प्रहार को गांधी जयंती के दिन देखा था। हिंसा और प्रति-हिंसा का दिन और फिल्म। फिल्म में कई पहलू हैं। देखने के कई तरीके हैं। मनोरंजन के लिए देखी जाए? फिल्म निर्देशन की नई ताजा भाषा का विश्लेषण करने के लिए देखी जाए? फासीवाद जैसे वाद की मौजूदगी पर कैसे बात की जाए, यह देखने के लिए देखी जाए? या, जैसे दिखे वैसे देखी जाए? ज़ाहिराना तौर पर सब अलग-अलग आंखों से ही देखेंगे। मगर, फिल्म मनोरंजन-मनोरंजन के बहाने कैसे आपकी रगों में एक वाद इंजेक्ट कर देती है, यह देखना जरूरी होगा। एक बार देखने में प्रहार जरूर मज़ेदार लगे। मगर, क्या इसमें सुझाए तरीके सही हैं? समर्थन करने लायक हैं? इस पर ख़ूब बात होनी चाहिए। कुछ अन्य बातें...
" फ्रीडम फाइटर बनते हैं। अरे कंट्री के वास्ते कोई घर बरबाद करता है। जिंदगी भर ईमानदारी की चिंगम चबाते रहे। अरे ईमानदारी से पेट भरता है क्या। अच्छी नौकरी मिल रही थी मुंबई में। लाखों के ढेर लगा देता। मगर, एक 5,000 रुपया नहीं निकला तुम्हारे से। मदद के नाम पर सरकारी भूख मिलती है, .... उसके लिए भी जिंदा होने का सर्टिफिकेट देना पड़ता है।"
हमारे पीछे कोई आए न आए, हमें ही तो पहले पहुंचना वहां है
जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन ही रास्तों को बनाना हमें है।
जो भी साथ आए उन्हें साथ ले ले, अगर ना कोई साथ दे तो अकेले
सुलगा के खुद को मिटा ले अंधेरा, दिशा जिस से..."
*** *** ***
नाना पाटेकर का निर्देशन है। ये निर्देशन प्रहार में एक औसत किरदार (जो किरदार ग्लैमर से भरा नहीं है) में ग्लैमर गर्ल माधुरी दीक्षित को एक सीधे-साधे रूप में लाया है। ये निर्देशन थियेटर के बड़े पुरूष हबीब तनवीर को भी पीटर डिसूजा के पिता के किरदार में लाया है। कौन नहीं है इसमें..? मकरंद देशपांडे माधुरी के भाई के रूप में, डिंपल कपाड़िया एक विधवा के किरदार में और मकरंद-माधुरी के पिता के किरदार में अच्युत पौद्दार है। विलेन और बुरे किरदार हैं, स्टंट निर्देशक-फाइटर चीता यग्नेश शेट्टी। वही चीता शेट्टी, जिन्होंने रित्विक रोशन को कसरती बदन वाला बनाया।
प्रहार फिल्म है। लक्ष्य भी थी। सेना में जाने के इच्छुक और एनसीसी के कैडेट युवाओं से पूछिए। उनके बीच हमेशा दोनों फिल्मों को लेकर बहस चल रही होती है। कि, आख़िर कौनसी फिल्म सेना के यथार्थ के ज्यादा क़रीब है। जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने पर ही अड़े रहते हैं। सेना में चयन हो जाने या पीछे छूटकर सिविलियन रह जाने पर तर्क और भी पक्के या कच्चे होते जाते हैं। हां, सेना में जाने वाले युवक शहादत की कहानियों को और नायकत्व के आम रोमांसवाद को ख़ारिज करते हुए इस पैशे के साथ बिना किसी ग़लतफहमी के साथ जीने लगते हैं। फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में जो भी है, वह एक आम बॉलिवुडी पुलिसवाला नहीं है।
मीडिया का विश्लेषण यहां भी है। अ वेडनसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, रण, न्यू डेहली टाइम्स, नरसिम्हा और कई ऐसी ही फिल्मों में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने पहले से है। पर यहां सब कुछ धारदार है। मेजर चौहान यानी नाना पाटेकर अख़बार के दफ़्तर जाता है। पीटर को मीडिया के ज़रिए इन्साफ जैसा ही कुछ दिलाने। या शायद परिस्थितियों को टटोलने। वहां बैठे अधेड़ उम्र के पत्रकार से नाना पाटेकर का संवाद चलता है।
" आप इसे न्यूज कहते हैं. बंबई जैसे शहर में यह कोई न्यूज है। रोज़ यहां लोग मरते हैं।"
" पीटर कोई आम इंसान नहीं था। ...उसे शौर्य चक्र मिला था। उग्रवादियों से लड़ते हुए। "
" उग्रवादियों पर तब छापा था। ...अब कोई न्यूज नहीं है। "
(तभी मेज़ पर पड़े फोन की घंटी बजती है)
" हैलौ... क्या? होम मिनिस्टर को ठंडी लग गई ? छापता हूं। क्या? फोरेन जा रहे हैं? ओ भी छापता हूं। "
आगे के संवाद नाना की आंखें कहती है। दृश्य का पटाक्षेप।
- कोई और फिल्म होती तो होटल में मेजर चौहान बने नाना पाटेकर से मिलने डिंपल कपाड़िया अकेले आती, लेकिन इसमें माधुरी भी साथ आईं। क्योंकि, कोई भी अकेली औरत एक होटल में एक अनजान आदमी से मिलने अकेले नहीं आएगी। समाज और हमारी फिल्मों के नैतिक ढांचे में यह बात है।
- कमांडो ट्रैनिंग ले रहे युवक देखे़। उनकी अंगुलियां पत्थर से भी सख्त और काली। उभरे हुए अंगुलियों के जुड़ाव। प्रशिक्षक पाटेकर की त्वचा, चेहरे पर उभरा तेज, हड्डीनुमा मुंह और किसी आम कपड़ों में दिखने वाले किसी फौजी की तरह। एकदम वैसे ही। यही ख़ास है।
- प्रहार के अलावा कोई ऐसी फिल्म नहीं जहां एक मरे हुए बेटे के पिता से उसके बेटे का सेना प्रशिक्षक मिलने आया है। और, उसके जवान बेटे के मरने का कारण पूछ रहा है। और, बातों के बीच उसका बाप एक तमाचा आर्मी अधिकारी के गाल पर जड़ देता है। यह दृश्य भी ख़ास है।
प्रहार फिल्म है। लक्ष्य भी थी। सेना में जाने के इच्छुक और एनसीसी के कैडेट युवाओं से पूछिए। उनके बीच हमेशा दोनों फिल्मों को लेकर बहस चल रही होती है। कि, आख़िर कौनसी फिल्म सेना के यथार्थ के ज्यादा क़रीब है। जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने पर ही अड़े रहते हैं। सेना में चयन हो जाने या पीछे छूटकर सिविलियन रह जाने पर तर्क और भी पक्के या कच्चे होते जाते हैं। हां, सेना में जाने वाले युवक शहादत की कहानियों को और नायकत्व के आम रोमांसवाद को ख़ारिज करते हुए इस पैशे के साथ बिना किसी ग़लतफहमी के साथ जीने लगते हैं। फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में जो भी है, वह एक आम बॉलिवुडी पुलिसवाला नहीं है।
मीडिया का विश्लेषण यहां भी है। अ वेडनसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, रण, न्यू डेहली टाइम्स, नरसिम्हा और कई ऐसी ही फिल्मों में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने पहले से है। पर यहां सब कुछ धारदार है। मेजर चौहान यानी नाना पाटेकर अख़बार के दफ़्तर जाता है। पीटर को मीडिया के ज़रिए इन्साफ जैसा ही कुछ दिलाने। या शायद परिस्थितियों को टटोलने। वहां बैठे अधेड़ उम्र के पत्रकार से नाना पाटेकर का संवाद चलता है।
" आप इसे न्यूज कहते हैं. बंबई जैसे शहर में यह कोई न्यूज है। रोज़ यहां लोग मरते हैं।"
" पीटर कोई आम इंसान नहीं था। ...उसे शौर्य चक्र मिला था। उग्रवादियों से लड़ते हुए। "
" उग्रवादियों पर तब छापा था। ...अब कोई न्यूज नहीं है। "
(तभी मेज़ पर पड़े फोन की घंटी बजती है)
" हैलौ... क्या? होम मिनिस्टर को ठंडी लग गई ? छापता हूं। क्या? फोरेन जा रहे हैं? ओ भी छापता हूं। "
आगे के संवाद नाना की आंखें कहती है। दृश्य का पटाक्षेप।
- किराये पर दिए जाने वाले अपने घर के कमरे को दिखाता छोटा लड़का , जो कि लड़की है, विशेष है। चंद्रकांत देवधर यानी प्यार का नाम चीकू। .. फिल्म में किरण का किरदार निभाती डिंपल कपाड़िया का बेटा।
- एक बूढ़े पिता से उसका जवान बेटा छिन गया। क्योंकि, उसने ग़लत के सामने घुटने नहीं टेके। गर्भवती डिंपल कपाड़िया अपने पति के साथ पिकनिक पर गई, गुंडों ने छेड़खा़नी की तो ग़लत के विरोध में उसका पति मारा गया।
- शर्ली यानी माधुरी का भाई मकरंद भी विशेष किरदार है। फौज के जीवन आदर्शों से अलग किरदार है शर्ली का भाई। ख़ासतौर पर नाना पाटेकर के लिए। उसके पास भी समाज और देश की कुछ शिकायतें हैं। सिगरेट के काग़ज में मसाला भरकर पीने का डंडा तैयार कर रहा है और अपनी परेशानियां गिनवा रहा है। सामने लाचार वृद्ध बाप बैठा है। पास ही में फौज के अधिकारी बने नाना पाटेकर बैठे हैं। मकरंद का किरदार अपने पिता को बोल रहा है और दर्शक सुन रहे हैं।
" फ्रीडम फाइटर बनते हैं। अरे कंट्री के वास्ते कोई घर बरबाद करता है। जिंदगी भर ईमानदारी की चिंगम चबाते रहे। अरे ईमानदारी से पेट भरता है क्या। अच्छी नौकरी मिल रही थी मुंबई में। लाखों के ढेर लगा देता। मगर, एक 5,000 रुपया नहीं निकला तुम्हारे से। मदद के नाम पर सरकारी भूख मिलती है, .... उसके लिए भी जिंदा होने का सर्टिफिकेट देना पड़ता है।"
यहां संवाद अदायगी में ठहराव और गति इस दृश्य को अक्षुण्ण बनाती है।
सड़क पर से मंत्री की गाड़ी गुजरने वाली है। लोगों को चलने फिरने, सड़क पार करने से रोक दिया गया है। एक पुलिसवाला है, जो एक गर्भवती औरत को सड़क पार कर जाने नहीं देता है। दया की याचना कोई काम नहीं आती है। साथ वाली औरतें फिर भी गिड़गिड़ाती है। सेना के समाज से निकल कर नाना का किरदार नागरिक समाज में आया है। इसलिए घूमकर लोगों, चीजों और समाज के भीतर के समाजों का जायजा ले रहा है। लोगों के बीच बने आर्थिक और सामाजिक वर्गों को देख रहा है। वह इस वक्त खड़ा सबकुछ देख रहा है। पाटेकर पुलिसवाले को झकझोरता है। ".. किस बात की तनख्वाह लेते हैं आप ? किसकी तनख्वाह लेते हैं आप ?अगर आप भी सड़क पर पैदा होते तो। वो देखिए, वो आपकी मां है। और वो आप है.... आप पैदा हुए और मर भी गए।"
हफ्ता लेते गुंडों से भिड़ने पर मुहल्ले के लोग पाटेकर पर ही पत्थर फैंकते हैं। पाटेकर पत्थर खा रहा है। उसका ध्यान पत्थरों पर नहीं है, बल्कि पत्थर मारने वालों पर है। आख़िर ये कैसे लोग हैं। आख़िर ये हमने कैसा समाज बना दिया है। इन गुंडों के ख़िलाफ किसी की नजरें भी नहीं उठती, मगर मेजर चौहान के गुंडों से भिड़ने पर उसे ही मारने के लिए सब अपने-अपने हाथों में पत्थर ले लेते हैं। पाटेकर का किरदार समझ रहा है। माथे से लहू बह रहा है। दिमाग़ लोगों और समाजों को समझने में व्यस्त है। दिल टूट गया है।
अपनी मां को ढूंढने के भ्रम में या कहें तो उसकी यादों और अपने बचपन को ढूंढने नाना पाटेकर नगरवधुओं के इलाके में जाता है। आपके सटीक शब्दों में कहें तो वेश्याओं के मोहल्ले में। मगर, अब क्या। अब वहां कुछ भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में लौटते कदमों में मदद के लिए चिल्ला रही एक लड़की को नाना जबरदस्ती करने वालों से छुड़वाता है। छोटी उमर में तो पाटेकर अपनी मां को गुंडों यानी बुरे लोगों से नहीं छुड़ा पाया, मगर अब उसने ऐसा करके अपना कर्तव्य पूरा किया है। अपने किराये के कमरे की सीढ़ियां चढ़ते वक्त डिंपल उससे पूछती हैं, "क्या राजकुमार को उसकी मां मिली?" जवाब में पाटेकर मुस्कुराता है, आज उसने अपनी मां को बिकने से बचा लिया।
अंत में नाना पाटेकर हफ्ता मांगने और पीटर के सिर पर पत्थर पटककर मारने वाले को उसी की बेकरी की दुकान के आगे मारता हैं। ...मार देता है। संहारक की आवाज कहती है, "तुम्हें ख़त्म करना बहुत मुश्किल है। तुम्हारी तादाद बहुत ज्यादा है। कीड़े-मकोड़ों की तादाद में हो तुम। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं चुप बैठुंगा। मैं तुम्हें मारता रहूंगा।"
अंतिम दृश्यों में एक अदालत का दृश्य है। इसमें थियेटर का प्रभाव साफ है। डिंपल, इंस्पेक्टर, शर्ली का भाई, नाना का वरिष्ठ सैन्य अधिकारी, पीटर का पिता, शर्ली और बाकी सभी बैठे हैं। अदालत कहती है कि मेजर चौहान को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।
मानसिक रूग्णालय में नाना जमीन में पौधे लगा रहा है। चिंटू आता है। चेहरे पर लालिमा आ जाती है
"तुम्हारे हाथ में मिट्टी लगी है। छी...
सड़क पर से मंत्री की गाड़ी गुजरने वाली है। लोगों को चलने फिरने, सड़क पार करने से रोक दिया गया है। एक पुलिसवाला है, जो एक गर्भवती औरत को सड़क पार कर जाने नहीं देता है। दया की याचना कोई काम नहीं आती है। साथ वाली औरतें फिर भी गिड़गिड़ाती है। सेना के समाज से निकल कर नाना का किरदार नागरिक समाज में आया है। इसलिए घूमकर लोगों, चीजों और समाज के भीतर के समाजों का जायजा ले रहा है। लोगों के बीच बने आर्थिक और सामाजिक वर्गों को देख रहा है। वह इस वक्त खड़ा सबकुछ देख रहा है। पाटेकर पुलिसवाले को झकझोरता है। ".. किस बात की तनख्वाह लेते हैं आप ? किसकी तनख्वाह लेते हैं आप ?अगर आप भी सड़क पर पैदा होते तो। वो देखिए, वो आपकी मां है। और वो आप है.... आप पैदा हुए और मर भी गए।"
हफ्ता लेते गुंडों से भिड़ने पर मुहल्ले के लोग पाटेकर पर ही पत्थर फैंकते हैं। पाटेकर पत्थर खा रहा है। उसका ध्यान पत्थरों पर नहीं है, बल्कि पत्थर मारने वालों पर है। आख़िर ये कैसे लोग हैं। आख़िर ये हमने कैसा समाज बना दिया है। इन गुंडों के ख़िलाफ किसी की नजरें भी नहीं उठती, मगर मेजर चौहान के गुंडों से भिड़ने पर उसे ही मारने के लिए सब अपने-अपने हाथों में पत्थर ले लेते हैं। पाटेकर का किरदार समझ रहा है। माथे से लहू बह रहा है। दिमाग़ लोगों और समाजों को समझने में व्यस्त है। दिल टूट गया है।
अपनी मां को ढूंढने के भ्रम में या कहें तो उसकी यादों और अपने बचपन को ढूंढने नाना पाटेकर नगरवधुओं के इलाके में जाता है। आपके सटीक शब्दों में कहें तो वेश्याओं के मोहल्ले में। मगर, अब क्या। अब वहां कुछ भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में लौटते कदमों में मदद के लिए चिल्ला रही एक लड़की को नाना जबरदस्ती करने वालों से छुड़वाता है। छोटी उमर में तो पाटेकर अपनी मां को गुंडों यानी बुरे लोगों से नहीं छुड़ा पाया, मगर अब उसने ऐसा करके अपना कर्तव्य पूरा किया है। अपने किराये के कमरे की सीढ़ियां चढ़ते वक्त डिंपल उससे पूछती हैं, "क्या राजकुमार को उसकी मां मिली?" जवाब में पाटेकर मुस्कुराता है, आज उसने अपनी मां को बिकने से बचा लिया।
अंत में नाना पाटेकर हफ्ता मांगने और पीटर के सिर पर पत्थर पटककर मारने वाले को उसी की बेकरी की दुकान के आगे मारता हैं। ...मार देता है। संहारक की आवाज कहती है, "तुम्हें ख़त्म करना बहुत मुश्किल है। तुम्हारी तादाद बहुत ज्यादा है। कीड़े-मकोड़ों की तादाद में हो तुम। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं चुप बैठुंगा। मैं तुम्हें मारता रहूंगा।"
अंतिम दृश्यों में एक अदालत का दृश्य है। इसमें थियेटर का प्रभाव साफ है। डिंपल, इंस्पेक्टर, शर्ली का भाई, नाना का वरिष्ठ सैन्य अधिकारी, पीटर का पिता, शर्ली और बाकी सभी बैठे हैं। अदालत कहती है कि मेजर चौहान को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।
मानसिक रूग्णालय में नाना जमीन में पौधे लगा रहा है। चिंटू आता है। चेहरे पर लालिमा आ जाती है
"तुम्हारे हाथ में मिट्टी लगी है। छी...
...चिंटू ....मिट्टी को छी नहीं कहते, इसी में तो फूल उगते हैं.." जैसा संवाद फिल्म की रेंज बताता है। यह बताता है कि देश की नई पौध कैसी हो।
फिल्म का अंतिम दृश्य है। नाना पाटेकर खिड़की के बाहर डूबते सूरज को देख रहा है। कि, अगली सुबह नई सुबह होगी। नई पौध को दुश्मन से लड़ने की ट्रैनिंग देंगे। सुबह की दौड़ से शुरुआत होगी। हालांकि इस सोच को एक आदर्श सोच नहीं कहा जा सकता है। मगर, फिल्म के इस दृश्य को देखें। सेना की पोशाक में प्रशिक्षक नाना दौड़ रहे हैं। और, पीछे हैं सैंकड़ों बच्चे। ये बच्चे दौड़ रहे हैं, उसी अवस्था में जैसे वे मां की कोख़ से इस दुनिया में आते हैं। ये सभी पवित्र हैं और दुनिया में आने के साथ ही यहां अपने निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
फिल्म का अंतिम दृश्य है। नाना पाटेकर खिड़की के बाहर डूबते सूरज को देख रहा है। कि, अगली सुबह नई सुबह होगी। नई पौध को दुश्मन से लड़ने की ट्रैनिंग देंगे। सुबह की दौड़ से शुरुआत होगी। हालांकि इस सोच को एक आदर्श सोच नहीं कहा जा सकता है। मगर, फिल्म के इस दृश्य को देखें। सेना की पोशाक में प्रशिक्षक नाना दौड़ रहे हैं। और, पीछे हैं सैंकड़ों बच्चे। ये बच्चे दौड़ रहे हैं, उसी अवस्था में जैसे वे मां की कोख़ से इस दुनिया में आते हैं। ये सभी पवित्र हैं और दुनिया में आने के साथ ही यहां अपने निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
दुश्मन से लड़ने का प्रशिक्षण शुरू हुआ है। पार्श्व में गीत बज रहा है.....
" हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा, जब भी खुलेगी चमकेगा तारा...
कभी ना ढले जो, वो ही सितारा, दिशा जिस से पहचाने संसार सारा..."
हथेली पे रेखाएं हैं सब अधूरी, किस ने लिखी हैं नहीं जानना है,
सुलझाने उनको न आएगा कोई, समझना हैं उनको ये अपना करम है।
अपने करम से दिखाना हैं सब को, खुद को पनपना, उभरना है खुद को,
अंधेरा मिटाए जो नन्हा शरारा, दिशा जिस से....
कभी ना ढले जो, वो ही सितारा, दिशा जिस से पहचाने संसार सारा..."
हथेली पे रेखाएं हैं सब अधूरी, किस ने लिखी हैं नहीं जानना है,
सुलझाने उनको न आएगा कोई, समझना हैं उनको ये अपना करम है।
अपने करम से दिखाना हैं सब को, खुद को पनपना, उभरना है खुद को,
अंधेरा मिटाए जो नन्हा शरारा, दिशा जिस से....
हमारे पीछे कोई आए न आए, हमें ही तो पहले पहुंचना वहां है
जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन ही रास्तों को बनाना हमें है।
जो भी साथ आए उन्हें साथ ले ले, अगर ना कोई साथ दे तो अकेले
सुलगा के खुद को मिटा ले अंधेरा, दिशा जिस से..."
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गजेंद्र सिंह भाटी