बुधवार, 2 दिसंबर 2009
मुंबई मेरी जान, अ वेडनसडे, आमिर और तीन निर्देशक
मगर उस वक्त तीन युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के जरिए बंधाया। मुंबई की पृष्ठभूमि में समाज और लोगों पर आतंकी घटनाओं का क्या प्रभाव है? कारण क्या है? यहां तक की समाधान क्या है? यह भी बताने की शानदार कोशिश निशीकांत कामत, नीरज पांडे और राजकुमार गुप्ता ने की । इनकी फिल्में 'मुंबई मेरी जान ' , 'अ वेडनसडे' और 'आमिर ' अपने समय के समाज की संबंधित विषय पर अभिव्यक्ति के लिए हमेशा याद की जाएंगी।
राजकुमार गुप्ता की फिल्म 'आमिर ' में सूट और टाई पहने आमिर अली डॉक्टरी करके लंदन से स्वदेश लौटा है। परिजनों के लिए उपहार और खुशी से भरे इस नौजवान को इमीग्रेशन और कस्टम अधिकारी दो बार तलाशते-खंगालते हैं। बार-बार पूछताछ करते हैं। ताने मारते हैं। क्योंकि उसका नाम आमिर हैं। आमिर का किरदार इनदिनों के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सच का सामना ' के प्रस्तोता राजीव खंडेलवाल निभाया हैं। हवाई अड्डे पर इन अधिकारियों के इस बर्ताव से मन खिन्न हो जाता है, मगर आमिर सहज और वाकपटु है। वह सोचता है कि देश के कुछ लोग ही ऐसे हैं। इनकी वजह से उसे खुद को पृथक महसूस नहीं करना चाहिए। देश के मुसलमानों की दशा और अवचेतन का बारीक बहु -विश्लेषण करती यह फिल्म आगे बढ़ती है। एयरपोर्ट पर उसका परिवार नहीं है। दो मोटरसाईकिल सवार आमिर को एक फोन सौंप जाते हैं। अब उसे अपने परिवार को जीवित देखना है तो फोन के दूसरे छोर से आते निर्देशों का पालन करना होगा। निर्देशक यहां से आतंक के समानांतर हमारी फिल्मों में हमेशा भुला दिए जाने वाले मुहानों तक पहुंचता है। डोंगरी, भैंडी बाजार की चाल, मल से भरी संकरी गलियां और दुर्गंध भरे शौचालय देखकर आमिर उल्टी कर देता है। फोन के दूसरी ओर से निर्देशक राजकुमार गुप्ता का यह संवाद किसी तेज गति से आती ईंट की तरह नायक और दर्शक को आकर लगता है, 'देखा, हमें हगने की जगह नहीं देते हैं तो जीने की क्या देंगे..। ' आमिर और उसे जिहादी आत्मघाती बम बनाने को प्रतिबद्ध उस आवाज के बीच का यह संवाद निरंतर और बहुआयामी है।
फिल्म 'अ वेडनसडे ' के जरिए निर्देशक नीरज पांडे का जवाब आक्रामक है। बहुतों को गलत तो कईयों को सही लगेगा। मगर हकीकत और बहस को और समृद्ध ही करेगा। नीरज पांडे ने अपनी इस पहली निर्देशित फिल्म से ही काफी लोकप्रियता हासिल की है। वर्षों बाद अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह जैसे शीर्ष अभिनेताओं को एक बार फिर साथ लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इससे पहले दोनों ने शाहरूख खान और पूजा भट्ट के अभिनय वाली फिल्म 'चाहत ' में साथ काम किया था। खैर फिल्म की कहानी साधारण, पर प्रस्तुतिकरण विशेष है। मुंबई पोलिस के कमिश्नर राठौड़ को एक गुमनाम फोन आता है। इसमें कहा जाता है कि अगर कहे मुताबिक चार खूंखार आतंकियों को नहीं छोड़ा गया तो मुंबई के अलग-अलग इलाकों में लगाए गए बम फोड़ दिए जाएंगे। पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर और गुमनाम नसीरुद्दीन शाह के बीच की बातचीत पुलिस प्रशासन, उसकी तकनीकी दक्षता, आधुनिकीकरण, आम आदमी में पसरे डर, आतंकियों के हौंसले और सरकारी नाकामी के प्रति एक आम आदमी के गुस्से के इजहार के बीच चलती है। फिल्म का क्लाईमेक्स कमजोर समझे जाने वाले देश के 'कॉमन मैन ' की सहनशक्ति का विस्फोट है।
मुंबई मेरी जान बेहद विश्लेषण वाली और राह सुझाने वाली फिल्म है। यहां लोगों पर आतंकी घटना के पड़े प्रभाव के साथ मुंबई के बारे में भी बात की गई है। मुंबई में 2006 में हुए ट्रैन बम धमाकों का शहर के छह अलग-अलग किरदारों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसी का फिल्म पीछा करती है। एक युवा पेशेवर की भूमिका में माधवन की कहानी है। यह युवा अपनी गर्भवती पत्नी और परिवार के बार-बार कहने के बावजूद कार सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता है कि उससे शहर के भयावह ट्रैफिक में और इजाफा न हो। मगर एक दिन के धमाकों के बाद वह महसूस करता है कि अब रेल की यात्रा की कल्पना भी उसके लिए डरावना सपना बन चुकी है। सोहा अली खान एक महत्वाकांक्षी पत्रकार की भूमिका में है। धमाकों के बाद वह लोगों से पूछती फिर रही होती है कि 'आपका रिश्तेदार मारा गया, आपको कैसा लग रहा है? ', तभी उसे पता लगता है कि ये धमाके उसके मंगेतर को भी लील गए हैं। अब उसके साथी मीडियाकर्मी उसकी भूमिका में हैं। उस पर प्राइम टाइम कार्यक्रम बनता है, 'रूपाली बनी रूदाली ' ।
इरफान खान दक्षिण भारत से आए एक चाय वाले बने हैं। वह इस शहर के व्यवहार से दुखी हैं। फिल्म का एक दृश्य देखिए। एक 15-16 साल का लड़का मंहगी गाड़ी में कीचड़ उछालता निकलता है। साईकिल पर आ रहे चाय वाले पर इसके छींटे उछलते हैं। आगे वह युवा चाय-पान की दुकान पर 100 रूपये से भी ज्यादा कीमत वाली सिगरेट मांगता है और इरफान खान तीन रूपये का पारले-जी बिस्कुट। अब इरफान चाय-बिस्कुट ग्रहण कर रहा है और देख रहा है कि कैसे सिगरेट फूंकते इस युवा ने कई दसियों हजार वाले अपने मोबाइल को जमीन पर फैंक कर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया क्योंकि उसे गुस्सा आ गया था। फिल्म की इस कहानी में उत्तर भारतीयों के साथ मुंबई में होने वाले बुरे बर्ताव से इतर दक्षिण भारतीय होने का जो दुख इस किरदार ने अभिनीत किया है वह अपने आप में पहली बार सिनेमा के पर्दे पर उकेरा गया है। खैर एक बड़े मॉल से अपनी पत्नी और बेटी के साथ बाहर फैंक दिए जाने से यह किरदार क्रोधित हो जाता है और मॉल में बम होने की नकली अफवाह फैलाने लगता है।
मुंबई मेरी जान में दो अदने कांस्टेबलों की भी कहानी है। परेश रावल और विजय मौर्य ने अपने अभिनय में कमाल ही कर दिया है। दोनों बर्बर और अन्यायसंगत सिस्टम से भीतर ही भीतर फटे जा रहे हैं। एक-दूसरे के अच्छे इरादों को कुचला जाता देखते ये दोनों किरदार आपसी रिश्ते और सहारे से अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। यह कहानी इस फिल्म की सबसे बेहतरीन और आधार मूलक कहानी है। फिल्म में मरीन ड्राइव पर कुछ साल पहले एक बूथ में एक पुलिस वाले द्वारा एक लड़की का बलात्कार किए जाने की सच्ची घटना का संदर्भ है। टीवी पर उस दोषी पुलिस वाले को ले जाते हुए दिखाया जा रहा है और इस पर ये कांस्टेबल बात कर रहे हैं। यह बातचीत उस घटना के वक्त किसी टीवी चैनल की बहस या अखबार के संपादकीय पन्ने पर नहीं नजर आई थी।
एक पढ़े-लिखे बेरोजगार की भूमिका में के. के. मेनन हैं। ये पूरा दिन निठल्ले बैठे सांप्रदायिक साजिशों वाली कहानियां गढ़ते रहते हैं। इन कहानियों की हकीकत अंतत: और कुछ नहीं उसकी भड़ास ही होती है। उसका आंतरिक क्रोध फूटता रहता है। देश में पिछले साठ सालों से चल रही धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की बहस में यह फिल्म भी शामिल होती है। यह बेरोजगार युवा खुद अपने दुख से उपजे दुख से कुछ उत्तर पाता है तो कुछ जवाब कांस्टेबल के रूप में परेश रावल उसे देते हैं।
दरअसल तीनों ही फिल्में आतंक का डीएनए तलाशती फिरती हैं। फिर चाहे वह आतंक ट्रेन धमाकों का हो या गरीब होने का, प्रशासन को बदल पाने की कोशिशों में पूरी तरह असफल होने का हो या बेरोजगार होने का, मीडिया बनकर खड़े होने का हो या मीडिया को सामने खड़ा पाने का, बड़े शहर के तथाकथित विकास का हो या भीड़ भरे शहर में भी एक-दूसरे से अंजान होने का। ये फिल्में सामाजिक विमर्श करने का मिशनरी दावा करने वाले मीडिया का कान मरोड़ती हैं। ये फिल्में सिनेमा में समानांतर और मुख्यधारा दोनों को हाथ पकड़कर साथ ले जाती है। तीनों फिल्मों के निर्देशक बेहद युवा हैं और किन की तो यह पहली निर्देशित फिल्में है। मानव मन की लाल पत्थर वाली गुफाओं में ये फिल्में सफलतापूर्वक जाती हैं। ये फिल्में जोड़ती हैं। बातें करती हैं। बोलती हैं। असर डालती है। वह सब कुछ करती हैं जिसके लिए चित्रपट अस्तित्व में आया था। जिसके लिए सिनेमा बना था।
गजेन्द्र सिंह भाटी
सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
आत्मा की शान्ति में नफा नुकसान...'विशाल भारद्वाज की नीली छतरी'
हिमालय के उत्तर में बसे एक छोटे से गाँव की कहानी है। बर्फ़ीले पहाड़ों और हरी जाजम से ढका ......गाँव क्या है, धरती पर जन्नत है। लोग यहाँ सादगी का रसमय जीवन जीते हैं। इस रस के इर्द -गिर्द.... सुन्दरता, लोभ, प्रेम, गर्व, इच्छा और त्याग के मानवीय भावों के गुण-दोष भी चिपकते रहते हैं।
" मेरा टेसू यहीं अड़ा ...खाने को माँगे दही-बड़ा " गीत के साथ फ़िल्म का फीता घूमता है। खुशनुमा चहकती बाल नायिका बिनिया और गाँव के बच्चे यहाँ के सामूहिक धार्मिक आयोजन के लिए गली-गली, घर-घर नाचते-गाते चंदा माँग रहे हैं। महानगरों और उनकी प्रतिलिपि बनने की कोशिश में लगे छोटे शहरों में आज कथित विकास के साथ आपसी मौन और असंवाद की स्थिती है। मगर इस गाँव की गलियों की ही तरह पूरे भारत के ग्रामीण समाज में ऊर्जा और मुखर संवाद कायम है।
बच्चों की इस सामूहिक उछल-कूद के कुछ रूप आपको दिल्ली की गलियों में मिल जायेंगे। जन्माष्टमी की संध्या पर बच्चे ढोलकी लेकर " हाथी-घोड़ा पालकी ..जय कन्हैया लाल की " गाते-बजाते निकल पड़ते हैं। उफनते उत्साह और आनंद के साथ ढोलकी पर मासूम हाथों की थाप और जोर पकड़ती जाती है। नन्हे कंठों से निकलती जयकारे की आवाज निरंतर बढ़ती रहती है। दाँए-बाँए भौंचक खड़े पढ़े-लिखे नौजवान बगलें झाँकते नजर आते हैं। अपनी दार्शनिकता वश ......सामाजिक व्यवहार से दूर और महत्वाकांछी मौन के पास।
गाँव में रात को माता का जागरण है। "कह दो ना , कह दो ना ...यू आर माय सोनिया " की तर्ज पर माता के भजन गाये जा रहे हैं। नंदू की नाक प्रसाद में बनी मिठाई पर टिकी है। छिप कर मिठाई खा रहे बच्चे से छीनकर वह ख़ुद खा लेता है। और अब उसकी आनंद-अनुभूति देखने लायक है।
छाता बेहद सुंदर है। गाँव की औरतों और नंदू का दिल ईर्ष्या से भरा है। लेकिन बिनिया बेहद खुश है। नंदकिशोर के लालच और झाँसे बिनिया को नहीं ललचा पाते हैं। फ़िल्म में नंदू की बेसब्री का चित्रण कमाल का है। नंदू के मानस में झाँकता एक संवाद देखिये .....उसकी दुकान में काम करने वाला चालाक लड़का राजाराम पूछता है ......" चाचा छतरी की लेकर कोई फ़ायदा होगा क्या ?" अब जरा जवाब सुनिए ...." इन्द्रधनुष को देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पानी में कागज़ की नाँव तैरा के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पहाड़ों के पीछे ..सूरज को डूबते देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ऐ ..तेरे जैसे निखट्टू को काम पे रख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..आत्मा की सांति में नफा - नुस्का नहीं देखा जाता । ....कोई पिछले ही जनम का सम्बन्ध है । .....छतरी और खत्री का।
पशु चराने के दौरान एक दिन बिनिया की छतरी गुम हो जाती है। सुध-बुध खोई बच्ची को "गाँव के ईर्ष्यालु-छाता गुमने पर खुश होने वाले लोग" व्यंग्यमय सहानुभूति देते हैं। मगर बिनिया एक साहसी और चतुर लड़की है। गाँव के कोतवाल की दुलारी बिनिया उसके साथ नंदू की दुकान पहुँच जाती है। पुलिस तलाशी लेती है , पर कुछ मिल नहीं पाता है। अपमानित होने का ढोंग कर नंदू इकट्ठे गाँववालों के सामने प्रण लेता है कि "जब तक ऐसा का ऐसा छाता नहीं खरीद लेता ...अचार नहीं चखुंगा। " फ़िल्म का यह दृश्य बड़ा ही रोचक बन पड़ा है।
फ़िल्म में पंकज कपूर बताते हैं कि अभिनय किसे कहते हैं। " रुई का भार से लेकर...धरम तक " आते-आते उन्होंने फ़िल्म उद्योग के तथाकथित महासितारों का कद नाप डाला है। कोई भी उनके कंधे तक नहीं आता है। उनके अभिनय को जबां से बयां कर पाना संभव नहीं है। सिर्फ़ देखकर ही समझा जा सकता है।
एक लाल-सफ़ेद जापानी छाता कुछ दिन बाद नंदू के लिए कूरियर से आता है। पूरे गाँव में मिठाईयाँ बँटती हैं। अश्वमेघ यज्ञ के अश्व की तरह दमकता नंदकिशोर खत्री साइकिल पर छतरी टिकाए पूरे गाँव से जुलूस निकालता है। सारा गाँव अब नंदू से प्रभावित है। बिनिया को सब उलाहना भरी नज़रों से देखते हैं। नंदकिशोर की इज्ज़त गाँव वालों की नज़रों में बढ़ती ही जाती है। उसे वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिता का मुख्य अतिथि बनाया जाता है।
लेकिन चतुर बिनिया कूरियर लाने वाले से भेजने वाले का पता पूछती है। मालूम चलता है ....रंगरेज़ से रंगवाकर बिनिया का छाता ही भेजा गया था। असलियत सामने आते ही पंचायत गाँव को नंदू से सभी व्यवहार तोड़ लेने का फ़ैसला सुनाती है।
यहाँ से नंदू की दुर्दशा शुरू होती है। राजाराम दुकान छोड़ जाता है। पर्यटक अब यहाँ की चाय नहीं पीते हैं। " दो बिस्किट पर एक टॉफी फ्री " मगर बच्चे उससे बात भी नहीं करते हैं। गाँव वाले मखौल उड़ाते हैं। एक छाते के मोह में इस अधेड़ बच्चे को इतनी बड़ी सज़ा मिली है। बिनिया को यह बात भली नहीं लगती है। एक दिन वह बिस्किट लेने आती है और छाता वहीं छोड़ जाती है। नंदू देखकर गुस्से में उबलता छाते को लकड़ी से पीटता हैं । जैसे कोई बच्ची अपनी गुड़िया को डांट रही हो । जैसे कोई धोबी अपने गधे को पीट रहा हो।
बिनिया बर्फ की चादर पर चली जा रही है। पीछे से नंदू छाता लिए दौड़ा आ रहा है। नंदू कहता है ...." बेटी बिनिया तेरा छाता ?" बिनिया एक त्यागभरी चंचल मुस्कान लिए अंगूठा दिखाते बोलती है " मेरे ठेंगे से .... । " और छाता लिए बिना आगे बढ़ जाती है।
अब गाँव में परिदृश्य बदल जाता है। खत्री चायवाला से दुकान का नाम छत पर लगी लाल-सफ़ेद छतरी से छतरी चायवाला हो जाता है। बच्चे , नंदकिशोर , बिनिया और पर्यटक सभी खुश हैं।
संछिप्त संवाद और बारीक़ अभिनय निकलवाने में जो गलतियाँ रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मों में कर जाते हैं ...विशाल भारद्वाज नहीं करते हैं। उनकी फिल्में तुलनात्मक रूप से ज्यादा रोचक, बेहतर और वास्तविक लगती हैं। साहित्य से फिल्में बनाने में उनका कोई सानी नहीं है। लेखन, निर्माण, निर्देशन और संगीत तक देने वाले विशाल भारतीय सिनेमा के मौजूदा गर्व हैं।
गुलज़ार के लिखे गीत निर्झर बहते हैं। सुकून देते हैं। बिनिया की भूमिका में श्रेया श्रीवास्तव ने सम्पूर्णता दिखाई है। हालाँकि उन्हें अपेछित प्रशंसा नहीं मिल पाई है। फिल्म के निर्माता यू टी वी के रोनी स्क्रूवाला हैं। संपादन आरिफ शेख़ ने किया है जो फ़िल्म की श्रेष्ठता में बराबर के भागीदार हैं। इसका शानदार छायांकन हर दर्शक के लिए दावत है। हिमालय की वादियों से अटा फ़िल्म का हर एक फ्रेम सहेज कर रखने योग्य है।
" सिंग इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी, बचना ऐ हसीनों, गोलमाल रिटर्न्स, ता रा रम पम पम पम, चांदनी चौक टू चाइना ... " जैसी दैत्याकार बजट वाली भोथरी फिल्मों के सामने गौरवान्वित खड़ी यह नीली छतरी अनिवार्यतः सभी को देखनी चाहिए ।
गजेन्द्र सिंह भाटी
मंगलवार, 13 जनवरी 2009
" चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन : स्वर्ग के पवित्र बच्चे "
फ़िल्म शुरू होते ही इस बाज़ार संसार में से ये बोली सुनाई देने लगती है। उनके लिए .....जो आवश्यकता की सीमा से बहुत ऊपर बसे किसी सितारा लोक में रहते है ।
समाज में दो फाड़ है । एक जिनके पास जूतों के लिए भी महँगे चुनाव मौजूद है । संसाधनों की अतिवृष्टि उन पर बारह महीने होती रहती है। दूसरे जिन्हें जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी नही मिल पाती हैं। आवश्यकता की पूर्ति यहाँ सदैव अनुपस्थित रहती है ।
ईरान में महिलाओं के सिर खुला रखने और पाश्चात्य परिधान पहनने पर समाज में पाबन्दी है। मगर भूमंडलीकरण का ऊँट गुची और प्रादा जैसे जूतों की शक्ल में अरब पार पहुँच चुका है। मजीद मजीदी अपनी फ़िल्म ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन ' में दुनिया भर के बच्चों की मासूमियत का प्रतिनिधित्व करते हैं । फ़िल्म में समाज का यथार्थपरक विश्लेषण मौजूद है ।
9 साल का अली फ़िल्म का मुख्य किरदार है। घर में छोटी बहन जाहरा , माँ और पिता करीम है । पिता दफ्तरों में चाय पिलाता है । माँ लोगों के कपड़े धोती है। फ़िल्म की कहानी अली से शुरू होती है जो अपनी बहन के गंठवाए जूतों को लेकर सब्जी लेने पहुँचता है । अली भीतर नीचे पड़ी सस्ती सब्जियों में से आलू छांटने लगता है। एक बूढा कचरा बीनने वाला अखर आगा की सब्जी की दुकान के सामने पहुँचता है । वह अखर आगा से बाहर पड़ा कचरा उठाने की अनुमति माँगता है । बूढा जूतों को भी कचरे संग बीन ले जाता है । अली बाहर आकर जब जूतों को नही पाता तो उसकी आँखों में पानी बहने लगता है। एक छोटे मेमने की तरह डरा -सहमा इधर - उधर जूते ढूंढ़ता है, लेकिन सब्जीवाला उसे डाँटकर भगा देता है।
घर में क़र्ज़ ग्रस्त माँ - बाप अपनी-अपनी परेशानियों में घिरे हैं । बच्ची जाहरा के जूते गुम है। बच्चा डरा हुआ है कि जाहरा माँ को न बताए ....पिता से न कहे । रात को स्कूल का गृहकार्य लिखते बच्चे ....लिखकर आपस में बातचीत करते हैं। अली लिखता है...."तुम मेरे जूते पहन लो ....मैं तुम्हारी चप्पल पहन लूँगा । ....भगवान के लिए ...... । "
आँगन में बने छोटे पोखर में केसरिया- संतरी मछलियाँ तैरती हैं। मछलियों को दाना खिलाकर और जूते धोते समय पैदा हुए झाग उड़ाकर खुश होते भगवान के ये बच्चे ....अली-जाहरा । दुनिया भर के इन्द्रधनुषी उत्पादों से दूर यही इनका सुख है। गीले जूते अली को दोस्तों संग खेलने जाने से रोकते हैं। रात को बरसात आती है। जूते फिर भीग जाते हैं।
रात का खाना पूरा परिवार साथ खा रहा है। टेलीविजन चल रहा है। कार्यक्रम आ रहा है कि सही जूते न पहने जाएँ तो सरदर्द और कमरदर्द होने लगता है । बाज़ार का ये दावा दोनों बच्चों को भीतर तक सहमा जाता है । तभी टेलीविजन ख़राब आने लगता है । जब इसका परदा सही आता है तो अकस्मात ही एक बम धमाके का दृश्य दिखाई देता है । निर्देशक ने विश्व राजनीति और बाज़ारवाद के बीच का संधान सांकेतिक रूप में इस अन्तिम दृश्य के माध्यम से किया है।
प्रार्थना की कतार में प्यारी बच्ची को दूसरी लड़कियों के पैरों में पड़े जूते ही नज़र आते हैं। ....लाल , काले , अलग-अलग आकर्षक जूते । सहसा उसके जूते किसी दूसरी लड़की के पैरों में दिखाई देते हैं । हमउम्र आबेल के पैरों में। आबेल का पिता अँधा है । अली-जाहरा जूते ढूंढ़ते उसके घर पहुँचते हैं मगर आबेल के अंधे पिता को देखकर लौट आते हैं। इतिहास में त्याग और बलिदान के बड़े उदहारण हैं। बाल फिल्मों के इतिहास में अली-जाहरा का यह त्याग अपूर्व और यादगार है।
रात की नमाज और इबादत के स्वरों के बीच अली अपने पिता करीम की चाय की दुकान पर आए लोगों के जूते सिलसिलेवार करता है । उन्हें चाय पिलाता है। करीम के लिए चाय की दुकान घर चलाने को अपर्याप्त है।
अगले दिन अली अपने पिता के साथ साइकिल पर आगे बैठा शहर के बीच से गुजर रहा है । साइकिल ओवरब्रिज के ऊपर से निकल रही है। हाँफता , साइकिल चलाता , पसीना-पसीना करीम रईसों की बस्ती के संगमरमरी बंगलों में बागवानी कर पैसा कमाने की आस में आया है । संकरी गलियों में रहने और जूतों के लिए संघर्ष करने वाले अली के लिए यह नई दुनिया है।
" यहाँ गेट बजाने पर गाली निकालते ...मना करते बड़े घरों के लोग हैं । घंटी पर घंटी बजाओ ...पर कोई काम नही करवाना चाहता है। एक घर में से कुत्ता भौंकता है.......और बाप-बेटा दोनों साइकिल समेत भाग छुट्तें हैं। ये दुनिया का कैसा विभाजन है ? बड़े घर ....रईस लोग ..लेकिन बात करने को कोई नहीं । घर में झूलों का जमावड़ा है पर साथ में झूलने को कोई नहीं । एक घर में करीम को बागवानी का मौका मिलता है क्योंकि घर के बूढे मालिक का एकलौता पोता अकेला है । साथ में खेलने और बांटने को कोई बच्चा नहीं है । सितारा संसार .....कैसा ? ....सुखी या खोखला ? "
करीम लौटते समय सोचता है कि मोटर साइकिल , प्रेस , अलमारी , बड़ा फ्रिज भी हम खरीद सकते हैं अगर यहाँ काम किया जाए तो । वह खुश है । तभी ढलान आती है । साइकिल के ब्रेक फेल हो जाते हैं। दोनों गिरते हैं और चोटों के साथ घर पहुँचते हैं । परेशानियों या कहें तो इस दुनिया के लोगों के लिए यंत्रणा का दौर जारी है ।
अब भाई -बहन खुश हैं कि जीतने पर जूते मिलेंगे। आज दौड़ का दिन है। इकट्टे सैंकड़ों बच्चे रंग-बिरंगी खेल पौशाक पहने दौड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन अली अपने रोज वाले कपड़ों में बैचेन है कि कब रेस शुरू हो और वह जूते पाए ।
5 किलोमीटर की झील तक होने वाली यह दौड़ शुरू होती है । हजारों बच्चों में एक अली .....दौड़ता जाता है। आँखों के आगे जाहरा के जूते , उन गलियों की स्मृति जहाँ दौड़ते-हाँफते दोनों जूतों की अदला-बदली करते थे और छोटी बहन का चेहरा घूमता रहता है। अग्निपरीक्षा है । अंततः अली जीत जाता है । .....उसका पहला सवाल ....."क्या में तीसरा स्थान जीता ?" ....जवाब आता है .."बच्चे तुम जीत गए ...तीसरा स्थान क्या । "
अली रो रहा है...जीतकर .....हजारों से । क्योंकि वह सोना जीता । एक जोड़ी जूते नहीं । हमेशा देर से आने वाले अली ने आज अपनी स्कूल का नाम रोशन किया है । अभाव में रहकर भी वह.....प्रचुर संसाधन वालों से जीता है।
अली को नहीं पता है कि आज उसके पिता ने दोनों भाई-बहनों के लिए नए जूते खरीदें हैं । वह मायूस घर लौटता है । फटे जूते और मौजे उतारता है । बहन की आशा भरी आँखों से उसकी दुखी नज़रें मिलती हैं । वह समझ जाती है ।
घर के बीच बने छोटे पोखर में अली अपने घायल पैर डाल देता है । तभी केसरिया मछलियाँ तैरती आती है । अपने स्पर्श से उसके घावों को राहत देती हैं । शीतलता के साथ यह बाल कथा यहीं ख़त्म होती है । कहा जाता है कि अली आगे चल कर एक सफल रेसर बनता है ।
आलोचकों ने इसकी तुलना वित्तोरियो दी सीका की 1948 में बनी फ़िल्म " बाईसाइकिल थीव्स " से की है । जेक नियो की 2003 में बनी ' होम रन ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन से प्रभावित थी । हालाँकि होम रन में मुख्य तत्व दोस्ती के इर्द - गिर्द घूमता है । भारत में 2007 में इसकी नक़ल करके " सलाम बच्चे " बनाई गई थी ।
चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन बच्चों की फ़िल्म होते हुए भी सामजिक यथार्थ के विश्लेषण से युक्त है । विश्व सिनेमा से जुड़ा यह पन्ना विशाल भारद्वाज निर्देशित और पंकज कपूर अभिनीत " ब्लू अंब्रेला " की याद दिलाता है ।
गजेन्द्र सिंह भाटी