तो यहां के डॉक्टर क्ले (हैरी कॉनिक जूनियर) किसी सिविलियन को आने नहीं देते, पर चूंकि ये डॉल्फिन सॉयर को देख खुश होती है इसलिए उसे आने देते हैं। डॉ. क्ले की बेटी हैजल (कोजी जूल्सडॉर्फ) इसका नाम विंटर रखती है। घाव ज्यादा होने के कारण विंटर की पूंछ काटनी पड़ती है। कहानी आगे बढ़ती है तो विंटर को कृत्रिम पूंछ दिलाने के लिए, इस मरीन हॉस्पिटल को बिकने से रोकने के लिए और बिना अंगों के लोगों को प्रेरणा देने के लिए। फिल्म सच्ची कहानी पर बनी है।

मनोरंजन का अलग पैमाना
'डॉल्फिन डेल' जैसी फिल्मों का जॉनर बिल्कुल अलग होता है। ये पूरी तरह फिल्मी होती हैं लेकिन असली कहानी के हूबहू करीब। फिल्म के आखिर में क्रेडिट्स के साथ असली विंटर के विजुअल्स दिखाए जाते हैं। कि कैसे 2005 में वह फ्लोरिडा के तट से बचाई गई, कैसे पूंछ काटने के बाद वह बची और कैसे इस पूरे अभियान से फ्लोरिडा के लोग, विकलांग सैनिक और बच्चे जुड़े। थ्रीडी की वजह से ऐसे लगता है जैसे ये कहानी असल में हम होती देख रहे हैं। सॉयर का रोल करने वाले नाथन गैंबल 'ऑगस्ट रश' के मासूम से चाइल्ड एक्टर फ्रेडी हाइमोर की याद दिलाते हैं। हर एक्टर का इस फिल्म में संतुलित रोल है। इस तरह की फिल्मों को बना पाना इसलिए बहुत मुश्किल होता है क्योंकि इनमें इमोशन उभारने में सबसे ज्यादा जोर आता है। फिल्म के डायलॉग भी इसी तर्ज पर कम से कम शब्दों वाले और प्रभावी हैं। सबसे ज्यादा बोलते हैं तो मूवी के विजुअल्स।*************
गजेंद्र सिंह भाटी

प्युर्ते रिको की रम से लिखा नॉवेल

फिल्मः रम डायरी (अंग्रेजी)
निर्देशकः ब्रूस रॉबिनसन
कास्टः जॉनी डेप, एरॉन एकार्ट, माइकल रिस्पोली, जियोवानी रिबिसी, एंबर हर्ड
स्टारः ढाई स्टार, 2.5

ऐसी जो डायरी वाली फिल्में होती हैं, उनकी कोई मनचाही कहानी और अंत नहीं होता। ये दर्शक के भीतर छिपे नॉवेल पढऩे के इंट्रेस्ट और कुछ लिखने के लिए प्रेरणा ढूंढने की कोशिशों के कारण बहुत अच्छी लगती हैं। चाहे वो डायरेक्टर वॉल्टर सालेस की कम्युनिस्ट लीडर चे गुवेरा पर बनाई फिल्म 'मोटरसाइकल डायरीज' हो या 1961 में लिखे हंटर थॉम्पसन के नॉवेल पर बनी ये फिल्म 'द रम डायरी'। डायरेक्टर ब्रूस रॉबिनसन 19 साल बाद डायरेक्शन में लौटे हैं और शायद यही वजह है कि फिल्म में गहराई है, प्युर्ते रिको का खुरदरापन, धूल और नमी है पर कहीं-कहीं भटकाव है। तब के वक्त, जर्नलिज्म के हालात, निक्सन और अमेरिकी पूंजीवाद के रेफरेंस साफ दिखते हैं। पत्रकारिता में एड रेवेन्यू के लिए समस्याएं नहीं पॉजिटिव स्टोरी लाने की बात करता एडिटर-इन-चीफ है, जो लोगों को राशिफल बताकर राजी है। रियल एस्टेट माफिया प्युर्ते रिको के सुंदर तटों और टापुओं पर होटलें बनाने के प्लैन बना रहे हैं, उनके पास सारे साधन है और जब तक पॉल कैंप की कलम जागती है तब तक अखबार बंद हो जाता है। जॉनी डेप और जियोवानी रिब्सी को एक फ्रेम में देखना सुखद रहा। दोनों असाधारण एक्टर हैं। अफरा तफरी के सीन में ' नाइंथ गेट' के खोजी कॉर्सो की तरह लगते हैं। बाकी फिल्म में बॉब के मुर्गे की लड़ाई है, रम के जाम है, सिगरेट पर सिगरेट है और धूल मिला पसीना है। ढाई स्टार फिल्म की विस्तृत पहुंच नहीं हो पाने की वजह से है, फिल्म में किसी कमी के कारण नहीं।


रम डायरी में क्या
पॉल कैंप (जॉनी डेप) न्यू यॉर्क टाइम्स का जर्नलिस्ट है। 1960 के करीब आइजनहावर प्रशासन के वक्त की बात है। न्यू यॉर्क और अमेरिका से ऊबकर वह प्युर्ते रिको का रूख करता है। वहां एक छोटे अखबार 'द सेन जुआन स्टार' में काम करने के लिए। यहां की खुरदरी जमीन और सच्चाइयों से उसका वास्ता होता है। उसकी पत्रकारी कलम बोलना चाहती है, पर बोल नहीं पाती। बिजनेसमैन सैंडरसन (एरॉन एकार्ट) उसे अपने रियल एस्टेट प्रोजेक्ट में फायदा पहुंचाने के लिए छद्म लेख लिखने को कहता है। प्युर्ते रिको में रम की आदत पालने के अलावा उसका आकर्षण सैंडरसन की मंगेतर शेनॉल्ट (एंबर हर्ड) की तरफ होता है। वह नॉवेल लिखना चाहता है। उसके अनुभवों में अखबार का फोटोग्रफर बॉब साला (माइकल रिस्पॉली) साथी है। मोबर्ग (जियोवानी रिब्सी) भी यहां पूर्व रिलीजियस कॉरसपोंडेंट था, पर रम और जर्नलिज्म की रिएलिटी ने डुबो दिया। कुल मिलाकर यहां के अनुभव पॉल के नॉवेल और उसके भविष्य के जर्नलिस्टिक सिद्धांतों का आधार बनते हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, November 8, 2011

टावर में पड़ गया हंसी का डाका

फिल्मः टावर हीस्ट (अंग्रेजी)
निर्देशकः ब्रेट रेटनर
कास्टः बेन स्टेलर, एडी मर्फी, एलन एल्डा, टी लियोनी, केजी एफ्ले, मैथ्यू ब्रॉडरिक, माइकल पेना, गैबोरी सिडबी
स्टारः तीन स्टार, 3.0


किसी फिल्म में जब बेन स्टेलर, एडी मर्फी और मैथ्यू ब्रॉडरिक जैसे अलग-अलग किस्मों वाले कॉमिक एक्टर एक साथ हों तो फिल्म मामूली नहीं हो सकती। ये लोग अकेले कांधों पर फिल्में चला ले जाते हैं। 'टावर हीस्ट' अच्छी फिल्म है। दर्शकों को खुद से जोड़े रखती है। हंसाती है। एक्साइट करती है। रात के शो में मुंडे चिल्ला-चिल्लाकर बेन स्टेलर के कैरेक्टर से कह रहे थे कि 'मार गोल्फ स्टिक ऑर्थर की सोने की फरारी कार पर। शीशा तोड़ दे। तोड़ दे। बुड्ढे ने बड़ा धोखा किया सारे स्टाफ के साथ।' ठंडा पहलू ये है कि कहानी में 'ओशियंस इलेवन' जैसी बहुत की हॉलीवुड मूवीज के आजमाए प्लॉट और सब-प्लॉट हैं। खास है ऑस्कर के लिए नामित फिल्म 'प्रेशियस' की लीड अश्वेत अदाकारा गैबोरी सिडबी का कॉमिक रोल में होना। उनका अच्छा साथ देते हैं माइकल पेना, अपने भोले एशियाई चेहरे के साथ। एडी मर्फी शुरू के दो-तीन सीन में तो बैकग्राउंड में ही बड़बड़ाते पड़ोसी बने दिखते हैं। ये राहतभरा लगता है कि सीन में उन्हें ठूंसा नहीं जाता। उनका सटका हुआ भेजा यहां भी काम करता है। उस सीन में जब डकैती में शामिल होने के लिए वह शर्त रखते हैं कि बाकी चारों मेंबर मॉल में से 15 मिनट में 50 डॉलर की कोई चीज चुराकर लाए। फिल्म में एक-आध डायलॉग 'ए' सर्टिफिकेट वाले हैं, जो वैसे काफी स्मार्ट, फनी और नॉन-वल्गर हैं। फ्रेंड्स लोग जा सकते हैं। खूब एंजॉय करेंगे।

कहानी यूं है
न्यू
यॉर्क की इस फैंसी टावरनुमा ईमारत में वॉल स्ट्रीट का राजा ऑर्थर शॉ (एलन एल्डा) रहता है। बिल्डिंग के मैनेजर जॉश कोवेक्स (बेन स्टेलर) का काम पिछले एक दशक से भी ज्यादा वक्त में बेदाग रहा है। यहां का पूरा स्टाफ उम्दा काम करता है। पर भूचाल तब आता है जब ऑर्थर को दो बिलियन डॉलर की धांधली के आरोप में पेंटहाउस में नजरबंद कर दिया जाता है। एफबीआई एजेंट क्लैयर डेनहम (टी लियोनी) जॉश को बताती है कि अदालत में ऑर्थर का दोषी होना तय है और उसने बिल्डिंग स्टॉफ की पेंशन और इनवेस्टमेंट तक डकार ली है। पर कहीं उसने बहुत सारे पैसे छिपाकर रखे हैं। इस धोखे से नाराज जॉश ऑर्थर की आखिरी अदालती पेशी से पहले उसके पेंटहाउस में डकैती का प्लैन बनाता है। इसमें वह मदद लेता है पड़ोस में रहने वाले छोटे-मोटे चोर स्लाइड (एडी मर्फी) की। साथ हैं दरबान चार्ली (केजी एफ्लेक), दिवालिया वॉल स्ट्रीट इनवेस्टर फिट्जहग (मैथ्यू ब्रॉडरिक), लिफ्टमैन एनरीक डेवरॉ (माइकल पेना) और जमेका मूल की मेड ओडेसा (गैबोरी सिडबी)

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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, November 7, 2011

मुद्दे उठाती स्मार्ट फिक्शन मूवी

फिल्मः इन टाइम (अंग्रेजी)
निर्देशकः एंड्रयू निकॉल
कास्टः जस्टिन टिंबरलेक, अमांडा सेफ्राइड, एलेक्स पेटीफर, मेट बोमर, सिलियन मर्फी, विंसेंट कार्थाइजर
स्टारः तीन स्टार, 3.0

अफ्रीकन-कैनेडियन नील ब्लोमकांप ने 2009 में 'डिस्ट्रिक्ट 9' जैसी बेहद अदभुत, अनोखी, रियलिस्टक और इनोवेटिव एलियन फिल्म रची। इसमें आज के दौर के पलायन, विस्थापन, एंटी-गवर्नमेंट स्ट्रगल और अंतरराष्ट्रीय हमलों जैसे सीरियस मुद्दे थे। पर एंटरटेनमेंट के साथ। ये सब जेम्स केमरॉन की 'अवतार' में भी था। वीएफएक्स क्रांति, अच्छी स्क्रिप्ट, मुद्दों और मनोरंजन के साथ। अब आई है 'इन टाइम'। राइटर-डायरेक्टर एंड्रयू निकॉल पर हालांकि आरोप लगे कि ये फिल्म बरसों पहले लिखी एक शॉर्ट स्टोरी से प्रेरित है, पर आगे बढ़ते हैं। फिल्म में खास है टाइम को करंसी बनाकर वर्ल्ड की मौजूदा असमानताओं को देखना। कैपिटलिस्ट सिस्टम पर कमेंट करना। जिन्हें आप मौजूदा 'ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट' जैसे आंदोलन से जोड़कर भी देख सकते हैं। जिन्हें आप फ्रांस में बीते कुछ घंटों में दिए इंडियन पीएम मनमोहन सिंह के बयान से जोड़कर भी देख सकते हैं कि महंगाई बढऩे का मतलब ये है कि लोग समृद्ध हो रहे हैं, उनकी खर्च करने की क्षमता बढ़ रही है। यहां जस्टिन टिंबरलेक 'सोशल नेटवर्क' और 'फ्रेंड्स विद बैनिफिट्स' वाले नहीं लगते। फिल्म में अपनी मरी मां की लाश पर उनका फफक-फफक कर रोना यूं ही नहीं आ जाता। यहां तक कि गैंगस्टर फोर्टिस बने एलेक्स पेटीफर भी हर सीन में जान डाल देते हैं। न जाने अमेरिकी फिल्मों में उनका सही इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ। सिलियन मर्फी टाइमकीपर के रोल में बहुत दिन बाद फिल्मों में ठीक-ठाक दिखे हैं। 'इनसेप्शन' की तरह ये बिल्कुल अलग कल्पना वाली फिल्म है। हालांकि इसमें उतना मनोरंजन नहीं है, पर इतने उलझे सब्जेक्ट को सरल से सरल बनाकर ही फिल्म नंबर ले जाती है। क्लाइमैक्स किसी नतीजे पर नहीं पहुंचाता, एक नई शुरुआत लगता है। समझने के लिए मूवी में काफी कुछ है। बिल्कुल देख सकते हैं।

टाइम करंसी की कथा
कहानी थोड़ी काल्पनिक है, ध्यान से समझिएगा। 28 साल का विल सालेस (जस्टिन टिंबरलेक) ऐसे भविष्य में रहता है जहां उम्र करंसी का काम करती है। इंसान को 25 साल का होने के बाद और टाइम कमाना होता है वरना एक साल में मौत हो जाती है। हर सोशल क्लास टाइम जोन में रहती है। डेटन में गरीबों की बस्तियां हैं, वहीं न्यू ग्रीनविच में रईसों ने अपार टाइम जुटा रखा है। फैक्ट्री वर्कर विल, बार में हैनरी हैमिल्टन (मैट बोमर) नाम के आदमी को टाइम लूटने वाले गैंगस्टर फोर्टिस (एलेक्स पेटीफर) से बचाता है। हैनरी के पास 100 से ज्यादा साल हैं। वह विल को बताता है कि दुनिया में सबके लिए टाइम है पर अमीरों ने अमर होने के लिए उसे जमा कर रखा है। इसके पीछे सोच है 'फॉर फ्यू टु बी इममॉर्टल, मैनी मस्ट डाय।' रात में विल को सारा टाइम ट्रांसफर करके हैनरी मर जाता है। अब इस असमान सिस्टम को क्रैश करने और अपना बदला लेने के लिए विल न्यू ग्रीनविच जाता है। पुलिस यानी टाइमकीपर रेमंड लीयोन (सिलियन मर्फी) उसके पीछे है। न्यू ग्रीनविच में एक कैसीनो में विल का सामना टाइमलोन देने वाले बड़े रईस फिलीप वाइज (विंसेंट कार्थाइजर) और उसकी बेटी सिल्विया (अमांडा सेफ्राइड) से होता है।

इस दुनिया की झलकियां
# हर इंसान की त्वचा पर हरे अंकों में टाइम वॉच चलती है। यही उम्र है, यही करंसी।
# एक-एक दिन के मोहताज विल के पास 100 से ज्यादा साल देखकर दोस्त कहता है 'वेयर डिड यू गेट दिस' 'यू नो देट दिस विल गेट यू किल्ड'
# टाइम जोन के बॉर्डर पर टोल टैक्स की तरह एक महीना, दो महीना और एक साल तक डिपॉजिट करना पड़ता है।
# जिस गंदली बस्ती में कुछ घंटों या दिनों की चोरियां होती हैं, वहां 100 साल चोरी हो गए तो टाइमकीपर (पुलिसवाले) जांच कर रहे हैं।
# कार खरीदने की रेट है 59 साल प्लस टैक्स। डिलीवरी चार्ज अलग।
# सिंपल, सोबर, आधुनिक, सॉफिस्टिकेटेड और एलीट जमाने को दिखाने के लिए शहरों, कारों और ब्रिजों की डिजाइन स्लीक और सपाट सी है।
# आज वाले हालात हैं। बस्तियों में तकरीबन सारी आबादी बसी है और उनके हिस्से का टाइम यानी संपत्ति और भौगोलिक इलाका चंद एक-दो पर्सेंट रईसों के पास है।
# यहां होटलों में और पार्टियों में म्यूजिक वैसा बजता है जैसा मुंबई के ताज लैंड्स एंड या दूसरे फाइव स्टार होटलों में।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, November 5, 2011

क्या हम लुटने के लिए बने हैं

फिल्मः लूट
निर्देशकः रजनीश ठाकुर
कास्टः गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, प्रेम चोपड़ा, महेश मांजरेकर, दिलीप ताहिल
स्टारः दो स्टार, 2.0

ऑडी का रिबन हटने का इंतजार करते आपके कदम 'लूट' के पोस्टर के आगे ठिठक जाते हैं। सब किरदार हाथ में पटाखे थामे पोज दे रहे हैं। फिल्म दीपावली रिलीज के लिहाज से प्लैन की गई थी, हो नहीं पाई। ये फिल्म इन दिनों आ रही ज्यादातर मसाला फ्लॉप फिल्मों का मसाला लेकर आई है। अफसोस होता है कि करोड़ों रुपये और बेशकीमती संसाधन खर्च होते हैं और दर्शक ढाई घंटे बाद ठगा हुआ महसूस करते हैं। 'लूट' में सबसे बेस्ट है इसके डायलॉग। इन्हें बोलने में अव्वल रहते हैं अकबर के किरदार में जावेद जाफरी जो 'शोले' में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। बेहतरीन। उसके बाद हैं पंडित बने गोविंदा। ऐसा लगता है कि 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' में उनके नॉर्थ इंडियन डायलॉग फैंकू रोल की तर्ज पर ये रोल बुना गया। ये और बात है कि कैमरा और डायरेक्टर इन डायलॉग और सिचुएशंस को उतने ड्रमैटिक ढंग से नहीं कैप्चर कर पाते, जितना एक औसत फिल्म में भी होता है। कहीं शॉट ओके करने में, तो कहीं पटाया की गलियों में घूमते मीका और किम शर्मा को हैंडल करने में नए डायरेक्टर रजनीश ठाकुर साफतौर पर नौसिखिया लगते हैं। हां, जब रवि किशन गुलजार की लिखी मिर्जा गालिब पढ़ते हैं और प्रेम चोपड़ा 'पाकीजा' और 'वो कौन थी' जैसी फिल्मों की डीवीडी मंगवाते दिखते हैं तो लगता है कि ये फिल्ममेकर डफर तो नहीं हो सकता। बस उनका कॉमिक सेंस फिल्मी सेंस में कैरी नहीं हो पाता। क्या हमारे पास ऐसी कहानियों की कमी पड़ गई है जिसमें चंद रुटीन हीरो चोरी-चकारी और रास्कलगिरी न करते हों और जिन्हें पटाया बैंकॉक न जाना पड़ता हो? लगता तो यही है। फिल्म के म्यूजिक और एडिटिंग से बिल्कुल भी उम्मीद न करें। जरा सी डायलॉगबाजी पसंद करते हों तो जा सकते हैं, अन्यथा ये एक कंप्लीट एंटरटेनर नहीं है।

क्या है लूट की कहानी
ये ऐसी कहानी है जिसके राइटर का नाम भी ताउम्र दर्शकों को पता नहीं चल पाता। आगे बढ़ें। बिहारी एक्सेंट बोलते पंडित (गोविंदा) और कुछ सूरमा भोपाली-हैदराबादी सी जबान में अकबर (जावेद जाफरी) मुंबई में चोरियां करते हैं, बाटलीवाला (दिलीप ताहिल) के लिए। चोरियां कम होती हैं, गलतियां ज्यादा। इन्हें मूर्ख समझ बाटलीवाला अपने आदमी बिल्डर (सुनील शेट्टी) के साथ एक चोरी करने पटाया, बैंकॉक भेजता है। पटाया से परिचित मूर्ख से गुंडे विल्सन (महाक्षय चक्रवर्ती) को भी बिल्डर साथ ले लेता है। यहां ये चोरी गलती से कुख्यात पाकिस्तानी डॉन लाला उर्फ तौफीक उमर भट्टी (महेश मांजरेकर) के यहां कर लेते हैं। मुझे माफ करिएगा पर मैं कहानी का ये मोड़ भी बता रहा हूं। चोरी के इस माल में वो टेप भी होती हैं जिनमें बैंकॉक के सबसे बड़े लेकिन बुजुर्ग होते डॉन खान साहब (प्रेम चोपड़ा) की हत्या की साजिश रिकॉर्ड है। अब इन चारों के पीछे लाला के आदमी, इंडियन इंटेलिजेंस एजेंट वीपी सिंह (रवि किशन) और कुछ दूसरे लोग पड़े हैं। जाहिर है इन्हें बच निकलना है।

डायलॉग बाजी वैसे बुरी नहीं
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अगर अपने ही इज्जत नहीं करेंगे तो बाहर वाले क्या खाक करेंगे, और बिना इज्जत के भाईगिरी वैसे ही है जैसे बिना मीना कुमारी के 'पाकीजा।'
# अबे इसकी भैंस की तिल्ली मारूं।
# जब तिल्ली से काम चल सकता है तो तलवार की क्या जरूरत है।
# (तुम जानते नहीं मैं कौन हूं?) ... चोरी क्या जान पहचान के लिए की जाती है क्या।
# पचास साल पहले हिंदुस्तान को दिलाई गांधी जी ने आजादी और पचास साल बाद हिंदुस्तान की हो गई 100 करोड़ आबादी।
# लोग तो खजूर में अटकते हैं ये तो खजुराहो में अटक गए।
# गन्ना हिला के लपुझन्ना बना गई लौंडिया। (चीप डायलॉग्स वाले एक लंबे सीन में से एक नमूना)
# सूचना के लिए आभारी हैं, मगर हम चार इस शहर पर भारी हैं।
# मुकर जाने का कातिल ने अच्छा बहाना निकाला है, हर एक को पूछता है इसको किसने मार डाला है।


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गजेंद्र सिंह भाटी

न मिलें तो ही अच्छा

फिल्मः मिलें मिलें हम
निर्देशकः तनवीर खान
कास्टः चिराग पासवान, कंगना रनाउत, नीरु बाजवा, सागरिका घाटके, कबीर बेदी, पूनम ढिल्लों
स्टारः आधा स्टार, 0.5


'मिलें न मिलें हम' उन चंद फिल्मों में से है, जिन्हें मैं जिंदगी में दोबारा नहीं देखना चाहूंगा। किसी भी हाल में नहीं। कहानी किसी कन्फ्यूजन भरे कारखाने में मैन्युफैक्चर हुई लगती है। चिराग (चिराग पासवान) के पिता (कबीर बेदी) और मां (पूनम ढिल्लों) में बहुत पहले तलाक हो गया था। अदालत ने कहा था कि बच्चा छुट्टियों में एक महीने मां के पास रहेगा, एक महीने पिता के पास। दोनों संपन्न हैं। पिता अपने दोस्त की बेटी (नीरू बाजवा) से चिराग को ब्याहना चाहता है तो मां अपनी दोस्त की बेटी (सागरिका घाटके) से। पर दोनों से बचने के लिए वह झूठ ही कह देता है कि एक स्ट्रगलिंग एक्ट्रेस (कंगना रनाउत) से प्यार करता है। क्लाइमैक्स में वह ऑल इंडिया टेनिस चैंपियनशिप भी जीतता है। खैर, ये तो रही कहानी। लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम में खड़े मोम के पुतले भी चिराग पासवान से ज्यादा बेहतर एक्ट कर पाते होंगे। थोड़ा कहूंगा ज्यादा समझिएगा। पहली बार फिल्म में कलर तब आता है जब नीरू बाजवा के सलवार-सूटों और पंजाबियत की एंट्री होती है। फिर कंगना भी कुछ धक्का लगाती हैं। इसके बाद कुछ नहीं।
# हाय, हैलो, गुडमॉर्निंग, नाश्ता, ऑफिस, टेनिस प्रैक्टिस, चौड़े-चौड़े फोन, सिलिकन फेस और इमैच्योरिटी। फिल्म में लेखन और डायरेक्शन के नाम पर यही दिखता है।
# ऐसा लगता है कि फिल्म दर्शकों के लिए नहीं चिराग पासवान को लॉन्च करने के लिए बनाई गई है। फिल्म ये स्थापित कर पाती है कि चिराग की जिंदगी में टेनिस बहुत अहम हुआ। उसके मां-बाप के बीच की दूरी लॉजिकल लगती है और ही कंगना के साथ उसका प्यार स्थापित हो पाता है।
# इमोशनल कहानी का दावा करती इस मूवी में जब एक्टर्स के चेहरे पर मूवी में एक भी आंसू नहीं छलकता तो दर्शकों के कहां से आएगा।

आखिर में...
न चिराग के आगे मेहरा लगाने से कुछ हुआ, न टेनिस जैसे रईस गेम का सॉफिस्टिकेशन लाने से कुछ हुआ, न नीरू बाजवा का पंजाबी और सागरिका घटके का फॉरेन एंगल लाने से कुछ हुआ, न कंगना रनाउत को गजनी की स्ट्रगलिंग एड एक्ट्रेस जैसा दिखाने से कुछ हुआ, न राहत फतेह अली खान से गाना गवाने से कुछ हुआ और न ही आखिर में स्क्रीन पर फिल्मों के ट्रेड एनेलिस्ट तरन आदर्श को दिखाने से कुछ हुआ। इरादे और मेहनत हमेशा सुलझे हुए रहें तो फिल्म बनाने वाले के लिए भी ठीक रहता है और देखने वाले के लिए भी।

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गजेंद्र सिंह भाटी