ठेठ व जमीनी अभिनेता संजय मिश्रा संघर्ष के दिनों, इंस्टेंट होने के दौर, संस्कृति, इंसानियत, हास्य भूमिकाओं, सामाजिक बदलावों, फिल्म, टीवी, महंगाई, मणि रत्नम, शाहरुख, अमिताभ बच्चन, कौन बनेगा करोड़पति और ऐसे ही कई तानों-बानों पर
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Sanjai in a still from Saare Jahan se Mehnga. |
हिंदी फिल्मों में संजय मिश्रा की अब एक नियत जगह हो गई है। दर्शकों के लिए उन्हें पहचानकर हंस पड़ना आम है। ‘धमाल’ में वह बाबू भाई आतंक बनकर हंसाते हैं तो ‘फंस गए रे ओबामा’ में बेचारे किडनैपर भाईसाहब जिनकी बंदूक में गोली नहीं है और गाड़ी में तेल नहीं है। ‘गोलमाल’ श्रंखला के भी वह नियमित हंसोड़ सदस्य हैं, उसमें उनका हर अंग्रेजी शब्द की गलत स्पेलिंग बोलना सर्वाधिक याद रहता है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से कोई दो दशक पहले वह निकले तो थे संपूर्ण अभिनेता बनकर लेकिन जैसा होता है फिल्म उद्योग में कि वहां भिन्न-भिन्न सांचे भर दिए जाने के लिए तैयार रखे होते हैं। ‘ओ डार्लिंग ये है इंडिया’, ‘सत्या’ और ‘दिल से’ जैसी फिल्मों से संजय ने सांचों में ढलने से इनकार किया लेकिन फिर वो सब ‘धमाल’, ‘गोलमाल’, ‘अपना सपना मनी-मनी’ और ‘जोकर’ आ ही गईं। हालांकि ‘सतरंगी पैराशूट’ और ‘फंस गए...’ में उनके किरदार महज विदूषक न थे, उनमें कुछ बात थी। संजय अब पहली बार केंद्रीय भूमिका में नजर आएंगे अंशुल शर्मा द्वारा निर्देशित हिंदी फिल्म ‘सारे जहां से महंगा’ में। इसमें वह महंगाई के मारे पुत्तनपाल बने हैं। प्रतीत होता है कि इसमें वह संजीदा व्यंग्य करते दिखेंगे। फिल्म 8 मार्च को रिलीज होनी है। इस सिलसिले में चंडीगढ़ में उनसे मुलाकात हुई। दिल खोलकर उन्होंने जवाब दिए। जवाब देने के उनके अलग-अलग अंदाज हैं। बहुत सी बातों का रंग सामने बैठकर सुनने से नजर आता है। कुछ जगहों पर बातें विषय पर केंद्रित न रहकर वृहद हो जाती हैं। लेकिन दिलचस्प बातें भी निकलीं तो बतौर इंसान उनके मत भी। वो हमारे समाज में बीते और नए दोनों वक्त के साक्षी हैं।
बचपन में या शुरुआती जिंदगी में कौन सी सबसे सस्ती खरीदी चीज याद आती है?
साढ़े सात रुपये लीटर पेट्रोल था जब मैं मोटरसाइकिल चलाता था। अंडे उस समय पांच रुपये दर्जन आते थे। मेरे दादा की तनख़्वाह हुआ करती थी कोई तीन रुपये। दादी बताती थीं कि दो आने में एक तोला सोना आ जाता था। हम कहते भी थे कि “क्यों नहीं रख लिया आपने दो आना”। तो दादी कहती थीं कि “उस समय तुम्हारे दादा की नौ-नौ बहनें थीं, उनकी शादी करनी थी”। खाना था, पीना था, फिर भी एक जिंदगी अलग थी वो। कल को मेरा बेटा पूछेगा कि “पापा जब आपको पता था कि 75,000 रुपये तोला सोना था तो आपने क्यों नहीं खरीदकर रख लिया, इतना सस्ता था”। तो जवाब देंगे उसे भी।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एन.एस.डी.) से निकलने के बाद अपनी पहली केंद्रीय भूमिका पाने में 23-24 साल लग गए?
हमारे यहां क्या है न कि इनको ले लो, ख़ान साहब, ख़ान साहब हैं, ले लो इनको। बहुत पहले टीवी पर सिर्फ दूरदर्शन होता था। बाद में नए चैनल आए तो चांस मिला, मुझे क्या बहुतों को मिला। आप सोचिए उन दिनों के बारे में जब शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन स्ट्रगल करते थे। तब कोई पिक्चर धड़ाधड़ नहीं बनाता था, तीन-चार साल में एक बनती थी। फिर धीरे-धीरे छोटी फ़िल्मों का दौर आया। लोग कहने लगे कि मेरे पास अच्छी स्क्रिप्ट है मुझे अच्छे एक्टर चाहिए। उस दौर को आए तीन-चार साल हुए हैं। बहुत अलग है हमारी इंडस्ट्री, डाकू की फ़िल्म चल गई तो डाकू बन गए, प्यार की फ़िल्में चल गईं तो बना ले बेटा धड़ल्ले से। महंगी चीज है न, लोग डरते हैं बनाने से।
लेकिन ‘फंस गए रे ओबामा’ जैसी फ़िल्मों के साथ रिस्क लिया जा रहा है...
जी जी जी, मतलब अब प्रोड्यूसर्स का ये है कि दो रुपये की चीज बनाओ दो रुपये की पब्लिसिटी करो, इस तरह चार रुपये की चीज हो गई अब सात रुपये भी कमाते हो तो ठीक है। न कि आप बहुत बड़े बजट की फ़िल्म बनाओ और सौ करोड़ के हो जाओ। वो बड़ा रिस्क नहीं छोटा वाला रिस्क छोटी फ़िल्मों के साथ प्रोड्यूसर ले रहे हैं। ये फ़िल्मों के लिए अच्छा भी है। इससे अंशुल (सारे जहां से मंहगा) जैसे नए डायरेक्टर निकलेंगे जो कुछ नया करने की तमन्ना रखते हैं। नीरज पांडे ने बनाई ‘अ वेडनसडे’, हमें एक टैलेंटेड डायरेक्टर मिला। अनुराग कश्यप आगे बढ़े, तिग्मांशु धूलिया आगे बढ़े और सुभाष कपूर आगे बढ़े।
1990-91 में जब नई आर्थिक नीतियां आईं, आप एन.एस.डी. से निकले ही थे, आपने उस समय कल्पना की थी कि देश की ये हालत हो जाएगी 2013 में? प्रगति में भी, महंगाई में भी और फ़िल्मकारी में बदलाव में भी?
हमारे देश में अभी सबसे बड़ी समस्या ये है कि प्रगति हम जिसे कहते हैं, वो आधारहीन प्रगति है। हम जब तक अपने कल्चर को पकड़कर प्रोग्रेस नहीं करेंगे न, आने वाले 25 सालों में ब्लैंक होगा सारा। जब तक हमारे मम्मी-डैडी हैं, उनको वैल्यूज पता हैं, उनको ऐतिहासिक चीजें पता हैं। हमारे यहां दुनिया का सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। हमारे यहां घोड़े के कैसे नहलाएं, उसे कैसे पालें, इस पर भी श्लोक लिखा हुआ है। काक भदूड़ी होते थे जो कौआ अगर दक्षिण की तरफ मुंह किए है तो बता देते थे कि बारिश होगी। दो कौवे-तीन कौवे रस्ते में कांव-कांव कर रहे हैं तो इस समय इस चीज की फसल लगाओ, इस पर श्लोक लिखे हैं। कौन सा देश ऐसा है जिसके पास इतना बड़ा लिट्रेचर है। लिट्रेचर एक तरफ हिंदुस्तान का रामायण है और एक तरफ महाभारत है। रामायण में “अरे भाई के चरण पकड़ लो उनके जूते ही रख लो”, महाभारत में कहता है “मार दो साले को भाई है तो क्या हुआ”।
गंगा है। हम अपनी गंगा नदीं को नहीं बचा पा रहे हैं। जो हिंदुओं की एक बहुत बड़ी चीज है। हम खामखां खड़े हो जाते हैं कि ‘विश्वरूपम’ को बैन करो, ओ तेरी, कभी खड़े क्यों नहीं हुए कि गंगा को हम बचाएंगे। राम मंदिर बना दो, जो पहले से बने हुए हैं उसका क्या करोगे। हमारा यूथ गैजेट्स और बाकी सब चीजों में इतना आगे है, पर आप वास्ता किस जगह से रखते हो इतना भी जानते हो। पंजाब किस वजह से जाना जाता है। डर है कहीं किसी दिन 100 साल बाद लोग कहें कौन गुरु गोबिंद सिंह जी? “अच्छा मम्मी जी, अच्छा वो वो वो” ...ये बहुत खतरनाक है। 2013 मैंने सोचा था पर ऐसा कभी नहीं सोचा था। बहुत जरूरी है सिनेमा को और मीडिया को अपना फर्ज निभाने की।
आप लाए हैं न ‘सारे जहां से महंगा’...
ये लाया हूं, मैंने एक फ़िल्म डायरेक्ट की है ‘प्रणाम वालेकुम’, जिसमें मैं चाहता हूं कि कुछ...
उसका क्या हो गया, रुकी पड़ी है?
रुकी पड़ी हुई नहीं है, उसका बैकग्राउंड वगैरह का काम चल रहा है। 31 मार्च तक वो भी फाइनल प्रिंट निकाल लेंगे। ये फ़िल्म उसी बात पर है जो मैं कह रहा हूं। हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई... अभी हमको उसकी जरूरत नहीं है, अभी हमें जरूरत है अच्छा मानव बनाने की। आफ्टर फिफ्टी ईयर्स क्या बोलोगे, सब पत्थर ही पत्थर, यहां एक पेड़ हुआ करता था पीपल। देखा है कैसा होता था, आजा दिखाऊं उसकी तस्वीर तेरे को। देख रहा है, ऐसा होता था।
डायरेक्टर के तौर पर कितनी टेंशन लगी?
अभिनेता होते हैं तो सिर्फ अभिनय ही करना होता है, डायरेक्शन में आते हैं तो हर चीज। कॉस्ट्यूम, एक्टर्स की डेट, कैमरा... हर कुछ, हर कुछ आपको ही देखना होता है।
प्रोत्साहित हुए हैं या हतोत्साहित हुए हैं?
पहला काम है, प्रोत्साहित हूं तभी तो किया हूं।
आगे और निर्देशन करना चाहेंगे?
कुछ अच्छा मिलेगा तो जरूर।
‘धमा चौकड़ी’ को लेकर क्या हुआ? बन रही है?
शायद वो बन गई, मैं वो पिक्चर बहुत गलती से साइन कर लिया था। मुझे बताया कुछ गया था और हुआ वहां पे कुछ और था। किसी ने स्टोरी सुनाई कि “सर ऐसे-ऐसे है, उसमें सौरभ शुक्ला हैं, ये है वो है”। वहां गया तो देखा, ओ तेरी वो खुद ही चेन पहने वहां खड़ा था। मैंने कहा, “तू तो प्रोड्यूसर है, तू काहे की चेन पहने है?” बोला, “नहीं भइय्या एको रोल हम भी कड़ रहे हैं”। हमने कहा, “कौन सा रोल बे?” तभी कोई दूसरा आया वहां से, बोला, “भैय्या चा पीयो”। मैं बोला, तू? कि, “ये भी एक रोल कर रहे हैं”। इस तरह अकेला ही पिस गया था मैं वहां। खुद ही रोल कर रहे थे। एटीएम से पैसे निकाल-निकाल के तो पिक्चर बना रहे थे। “जा पांच हजार ले आ, काम है जा जा”।
‘दिल से’ को याद करता हूं तो एक वजह आप भी हैं..
धन्यवाद।
...इसलिए जब कुछ ने सवाल किया कि आपने सिर्फ कॉमेडी केंद्रित किरदार ही क्यों किए हैं, तो मुझे ‘सत्या’ भी याद थी, ‘दिल से’ भी। ‘दिल से’ में शाहरुख खान के किरदार को आपने पीटा इसलिए भी आप बहुत महत्वपूर्ण हैं। अपने उस किरदार पर लौटकर कितना जाते हैं आप? वो टीवी पर आते हुए सामने से गुजर जाता है तो क्या सोचते हैं?
‘दिल से’ की एक बड़ी वजह ये थी कि सिनेमा में मणि रत्नम। मैं जब नया-नया आया था तो केतन मेहता, मणि रत्नम... अगर मुझे वक्त मिलता या मैं थोड़ा पहले होता तो सत्यजीत रे। ये कुछ थे मेरे लिए। ‘दिल से’ मुझे याद है कि ‘छैंया छैंया’ गाना पहली बार हमने (क्रू) सुना था। कहां, डलहौजी में, ऊ तेरी.. ये गाना है! रहमान, फर्स्ट टाइम। ‘रोजा’ आ चुकी थी पहले। ‘दिल से रे दिल से रे...’ ये गाना, इस पिक्चर से मैं जुड़ा हुआ हूं! उस गाने में तो हम लोग असिस्टेंट भी हो गए थे मणि सर के। शाहरुख खान डांस कर रहे हैं, तो हम लोग पीछे से, “पेड़ आ रहा है तुर्रर्र, नीचे डूब जाओ”, ...सारा खानादान नीचे गिर गया। जब मैं मणि रत्नम से मिलने गया तो वहीं पर राम गोपाल वर्मा बैठे थे। मणि ने कहा, “आप जानते हैं इनको?” मुझे लगा, होगा असिस्टेंट। मैंने कहा, नहीं सर। कहे, “ये है राम गोपाल वर्मा”। मैंने सोचा, हाँइ, इ है राम गोपाल। मैं उनका भी काम देख चुका था। एक समय में राम गोपाल वर्मा की ‘रात’ और ‘शिवा’ मतलब उनका नाम था। जब उनके कमरे से निकला तो राम गोपाल वर्मा ने कहा कि “आप एक मेजर रोल कर रहे हैं मेरी फ़िल्म ‘सत्या’ में”। मैंने कहा, सरजी अभी तो उनको डेट्स देकर आया हूं उसी महीने में आपको भी डेट्स कहां से दूंगा। फिर मणि रत्नम ने छोड़ा मुझे तीन दिन के लिए और मैं जाकर ‘सत्या’ करके आया।
मणि रत्नम ने मुझे देखा कुछ और था। मेरे साथ बात होने लगी तो सोचने लगे कि ये तो खोदा चूहा और निकला पहाड़। तो उन्होंने तिशु (तिग्मांशु) को डांटा भी कि “क्यों, इसको मैं दूसरे रोल में लेता, क्यों टेरेरिस्ट के रोल में लिया?” लेकिन मुझे वो रोल करने में मजा आया। मुझे बस एक्टिंग करने में मजा आता है। उस समय शाहरुख धीरे-धीरे उभर रहे थे। जब फ़िल्म का ट्रायल हो रहा था तो शाहरुख बाहर चुप खड़ा हुआ था कि “यार मिश्रा, धक धक हो रहा है”। मैंने कहा, यार मणि सर भी यही कर रहे हैं कि धक-धक हो रहा है। तिशु भी आज यही कहता है कि यार इत्ती पिक्चर रिलीज हो गई, आज भी नई रिलीज के दिन लगता है कि अभी तक मेट्रिक का इम्तिहान ही चल रहा है। अभी ‘सारे जहां से महंगा’ है। जब भी ट्रायल में जाओ तो लगता है पता नहीं लोगों के कैसी लगेगी यार। हरेक एक्टर के पेट में, हरेक डायरेक्टर के पेट में, हरेक कैमरामैन के पेट में... जितने भी लोग हों गुड़ गुड़ गुड़ गुड़ होता है। और शायद इसी वजह से हम लोग कला के क्षेत्र में हैं। उस गुडग़ुड़ाहट की वजह से।
फ़िल्म आती है, दो-तीन दिन के बाद उसका सब जेहन से उड़ जाता है दर्शकों के दिमाग से। वो नई फ़िल्म की तरफ भागने लगते हैं...
इंस्टेंट हो गया है सब। अन्ना हजारे इंस्टेंट हो गए हैं। इतना बड़ा आंदोलन उस आदमी ने खड़ा किया, एक हफ्ते में प्रेस कहता है, “क्या अन्ना हजारे, देखिए भीड़” और दूसरे हफ्ते में प्रेस कहता है कि “क्या भीड़ जुटा पाएंगे अन्ना?” इंस्टेंट। ये बीस साल से धीरे-धीरे-धीरे-धीरे बदल गया है। एक फोन पर आप पूरी दुनिया घूम लेते हो। पूरी दुनिया आपके हाथ में है। कड़ कड़ कड़ कड़... क्रिकेट में क्या हुआ, किसका रे-प हुआ, कहां क्या हुआ, ये देख फोटू लंदन की है, अभी भेजी है बाबूजी ने। कितना तुरंत हो गया है। पहले ‘शोले’ या कोई पिक्चर आती थी तो ओ तेरी... दो-दो महीने लगी हुई है, अगर याद होगा तो। अब, तीन दिन लग गई, तो ठीक। चौथे दिन तो सुपरहिट। सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली, डायमंड जुबली ये तो खत्म ही हो गया है आज। आज अमिताभ बच्चन इस वक्त कहां होंगे आप यहां बैठे जान सकते हैं। ‘शोले’ के टाइम में, ‘दीवार’ के टाइम में अमिताभ बच्चन रोल के अलावा कैसे दिखते हैं आप नहीं जान सकते थे। मैंने अमिताभ बच्चन का एक पोस्टर देखा था। ‘कुली’ से सेट पर वह मुंह नीचे किए बैठे किताब पढ़ रहे थे। वैसा लुक तो हम लोगों ने पहले कभी देखा ही नहीं था। आज सलमान खान का बेडरूम क्या है ये जानते हैं आप। जाइए यूट्यूब पे, बेडरूम सलमान खान (टाइप करने का इशारा करते हुए), उसका भी फोटो आ जाएगा।
सवाल ये पूछ रहा था कि फ़िल्म सिर्फ तीन दिन तक लोगों के जेहन में रहती है, आपने काम उस पर एक साल या उससे ज्यादा किया होता है। फिर हमारे जैसे पत्रकार आते हैं जो बेसिर-पैर के सवाल पूछते हैं, ये सारा प्रोसेस क्या आपको आपकी आने वाली फिल्मों के प्रति निर्मोही नहीं बना देता है? कि क्या यार, अब नहीं ज्यादा दिल लगाना, बस ऊपर-ऊपर से करते चलो?
हां, निर्मोही तो ये सब बना ही देगा यार। वजह क्या है न, जानते हो... कभी फ़िल्म इंडस्ट्री पर बंगाल ने राज किया, कभी पंजाब ने राज किया, पैसे ने राज किया... एक अच्छे साहित्य को उठाकर उस पर फ़िल्म बनाना लोगों ने कभी उचित नहीं समझा। उनकी भी वजह ठीक थी कि भई हम पैसा कमाने के लिए फ़िल्म बना रहे हैं। न हमें प्रेमचंद प्रमोट करना है, न हमें फणीश्वरनाथ रेणू प्रमोट करना है, न उदय प्रकाश प्रमोट करना है, मंटो हमें नहीं प्रमोट करना है... उनका व्यू अपनी जगह ठीक था। उसके बाद आती है सरकार। सरकार हर चीज के लिए बना देती है, फ़िल्म डिवीजन, एन.एफ.डी.सी., लेकिन वहां उसको चला कौन रहा है। चलिए आप बनाइए फ़िल्म... हिंदुस्तान में एक बात बता दूं, क्रिकेट और सिनेमा इतना पॉपुलर है कि मुझे नहीं लगता पूरी दुनिया में कहीं होगा। उस लोकप्रियता को आप भुना नहीं सके। टेलीविजन बहुत सशक्त माध्यम है। दूरदर्शन में जो पैसा देगा उसी का काम होगा। टेलीविज़न में औरतों का दिखाओ औरतों का, रात का खाना बनाने के बाद अच्छा धंधा होता है (व्यूअरशिप, एड), औरतों का दिखाओ औरतों का। नहीं, दिखा क्या रहे हो? हमारे पास एक भी चैनल ऐसा नहीं है जो डिस्कवरी जैसी चीजें दिखाता हो। हमें मुंह छिपाकर जाना पड़ता है उन्हीं के साथ। हम क्यों नहीं? और जब-जब सिनेमा और दूरदर्शन ने ऐसा प्रयास किया है ऑडियंस ने उसको सराहा है। हम अपने ऑडियंस को कभी नहीं गाली दे सकते।
आइटम नंबर क्या है आज की डेट में? आइटम नंबर क्या होता है? ‘तीसरी कसम’ में वहीदा रहमान ने आइटम नंबर किया था? नहीं। ‘तेज़ाब’ का ‘एक दो तीन...’ वो आइटम नंबर था? नहीं। नाम दिया गया अभी। आइटम गर्ल आ गई है। पॉपुलर करने के चक्कर में हम सतह भूल गए हैं। इसलिए मैं किसी से कह रहा था, हमारी प्रगति, प्रगति नहीं है। बुनियादी प्रगति हम नहीं जान रहे हैं। आप देखिए, आपके दादाजी जब पूजा करते थे तो उनकी डेढ़ घंटे की पूजा होती थी। तो धूप डालो रे, तो तुलसी पत्ता डालो रे, तो विल्वपत्र डालो रे। आपके पिताजी करने लग गए तो वो तीस मिनट की हो गई। और आज आपको दीपावली के दिन समझ नहीं आता है, गणेशदशमी बिठा के जय हनुमान, हो गया दीवाली, बम फोड़ो भई। अगरबत्ती जला दो जी। ये किस दिशा में हम जा रहे हैं। दुनिया हमारे योग को, हमारे मंदिरों को तवज्जो दे रही है और हम उसको भूलते जा रहे हैं। मेरा खुद का भान्जा, अभी हम एक दिन बैठे हुए थे। मैंने कहा, बेटा तुलसीदास। तो बोला, “कौन तुलसीदास? नेट पे मिलते नहीं ना हमका”। मतलब आप कुरान भूल जाओगे। तुलसीदास हमारे यहां के इतने बड़े रचयिता थे। ये कैसी प्रगति?
हमारे लोग अपने में ही फंसे हुए हैं।
जगह मिल गई (पॉलिटिक्स में) तो ले बेटा तू यहां बैठ, तू इधर आ, हां तू वहां बैठ जा... लो हो गई हमारी मिनिस्ट्री। वो भी है आपके मामा का बेटा, ले उसे भी ले आ। कर लो बात। पचास साल - साठ साल बहुत माकूल वक्त होता है पॉलिटिक्स में कुछ बदलने के लिए। 100-200 साल। आज ही तुम पीपल लगा दोगे तो नहीं उग जाएगा। वक्त लगेगा। हमें समझना होगा कि कहां क्या चीज दें। स्कूल में ट्रेनिंग कैसी दें। कोस थीटा, फलना थीटा और पाइथोगोरस परमेय से हमें कोई मतलब नहीं है और निजी जिंदगी में काम भी नहीं आता। हमारे अच्छे साहित्य पर फ़िल्म बनाने के लिए कोई नहीं उत्सुक है। न सरकार कुछ कर रही है न हम। अच्छे साहित्य को हमने दरकिनार कर दिया। मैं गुलशन नंदा की बुराई नहीं कर रहा हूं लेकिन हमने दस-दस रुपये में... ये नॉवल पढ़, कर्नल रंजीत फेंक। लेकिन प्रेमचंद के ‘बड़े भाई साहब’ के दर्द को हम नहीं समझे। ये कष्टभरा है। अब देखिए कौन देखता है क्रिकेट, कौन, मैं तो नहीं देखता। कौन है टीम में अभी मुझे नहीं मालूम। अपने लाइफ में मुझे पांच परसेंट क्रिकेट को देना है लेकिन क्रिकेट तो पूरा सौ परसेंट मांग रहा है लाइफ से। ये मैच, तो आज वो मैच, तो आज आईपीएल... इतना वक्त नहीं है। उस वक्त स्पष्ट होता था कि आज इंडिया-न्यूजीलैंड मैच है, तो ओके देखना है। वन डे था, टी ट्वेंटी हो गया। पचास कहां बीस का हो गया। वक्त ही कहां है, ठक ठक ठक। हो गया। हर डिपार्टमेंट देखो ना। बहुत सैड है। ये गलत जा रहे हैं हम।
एक बंदे ने कहा था, ब्रेख़्त (बर्तोल्त) ने, “ये जरूरी नहीं तुम फ़कत अच्छे इंसान बनो, जरूरी ये है कि आप मरते वक्त एक अच्छे समाज से विदा लो”। ये हमारी पीढ़ी के लिए दुख भरा है क्योंकि हमने थोड़ा पुराना देखा हुआ है। कल को मेरे बच्चे बिल्कुल पुराना नहीं देखेंगे। वहां पे गंगा होती थी ऐसा पापा कहते थे। जहां से वो पतंग उड़ा रहा है न वहां से एक नदी चलती थी। उसको शिवजी ने अपनी जटा में रख लिया था।
ये तो प्रक्रिया न पलटी जा सकने वाली हो गई है फिर आप करेंगे क्या?
करेंगे क्या करना ही पड़ेगा। एक शौक़ होता है, कभी-कभी रोटी भी होती है। कभी रोटी शौक़ पे भारी होती है कभी उल्टा हो जाता है। तो शौक़ तो है। शायद मैं जैसी फ़िल्में कर रहा हूं मेरे बच्चे देखें और कहें कि हमारे पापा ने ऐसी फ़िल्में कीं। तो मैं तो अपना फ़र्ज और दायित्व निभा ही रहा हूं। लेकिन क्या करें इस चाल में आना है तो आना ही है।
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Sanjai in still from All the Best. |
इस बीच जैसे रोल आते हैं कि ‘गोलमाल’ में था, आप गलत स्पेलिंग अंग्रेजी के शब्दों की बोलते हैं तो लोग हंसते हैं, आप पांपां बोलते हैं तो लोग हंसते हैं।
हां, वो ठेठ कमर्शियल है..
हालांकि उसे सुन-देख लोग पचास-साठ साल हंसते रहेंगे...। वैसे रोल जब आप कर रहे होते हैं तो क्या सोच रहे होते हैं?
जो भी रोल कर रहा हूं वो प्रफेशनली कर रहा हूं। उसके लिए मुझे पैसा मिला है। मेरे लिए वो माई-बाप है। जब जाता हूं हॉल में और देखता हूं कि लोग मजा ले रहे हैं तो सोचता हूं, चलो यार लोगों को हंसी तो दे रहा हूं। गॉड ने ब्लेस कर रखा है कि मुझे देख लोग मुस्करा देते हैं। मुझे सारे ऑस्कर और फ़िल्मफेयर वहीं मिल जाते हैं। मैं अभी एक अस्पताल गया था। एक लेडी लीवर डैमेज, दो-तीन दिन की मेहमान। उनके हस्बैंड बोले कि “जब मैंने अपनी बीवी को बताया कि आप भी इसी अस्पताल में हैं तो वो आपसे मिलना चाह रही है”। मेरी भी तबीयत ख़राब थी तो मैंने सोचा कि एक मरता क्या किसी की मदद करेगा चलिए। मैं उनके कमरे में गया, उनके दो डॉक्टर बेटे सोए हुए हैं, वो लेडी एक ओर करवट लेकर लेटी हुई हैं। यूपी से थीं। उनके हस्बैंड बोले, “सुनती हो, देखो कौन आया है तुमसे मिलने”। वो पलटती हैं और उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ जाती है। मेरे पैर कांपने लगते हैं, मेरे आंसू निकल आते हैं कि ऊपर वाले ये मुझे किस चीज से नवाज़ा है तूने। एक जाने वाला इंसान आपको देखकर मुस्कुरा रहा है, इसका मतलब कहीं से बाबाजी लोग की कोई कृपा है। मैंने कहा, आप कायस्थ हैं आपके यहां तो मीट-मच्छी खूब बनता होगा, तो हंसने लगीं। मैं बोला कि आपके यहां बनारस आऊंगा कभी। कुछ दिन बाद मालूम चला कि वो जा चुकी थीं। खैर, तबसे मन में ये हुआ कि संजय मिश्रा तू जो भी कर रहा है करता जा।
आपकी क्या फिलॉसफी है?
एक जिंदगी मिली है और इसमें चंद पल मिले हैं। ऊपरवाले ने आपको ऐसी योनि में पैदा किया है जिसमें आप सोच सकते हैं, देख सकते हैं, जिसमें आप रंगों के नाम रख चुके हैं और आप इतना ग्रो करते हुए इंसान हैं। हम कुछ योगदान नहीं दे रहे हैं। दे तो वो रहे थे जिन्होंने पहिया बनाया, जिन्होंने लाइट का आविष्कार किया। तो ये जो दुनिया है न वो अंत समय तक ऊपरवाले को आपका उपहार है। मरने के पंद्रह मिनट पहले तक आप उस उपहार के शुक्रगुजार रहिए। जब जाएं तो आप एक अच्छी जगह से जाएं। कुछ नहीं तो यार दस पेड़ लगा दो। मैंने अपनी फ़िल्म ‘प्रणाम वालेकुम’ में एक गाने के बोल लिखे हैं, “चलो गंगा नहाते हैं, मदीना सिर झुकाते हैं, एक पौधा लगाते हैं और इंसान बन जाते हैं”। तो ये मेरा एक सपना है, ग्रीन इंडिया, ग्रीन दुनिया, सारी नदियां भरपूर हों पानी से, लोग खुश हों। जिंदगी आपको गलती से मिली है या किसी और वजह से बस उसे एंजॉय करिए। जो हमारे मालिक बने बैठे हैं उनसे भी निवेदन है कि इतना तो करो यार कि लोग कम से कम खुश रहें। हादसे तो अपनी जगह हैं लेकिन बाकी तो आप करें।
अब देखिए बम की खबर तो ऐसी हो गई है कि क्या बात टेरेरिस्ट आ गए। कर लो बात, डकैत को अब टेरेरिस्ट बना दिया है।
और ये सब हमारा ही करा-धरा है। चीजें इतना ज्यादा मार्केट मार्केट मार्केट हो गई हैं, टीवी पर इतने एड आते हैं। एक गरीब प्रिंसिपल का बेटा देखेगा तो वो क्या सीखेगा, कि वो उसका हक है, जैसे टीबी-डायबिटीज हो जाता है, वैसे ही ये भी एक बीमारी है कि किसी चीज को पाने की तमन्ना। वो कहां से अपने बाप से कहेगा कि मुझे ये हॉन्डा सिटी लाकर दो बाबा, शाहरुख खान चलाते हैं। बाप साइकिल ही पे गुजारे हैं बेटा, कहां से लाकर देंगे। वो चीज खोजने के लिए कहां जाएगा। उठाओ गन। हैं? इतनी खूबसूरत-खूबसूरत लड़कियां, मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। वो चीज ढूंढने के लिए वो कहां जाएगा। उठाओ कोई चीज। किसको दोष दें। आप कभी उस माइंड में जाकर देखो तो लगेगा कि वो तो जेनुइन है। कसाब आपके लिए टेरेरिस्ट हो सकता है किसी के लिए तो शहीद भगत सिंह भी हो सकता है। शहीद भगत सिंह आपके लिए भगत सिंह हैं, अंग्रेजों के लिए तो टेरेरिस्ट थे। दोनों पहलू देखो तो समझ में आती हैं चीजें। आज जानते हो करोड़ रुपये का वैल्यू क्या हो गया है। देखिए करोड़पति (अमिताभ के अंदाज में), ...हैं तेरी। बाप कित्ता कमाता है, बीस हजार। चैनल पे क्या देखते हो, करोड़। बाप का हीरो होना बहुत जरूरी है तो कहां से होगा बाप हीरो। करोड़पति... करोड़, हट। पिक्चरों में यार, 100 करोड़, अब अगर तुमको हिट होना है तो सौ करोड़ के ऊपर आओ। पतली पॉटी हो जाएगी सौ करोड़।
आप साथ काम कर चुके हैं शाहरुख के, आप समझ रहे हैं कि बदलाव मार्केट वाली चीज के साथ कौन-कैसे ला रहा है। हॉन्डा सिटी वगैरह। लेकिन आप उनको कितना उत्तरदायी मानते हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री के फेमस चेहरे हैं जिनको ज्यादा लोग फॉलो करते हैं? उसने ऐसे कपड़े पहने तो मैं भी पहनूंगी, वो वो गाड़ी चलाता है तो मैं भी चलाऊंगा।
ये शुरू से है। अमित जी के हम लोग फॉलोअर थे। हैं...। बाल अमित जी जैसे। लेकिन कभी-कभी ये लगता है कि जब लोग ऐसी जगह पहुंच चुके हैं जहां से बदलाव की बात कर सकते हैं और चुप क्यों हो जाते हैं। मैं तो कभी शाहरुख ख़ान बन नहीं पाया और न आगे उम्मीद है लेकिन जब आप उस लेवल पे पंहुच जाते हैं तो बेटा वही वाली बात हो जाती है, कि चाट की दुकान में... ये जो थोड़ा खट्टा जो चलता है न, उसी से चाट चल रही है तो उसी पे कायम रहियो, रिस्क मत लेइयो, थोड़ा तीखा मत मिलाइयो। तो वो रिस्क न लेने वाली समस्या है, शायद इसी वजह से चुप हो जाते होंगे। मतलब ‘कौन बनेगा करोड़पति’... पैसा कमाना मकसद नहीं है। उसका ये है कि हम इंटेलिजेंट हैं। जब फैमिली देखती है न तो कहती है ए होगा। नहीं नहीं यार मैंने सुना है ए होगा। ए नहीं है सी है। वो आपस में जो बात कर रहे हैं उसमें करोड़ नहीं है वजह। उन्हें करोड़पति बनाने की जरूरत नहीं थी। उसमें अगर ए होता और आपको सौ ही रुपये मिलते न वो आपके लिए करोड़ हो जाते। देख बे ए नंबर लाया। मैंने कहीं पढ़ा था। करोड़ को इतना आसान मत बना दो बेटा... खुद ही मरोगे! करोड़ को इतना आसान बना दोगे तो खुद मरोगे! कहां जाओगे। फिर उसके बाद, करोड़ के बाद होता क्या है? अरब। अरब तक अभी बात नहीं आई है लेकिन बीस साल बाद देखना तुम। पहले ये होता था कि बेटा ये लखपति हैं। अच्छा। अब तो कई लखपति यहीं बैठे हुए हैं। एक ही कमरे में। करोड़ को इतना आसान कैसे बना दिया बे! इतना आसान! क्या है कितनी आबादी है इंडिया की। करोड़। हट! क्या है करोड़ ही है, अरबों में होनी चाहिए। उसके बाद? खरब।
एक महर्षि कणाद होते थे। खाना खाते वक्त सुई लेकर बैठते थे। खाते वक्त चावल के कण गिर जाते उन्होंने सुई से उठा भिगो खा लेते थे।
हां, बताओ। हम उस देश के वासी हैं।
आपकी आने वाली फिल्में?
इसके बाद एक अच्छी फ़िल्म आ रही है, ‘आंखों देखी’ जिसके एक्टर डायरेक्टर हैं रजत कपूर। उसमें 68 साल के एक बुड्ढे का रोल मैं कर रहा हूं। उसके बाद एक फ़िल्म आ रही है ‘फटा पोस्टर’। मेरे बड़े फेवरेट डायरेक्टर हैं राजकुमार संतोषी उनकी फ़िल्म कर रहा हूं। कुछ कमर्शियल फिल्में हैं ‘लकी कबूतर’ और ‘बॉस वगैरह’।
दिबाकर, तिग्मांशु के साथ...
तिग्मांशु की दोस्ती अच्छी है पर वही है न आप बहुत बिजी हो जाते है। हालांकि उसके साथ मैंने जितना भी टेलीविज़न किया है न, हम लोगों की ट्यूनिंग बड़ी हिट होती है। ‘स्टार बेस्टसेलर्स’ में मैं बहुत था उसके साथ। एक चैनल में उसका सीरियल आता था ‘हम बंबई नहीं जाएंगे’ तो बोला यार मिश्रा को बुलाओ वो आर्ट डायरेक्शन करेगा। मैं बोला, पागल है आर्ट डरेक्शन, कहां से करूंगा? वो एन.एस.डी. में मेरा बैचमेट था, मेरा रूम पार्टनर भी था। बहुत कुछ वेस्टर्न उसने मुझे दिया, मैंने उसे इंडियन क्लासिकल दिया। बोला, “मिश्रा को बुलाओ वो आर्ट डायरेक्शन करेगा”, मैं बोला पागल है तू, मैं कहां से आर्ट डायरेक्शन करूंगा, मैं एक्टर बनने आया हूं। पर वो बोला, कर लेगा मिश्रा और मिश्रा ने ‘हम बंबई नहीं जाएंगे’ का पूरा आर्ट डायरेक्शन किया। क्योंकि वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के ऊपर सीरियल था तो उसको लगा कि मिश्रा ज्यादा जानता होगा यार। इरफान भाई ने मुझे डायरेक्ट किया। पहला उनका टेलीविज़न का काम था। वन ऑफ द ब्रिलियंट एक्टर्स इस वक्त पूरे विश्व में। वो भी बेचारे देखो, उनको भी संडे करना पड़ा। तो भई रोजी-रोटी के लिए कब तक अलग ही कुर्ता-पजामा बुनते रहोगे। सूट तो सिलना ही पड़ेगा सबको एक दिन। इन लोगों के साथ काम होता रहेगा। शायद ये पिक्चर देखने के बाद तिशु को कहूं कि ये देख, हालांकि वो जानता है मेरी क्षमता लेकिन हो सकता है इस फ़िल्म के बाद थोड़ी बड़ी प्लेट परोसे कि मिश्रा को दो। दिबाकर बैनर्जी के साथ काम करने वाला था मगर डेट प्रॉब्लम हुई।
अब तो अपार आ रहा है टेलेंट अभिनेताओं और निर्देशकों दोनों में ही।
मुझे बड़ा अच्छा लगता है जब नए निर्देशक आते हैं और कहते हैं कि आपको लेकर एक स्क्रिप्ट लिखी है। मेरे लिए बहुत अच्छा है, गर्वीला महसूस करता हूं। मेरे जैसे बंदे ने एक लाइन में खड़े रहने वाले एक्टर से लेकर आगे तक की पूरी यात्रा देखी हुई है। ‘राजकुमार’ पिक्चर यार (1996)। पेड़ के नीचे बैठे रहते थे। (ऊधर से बुलाते थे) ए आ जाओ...। (हाथ जोड़ने की मुद्रा में) हां, जी जी जी। धीरे धीरे धीरे धीरे लगा कि लोगों की इज्जत बढ़ रही है मेरे प्रति। थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं, थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं, थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं।
‘ऑफिस ऑफिस’ तो बुनियाद हो गया था न?
संयोग से मैंने उसके बाद कोई सीरियल नहीं किया। वो नहीं कि मौसी का बेटा और सास-बहू में फंसा। बहुत बुरा फंसता। टेलीविज़न की दुनिया बहुत खतरनाक होती है। उसमें आपके टैलेंट की कोई कद्र नहीं होती है। बस चैनल की कद्र होती है। चैनल आपको जब चाहे फोकस कर दे, जब चाहे हटा दे। कितने लोग थे यार, कितने लोग... आए गए, टॉपस्टार हो गए। नहीं, अपने को लंबी रेस का घोड़ा बनना है। पर टेलीविज़न में पैसा बहुत है। बहुत। रेगुलर इनकम हो जाती है आपकी कि आपको दो लाख रुपया, चार लाख रुपया महीना मिलने लगता है। आप उससे बंबई में एक घर खरीद सकते हो। बेसिक बुनियादी, जो ‘ऑफिस ऑफिस’ ने करवा दिया। उसके बाद कान पकड़ लिया कि नहीं, मैं एक्टर हूं। कुत्तों की तरह काम करवाते हैं। टेलीविजन हर तरफ चाहे वो जर्नलिज्म (न्यूज चैनल) का हो। गधों की तरह काम करवाते हैं। गधा मजूरी है, रगड़ रगड़।
निजी जिंदगी में आप गंभीर इंसान होंगे लेकिन लोग जब आपके किरदारों की तरह आपसे विदूषक सा बर्ताव करते हैं तो क्या बुरा नहीं लगता।
नहीं, नहीं। निजी जिंदगी में आकर मुझे नहीं कहते कि आप हंसिए। और अच्छा भी है दो तरह की जिदंगी जी रहा हूं।
Sanjai Mishra is an Indian film actor. He hails from Bihar and lives in Mumbai. He passed out from National School of Drama in 1989. Mostly doing comic roles, he’s done movies like Satya, Dil Se, Phir Bhi Dil Hai Hindustani, Golmaal, Apna Sapna Money Money, Bombay to Goa, Dhamaal, All the Best: Fun Begins, Phas Gaye Re Obama, Satrangee Parachute, Chala Mussaddi Office Office and Joker. His latest, Saare Jahan Se Mehnga, has him as a lead.
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