शनिवार, 7 अक्टूबर 2017

मैं नहीं कहता तब करप्शन अपवाद था, पर अब तो माहौल फ़िल्म (जाने भी दो..) से बहुत ब्लैक है: कुंदन शाह

शनिवार सुबह 7 अक्टूबर को कुंदन शाह का निधन हो गया. बहुत ईमानदार, सच्चे, प्यारे और बेहतरीन इंसान. 2015 में उनसे ये बात की थी. उनकी बड़ी याद.

 Q & A. .Kundan Shah, Writer-director of – Jaane Bhi Do Yaaro, Kabhi Ha Kabhi Na.
  
Naseeruddin & Satish Shah in the epic Mahabharata scene from JBDY.

सईद अख़्तर मिर्जा ने 1980 में फ़िल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ का निर्देशन किया था। एफटीआईआई में उनके साथ पढ़े कुंदन शाह को भी गुस्सा आता था। इस फ़िल्म में सहायक निर्देशक रहे कुंदन ने बाद में अपना गुस्सा पूरी गंभीरता से हंसा-हंसाकर ‘जाने भी दो यारो’ के जरिए निकाला। 1983 में दोस्तों की अनूठी कोशिशों और धारा के उलट बनी इस व्यंग्य विनोद प्रधान फ़िल्म ने समय के साथ बहुत अलग मुकाम फ़िल्म इतिहास में पा लिया है। इसकी पूरी प्रक्रिया और यात्रा के बारे में फ़िल्म ब्लॉगर जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब में काफी विस्तार से लिखा है। अब 32 साल होने को आ रहे हैं, कुंदन शाह अभी भी गुस्से में हैं।

उनकी नई फ़िल्म है ‘पी से पीएम तक’। इसमें मीनाक्षी दीक्षित नाम की अभिनेत्री ने एक ऐसी वेश्या की भूमिका निभाई है जो प्रधान मंत्री पद का चुनाव लड़ने तक का सफर करती है। फ़िल्म शुक्रवार को रिलीज हो चुकी है। केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड ने फ़िल्म में से उन चर्चित नामों को हटा दिया है जिन पर व्यंग्य किया या नहीं किया गया था। जैसे, सलमान खान, जयललिता और सुब्रत रॉय। लेकिन अथक प्रयास के बाद फ़िल्म आ गई है। इस राजनीतिक व्यंग्य के बारे में कुंदन का अनुरोध है कि दिमाग लगाकर देखें। ट्रेलर देखकर लगता है कि ‘जाने भी..’ की तरह इस फ़िल्म की बुनियादी बात भी संभवत: अभी लोग अपनी हंसी में ही उड़ा देंगे। खेदजनक है। उन जैसे निर्देशकों की हमें जरूरत है।

कुंदन ने बीते तीन दशकों में और भी उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने ‘नुक्कड़’ (1986), ‘वागले की दुनिया’ (1988), ‘परसाई कहते हैं’ (2006) जैसे धारावाहिक बनाए हैं जो बेहद सार्थक रहे हैं। वे विधु विनोद चोपड़ा की 1985 में आई गंभीर फ़िल्म ‘ख़ामोश’ की लेखन और निर्देशन टीम का हिस्सा भी रहे। शाहरुख खान को लेकर उन्होंने 1993 में ‘कभी हां कभी ना’ जैसी फ़िल्म बनाई। वो शाहरुख की संभवत: अकेली फ़िल्म है जिसमें हीरो होते हुए भी अंत में वे हार जाते हैं। ‘क्या कहना’, ‘दिल है तुम्हारा’, ‘हम तो मोहब्बत करेगा’, ‘एक से बढ़कर एक’, ‘तीन बहनें’ कुंदन द्वारा निर्देशित अन्य फिल्में हैं।

उनसे बातचीत:

‘पी से पीएम तक’ बनाने की जरूरत कब महसूस हुई?
20 साल हो गए।

कहां से पनपा आइडिया?
देखिए मेरी सारी कहानियां न्यूज़पेपर्स से आती हैं। आप पढ़ते हैं, गुस्सा आ जाता है। एक आइडिया आया था कि जो ये पूरा पॉलिटिकल माहौल है, उसको कैसे बताया जाए? अचानक आइडिया आया कि प्रॉस्टिट्यूट (वेश्या) के किरदार को एक मेटाफर (रूपक) के तौर पर यूज़ करते हैं। कैसे वो एक बायइलेक्शन (उपचुनाव) में फंस जाती है और चार दिन में चीफ मिनिस्टर बन जाती है। उपचुनाव के चक्रव्यूह में कुछ ऐसी-ऐसी चीजें हो जाती हैं। उसे चीफ मिनिस्टर नहीं बनना है, न ही पॉलिटिक्स जॉइन करना है लेकिन कैसे वो बन जाती है। आगे की पीएम बनने की उसकी जर्नी क्या होती है। हालांकि वो पीएम बनती नहीं है।

20 साल तक अपने मूल किस्से को संजो कर रखना मुश्किल नहीं था?
मैंने कुछ सात साल पहले एक लाइन लिखी थी। दो पॉलिटिशियंस डिसकस कर रहे हैं कि “ये तो बहुत बड़ा झूठ होगा”। दूसरा बोला, “तो क्या हुआ, झूठ बोलो, सरेआम बोलो, छाती ठोक कर बोलो। लेकिन ऐसे बोलो कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं”। यही आज की राजनीति है। मेरे ख़याल से वो आज भी वैलिड है। आप एक चीज का एसेंस (मूल तत्व) पकड़ते हैं, पर्सनैलिटी को नहीं पकड़ते हैं। जो एसेंस है आपके आसपास का वो स्क्रिप्ट को जिंदा रखता है। मैंने जब लिखी 1995 में तब ‘सेज’ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) का मामला गरम था। फिर वो मेरे ख़याल से ठंडा हो गया। अब वापस गरम हो रहा है। तो क्या है कि वो चीज बनी रहती है।

ये बड़ा अचरज है कि हम तीन घंटे की फ़िल्म देखते हैं या पांच मिनट की कहानी सुनते है फिर आगे बढ़ जाते हैं नई चीज कंज्यूम करने। लेकिन आप अपनी स्क्रिप्ट के साथ इतना लंबा वक्त बिताते हैं, रात बिताते हैं, दिन बिताते हैं। वो फीलिंग क्या होती है, अरुचि या कुछ और? क्यों जुड़े रहते हैं?
मैंने इसे लिखने के बीच में दूसरी फ़िल्में भी बनाईं। लेकिन उसका जो बर्थ आइडिया था वो 20 साल पहले का था। क्या होता है, आइडिया एक्साइटिंग रहता है तो आप उसपे काम करते रहते हैं। आप सोचते हैं। कभी बनाने का मौका मिलता है। क्योंकि मेरे हिसाब से ये यूनीक आइडिया है वर्ल्ड सिनेमा में कि एक प्रॉस्टिट्यूट जिसको कुछ लेना-देना नहीं है, वो बेचारी, उसके अड्डे पे रेड हो जाती है तो वो भागती है। कोई और शहर में जाती है और वहां एक बायइलेक्शन होता है और वहां वो फंस जाती है। और चार दिन में सीएम बन जाती है। तो ये जो प्रिमाइज (आधार) है वो इतना एबसर्ड (अजीब) है, इतना इललॉजिकल (अतार्किक) है, इतना इंट्रेस्टिंग है कि आपको वो अलाइव (जिंदा) रखता है। जैसे आपने जैन डायरीज (हवाला केस) के बारे में सुना होगा। जो एक डायरी मिली थी मि. जैन की जिसमें लिखा था कि किसको कितना पैसा दिया गया है। तो उसपे एक आइडिया आया। फ़िल्म जब बनेगी तब बनेगी। कि मि. जैन को पकड़ लिया है और वो हैलीकॉप्टर में है। उसे बोला जाता है कि कैसे भी साक्ष्य नष्ट कर दो। तो वो डायरी उठा के फेंक देते हैं। वो जाके एक खेत में गिरती है। वो न जाने कौन सा खेत है, न जाने कौन सा ट्राइबल एरिया है वहां जाकर गिरती है। और अब सब लोग उस डायरी को ढूंढ़ रहे हैं। तो इस तरह के आइडिया आप लेते हैं और वो आपको एक्साइट करते रहते हैं। उसको अपनी वास्तविकता से जोड़ते हैं।

ऐसे जितने भी पॉलिटिकल घपले हैं, इस हिसाब से देखें तो आपके पास स्टोरीज़ अनाप-शनाप हो सकती हैं?
बहुत हैं बहुत।

भारत के राजनीतिज्ञों ने इतना क्रिएटिव कंटेंट रखा हुआ है.. 
(खिलखिलाते हैं) बिलकुल। ..

आपके लिए बड़ी दुविधा होती होगी कि किसको उठाएं और किसको छोड़ें। ऐसा कभी होता है?
अभी आपको एक और आइडिया सुनाता हूं। हजारों आइडियाज़ हैं। एक आदमी है उसका एक्सीडेंट हो जाता है। दो एक्सीडेंट होते हैं अलग-अलग अंतराल में। उसकी याद्दाश्त चली गई है। उन दो एक्सीडेंट के बीच अंतर है वो तीन महीना है, छह महीना है या तीन साल है। वो दूसरे एक्सीडेंट से उठता है। पहला एक्सीडेंट हुआ उससे पहले वो फक्कड़ था और अब उसके पास 300 करोड़ है। लेकिन उसके पास 300 करोड़ आया कहां से। लोग उसके आस-पास घूम रहे हैं और उसको कुछ याद नहीं है। अब वो पता कर रहा है कि उसके पास 300 करोड़ कहां से आया। और ये उसकी अपनी गिल्ट (अपराधबोध) की यात्रा है। वो रिवर्स है “हार्ट ऑफ डार्कनेस” (जोसेफ कॉनराड की 1899 में प्रकाशित कहानी, जिस पर 1979 में फ्रांसिस फोर्ड कोपोला ने “अपोकलिप्स नाओ” बनाई) का। उसकी जरा सी याद्दाश्त आए बगैर भी स्क्रीनप्ले पूरा है। तो आइडिया आते हैं। मेरी सारी फ़िल्में न्यूज़पेपर्स से ही आती हैं। ‘जाने भी दो यारो’ से लेकर, ‘थ्री सिस्टर्स’ (तीन बहनें) है, ‘क्या कहना’ है। वहां भी मैंने कुछ न्यूजपेपर्स से लिया था।

पिछली बात हिमांशु शर्मा से हुई थी। उनसे पूछा कि सुबह अखबार पढ़ते हैं या ऑनलाइन खबरें टटोलते हैं तो दिल्ली में बाघ के बाड़े में गिरा आदमी, नेट न्यूट्रैलिटी, राडिया टेप्स, घपले.. इन खबरों पर आपके भीतर का लेखक कैसे रिएक्ट करता है। उन्होंने कहा कि वे एक लेखक के तौर पर इन खबरों को नहीं देखते, एक इंसान या नागरिक के तौर पर देखते हैं।
जहां तक मैं अपने आपको देखता हूं, एक आर्टिस्ट के तौर पर मैं रिएलिटी से इतना जुड़ा हूं कि हमारी जिंदगी में ये सारी चीजें आ जाती हैं। कॉरपोरेटाइजेशन, उसके विक्टिम कहें, फायदे कहो.. हर चीज आ जाती है। आप समझ रहे हैं न। ‘प्यासा’ (1957) का एंड में जो है.. गुरुदत्त बोलता है, “तुम चलोगी मेरे साथ”? या ‘प्रतिद्वंदी’ (1970) सत्यजीत रे का जो गांव चला जाता है। लेकिन आज आप गांव नहीं जा सकते। वहां की भी सच्चाई वही है जो शहर की है। आप भाग नहीं सकते, आपकी जो हकीकत है उससे।

इतनी निराश करने वाली, असल खबरें आप सोचते हैं कि आदमी का पागल होना तय है, उसके बावजूद आप बनाते कॉमेडीज़ हैं।
‘पी से पीएम तक’ का कंटेंट जितना ब्लैक है, उसकी ट्रीटमेंट उतनी ही ब्राइट है। वो संतुलित ऐसे किया है। क्योंकि मेरे पास एक ही हथियार है.. वो है कॉमेडी। उस कॉमेडी को यूज़ करके, सटायर को यूज़ करके आप कैसे वो सबजेक्ट को ऑडियंस के लिए रोचक बना पाते हैं। उसे मजा आए और वो कुछ सोचे। आप जब फ़िल्म देखते हैं तो लोग बोलते हैं अपना दिमाग घर पर रखो, इसमें हम बोलते हैं कि आप प्लीज़ दिमाग अपना लेके आइए। दिमाग से फील कीजिए और दिल से सोचिए।

जैसे मौजूदा सरकार है या अन्यथा भी राजनेताओं के सांप्रदायिक विचार होते हैं.. उसे लेकर बहुत कम कहानियां आती हैं। उस सांप्रदायिक पक्ष पर भी सोचा है आपने पिछले 20 साल में? या ज्यादातर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद पर आपका दिमाग ज्यादा खराब होता है?
क्या होता है न.. आपकी बात सही है.. हर डायरेक्टर की एक पर्सनैलिटी होती है। आपकी बात बिलकुल सही है कि जो सांप्रदायिकता है या जो भी हुआ है। बात सही है। पर ओवरऑल आप वो चीज पकड़ते हैं जो आपको अपील करे। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप उसे लेकर चिंतिंत नहीं हैं या उसके बारे में सोचते नहीं हैं कि जो हो रहा है वो नहीं होना चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर वो सोचना भी चाहिए।

A still from P Se PM Tak.
‘पी से पीएम तक’ की केंद्रीय पात्र वेश्या है। आपने कॉमेडी का सहारा लेते हुए लोगों के सामने एक टिप्पणी करने की कोशिश की है लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जो सबसे आधारभूत दर्शक हमारा है जो किसी भी बात पर हंसने लगता है। ऐसा नहीं है कि वेश्या के किरदार पर वो उस लिहाज से हंसने लगेगा जैसे हमारा समाज उसे अपमानजनक ढंग से देखता ही है। ये डर नहीं कि वो दर्शक व्यंग्य को उल्टा ही ले ले?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। आप अभी उसे बाहर से देख रहे हैं। वो मेरी सूत्रधार है, वो मेरी हीरोइन है हालांकि वो एक प्रॉस्टिट्यूट की भूमिका निभा रही है। देखिए, उसकी लाइफ तो इतनी पाप से भरी हुई है तो क्या कर सकते हैं। और पाप वो नहीं करना चाहती है लेकिन उसे करने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो मेरी सूत्रधार है। उसको इस अंदाज से पेश करना मेरा काम है। जो आप कह रहे हैं उसका सवाल ही नहीं उठता कि ऐसा फील करेंगे लोग।

पॉलिटिकल कॉमेडीज जितनी भी हैं या हिंदी के बेहद काबिल व्यंग्यकारों की लेखनी है, क्या उनका कभी राजनेताओं की मोटी चमड़ी पर कोई असर हुआ है? आपने बीते 30-40 साल में देखा है क्या? प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से?
इनडायरेक्टली तो निश्चित तौर पर होता है। लेकिन क्या होता है कि ये एक स्तर पर ही असर डालता है। अब खाली मैं एक फ़िल्म बना दूं तो उससे समाज बदल नहीं सकता। लेकिन वो मेरा कर्तव्य है कि मैं कुछ बनाऊं जो समाज से जुड़ा हुआ है। और खासतौर पर आज के लिए। आज का सोचते हुए। क्योंकि आज हम इतने जुड़े हैं कि ग्लोबलाइजेशन है, ये है वो है। आप मुझे एक बात समझाइए आप पत्रकार हैं। आपने, हम लोगों ने एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) इंश्योरेंस में बढ़ा दिया है। कितना पर्सेंट बढ़ाया है आपको पता है? बताइए ना...

जी 49 फीसदी कर दिया है..
और कहां से किया। 25 से किया। क्यों किया? क्या है ऐसी चीज इंश्योरेंस जो हमको बाहर की टेक्नोलॉजी देगी? आप मुझे बताएं किसी न्यूजपेपर ने उठाया? आपने रिपोर्टर के तौर पर ये प्रश्न उठाया? क्यों नहीं उठाया है? क्या फायदा है इसमें? जो 25 से 49 पर्सेंट हुआ है वो इंश्योरेंस में क्या चीज है? आप मुझे बताइए ना...

कोई चीज नहीं है..
इंश्योरेंस में आप पैसे लेते हैं सबसे। करोड़ों से लो और हजारों में दो। तो इसमें हमको कौन सी एफडीआई की जरूरत है यार। किसी मिनिस्टर ने, किसी न्यूजपेपर ने ये सवाल उठाया है ये मुझे बताइए..

नहीं उठाया है..
क्यों नहीं उठाया है? क्या आप नहीं समझते ये बात।

समझते हैं..
तो ये देश के लिए हानिकारक है न?

बिलकुल..
तो फिर चुप क्यों रहते हैं? तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं। मेरे कहने का मतलब ये है कि अभी आप नहीं उठा रहे हैं लेकिन एक वर्ग है जो इसकी बहुत भारी तरीके से कीमत चुकाता है। जितना करप्शन हो.. अभी ये मोदी साहब कहते हैं कि नहीं मैं खाऊंगा नहीं, और न खाने दूंगा लेकिन यहां महाराष्ट्र में तो फड़नवीस (देवेंद्र, सीएम) साहब हैं जिन्होंने डीपी (विकास योजना) प्लान ऐसा बनाया है कि यार हमको मुश्किल ही हो जाएगी यार। अगर इतनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनने लगीं, न ही रास्ते हैं, न ही कुछ है, कैसे होने वाला है ये सब। वो सोचते हैं रिएल एस्टेट चलता है तो उससे इकोनॉमी को आगे बढ़ाएंगे। उनका यही सोचना है। इकोनॉमी को फिलिप (प्रोत्साहन) मिले ऐसा वो सोच तो रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। सही क्या सोचना है वो उनको पता नहीं है। शायद। मैं छोटा आदमी हूं। लेकिन मेरा एक ड्यूटी बन गया है कि मैं भी आज इकोनॉमिक्स पढ़ूं। अब मैं लिट्रेचर पढ़ता ही नहीं हूं, अब मैं इकोनॉमिक्स ही पढ़ता हूं। मेरा लाइफ इकोनॉमिक्स से ही संचालित होता है।

आपने अपनी शुरुआती फ़िल्म से लेकर आज तक जो भी बताने की कोशिश की है, चेताने की कोशिश की है, आपको नहीं लगता कि प्रोसेस इतना इर्रिवर्सिबल (न मोड़ा जा सकने वाला) हो गया है बीते सालों में कि अब तो नष्ट होना ही तय है?
इसका जवाब तो देना बहुत मुश्किल है। क्या होता है न.. आपने वो ‘नीरोज़ गेस्ट्स’ डॉक्युमेंट्री देखी है न। पी. साईंनाथ ने जो बनाई है। एक नीरो था। रोमन सम्राट था। इतना अंधाधुंधी थी उसके राज में। तो क्या होता है न कि आप जो हिस्टोरिकल पीरियड देखते हैं ... 1947 में हमको आजादी मिली.. 65 से ज्यादा साल हो गए। लेकिन आपने इतने से वक्त में पूरी मानवता का समझ लिया है कि हम समझ ही नहीं सकते? हिंदुस्तान में वही हो रहा है जो पूरे विश्व में हो रहा है। हम ये मान लेते हैं जो इतने साल में है वो बदल ही नहीं सकता। कि ये तो खराब होगा और। आप यही सोच रहे हैं ना..

जी..
ऐसा आर्टिस्ट नहीं सोचता। वो पूरा हिस्टोरिकल दृष्टिकोण में सोचता है न। 65 साल को आप बोलते हैं कि ये ही सच है। और तो कोई सच ही नहीं है, बस ये ही है। ऐसा ही होगा। कम्युनल ही होंगे। लोग मरेंगे। करप्शन होगा। तो अभी मैं क्या जवाब दूंगा? इसकी कीमत कोई न कोई तो चुका रहा है न। जब आपको पांच करोड़ की रिश्वत मिलती है, ओवरऑल इकोनॉमी में किसी से तो पांच करोड़ छिन रहे हैं न.. जो आपको ऐसे ही मिल गए। तो कोई तो तबका होगा जो इसकी प्राइस पे कर रहा है। इसकी कीमत अदा कर रहा है। आप समझ रहे हैं न। एक आर्टिस्ट के तौर पर हम तो ऐसे ही सोचेंगे न।

लेकिन आपके इतना पॉजिटिव होने की क्या वजह है .. कि अंततः चीजें हो सकता है ठीक हो जाएं।
अब मैं आपको उल्टा बात बोलूं? मैं टेलीविजन पर इतनी बार सुन रहा हूं कि अगर हम चेंज नहीं लाएंगे तो the country is driving for a revolution आपने सुना है ये। एम. जे. अकबर ने बोला है।

जी.. जो बीजेपी में आ गए हैं अब।
अब बीजेपी है या जो भी है, थोड़ा अकल वाला आदमी है। उसका लैंड एक्विजिशन (भूमि अधिग्रहण) के बारे में ये कहना था कि भई चलो हम आगे बढ़ते हैं, यार इंडस्ट्री को डालते हैं लेकिन वो जब बोलते हैं तो उसका मतलब क्या होता है। जब आदमी के पास रोटी नहीं रहेगी, कुछ नहीं रहेगा तो वो करेगा क्या। वो न्यूज़पेपर में नहीं आता है इतना। वो क्यूं बोल रहे हैं कि रेवोल्यूशन आएगा? किस आधार पर बोल रहे हैं?

जी..
नहीं नहीं वो क्या न्यूज़पेपर पढ़ के बोल रहे हैं?

वैसे वो न्यूज़ बिजनेस में ही हैं तो उस हिसाब से बोल रहे हैं
वो वो बोल रहे हैं जो न्यूज़ में नहीं आता है पर हकीकत है।

मैं यही तो बोल रहा हूं कि जब न्यूज में चीजें छप नहीं रहीं..
नहीं नहीं, आप हमसे ये हक मत छीनो कि हम क्या बोल सकते हैं या मॉरल स्टैंड लेना है या वैल्यू की बात ही करनी है।

नहीं नहीं मैं...
नहीं नहीं। आप मुझे टटोल रहे हैं तो मैं कहता हूं कि आज ऑनेस्ट रहना एक बहुत बड़ी लग्जरी है। अखबारों के मालिक कोल माइंस डालते हैं तो कॉरपोरेटाइजेशन से जुड़े हुए हैं न, उन चीजों से? क्या आप अपनी नौकरी छोड़ दोगे? अगर आप अवेयर हैं तो वही है। फ़िल्म आपको जागरूक करना चाहती है। कि भई हम ऐसे हैं तो क्या किया जाए? कैसे करें इसको?

मैं पूछता हूं ताकि या तो आशा मिल जाए या निराशा मिल जाए। क्योंकि सबसे जरूरी खबरें आज दबी हैं और जो नॉन-इश्यू है वो...
हां, अभी आप ही बोल रहे हैं...

मैं खुद बोल रहा हूं
जब हम न्यूज़पेपर पढ़ते हैं तो ये पढ़ते हैं कि लाइन्स के बीच में क्या है। तो लाइन्स के बीच में हमें तो हकीकत मिलने वाली नहीं है।

देखिए अन्य अखबारों की तो बात नहीं कर रहा लेकिन जैसे द हिंदु है। द इंडियन एक्सप्रेस है। द हिंदु में सबसे भरोसेमंद चेहरे थे वो चले गए। तीन-चार जो बेहद विश्वसनीय थे..
पी. साईंनाथ..

..उन्होंने, सिद्धार्थ वरदराजन ने। ऐसे कई लोगों ने ने छोड़ दिया..

करेक्ट

..वो कहते हैं कि अब प्रेस रिलीज बेस्ड हो गया है सारा। और प्रेस रिलीज ही लगानी है तो हमारी क्या जरूरत है। 8 रुपया 9 रुपया देकर भी द हिंदु मंगाने को तैयार हैं, दो रुपये का अखबार छोड़ के। इंडियन एक्सप्रेस में भी चीजें बदल चुकी हैं।
सही बात है आपकी लेकिन पी. साईंनाथ तो नहीं बदल गया है न।

वैकल्पिक मंच पर आ गए हैं
यार वो क्या है न, एक लग्जरी है मैं मानता हूं। लेकिन हम 70 साल को पूरी दुनिया के ये नहीं कह सकते कि ये ही सच्चाई है। आज की सच्चाई भी यही है और कल की सच्चाई भी यही रहेगी, ये सोचना गलत है।

उस संदर्भ में आप कह रहे हैं कि जैसे पूरी दुनिया हजारों साल से है तो हजारों बार उतार-चढ़ाव का चक्र रहा है.. ये प्रक्रियाएं रही हैं..
जब आफत आती है तो आप सोचते हैं लेकिन.. । मैं ये नहीं बोलता हूं कि नया सूरज उगेगा.. कम्युनिस्ट बातें नहीं कह रहा हूं लेकिन हम एक डार्क पीरियड को बोलते हैं कि यही सच्चाई है तो गड़बड़ हो जाते हैं। तो हम तो यही मानते हैं और कोशिश कर रहे हैं। एक नई चीज सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। और क्या कर सकता है आदमी। हमारे पास एक ही हथियार है ऑडियंस तक पहुंचने का वो है कॉमेडी।

पारंपरिक राजनीतिक दलों को लेकर व्यंग्य और उनकी हंसी-किरकिरी हम हमेशा देखते आए हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी की बात करें तो आप कैसे लेते हैं दो साल में इनकी मेकिंग...
आम आदमी पार्टी ने जो संसद व विधायी सीटें जीतीं वो आम आदमी पार्टी की जीत नहीं है, वो किसकी जीत है आप मुझे बताइए ना? वो लोगों की जीत है। पीपल। लोग। लोगों की जीत है। वो (पार्टी) फेल हुए, उन्होंने (लोगों) बोला “हम एक और चांस देंगे। आप ऑनेस्ट रहिए, पांच साल में कुछ मत करिए हम समझेंगे, लगेगा कोई और नहीं है तो हम आपको ही रखेंगे”। देखिए जनता ने कितना साफ-साफ बताया है यार। और न ही उसमें किसी ने मुसलमान के तौर पर वोट किया, न ही उसमें ईसाई के तौर पर किया, न ही उसमें सिख के तौर पर किसी ने वोट किया। Aam Aadmi is not Kejriwal alone, या प्रशांत भूषण या जो भी है। Aam Aadmi is the people yaar.. क्या.. क्या तमाचा मारा है यार लोगों ने? तो जीत लोगों की होनी चाहिए न? आपको एक उत्साह होना चाहिए, एक बहुत बड़ी आशा होनी चाहिए। हम समझते हैं बदलाव नहीं होगा, अब ये बीजेपी हिल गई न? नहीं, बीजेपी हिल गई या नहीं? और सब लोगों को सच्चाई मालूम पड़ गई क्योंकि लोग सच के साथ हैं। बहुत मुश्किल हो गया है यार लोगों के लिए। पानी टैंकर से आता है। माफिया है। ये लोग कैसे जिएंगे यार। हमारा जो वॉचमैन है वो पूछता है आज मोदी साहब ने क्या कहा? मोदी साहब उसके लिए खुदा बन गए हैं। मोदी हो या जो भी हो आप समझ रहे हैं न। कब वो आदमी ऐसा सवाल करता है जब बिचारा गिरा हुआ है।

Ravi Baswani as Sudhir & Naseer as Vinod in the film.
32 साल पहले सुधीर-विनोद हारे थे, तरनेजा-आहूजा जीते थे? अब 2015 में आपके जेहन में समाज कैसा है? वो ही लोग जीत रहे हैं, वो ही लोग हार रहे हैं?
तब क्या है, मैं नहीं कहता कि करप्शन अपवाद था। लेकिन अभी तो सब माहौल ही बदल गया है। ये फ़िल्म (जाने भी दो यारो) से बहुत-बहुत ज्यादा ब्लैक है। जो हम कहना चाहते थे तब वो बहुत ब्लैक था लेकिन अब तो आप बात करेंगे तो लोग आपका टेबल छोड़कर चले जाएंगे। वैल्यू की बात करते हैं लोग टेबल छोड़कर चले जाते हैं। कहते हैं, इस आदमी से क्या बात करें। आप समझ रहे हैं? आप समझ रहे हैं?

जी..
क्योंकि सब समझ रहे हैं, ऐसा ये 70 साल में हो गया तो अब वही चलेगा। मेरे ख़याल से ऐसा नहीं है। ये भी कि टेक्नोलॉजी अपना बदलाव ला रही है। अभी वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है जिससे बहुत बड़ा धक्का आने वाला है। ऑटोमेशन है। रोबोटिक्स है। उससे बिचारा वर्कर और भी रिडंडेंट (बेकार) हो जाएगा। तो जब तक उसके लिए चारा (रास्ता) और नहीं बनेगा तो ये समस्या है बहुत। भई, टेक्नोलॉजी अपने लेवल पर चलेगी। टेक्नोलॉजी को आप रोक नहीं सकते। देखो, इकोनॉमिक्स टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है। टेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स फ़िल्म से जुड़ा हुआ है। उससे वो जो फ़िल्म बनाता है वो जुड़ा हुआ है। आज की तारीख में हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वो ये फ़िल्म दिखा रही है। मुझे ये लगता है।

‘जाने भी दो यारो’ में हम बात करते हैं बिल्डर-राजनेता-पुलिस की आपराधिक गुटबंदी की। शहरी बसावट की बात करते हैं जो तेजी से बदल रही है। फ्लाइओवर बन रहा है। आर्थिक असमानता है। ईमानदारी कितनी मुश्किल है, बेईमानी कितनी आसान है। सिहर जाते हैं वो सब देख कर। हम जब इसे बता रहे हैं तो क्या ये इतना अनिवार्य है हम हंसा कर ही बताएं? क्योंकि जिस पर बीतती है उससे मिलकर जानें कि कितना क्रूर है मामला उसके साथ। मैं इसे गलत नहीं कह रहा लेकिन क्या ये दर्शक बहुत घमंडी है जो कहता है I don’t care? मैंने पैसा दिया है मुझे हंसा के ही ये चीज बताओ? जबकि उसी के काम की चीज बताई जा रही है।
 आपका सवाल बहुत वैलिड है लेकिन क्या होता है न कि अभी.. ये आपका सवाल बहुत ही वैलिड है.. पर आप ये सवाल पूछिए कि आपका न्यूज़पेपर ये काम क्यों नहीं करता? क्यों ये सवाल नहीं उठाता? आपका टेलीविजन ये क्यों नहीं करता? आपकी गवर्नमेंट ये क्यों नहीं करती? आपके मंत्री ये क्यों नहीं करते? तो क्या होता है न हम भी इन सबसे जुड़े हुए हैं। अगर ये पाबंदियां न होतीं तो शायद हम अपना एक्सप्रेशन बदल देते। आप ये कहना चाहते हैं कि क्यों डायरेक्ट नहीं हो सकते? क्यों ये एजिटेटेड प्रोपोगैंडा (गुस्सैल रवैया) आप नहीं कर सकते। एजिटेटेड हैं ना कि चेंज आना चाहिए? उसके लिए क्या करना चाहिए? सही है आपका सवाल। डॉक्युमेंट्री भी ऐसी बनती हैं। लेकिन जब आप फ़िल्म बनाते हैं तो अलग होता है। आप उसमें इतना पैसा खर्च करते हैं तो आपको वायेबल (व्यावहारिक) होना है। लोगों तक बात पहुंचानी है। .. डॉक्युमेंट्री आप फ्री में दिखाएंगे टेलीविजन पे। अगर फ़िल्म फ्री में दिखाएंगे तो मैं बना दूंगा ऐसी फ़िल्म।

‘जाने भी दो यारो’ के समय में कॉमेडी जो थी और लोगों ने खुद को जैसे एंटरटेन किया उससे, आज के दर्शक उस कॉमिक सेंस को उतनी ही ताजगी से लेंगे या उनमें कोई बदलाव 20-30 साल में आप पाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। ये सवाल, सवाल ही नहीं है। ऑडियंस हर चीज के लिए है भाई। जहां आप सच्चाई की बात करेंगे वहां ऑडियंस क्यों नहीं होगी? आप ये सोचते हैं कि जो डेविड धवन का दर्शक है वो ही आपकी फ़िल्म देखने आएगा? क्यों आप ऐसा मान लेते हैं? या ऐसा क्यों सोचते हैं कि जो डेविड धवन की फ़िल्म देख रहे हैं वो आपकी फ़िल्म देखकर एंजॉय नहीं कर सकते? सबसे प्योर चीज है ऑडियंस। अगर आपकी फ़िल्म फ्लॉप होती है किसी कारणवश। मैं ये नहीं कर रहा हूं कि हमेशा फ़िल्म खराब है इसलिए फ्लॉप होती है। लेकिन ऑडियंस बहुत प्योर होती है। वो बिचारी पैइसा देकर आती है तो वो करेगी वो। बहुत सी फ़िल्में हैं जो चलती हैं, बहुत सी फ़िल्में हैं तो तारीफ पाती हैं। अलग-अलग कारणों से।

अगर मैं गोविंदा की फ़िल्में देखकर हंसा, आपकी देखकर हंसा लेकिन जो घर के युवा बच्चे हैं उनका कॉमेडी को लेकर नया टेस्ट ऐसा है कि शायद हमें इस कंटेंट के लिए हेय दृष्टि से देखे। कि इतनी प्रिटेंशस चीजें आप क्यों देख रहे हो?
नहीं नहीं। वो बच्चे एंजॉय करेंगे। इन फैक्ट आज का स्टैंडर्ड मापने का पैमाना ‘सब टीवी’ हो गया है। SAB TV is becoming the definition of humor.. तो वो बहुत मुश्किल है न। कॉमेडी कॉमेडी होती है। वहां ‘सब टीवी’ तो आपको ठूंस रहा है। आपके मुंह के अंदर वो ठूंस रहा है। कि लो लो लो, ये कॉमेडी है। एक वीक में वो आपको छह बार वो प्रोग्राम दिखाते हैं। और ऐसे आठ प्रोग्राम रोज दिखाते हैं। बोलते हैं ये हम कॉमेडी कर रहे हैं आप हंसो। तो अभी क्या, ऑडियंस वही लेती है जो उनको मिलता है।

जैसे केले के छिलके पर फिसलकर कोई गिरता था तो उस पर हम हंसते थे? आज फ़िल्म में ऐसे दृश्य काम करेंगे? दूसरों के दुख का हमारा मनोरंजन हो जाना, क्या अब भी है?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। एक चीज रिपीट होगी तो वो काम नहीं करेगी। उसको अलग लेवल पे यूज़ करेंगे। अभी जब केले के छिलके का जिक्र ही कर दिया है तो मेरी फ़िल्म में (पी से पीएम तक) केले के छिलके हैं (खिलखिलाते हैं)।

मुझे नहीं पता था..
हां, मैंने यूज़ किए हैं छिलके। अभी वो अच्छे लगें, नहीं लगे वो मुझे नहीं मालूम। अलग तरीके से किया है। किसी को मजा आया तो ठीक है नहीं तो हम गलत है। ... अब जैसे परसाई (हरिशंकर) है। क्या परसाई को आज पढ़कर नहीं एंजॉय कर सकते। वो आज भी इतने वैलिड हैं यार। मुझे दूरदर्शन ने बोला था आप परसाई पर एक सीरियल बनाओ। तेरह कहानियां। उसमें एक कहानी में है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट घोषणा करता है जो भी राशन ब्लैक में रखेगा, जमा करेगा, उस पर हम छापा मारेंगे। तो परसाई जी का कैरेक्टर जाता है डीएम के पास और बोलता है सर ये आदमी है, इसने इतना माल अपने गोदाम में रखा है आप रेड कीजिए। बोले, “वैरी गुड, गुड इनफॉर्मेशन”। उसे बाद में मालूम चलता है कि गोदाम वाले को उन्होंने नोटिस भेजी है, “कि भई हमें खबर मिली है कि आपने इतना माल रखा है क्या ये सही है”? परसाई का किरदार बोला, “ये आप क्या कर रहे हो। माल हटा देगा वो”। तो डीएम बोलता है, “नहीं नहीं हमको तो प्रोसीजर से जाना पड़ेगा न”। तो अभी मुझे बताओ ये कैसे हो रहा है? ये दोबारा हो रहा है आपकी जिंदगी में। आप पत्रकार हैं मुझे बताइए कौन कर रहा है और कहां हो रहा है। मुझे बताइए..। फेल हो जाएंगे आप..

अ..
रोज आ रहा है यार। तो आप क्या पेपर पढ़ते हैं!

नहीं पढ़ता जी..
ये है ब्लैक मनी का। हम रेड कर देंगे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे। ये परसाई सामने आ रहे हैं आपके। आ रहे हैं कि नहीं? वो जेटली (अरुण) परसाई बन रहे है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। हंसी नहीं आती आपको? वो रोज बोल रहे हैं “हम ये कर देंगे.. उसके पास ब्लैक मनी है हम ऐसा करेंगे”। ये सब तुम ऐसे ही बोल रहे हो। कोई जेल नहीं जाएगा। कोई कुछ नहीं होगा। ये कॉन्ग्रेस को बोलते हैं क्रोनी कैपिटलिस्ट थी तो ये कौन से कम हैं यार। अभी पब्लिक को थोड़ा झांसे में रखना है तो अपने-अपने लेवल पर कर रहे हैं। उनका ये ... कौन सा स्वच्छ भारत हो रहा है डेढ़ साल में @#$*...

कुछ नहीं हुआ..
कुछ नहीं हुआ है एक साल में.. 2019-20 तक कर देगा क्या वो? बोलते हैं न कि सपने देखने में क्या बुराई है। मोदी जी तो यही बोलेंगे। कौन स्वच्छ.. पहले स्वच्छ दिमाग करो यार। ..खैर, फ़िल्म पर आते हैं। हमने दिल से बनाई है और ऑडियंस से कहते हैं कि प्लीज़ दिमाग साथ में लेकर आइए। हमारा मानना है कि जब थियेटर से बाहर जाएंगे तो फ़िल्म आपके साथ जाएगी। हमने कोशिश की है। एक बहुत छोटी फ़िल्म है। हमारे पास न ही स्टार हैं, न ही कुछ है। खाली कॉमेडी है, एक ही हथियार। आप आके देखिए क्या है। अरे प्रॉस्टिट्यूट को इसलिए सलेक्ट किया है कि वो हमारे समाज के सबसे नीचे के तबके की है। एकदम नीचे की है। जबकि पॉलिटिशियन कितने गंदे हैं ये दिखाने के लिए फ़िल्म है। रूपक के स्तर पर इस्तेमाल किया है। और वो प्रॉस्टिट्यूट है उसकी ट्रैजेडी है, क्योंकि हर प्रॉस्टिट्यूट की एक ट्रैजेडी है। उसके जीवन में इतना दुख भरा हुआ है। क्योंकि पॉलिटिकल मेटाफर यूज़ कर रहे हैं तो उससे कॉमेडी करवाई है, उससे स्लैपस्टिक करवाई है। और ट्रीटमेंट टोटल ब्राइट है। जितनी उसकी लाइफ डार्क है, जितना उसका सबजैक्ट डार्क है, जो हम कहना चाहते हैं डार्क है, उसी को दिखाने की कोशिश की है दोस्त।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखने गया था। दस मिनट हुए थे शुरू हुए। मेरे पास दो युवक बैठे थे। तभी टिकट वाला आया। छह-सात औरतों और बच्चों की सीटें दिखा रहा था। उसने उन लड़कों से कहा, “तुम अपने टिकट दिखाओ”। वो कहते हैं “तुमसे पहले एक आदमी था, उसने बोला था टिकट उसे दिखा दी, उसने हमको बिठा दिया”। तो उसने कहा “दोबारा दिखाओ मैं नया आदमी हूं अभी आया हूं”। तो टिकट वो धीरे-धीरे निकाल रहे थे। उसने पूछा “तुम कौन सी फ़िल्म देखने आए हो, तो कहते हैं हमको तो गब्बर देखनी है”। उसने कहा, “गब्बर देखनी है तो तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में क्यों बैठा है दस मिनट हो गए तेरा अक्षय कुमार दिखा क्या?”
(खिलखिलाते हैं)...

चौंक गया अपने साथी दर्शकों को देखकर ...
नहीं नहीं, इसमें सबको मत गिनो। एक अलग वाकया सबको डिफाइन नहीं करता। लेकिन अच्छा है ये वाकया अच्छा है। (हंसते हैं)

लेकिन फ़िल्मों से इतर भी हालात बहुत निराशाजनक हैं
नहीं, नहीं ठीक होगा। यहां मुंबई में तो हालात बहुत ही खराब हैं। मैं एक किस्सा बताता हूं। जब निर्भया वाला मामला हुआ तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक खबर छापी कि वडाला में – वडाला हमारा बंबई में एक सबर्ब है, जैसे बांद्रा है वैसे वडाला है – वहां एक लड़का और लड़की बस में ट्रैवल कर रहे थे। लड़के और लड़की में कुछ अनबन हो गई और लड़की नीचे उतर गई। पता नहीं वो बॉयफ्रेंड- गर्लफ्रेंड थे या दोस्त थे कॉलेज के .. वो बात मायने नहीं रखती .. तो लड़का उसके पीछे जा रहा था उसको मनाने के लिए। आगे पांच लोग खड़े थे। पांच लोग खड़े थे और वो देख रहे थे। वो लड़की को देख रहे हैं, फिर बोल रहे हैं.. “मान जा मान जा, हम भी तो खड़े हैं लाइन में, कमी है तो सिर्फ एक सरिए की”। ………..आप सुन रहे हैं।

…सुन रहा हूं बिलकुल सुन रहा हूं
“कमी है तो…” …ये लोग में इतनी सिकनेस (बीमारी) कैसे पैदा हो गई? आपने देखी निर्भया पर (लेस्ली उडविन की डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाज़ डॉटर’).. आपको लिखना चाहिए उस पर। वो फ़िल्म सब स्कूल में दिखानी चाहिए ये मेरा मानना है। बैन कर दी गवर्नमेंट ने। लेकिन उसमें सबसे समझ वाली बात उस साइकेट्रिस्ट ने कही है। वो बोल रहा है कि यार ये लोग सिक नहीं हैं मेंटली, ये लोग एंटी-सोशल लोग हैं। ये जहां रहते हैं वहां औरतों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है। नॉट एग्जैक्टली ये.. पर वो जो देखते हैं वैसे ही ट्रीट करते हैं वो लोग एंटी सोशल हैं। वो जो साइकेट्रिस्ट ने बात कही वो किसी न नहीं छापी। ये क्राइम भी सामाजिक वजहों से आ जाता है। एक हर्ष मंदर का आर्टिकल आया था जब निर्भया का केस चल रहा था कि Who are these boys who did this? और ये डॉक्युमेंट्री कुछ तीन दृष्टिकोण से बताती है। कि बिचारी वो लड़की.. वो तो बहुत बड़ी ट्रैजेडी ही है यार। लेकिन क्यों हुआ ये? आप फांसी दे देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे.. उससे क्या। यार क्यों करते हैं लोग वो आप नहीं सोचते। “करेंगे तो हम मारेंगे..” ये सोचते हैं। क्राइम क्यों हो रहा है ये तो कहेंगे तो फंस जाएंगे क्योंकि इसमें फिर समाज को सुधारना पड़ेगा खुद को सुधारना पड़ेगा गवर्नमेंट को बहुत काम करना पड़ेगा। तो गवर्नमेंट छोटा काम कर देती है और चलो।

यहीं पर फ़िल्मों के लिए मन में बहुत सम्मान होता है। जैसे ‘आशीर्वाद’ (1968) फ़िल्म आपने देखी होगी अशोक कुमार की...
हां देखी है.. एक और फ़िल्म बनाई थी ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘सत्यकाम’। वो फ़िल्म देखकर मेरे दोस्त (रंजित कपूर, ‘जाने भी दो यारो’ के सह-लेखक) की जिंदगी बदल गई। वो क्राइम करने जा रहा था, उसको वो फ़िल्म देखनी ही नहीं थी उसको कोई एंटरटेनमेंट वाली देखनी थी। पर वो फ़िल्म देखी उसने तो बोला “ये मैं क्या करने जा रहा हूं?” पिक्चर देखके उसने रास्ता बदल लिया। और जब ऋषिकेश मुखर्जी को सालों बाद पता चला कि एक आदमी ने अपनी जिंदगी का रास्ता बदल लिया तो वो इतने खुश हो गए कि मैं क्या बताऊं आपको। और मेरा दोस्त इसके बाद ही फ़िल्म इंडस्ट्री में आया। तो आप सोचिए ...

आप देखिए ‘आशीर्वाद’ कितनी अकल देती है। उसमें प्रांगण में खुले घूमते या अन्यथा कैदियों के बारे में जेलर (अभि भट्टाचार्य) और डॉक्टर (संजीव कुमार) जैसे पात्र विचार रखते हैं कि वे कोई शेर भालू हैं जो पिंजरे में बंद रखे जाएं। जेल के बारे में ये ही तो भ्रांति है। जैसे शरीर के रोगों के लिए अस्पताल है, वैसे ही मानसिक बीमारी के लिए जेल है। आदमी यहां आता है ताकि समाज और परिवार से दूर अपने साथ एकांत में वक्त बिता सके और फिर समाज में लौट सके। कितनी सार्थक-सुलझी सोच देकर जाने वाले थे हमारे फ़िल्मकार...
ऐसी फ़िल्में बनना बहुत जरूरी है। जैसे देखो, एक शरीर को ख़ुराक़ चाहिए, रोटी चाहिए, दाल चाहिए। वैसे भी दिमाग को भी कुछ तो चाहिए न ख़ुराक़। तो ऐसी फ़िल्में बनना जरूरी है। ऐसे न्यूजपेपर की जरूरत है, ऐसे लोगों की जरूरत है। बहुत से लोग बिचारे काम कर रहे हैं यार। अब हम भी एक हैं यार। तुम बोलोगे बदलाव नहीं आया तो नहीं आया यार। कोशिश तो करते हैं।

 आप किसपे लिखते हैं? की-बोर्ड पर या पेन से?
अरे साब मैं बहुत फास्ट टाइपिस्ट हूं। मेरे पिताजी ने बोला था, “टाइपिंग सीखो भूखे नहीं मरोगे”। तब उस जमाने में सीखा। अब भी मैं हिंदी में भी टाइप करता हूं दोनों हाथों की पांचों अंगुलियों से। अच्छा टाइपिस्ट हूं। अच्छी स्पीड भी है। कंप्यूटर पर लिखता हूं।

आप कौन सी फ़िल्मों को देखकर सबसे ज्यादा हंसे हैं?
बहुत सी फ़िल्में हैं। एक है.. फ्रैंकली में पहली या दूसरी बार बता रहा हूं जहां से मुझे डेड बॉडी का आइडिया “जाने भी दो यारो” में आया था वो एक फ़िल्म है “डेथ ऑफ अ ब्यूरोक्रैट” (1966)। क्यूबन फ़िल्म है मेरे ख़याल से। उसमें क्या हो जाता है कि वो आदमी मर जाता है। तो उसका जो पेंशन कार्ड है वो दफनाते वक्त साथ चला जाता है। अब कार्ड चाहिए तो बोलते हैं कि दफनाया है उससे बाहर निकालना पड़ेगा। उसे बाहर निकालने का जो पूरा ब्यूरोक्रैटिक प्रोसेस है तो पूरी ब्यूरोक्रेसी है यार उसमें। इसे देखकर बहुत हंसा। बहुत सी और भी फ़िल्में हैं जो आपको हंसाती हैं साथ ही सोचने पे मजबूर करती हैं। एक और पुरानी फ़िल्म है स्टैनली कुबरिक की “डॉ. स्ट्रेंजलव ऑरः हाउ आई लर्न्ड टु स्टॉप वरिंग एंड लव द बॉम्ब” (1964)।

जो बच्चे एफटीआईआई (भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे) में एडमिशन नहीं ले सकते वो सेल्फ-स्कूलिंग कैसे कर सकते हैं?
आजकल तो फ़िल्म इंस्टिट्यूट इंटरनेट पर भी हैं। बहुत से लोग हैं जो फ़िल्मों से ही फ़िल्ममेकिंग सीखे हैं। जब आप फ़िल्म को देखते हैं फ़िल्म एप्रीसिएशन सीखना पड़ेगा। जैसे एक डॉक्टर डेड बॉडी लेकर परीक्षण करता है कि उसकी धमनियां कहां हैं, ये कहां है, वो कहां है? काट के वो देखते हैं। वैसे ही फ़िल्म का पूरा विश्लेषण करना पड़ेगा। कि ये सीन क्या करता है? ये डायलॉग क्यों है? ये पूरा डीटेल में खुद से पूछना पड़ेगा। फिर उसको मालूम पड़ेगा कि ये क्यों कैसे बनी है फ़िल्म? नहीं तो बस आप ऊपर से देख लेते हैं कि ये हो जाता है लेकिन फ़िल्म क्षेत्र में आने के लिए आपको पूरा फ़िल्म विश्लेषण करना पड़ेगा। ये सारी चीजें आज इंटरनेट पे हैं। बहुत सारे फ़िल्म इंस्टिट्यूट हैं इंटरनेट पर वो बताएंगे कि आपको क्या करना है। फिर आप करेंगे वो देखेंगे कि कैसा है।

लेकिन क्या वो महंगा नहीं होगा?
अरे वो फ्री है। मैं सब मोफत का बात कर रहा हूं। बहुत सारी हिंदी स्क्रिप्ट्स भी ऑनलाइन हैं अभी।

“जाने भी..” को छोड़ दें तो कौन सी पॉलिटिकल सटायर आपको पसंद आई है?
एक थी “तेरे बिन लादेन”। वो अच्छी है। उसमें मुझे सेकेंड हाफ में अच्छा लगा। कि वो पूरा सीआईए को इनवॉल्व करता है। एक झूठा लादेन पैदा करता है। वो फंस जाते हैं और सीआईए आ जाती है। बस अंत गड़बड़ था कि आप क्या कटाक्ष कर रहे हैं, व्यंग्य कर रहे हैं अमेरिका पर, लादेन के जरिए। और लादेन ही अमेरिका पहुंच जाता है। तो लगता है कि यार ये कहां हो गया।

“फंस गए रे ओबामा” ?
उसमें वो था न किडनैप, फिर और किडनैप। अच्छी है कॉमेडी के लेवल पर। मैंने देखी नहीं है। उसमें जो आर्टिस्ट है वो जबरदस्त है। संजय मिश्रा। जिन्होंने “आंखों देखी” की। जबरदस्त आर्टिस्ट है।

आर्टिस्ट आमतौर पर सनकी होते हैं। आपको दोस्त और परिवार वाले किस श्रेणी में रखते हैं?
ये तो उन्हीं से पूछना पड़ेगा। कभी-कभी परिचित या एक्टर या एक्ट्रेस बोल देते हैं कि सर तो वैसे हैं, पर मुझे लगता है मैं सही हूं। वैसे ये जवाब बहुत मुश्किल है।

जो युवा फ़िल्मों में आ रहे हैं उनके सामने क्या दो ही रास्ते हैं? एक कमर्शियल फ़िल्में बनाओ या सार्थक फ़िल्में बनाकर भूखे रहो? कुछ और विकल्प है? 
देखो रास्ता तो अपना ढूंढ़ना पड़ेगा। सफलता की कोई गारंटी नहीं है। फ़िल्म लाइन में यही है। क्योंकि एक डायरेक्टर बनता है तो सौ खो जाते हैं। निर्णय तो आपको लेना पड़ेगा। कमजोर दिल वाले हैं वो खो जाते हैं। जो बनते हैं बन जाते हैं, जो नहीं बन सकते नहीं बनते। ये ट्रैजेडी ही है। क्या करें?

Kundan Shah was most known for his classic comedy Jaane Bhi Do Yaaro (1983). His other notable works are - TV series Wagle Ki Duniya (1988) and Nukkad (1986), Parsai Kehte Hain. He also made Bollywood films such as Kya Kehna (2000) and Dil Hai Tumhara (2002). His last film P Se PM Tak released on 29 May 2015. Like Jaane Bhi.. it is a political satire. Kundan Shah passed away on Saturday October 7, 2017 following a heart attack. He was 69. What a wonderful, honest and caring human being he was! He will be missed.

(First published on 29/05/2015, this interview was last updated on 07/10/2017)
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