Wednesday, December 2, 2009

मुंबई मेरी जान, अ वेडनसडे, आमिर और तीन निर्देशक

मुंबई में बीते साल हुई आतंकी घटना की बरसी इस 26 नवंबर को देश भर में उत्सव की तरह मनाई गई। मगर सड़ांध, भूख और आतंक से बैचेन अंतस बस जी रहा है। इसका कोई जवाब नहीं देता है, समझना तो दूर की बात है। बस अपने पीछे बिलखते लोग और शवों के चीथड़े छोड़ गए धमाकों के बाद हर बार गृहमंत्री टेलीविजन पर नजर आए। हर बार.... चेहरे पर चमक, बदन पर आला दर्जे के कपड़े वाली बंद गले की पोशाक और हाथ में एक कागज का टुकड़ा। 'हम इस हमले की निंदा करते हैं। कड़ी कार्रवाही करेंगे' .....यह बोलने के लिए भी लिखा हुआ पढऩा पड़े तो हो चुकी कार्रवाही। व्यथित समाज के अंतर्मन को क्या प्रशासन, निर्वाचित नेता और बुद्धिजीवीयों ने ढांढस बंधाया ? नहीं....।

मगर उस वक्त तीन युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के जरिए बंधाया। मुंबई की पृष्ठभूमि में समाज और लोगों पर आतंकी घटनाओं का क्या प्रभाव है? कारण क्या है? यहां तक की समाधान क्या है? यह भी बताने की शानदार कोशिश निशीकांत कामत, नीरज पांडे और राजकुमार गुप्ता ने की । इनकी फिल्में 'मुंबई मेरी जान ' , 'अ वेडनसडे' और 'आमिर ' अपने समय के समाज की संबंधित विषय पर अभिव्यक्ति के लिए हमेशा याद की जाएंगी।

राजकुमार गुप्ता की फिल्म 'आमिर ' में सूट और टाई पहने आमिर अली डॉक्टरी करके लंदन से स्वदेश लौटा है। परिजनों के लिए उपहार और खुशी से भरे इस नौजवान को इमीग्रेशन और कस्टम अधिकारी दो बार तलाशते-खंगालते हैं। बार-बार पूछताछ करते हैं। ताने मारते हैं। क्योंकि उसका नाम आमिर हैं। आमिर का किरदार इनदिनों के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सच का सामना ' के प्रस्तोता राजीव खंडेलवाल निभाया हैं। हवाई अड्डे पर इन अधिकारियों के इस बर्ताव से मन खिन्न हो जाता है, मगर आमिर सहज और वाकपटु है। वह सोचता है कि देश के कुछ लोग ही ऐसे हैं। इनकी वजह से उसे खुद को पृथक महसूस नहीं करना चाहिए। देश के मुसलमानों की दशा और अवचेतन का बारीक बहु -विश्लेषण करती यह फिल्म आगे बढ़ती है। एयरपोर्ट पर उसका परिवार नहीं है। दो मोटरसाईकिल सवार आमिर को एक फोन सौंप जाते हैं। अब उसे अपने परिवार को जीवित देखना है तो फोन के दूसरे छोर से आते निर्देशों का पालन करना होगा। निर्देशक यहां से आतंक के समानांतर हमारी फिल्मों में हमेशा भुला दिए जाने वाले मुहानों तक पहुंचता है। डोंगरी, भैंडी बाजार की चाल, मल से भरी संकरी गलियां और दुर्गंध भरे शौचालय देखकर आमिर उल्टी कर देता है। फोन के दूसरी ओर से निर्देशक राजकुमार गुप्ता का यह संवाद किसी तेज गति से आती ईंट की तरह नायक और दर्शक को आकर लगता है, 'देखा, हमें हगने की जगह नहीं देते हैं तो जीने की क्या देंगे..। ' आमिर और उसे जिहादी आत्मघाती बम बनाने को प्रतिबद्ध उस आवाज के बीच का यह संवाद निरंतर और बहुआयामी है।

फिल्म 'अ वेडनसडे ' के जरिए निर्देशक नीरज पांडे का जवाब आक्रामक है। बहुतों को गलत तो कईयों को सही लगेगा। मगर हकीकत और बहस को और समृद्ध ही करेगा। नीरज पांडे ने अपनी इस पहली निर्देशित फिल्म से ही काफी लोकप्रियता हासिल की है। वर्षों बाद अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह जैसे शीर्ष अभिनेताओं को एक बार फिर साथ लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इससे पहले दोनों ने शाहरूख खान और पूजा भट्ट के अभिनय वाली फिल्म 'चाहत ' में साथ काम किया था। खैर फिल्म की कहानी साधारण, पर प्रस्तुतिकरण विशेष है। मुंबई पोलिस के कमिश्नर राठौड़ को एक गुमनाम फोन आता है। इसमें कहा जाता है कि अगर कहे मुताबिक चार खूंखार आतंकियों को नहीं छोड़ा गया तो मुंबई के अलग-अलग इलाकों में लगाए गए बम फोड़ दिए जाएंगे। पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर और गुमनाम नसीरुद्दीन शाह के बीच की बातचीत पुलिस प्रशासन, उसकी तकनीकी दक्षता, आधुनिकीकरण, आम आदमी में पसरे डर, आतंकियों के हौंसले और सरकारी नाकामी के प्रति एक आम आदमी के गुस्से के इजहार के बीच चलती है। फिल्म का क्लाईमेक्स कमजोर समझे जाने वाले देश के 'कॉमन मैन ' की सहनशक्ति का विस्फोट है।

मुंबई मेरी जान बेहद विश्लेषण वाली और राह सुझाने वाली फिल्म है। यहां लोगों पर आतंकी घटना के पड़े प्रभाव के साथ मुंबई के बारे में भी बात की गई है। मुंबई में 2006 में हुए ट्रैन बम धमाकों का शहर के छह अलग-अलग किरदारों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसी का फिल्म पीछा करती है। एक युवा पेशेवर की भूमिका में माधवन की कहानी है। यह युवा अपनी गर्भवती पत्नी और परिवार के बार-बार कहने के बावजूद कार सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता है कि उससे शहर के भयावह ट्रैफिक में और इजाफा न हो। मगर एक दिन के धमाकों के बाद वह महसूस करता है कि अब रेल की यात्रा की कल्पना भी उसके लिए डरावना सपना बन चुकी है। सोहा अली खान एक महत्वाकांक्षी पत्रकार की भूमिका में है। धमाकों के बाद वह लोगों से पूछती फिर रही होती है कि 'आपका रिश्तेदार मारा गया, आपको कैसा लग रहा है? ', तभी उसे पता लगता है कि ये धमाके उसके मंगेतर को भी लील गए हैं। अब उसके साथी मीडियाकर्मी उसकी भूमिका में हैं। उस पर प्राइम टाइम कार्यक्रम बनता है, 'रूपाली बनी रूदाली '

इरफान खान दक्षिण भारत से आए एक चाय वाले बने हैं। वह इस शहर के व्यवहार से दुखी हैं। फिल्म का एक दृश्य देखिए। एक 15-16 साल का लड़का मंहगी गाड़ी में कीचड़ उछालता निकलता है। साईकिल पर आ रहे चाय वाले पर इसके छींटे उछलते हैं। आगे वह युवा चाय-पान की दुकान पर 100 रूपये से भी ज्यादा कीमत वाली सिगरेट मांगता है और इरफान खान तीन रूपये का पारले-जी बिस्कुट। अब इरफान चाय-बिस्कुट ग्रहण कर रहा है और देख रहा है कि कैसे सिगरेट फूंकते इस युवा ने कई दसियों हजार वाले अपने मोबाइल को जमीन पर फैंक कर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया क्योंकि उसे गुस्सा आ गया था। फिल्म की इस कहानी में उत्तर भारतीयों के साथ मुंबई में होने वाले बुरे बर्ताव से इतर दक्षिण भारतीय होने का जो दुख इस किरदार ने अभिनीत किया है वह अपने आप में पहली बार सिनेमा के पर्दे पर उकेरा गया है। खैर एक बड़े मॉल से अपनी पत्नी और बेटी के साथ बाहर फैंक दिए जाने से यह किरदार क्रोधित हो जाता है और मॉल में बम होने की नकली अफवाह फैलाने लगता है।

मुंबई मेरी जान में दो अदने कांस्टेबलों की भी कहानी है। परेश रावल और विजय मौर्य ने अपने अभिनय में कमाल ही कर दिया है। दोनों बर्बर और अन्यायसंगत सिस्टम से भीतर ही भीतर फटे जा रहे हैं। एक-दूसरे के अच्छे इरादों को कुचला जाता देखते ये दोनों किरदार आपसी रिश्ते और सहारे से अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। यह कहानी इस फिल्म की सबसे बेहतरीन और आधार मूलक कहानी है। फिल्म में मरीन ड्राइव पर कुछ साल पहले एक बूथ में एक पुलिस वाले द्वारा एक लड़की का बलात्कार किए जाने की सच्ची घटना का संदर्भ है। टीवी पर उस दोषी पुलिस वाले को ले जाते हुए दिखाया जा रहा है और इस पर ये कांस्टेबल बात कर रहे हैं। यह बातचीत उस घटना के वक्त किसी टीवी चैनल की बहस या अखबार के संपादकीय पन्ने पर नहीं नजर आई थी।

एक पढ़े-लिखे बेरोजगार की भूमिका में के. के. मेनन हैं। ये पूरा दिन निठल्ले बैठे सांप्रदायिक साजिशों वाली कहानियां गढ़ते रहते हैं। इन कहानियों की हकीकत अंतत: और कुछ नहीं उसकी भड़ास ही होती है। उसका आंतरिक क्रोध फूटता रहता है। देश में पिछले साठ सालों से चल रही धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की बहस में यह फिल्म भी शामिल होती है। यह बेरोजगार युवा खुद अपने दुख से उपजे दुख से कुछ उत्तर पाता है तो कुछ जवाब कांस्टेबल के रूप में परेश रावल उसे देते हैं।

दरअसल तीनों ही फिल्में आतंक का डीएनए तलाशती फिरती हैं। फिर चाहे वह आतंक ट्रेन धमाकों का हो या गरीब होने का, प्रशासन को बदल पाने की कोशिशों में पूरी तरह असफल होने का हो या बेरोजगार होने का, मीडिया बनकर खड़े होने का हो या मीडिया को सामने खड़ा पाने का, बड़े शहर के तथाकथित विकास का हो या भीड़ भरे शहर में भी एक-दूसरे से अंजान होने का। ये फिल्में सामाजिक विमर्श करने का मिशनरी दावा करने वाले मीडिया का कान मरोड़ती हैं। ये फिल्में सिनेमा में समानांतर और मुख्यधारा दोनों को हाथ पकड़कर साथ ले जाती है। तीनों फिल्मों के निर्देशक बेहद युवा हैं और किन की तो यह पहली निर्देशित फिल्में है। मानव मन की लाल पत्थर वाली गुफाओं में ये फिल्में सफलतापूर्वक जाती हैं। ये फिल्में जोड़ती हैं। बातें करती हैं। बोलती हैं। असर डालती है। वह सब कुछ करती हैं जिसके लिए चित्रपट अस्तित्व में आया था। जिसके लिए सिनेमा बना था।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday, February 9, 2009

आत्मा की शान्ति में नफा नुकसान...'विशाल भारद्वाज की नीली छतरी'


रस्किन बांड ने एक कहानी लिखी ' द ब्लू अम्ब्रेला '। बाल फिल्मों के राजकोष को समृद्ध करते हुए फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने इस पर 2007 में एक फ़िल्म बनाई। नीली छतरी वाली अतिसुंदर फ़िल्म जो उनकी पूर्व फिल्मों के सामने इक्कीस ही ठहरती है उन्नीस नही।

हिमालय के उत्तर में बसे एक छोटे से गाँव की कहानी है। बर्फ़ीले पहाड़ों और हरी जाजम से ढका ......गाँव क्या है, धरती पर जन्नत है। लोग यहाँ सादगी का रसमय जीवन जीते हैं। इस रस के इर्द -गिर्द.... सुन्दरता, लोभ, प्रेम, गर्व, इच्छा और त्याग के मानवीय भावों के गुण-दोष भी चिपकते रहते हैं।

" मेरा टेसू यहीं अड़ा ...खाने को माँगे दही-बड़ा " गीत के साथ फ़िल्म का फीता घूमता है। खुशनुमा चहकती बाल नायिका बिनिया और गाँव के बच्चे यहाँ के सामूहिक धार्मिक आयोजन के लिए गली-गली, घर-घर नाचते-गाते चंदा माँग रहे हैं। महानगरों और उनकी प्रतिलिपि बनने की कोशिश में लगे छोटे शहरों में आज कथित विकास के साथ आपसी मौन और असंवाद की स्थिती है। मगर इस गाँव की गलियों की ही तरह पूरे भारत के ग्रामीण समाज में ऊर्जा और मुखर संवाद कायम है।

बच्चों की इस सामूहिक उछल-कूद के कुछ रूप आपको दिल्ली की गलियों में मिल जायेंगे। जन्माष्टमी की संध्या पर बच्चे ढोलकी लेकर " हाथी-घोड़ा पालकी ..जय कन्हैया लाल की " गाते-बजाते निकल पड़ते हैं। उफनते उत्साह और आनंद के साथ ढोलकी पर मासूम हाथों की थाप और जोर पकड़ती जाती है। नन्हे कंठों से निकलती जयकारे की आवाज निरंतर बढ़ती रहती है। दाँए-बाँए भौंचक खड़े पढ़े-लिखे नौजवान बगलें झाँकते नजर आते हैं। अपनी दार्शनिकता वश ......सामाजिक व्यवहार से दूर और महत्वाकांछी मौन के पास।
'ब्लू अम्ब्रेला' का सबसे रोचक किरदार नंदकिशोर खत्री उर्फ़ नंदू है। अधेड़ उम्र के इस परचूनिए की भूमिका पंकज कपूर ने निभाई है। नंदू का बचपनी लोभ उम्र के इस पड़ाव पर भी ठहरा हुआ है। जो रंग और खिलौने बच्चों को ललचाते हैं वे नंदू का सुख-चैन है। वह गाँव में सब को बड़ी आसानी से उधार देता है ताकि लौटा नही पाने की एवज में कुछ और ले सके। जैसे ..कोई दूरबीन या छतरी या कुछ और.... ।

गाँव में रात को माता का जागरण है। "कह दो ना , कह दो ना ...यू आर माय सोनिया " की तर्ज पर माता के भजन गाये जा रहे हैं। नंदू की नाक प्रसाद में बनी मिठाई पर टिकी है। छिप कर मिठाई खा रहे बच्चे से छीनकर वह ख़ुद खा लेता है। और अब उसकी आनंद-अनुभूति देखने लायक है।
बिनिया हिमाचल के इन हरे-भरे पहाड़ों पर अपने पशु चराती है। एक बार उसकी नज़र लकड़ी के बने एक बेहद सुंदर नीले जापानी छाते पर जा टिकती है। छाताधारी जापानी पर्यटक महिला की नज़र भालू के दो पंजों से बने ताबीज़ पर चली जाती है। छाता मनोरम है ...और बिनिया का ताबीज़ अनिष्ट से बचाने वाला शुभ जंतर.... । थोड़ी दुविधा के बाद बिनिया जंतर देकर छाता ले लेती है। नीली छतरी के साथ इस बच्ची के प्रकृति संग खेलने-कूदने के दृश्य ऐतिहासिक और विहंगम हैं।

छाता बेहद सुंदर है। गाँव की औरतों और नंदू का दिल ईर्ष्या से भरा है। लेकिन बिनिया बेहद खुश है। नंदकिशोर के लालच और झाँसे बिनिया को नहीं ललचा पाते हैं। फ़िल्म में नंदू की बेसब्री का चित्रण कमाल का है। नंदू के मानस में झाँकता एक संवाद देखिये .....उसकी दुकान में काम करने वाला चालाक लड़का राजाराम पूछता है ......" चाचा छतरी की लेकर कोई फ़ायदा होगा क्या ?" अब जरा जवाब सुनिए ...." इन्द्रधनुष को देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पानी में कागज़ की नाँव तैरा के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पहाड़ों के पीछे ..सूरज को डूबते देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ऐ ..तेरे जैसे निखट्टू को काम पे रख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..आत्मा की सांति में नफा - नुस्का नहीं देखा जाता । ....कोई पिछले ही जनम का सम्बन्ध है । .....छतरी और खत्री का।

पशु चराने के दौरान एक दिन बिनिया की छतरी गुम हो जाती है। सुध-बुध खोई बच्ची को "गाँव के ईर्ष्यालु-छाता गुमने पर खुश होने वाले लोग" व्यंग्यमय सहानुभूति देते हैं। मगर बिनिया एक साहसी और चतुर लड़की है। गाँव के कोतवाल की दुलारी बिनिया उसके साथ नंदू की दुकान पहुँच जाती है। पुलिस तलाशी लेती है , पर कुछ मिल नहीं पाता है। अपमानित होने का ढोंग कर नंदू इकट्ठे गाँववालों के सामने प्रण लेता है कि "जब तक ऐसा का ऐसा छाता नहीं खरीद लेता ...अचार नहीं चखुंगा। " फ़िल्म का यह दृश्य बड़ा ही रोचक बन पड़ा है।

फ़िल्म में पंकज कपूर बताते हैं कि अभिनय किसे कहते हैं। " रुई का भार से लेकर...धरम तक " आते-आते उन्होंने फ़िल्म उद्योग के तथाकथित महासितारों का कद नाप डाला है। कोई भी उनके कंधे तक नहीं आता है। उनके अभिनय को जबां से बयां कर पाना संभव नहीं है। सिर्फ़ देखकर ही समझा जा सकता है।

एक लाल-सफ़ेद जापानी छाता कुछ दिन बाद नंदू के लिए कूरियर से आता है। पूरे गाँव में मिठाईयाँ बँटती हैं। अश्वमेघ यज्ञ के अश्व की तरह दमकता नंदकिशोर खत्री साइकिल पर छतरी टिकाए पूरे गाँव से जुलूस निकालता है। सारा गाँव अब नंदू से प्रभावित है। बिनिया को सब उलाहना भरी नज़रों से देखते हैं। नंदकिशोर की इज्ज़त गाँव वालों की नज़रों में बढ़ती ही जाती है। उसे वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिता का मुख्य अतिथि बनाया जाता है।

लेकिन चतुर बिनिया कूरियर लाने वाले से भेजने वाले का पता पूछती है। मालूम चलता है ....रंगरेज़ से रंगवाकर बिनिया का छाता ही भेजा गया था। असलियत सामने आते ही पंचायत गाँव को नंदू से सभी व्यवहार तोड़ लेने का फ़ैसला सुनाती है।

यहाँ से नंदू की दुर्दशा शुरू होती है। राजाराम दुकान छोड़ जाता है। पर्यटक अब यहाँ की चाय नहीं पीते हैं। " दो बिस्किट पर एक टॉफी फ्री " मगर बच्चे उससे बात भी नहीं करते हैं। गाँव वाले मखौल उड़ाते हैं। एक छाते के मोह में इस अधेड़ बच्चे को इतनी बड़ी सज़ा मिली है। बिनिया को यह बात भली नहीं लगती है। एक दिन वह बिस्किट लेने आती है और छाता वहीं छोड़ जाती है। नंदू देखकर गुस्से में उबलता छाते को लकड़ी से पीटता हैं । जैसे कोई बच्ची अपनी गुड़िया को डांट रही हो । जैसे कोई धोबी अपने गधे को पीट रहा हो।

बिनिया बर्फ की चादर पर चली जा रही है। पीछे से नंदू छाता लिए दौड़ा आ रहा है। नंदू कहता है ...." बेटी बिनिया तेरा छाता ?" बिनिया एक त्यागभरी चंचल मुस्कान लिए अंगूठा दिखाते बोलती है " मेरे ठेंगे से .... । " और छाता लिए बिना आगे बढ़ जाती है।

अब गाँव में परिदृश्य बदल जाता है। खत्री चायवाला से दुकान का नाम छत पर लगी लाल-सफ़ेद छतरी से छतरी चायवाला हो जाता है। बच्चे , नंदकिशोर , बिनिया और पर्यटक सभी खुश हैं।

संछिप्त संवाद और बारीक़ अभिनय निकलवाने में जो गलतियाँ रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मों में कर जाते हैं ...विशाल भारद्वाज नहीं करते हैं। उनकी फिल्में तुलनात्मक रूप से ज्यादा रोचक, बेहतर और वास्तविक लगती हैं। साहित्य से फिल्में बनाने में उनका कोई सानी नहीं है। लेखन, निर्माण, निर्देशन और संगीत तक देने वाले विशाल भारतीय सिनेमा के मौजूदा गर्व हैं।

गुलज़ार के लिखे गीत निर्झर बहते हैं। सुकून देते हैं। बिनिया की भूमिका में श्रेया श्रीवास्तव ने सम्पूर्णता दिखाई है। हालाँकि उन्हें अपेछित प्रशंसा नहीं मिल पाई है। फिल्म के निर्माता यू टी वी के रोनी स्क्रूवाला हैं। संपादन आरिफ शेख़ ने किया है जो फ़िल्म की श्रेष्ठता में बराबर के भागीदार हैं। इसका शानदार छायांकन हर दर्शक के लिए दावत है। हिमालय की वादियों से अटा फ़िल्म का हर एक फ्रेम सहेज कर रखने योग्य है।

" सिंग इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी, बचना ऐ हसीनों, गोलमाल रिटर्न्स, ता रा रम पम पम पम, चांदनी चौक टू चाइना ... " जैसी दैत्याकार बजट वाली भोथरी फिल्मों के सामने गौरवान्वित खड़ी यह नीली छतरी अनिवार्यतः सभी को देखनी चाहिए ।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Tuesday, January 13, 2009

" चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन : स्वर्ग के पवित्र बच्चे "



" गुची या प्रादा " आज आप कौन सा जूता पहन रही हैं मैडम ?
फ़िल्म शुरू होते ही इस बाज़ार संसार में से ये बोली सुनाई देने लगती है। उनके लिए .....जो आवश्यकता की सीमा से बहुत ऊपर बसे किसी सितारा लोक में रहते है ।

समाज में दो फाड़ है । एक जिनके पास जूतों के लिए भी महँगे चुनाव मौजूद है । संसाधनों की अतिवृष्टि उन पर बारह महीने होती रहती है। दूसरे जिन्हें जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी नही मिल पाती हैं। आवश्यकता की पूर्ति यहाँ सदैव अनुपस्थित रहती है ।

ईरान में महिलाओं के सिर खुला रखने और पाश्चात्य परिधान पहनने पर समाज में पाबन्दी है। मगर भूमंडलीकरण का ऊँट गुची और प्रादा जैसे जूतों की शक्ल में अरब पार पहुँच चुका है। मजीद मजीदी अपनी फ़िल्म ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन ' में दुनिया भर के बच्चों की मासूमियत का प्रतिनिधित्व करते हैं । फ़िल्म में समाज का यथार्थपरक विश्लेषण मौजूद है ।

9 साल का अली फ़िल्म का मुख्य किरदार है। घर में छोटी बहन जाहरा , माँ और पिता करीम है । पिता दफ्तरों में चाय पिलाता है । माँ लोगों के कपड़े धोती है। फ़िल्म की कहानी अली से शुरू होती है जो अपनी बहन के गंठवाए जूतों को लेकर सब्जी लेने पहुँचता है । अली भीतर नीचे पड़ी सस्ती सब्जियों में से आलू छांटने लगता है। एक बूढा कचरा बीनने वाला अखर आगा की सब्जी की दुकान के सामने पहुँचता है । वह अखर आगा से बाहर पड़ा कचरा उठाने की अनुमति माँगता है । बूढा जूतों को भी कचरे संग बीन ले जाता है । अली बाहर आकर जब जूतों को नही पाता तो उसकी आँखों में पानी बहने लगता है। एक छोटे मेमने की तरह डरा -सहमा इधर - उधर जूते ढूंढ़ता है, लेकिन सब्जीवाला उसे डाँटकर भगा देता है।

घर में क़र्ज़ ग्रस्त माँ - बाप अपनी-अपनी परेशानियों में घिरे हैं । बच्ची जाहरा के जूते गुम है। बच्चा डरा हुआ है कि जाहरा माँ को न बताए ....पिता से न कहे । रात को स्कूल का गृहकार्य लिखते बच्चे ....लिखकर आपस में बातचीत करते हैं। अली लिखता है...."तुम मेरे जूते पहन लो ....मैं तुम्हारी चप्पल पहन लूँगा । ....भगवान के लिए ...... । "

ये मासूम बच्चे इस साँसारिक दुनिया में अपने - अपने पवित्र तरीकों से जीते हैं। बच्ची भाई के बड़े पी टी शू पहनकर जब चलती है तो देखने वालों को हँसी भी आएगी और ..रोना भी। जब जाहरा स्कूल से छुट्टी के बाद संकरी , कीचड़ - खड्डों भरी गलियों में से दौड़ती -हाँफती अली के पास पहुँचती है तब ही जूते-चप्पल बदलकर अली अपनी स्कूल जा पाता है ।

आँगन में बने छोटे पोखर में केसरिया- संतरी मछलियाँ तैरती हैं। मछलियों को दाना खिलाकर और जूते धोते समय पैदा हुए झाग उड़ाकर खुश होते भगवान के ये बच्चे ....अली-जाहरा । दुनिया भर के इन्द्रधनुषी उत्पादों से दूर यही इनका सुख है। गीले जूते अली को दोस्तों संग खेलने जाने से रोकते हैं। रात को बरसात आती है। जूते फिर भीग जाते हैं।

रात का खाना पूरा परिवार साथ खा रहा है। टेलीविजन चल रहा है। कार्यक्रम आ रहा है कि सही जूते न पहने जाएँ तो सरदर्द और कमरदर्द होने लगता है । बाज़ार का ये दावा दोनों बच्चों को भीतर तक सहमा जाता है । तभी टेलीविजन ख़राब आने लगता है । जब इसका परदा सही आता है तो अकस्मात ही एक बम धमाके का दृश्य दिखाई देता है । निर्देशक ने विश्व राजनीति और बाज़ारवाद के बीच का संधान सांकेतिक रूप में इस अन्तिम दृश्य के माध्यम से किया है।

जाहरा के मनोभाव भी तस्वीर के रंगों से शेड्स लेते हैं। बाज़ार में दुकान पर रंग - बिरंगे जूते देख पहनने को आतुर जाहरा , परीक्षा पत्र लिखते सोचती जाहरा कि अली को जूतों बिना स्कूल को देर हो जायेगी और उसे सज़ा मिलेगी , प्रार्थना कि पंक्ति में लड़कियों के पैरों में जूते देखती जाहरा। परीक्षा के बाद वह दौड़ती जाती है कि पानी के तेज़ बहाव वाले नाले में एक जूता गिर जाता है। उसे पाने के लिए हिरणी सी व्याकुल संघर्ष करती , दौड़ती...... कभी इधर-कभी उधर ...रोती जाहरा क्योंकि जूता नाले के अन्दर कहीं कचरे के साथ अटक गया है। सामने खड़ा बूढा दुकानदार रोते देख उसकी मदद करता है । जूता निकल आता है । अली अभी भी इंतजार कर रहा है। जाहरा फिर दौड़ रही है। जूते लंबे हैं। बार -बार पैरों से निकल आते है।

प्रार्थना की कतार में प्यारी बच्ची को दूसरी लड़कियों के पैरों में पड़े जूते ही नज़र आते हैं। ....लाल , काले , अलग-अलग आकर्षक जूते । सहसा उसके जूते किसी दूसरी लड़की के पैरों में दिखाई देते हैं । हमउम्र आबेल के पैरों में। आबेल का पिता अँधा है । अली-जाहरा जूते ढूंढ़ते उसके घर पहुँचते हैं मगर आबेल के अंधे पिता को देखकर लौट आते हैं। इतिहास में त्याग और बलिदान के बड़े उदहारण हैं। बाल फिल्मों के इतिहास में अली-जाहरा का यह त्याग अपूर्व और यादगार है।

रात की नमाज और इबादत के स्वरों के बीच अली अपने पिता करीम की चाय की दुकान पर आए लोगों के जूते सिलसिलेवार करता है । उन्हें चाय पिलाता है। करीम के लिए चाय की दुकान घर चलाने को अपर्याप्त है।

अगले दिन अली अपने पिता के साथ साइकिल पर आगे बैठा शहर के बीच से गुजर रहा है । साइकिल ओवरब्रिज के ऊपर से निकल रही है। हाँफता , साइकिल चलाता , पसीना-पसीना करीम रईसों की बस्ती के संगमरमरी बंगलों में बागवानी कर पैसा कमाने की आस में आया है । संकरी गलियों में रहने और जूतों के लिए संघर्ष करने वाले अली के लिए यह नई दुनिया है।

" यहाँ गेट बजाने पर गाली निकालते ...मना करते बड़े घरों के लोग हैं । घंटी पर घंटी बजाओ ...पर कोई काम नही करवाना चाहता है। एक घर में से कुत्ता भौंकता है.......और बाप-बेटा दोनों साइकिल समेत भाग छुट्तें हैं। ये दुनिया का कैसा विभाजन है ? बड़े घर ....रईस लोग ..लेकिन बात करने को कोई नहीं । घर में झूलों का जमावड़ा है पर साथ में झूलने को कोई नहीं । एक घर में करीम को बागवानी का मौका मिलता है क्योंकि घर के बूढे मालिक का एकलौता पोता अकेला है । साथ में खेलने और बांटने को कोई बच्चा नहीं है । सितारा संसार .....कैसा ? ....सुखी या खोखला ? "

करीम लौटते समय सोचता है कि मोटर साइकिल , प्रेस , अलमारी , बड़ा फ्रिज भी हम खरीद सकते हैं अगर यहाँ काम किया जाए तो । वह खुश है । तभी ढलान आती है । साइकिल के ब्रेक फेल हो जाते हैं। दोनों गिरते हैं और चोटों के साथ घर पहुँचते हैं । परेशानियों या कहें तो इस दुनिया के लोगों के लिए यंत्रणा का दौर जारी है ।

अली के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता होने वाली है । प्रतिभागियों का चुनाव हो चुका है। अली जब देखता है कि तीसरा पुरस्कार जूतों की एक जोड़ी है तो वह शिक्षक के सामने फूट-फूटकर रोता है कि वह जरुर जीतेगा ...उसे ले लिया जाए । उसे रोता देख पी टी आई उसका ट्रायल लेता है । उसकी रफ़्तार देख सहर्ष उसका नाम दर्ज कर लेता है ।

अब भाई -बहन खुश हैं कि जीतने पर जूते मिलेंगे। आज दौड़ का दिन है। इकट्टे सैंकड़ों बच्चे रंग-बिरंगी खेल पौशाक पहने दौड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन अली अपने रोज वाले कपड़ों में बैचेन है कि कब रेस शुरू हो और वह जूते पाए ।

5 किलोमीटर की झील तक होने वाली यह दौड़ शुरू होती है । हजारों बच्चों में एक अली .....दौड़ता जाता है। आँखों के आगे जाहरा के जूते , उन गलियों की स्मृति जहाँ दौड़ते-हाँफते दोनों जूतों की अदला-बदली करते थे और छोटी बहन का चेहरा घूमता रहता है। अग्निपरीक्षा है । अंततः अली जीत जाता है । .....उसका पहला सवाल ....."क्या में तीसरा स्थान जीता ?" ....जवाब आता है .."बच्चे तुम जीत गए ...तीसरा स्थान क्या । "

अली रो रहा है...जीतकर .....हजारों से । क्योंकि वह सोना जीता । एक जोड़ी जूते नहीं । हमेशा देर से आने वाले अली ने आज अपनी स्कूल का नाम रोशन किया है । अभाव में रहकर भी वह.....प्रचुर संसाधन वालों से जीता है।

अली को नहीं पता है कि आज उसके पिता ने दोनों भाई-बहनों के लिए नए जूते खरीदें हैं । वह मायूस घर लौटता है । फटे जूते और मौजे उतारता है । बहन की आशा भरी आँखों से उसकी दुखी नज़रें मिलती हैं । वह समझ जाती है ।

घर के बीच बने छोटे पोखर में अली अपने घायल पैर डाल देता है । तभी केसरिया मछलियाँ तैरती आती है । अपने स्पर्श से उसके घावों को राहत देती हैं । शीतलता के साथ यह बाल कथा यहीं ख़त्म होती है । कहा जाता है कि अली आगे चल कर एक सफल रेसर बनता है ।

1997 में मूल रूप से पर्शियन में बनी " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " 1998 में ऑस्कर पुरस्कारों की विदेशी भाषा की श्रेणी में नामांकित होने वाली पहली ईरानी फ़िल्म थी । मजीद मजीदी ने लेखन और निर्देशन में बेहद शानदार काम किया है । बाल कलाकारों के रूप में आमिर फारुख ने अली के किरदार में जान फूँकी है । परवेज़ जहानशाही का छायांकन फ़िल्म के यथार्थ को उभारने में रीढ़ साबित हुआ है । 90 मिनट की " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " की अधिकतर शूटिंग तेहरान में हुई है ।

आलोचकों ने इसकी तुलना वित्तोरियो दी सीका की 1948 में बनी फ़िल्म " बाईसाइकिल थीव्स " से की है । जेक नियो की 2003 में बनी ' होम रन ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन से प्रभावित थी । हालाँकि होम रन में मुख्य तत्व दोस्ती के इर्द - गिर्द घूमता है । भारत में 2007 में इसकी नक़ल करके " सलाम बच्चे " बनाई गई थी ।

चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन बच्चों की फ़िल्म होते हुए भी सामजिक यथार्थ के विश्लेषण से युक्त है । विश्व सिनेमा से जुड़ा यह पन्ना विशाल भारद्वाज निर्देशित और पंकज कपूर अभिनीत " ब्लू अंब्रेला " की याद दिलाता है ।


गजेन्द्र सिंह भाटी

Thursday, November 20, 2008

" सिनेमा में ऐसा आक्रोश आज कहाँ "






अँधेरी रात है। .....चिता जल रही है। .....हथकड़ी पहने एक आदिवासी लहानिया भीखू खड़ा है। ....दयनीय , रुआंसे , काले , गरीब , गाँववाले ...कुछ आदिवासी खड़े हैं। चेहरों पर शाश्वत पराजय और अपराधबोध का भाव है। बीवी की हत्या का आरोप लहानिया पर लगा है। बीवी की चिता रोशनी से उसके चेहरे को उजला कर रही है। बूढा , जर्जर , दीन-हीन पिता फटी आँखे झुकाए पास खड़ा है। जैसे - तैसे अपनी देह को दुनिया की भोग दृष्टि से छिपाए जवान मासूम बहन ..लहानिया के दुधमुहे बच्चे को गोद में उठाए बेसुध खड़ी है।

1980 में बनी , जीवन की पहली निर्देशित फ़िल्म ' आक्रोश ' का परदा गोविन्द निहलाणी कुछ यूँ उठाते हैं। पहला दृश्य....आगे के बहुत से दृश्यों की तरह संवाद हीन है। लेकिन इस सन्नाटे में अजीत वर्मन का संगीत जो आक्रोश और जुल्म उजागर करता है .....वह काल - सीमा के परे है। लहानिया बने ओमपुरी पूरी फ़िल्म में ,अपनी स्मृति के कुछ पन्नों को छोड़कर ,एक भी शब्द नहीं बोलते हैं ।

उस दौर की सच्ची घटनाओं को लेकर विजय तेंदुलकर ने आक्रोश की कथा - पटकथा लिखी है। पंडित सत्यदेव दूबे के संवाद है। आज ओबामा , आधुनिकता , अंग्रेजी , अर्थ और अस्थिरता का दौर है। यह उस दौर की तस्वीर है.....जहाँ मल्टीप्लेक्स की जगह एकल ठाठिया थियेटर की फ़िल्म का प्रचार ताँगे दौड़ाकर किया जाता था । उस दौर में फ़्लाइओवर , जंगलों में लग रहे स्टील प्लांट और पॉपकॉर्न नहीं थे । उस दौर का नायक राष्ट्रीय रेडियो पर रात का फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम सुनते हुए दूध पीता था । मिशनरी पत्रकारिता ...आज के मीडिया मुग़ल और मीडिया हॉउस जैसे मुहावरों से अनजान....तब कंधे पर झोला लटकाती थी । तकनीक के नाम पर काली छपाई की मशीन थी । गाँवों - कस्बों की पगडण्डी तब ...काले डामर के सामने अकड़ती थी ।

बहरहाल भीतर में गहरे तक भींचे 'आक्रोश ' से लहानिया भीखू खौल रहा है। उसे शब्दों में व्यक्त करने से उसका विश्वास उठ चुका है । इन सबसे बेखबर कहानी का दूसरा पहलू.....भास्कर कुलकर्णी ....सवाल बन चुके लहानिया से ही सवाल पूछता है। सवाल ........जो सवाल कम इल्ज़ाम ज्यादा है। ....." पहले ये बताओ कि पहला खून किया है तुमने ? ......या पहला जुर्म ? .....क्या पहले कभी हवालात आये हो ?.....तुमने अपनी घरवाली का खून क्यों किया ?.......बदचलन थी ?"

भास्कर लहानिया का वकील है। सुबह टहलने , समुद्र तट पर दौड़ने , लहरों संग खेलने वाले भास्कर की आँखों में सपने है। वह अपने करियर की शुरुआत हारे हुए केस से नहीं करना चाहता है , लेकिन इल्जामी सवालों का उसे मूक जवाब ही मिलता है । प्रतिपक्षी वरिष्ठ वकील धसाने भास्कर के पिता का शागिर्द रह चुका है ....अब उसका गुरु है। जो लहानिया की खामोशी में अपने डूबते करियर को देखकर चिंतित भास्कर से कहता है कि " मैदान में द्रोणाचार्य के सामने अर्जुन भी हथियार उठाता है । हर धंधे का एक धर्म होता है और वकील का एक ही धर्म है .....वकालत । "

कचहरी के बाहर लहानिया का बूढा बाप लाचार खड़ा है । बुढ़ापे के सहारे को समाज के कानून ने एक केस नंबर में बदल कटघरे में बिठा दिया है , हाथ के सहारे की लकड़ी को कचहरी वालों ने बाहर ही रखवा दिया है । ताक़तवर के समाज ने उसे गरीब होने की सज़ा दी है । बुढ़ापे में पेट के लिए वह पेड़ काट रहा है ....बेटा जेल में है ......बेटी को वहाँ खड़ा तमीजदार छेड़ रहा है । अब खून के आँसू और शराब पीकर मरने के अलावा उसके पास कोई जवाब नही है । जंगलों की कटाई चलती रहती है । लदे ट्रक निकल जाएँगे । नाके पर बड़े इंसानों का जुगाड़ बैठा है।

यह वह सामाजिक व्यवस्था है , जहाँ एक निबल औरत के पति की हत्या का आरोपी बरी हो जाता है तो उसे कंधों पर बिठा लिया जाता है , ताजे फूलदार हार पहनाए जाते हैं , बाजे बजते हैं , गुलाल उड़ता है और पेडे बँटते है । पेडा खाता एक पसली का काले कोटवाला एक पोपला भास्कर से कहता है " फाँसी का केस था .......छुडा दिया ...........खाओ - खाओ पेडा खाओ ... ।

यहाँ रोज शाम को ताश खेलने के लिए एक जगह डीएसपी , नेता , वकील , डॉक्टर और उद्दमी जुटते हैं । ये एकजुट हैं .....जहाँ फायदा है । ये बुद्धिजीवी ......विकसित .......और आजवासी हैं । एक स्त्री को देखकर जरा इनकी बातों का स्तर सुनिए ......" हेड और टेल करो कि ये किसके साथ जायेगी । ........छोड़ो यार । .....हेड तुम रखो और टेल में रखता हूँ । "

एक मार्क्सवादी है जो व्यवस्था को जड़ से उखाड़ना चाहता है। उसके हिसाब से "एक को यानी लहानिया को इन्साफ मिलने से क्या होगा ?

इस व्यवस्था में सच को डराया और पीटा जाता है । राष्ट्रहित अख़बार के संपादक सामंत को सच छापने के लिए , भास्कर कुलकर्णी को सच का साथ देने के लिए पीटा जाता है । सरकारी वकील धसाने को समाज का एक सच होने के लिए डराया और कोसा जाता है । एक आदिवासी से प्रतिष्ठित सरकारी वकील हो जाने तक के सचस्वरूप रोज फ़ोन पर उसे भद्दी गालियों में ज़लील किया जाता है ।

लहानिया निशब्द है । उसकी आँखें बोलती है । घुटता लहानिया अन्दर ही अन्दर दम तोड़ रहा है । सच उसके गले की सूख चुकी आवाज के नीचे बैठा है । उसके पिता की देह छूट चुकी है । आज वह फिर एक चिता के सामने खड़ा है । सामने उसकी जवान बहन दुनिया की जिस्म की भूख के बीच अब अकेली खड़ी है । शायद लहानिया बीवी के लिए जो न कर सका बहन के लिए कर देता है । वह तेज़ी से एक कुल्हाड़ी लेता है और अपनी बहन का सर .......... ।

उसके बाद उसका गला एक ऐतिहासिक आक्रोश से फट पड़ता है ।असल मायनों में पूरी फ़िल्म में बस यही एक संवाद है .......सबसे बड़ा संवाद । भास्कर को आज तक लहानिया से पूछे अपने सभी सवालों का जवाब ...आज मिल रहा है ।

नसीरुद्दीन शाह भास्कर कुलकर्णी और अमरीश पुरी धसाने बने है । स्मिता पाटिल लहानिया भीखू की बीवी की संछिप्त लेकिन सम्पुष्ठ भूमिका में है । तय बात है कि ये सभी किरदार सदा के लिए अमिट-अमर है ।

आक्रोश को 1980 में ही सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था । अपनी पहली फ़िल्म में ऐसा सिनेमाई सपना रचने वाले गोविन्द निहलाणी ने बाद में सन् 1983 में अर्धसत्य और सन् 1988 में तमस जैसी बेहतरीन फिल्में गढ़ी । आज के सिनेमा के लिए ऐसा आक्रोश अब सम्भव नहीं है ।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Friday, October 10, 2008

" जंग और अमन "

आनंद पटवर्धन का यथार्थपरक वृतचित्र ' जंग और अमन ' ..विश्व शान्ति से अनभिज्ञ विश्व की और इशारा करता है। देखकर लगता है कि युद्ध की खिलाफत वाला विश्व अल्पमत में है। नाथूराम गोडसे की गोली से फ़िल्म शुरू होती है... जो गाँधी को तो खत्म कर देती है लेकिन एक शांत जगत की प्राप्ति के लिए अहिंसा की राह जिन्दा छोड़ जाती है ।

एक मराठी नाट्य प्रस्तुति फ़िल्म के प्रारंभ में दिखाई देती है। ' पोकरण 98 परमाणु परीक्षण ' के बाद महाराष्ट्र के एक राष्ट्रवादी समूह की और से आयोजित एक सार्वजनिक नाट्य मंचन में ..सफ़ेद कबूतर के ढांचे में एक विस्फोट दिखाया जाता है और ज़मीन पर पालथी मारकर बैठी श्र्धान्वित भीड़ को आयोजक कहता है कि कबूतर शान्ति का प्रतीक है ....हमने शान्ति के लिए विस्फोट किया है। पूरी फ़िल्म का सम्पादन कुछ इस तरह किया गया है कि जंग और अमन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोग किस कदर एक अँधा वैचारिक मानस लेकर जीते हैं ..नज़र आता है । विडम्बना है और हँसी आती है।

पोकरण के पास खेतोलाई गाँव के लोगों का जीवन 1974 और 1998 के बाद वाजपेई के बुद्धा की तरह कितना मुस्कुराया है यह दिखाई देता है। गाँव के युवा और सम्रद्ध वासी खुश हैं कि पोकरण रातोंरात विश्व की नजरों में चढ़ा है। वहीं एक अनपढ़ बूढा भी है , जो कहता है कि , " ये देश के युवा हैं ...ये चाँद पर पहुँचना चाहते हैं , मगर मैं तो धरती पर ही रहना चाहता हूँ " आनंद पटवर्धन पूरी फ़िल्म में अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ते और फ़िल्म देख कर काला हास्य बरबस पैदा होता है।

भारत में नौसेना के हथियारों की प्रदर्शनी देखते हुए एक युवती सवाल के जवाब में कहती है ... " अभी आए गुजरात भूकंप के लिए पैसा विदेश से दान में आ रहा है इसलिए देश के पैसे से इन हथियारों का निर्माण ज्यादा जरुरी है " युवती कहती है कि हम तो यहाँ मनोरंजन देखने आए हैं ..... खुबसूरत हथियार हैं। ....... भला हथियार के साथ खुबसूरत का विशेषण कैसे जोड़ा जा सकता है ?

सांकेतिक द्रश्यों से भरी पड़ी यह फ़िल्म नाथूराम गोडसे की गोली से शुरू होकर अहिंसा के एकमात्र उपाय के उपसंहार पर ख़त्म होती है। फ़िल्म में साध्वी ऋतंभरा का पाकिस्तान विरोधी भाषण है। ... वी रमन्ना और पी के अय्यंगर जैसे परमाणु वैज्ञानिक है जो बम बनाना तो जानते हैं ..मगर इन्हें गिराए कहाँ यह नहीं जानते। ...झारखण्ड के जादूगोड़ा में यूरेनियम का कारखाना है , जहाँ खदानों से हुआ रेडिएशन ...एक स्वस्थ ,खुश ..डॉक्टर को अंधेरे में बैठे मृतप्राय रोगी में तब्दील कर चुका है। यहाँ रेडिएशन के प्रभाव से बच्चे विकलांग हो गए हैं । ये बच्चे कहते हैं कि " हम प्रदर्शन करते हैं तो कहा जाता है कि हम देश की सुरक्षा नहीं चाहते। ...हम देश की ऐसी सुरक्षा नहीं चाहते हैं जो हमें ही सुरक्षा नहीं दे सके। ..... हम मरेंगे तो क्या बाकी बचे रहेंगे ? "

फ़िल्म में एक जापानी वृद्ध है जिसके माँ - बाप इनोला-गे विमान द्वारा गिराए परमाणु बम से हिरोशिमा में मारे गए थे । ..रोते हुए वह कहता है, " मैं उन अमरीकियों से नफरत नहीं करता ..क्योंकि बुद्ध कहते हैं , नफरत को नफरत से नहीं जीता जा सकता है। " अमरीका के युद्ध , हथियार और विमानों के एक संग्रहालय का मुख्यद्वार है ..जिस पर उसका नाम लिखा है ....' धर्म और देश की खातिर ।' ये वही हथियार हैं जिनसे जनसंहारक युद्ध लड़े गए ...जिनसे कमजोर देशों पर हमले किए गए।

भाभा एटॉमिक एनर्जी के डॉ पी के अय्यंगर कहते हैं कि पूरे देश में एक भी व्यक्ति रेडिएशन से नहीं मरा.......पर यह भी कहते हैं कि परमाणु बम गिराने की नौबत आए.. तो महाद्वीप से बाहर ही गिराया जाए। फ़िल्म में " जय जवान , जय किसान , जय विज्ञान " का नारा ..पीड़ितों के सन्दर्भ में देखकर बेहद कुरूप और भयावह लगता है। पटवर्धन के कुछ संवाद और पृष्ठभूमि से आती प्रस्तावक की स्थिर आवाज जीवन्तता और यथार्थ को दृश्यों के पीछे से खींच सामने निरीह सा ला खड़ा करती है।

" सरहद के दोनों ओर के जेहादियों के लिए एटम बम भगवान की देन है" ........ " अमरीका का हथियारों का गीत आज मेरा भारत भी गुनगुनाने लगा है " ..... जैसे संवाद दो विपरीत तर्कों के बीच रिश्ता जोड़ते चलते हैं। इसका उपसंहार ओसामा बिन लादेन और 9/11 के रूप में दिखाया है। अंत में पटवर्धन राह सुझाते हुए कहते हैं कि उस दिन को आने में लंबा वक्त लगेगा जब प्यार अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में स्थान लेगा । इस तबाही से जीतने का एक ही रास्ता है ..................अहिंसा । .......बिना शर्त अहिंसा

फ़िल्म का छायांकन वृत्तचित्र शैली का यथार्थपरक सा है। संवाद सटीक जगह पर हैं। प्रमुख भूमिका संपादन की थी जो कि सफल दिखाई देती है। असल जिन्दगी के इस जंग और अमनी अध्याय में विडंबना पर विडंबना का सुगम चित्रांकन है।

गजेन्द्र सिंह भाटी





Wednesday, October 8, 2008

अकीरा कुरोसावा की क्लासिक ' राशोमोन '




क्लिंटन ट्रायल्स के वक़्त भी ' राशोमोन ' शब्द का इस्तेमाल होता रहा था। अमरीका में तो यह शब्द एक मुहावरा सा बन गया था। अकीरा कुरोसावा की श्वेत-श्याम फ़िल्म 'राशोमोन' एक ही घटना का तीन अलग - अलग तरीकों से जीवंत प्रस्तुतीकरण है। एक यात्री सामुराई जंगल में से गुज़र रहा है, साथ में उसकी पत्नी है। रास्ते में ' ताजोमारू ' नाम का एक डाकू उसे बंदी बना लेता है। उसकी पत्नी के साथ दुष्कर्म करता है।..और बाद में सामुराई की लाश जंगल में पड़ी मिलती है।

इस घटना के तीन संस्करण तब उभरते हैं, जब भारी मूसलाधार बारिश में जापान के क्योटो में ' राशोमोन गेट ' के नीचे तीन व्यक्ति शरण लेते हैं। एक पुजारी है और एक लकड़हारा है। ये गए जमाने के मासूम और शीतल किरदार आज कल कभी-कभार बच्चों के लिए बनी फिल्मों में दिखाई पड़ जाते हैं बस। उसमें भी ' होम अलोन ' के हैरी पुत्तर नुमा क्लोन बनने शुरू हो गए हैं। पुजारी हीरो - हिरोइन को प्रसाद और फूल देकर समाप्त हो जाता है तो लकड़हारों की कौम फिल्मों से विलुप्त हो चुकी है। खैर....... ये दोनों ही अपनी स्थानीय न्याय-व्यवस्था के सामने अपना-अपना बयान देकर आए हैं। और जो कुछ अभी-अभी हुआ था उस पर यकीन करने की .....समझने की कोशिश कर रहे हैं। तभी वहाँ से एक राहगीर... गुज़रते हुए आ रुकता है। दोनों के संस्करण सुनता है।

फ़िल्म में निर्देशक ने अद्भुत तनाव और असमंजस की स्थितियाँ पैदा की हैं। हालाँकि मनोरंजन के पहलू से यह फ़िल्म कमजोर पड़ती है। डाकू और बीवी के किरदारों ने कमाल का अभिनय किया है। दोनों ही किरदारों की विविधता को बड़ी ही खूबसूरती से फ़िल्माया गया है। फ़िल्म का प्रष्ठभूमि संगीत बेहद प्रभावी और जरूरी है। सांकेतिक रूप से फ़िल्म में संवाद आगे बढ़ता चलता है। फ़िल्म का हर फ्रेम बोलता है, चाहे उसमें संवाद नहीं भी हो।

स्त्री की वफ़ादारी और नैतिकता पर पहले निर्देशक सवाल खड़े करता है। फिर ख़ुद ही किसी दूसरे किरदार से एक छोटी बेईमानी करवाकर समाज को उसका जवाब भी दे देता है। दशकों पहले बनी ' राशोमोन ' का विषय अपने वक़्त के हिसाब से काफी बोल्ड है।

गजेन्द्र सिंह भाटी