मुंबई में बीते साल हुई आतंकी घटना की बरसी इस 26 नवंबर को देश भर में उत्सव की तरह मनाई गई। मगर सड़ांध, भूख और आतंक से बैचेन अंतस बस जी रहा है। इसका कोई जवाब नहीं देता है, समझना तो दूर की बात है। बस अपने पीछे बिलखते लोग और शवों के चीथड़े छोड़ गए धमाकों के बाद हर बार गृहमंत्री टेलीविजन पर नजर आए। हर बार.... चेहरे पर चमक, बदन पर आला दर्जे के कपड़े वाली बंद गले की पोशाक और हाथ में एक कागज का टुकड़ा। 'हम इस हमले की निंदा करते हैं। कड़ी कार्रवाही करेंगे' .....यह बोलने के लिए भी लिखा हुआ पढऩा पड़े तो हो चुकी कार्रवाही। व्यथित समाज के अंतर्मन को क्या प्रशासन, निर्वाचित नेता और बुद्धिजीवीयों ने ढांढस बंधाया ? नहीं....।
मगर उस वक्त तीन युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के जरिए बंधाया। मुंबई की पृष्ठभूमि में समाज और लोगों पर आतंकी घटनाओं का क्या प्रभाव है? कारण क्या है? यहां तक की समाधान क्या है? यह भी बताने की शानदार कोशिश निशीकांत कामत, नीरज पांडे और राजकुमार गुप्ता ने की । इनकी फिल्में 'मुंबई मेरी जान ' , 'अ वेडनसडे' और 'आमिर ' अपने समय के समाज की संबंधित विषय पर अभिव्यक्ति के लिए हमेशा याद की जाएंगी।
राजकुमार गुप्ता की फिल्म 'आमिर ' में सूट और टाई पहने आमिर अली डॉक्टरी करके लंदन से स्वदेश लौटा है। परिजनों के लिए उपहार और खुशी से भरे इस नौजवान को इमीग्रेशन और कस्टम अधिकारी दो बार तलाशते-खंगालते हैं। बार-बार पूछताछ करते हैं। ताने मारते हैं। क्योंकि उसका नाम आमिर हैं। आमिर का किरदार इनदिनों के लोकप्रिय कार्यक्रम 'सच का सामना ' के प्रस्तोता राजीव खंडेलवाल निभाया हैं। हवाई अड्डे पर इन अधिकारियों के इस बर्ताव से मन खिन्न हो जाता है, मगर आमिर सहज और वाकपटु है। वह सोचता है कि देश के कुछ लोग ही ऐसे हैं। इनकी वजह से उसे खुद को पृथक महसूस नहीं करना चाहिए। देश के मुसलमानों की दशा और अवचेतन का बारीक बहु -विश्लेषण करती यह फिल्म आगे बढ़ती है। एयरपोर्ट पर उसका परिवार नहीं है। दो मोटरसाईकिल सवार आमिर को एक फोन सौंप जाते हैं। अब उसे अपने परिवार को जीवित देखना है तो फोन के दूसरे छोर से आते निर्देशों का पालन करना होगा। निर्देशक यहां से आतंक के समानांतर हमारी फिल्मों में हमेशा भुला दिए जाने वाले मुहानों तक पहुंचता है। डोंगरी, भैंडी बाजार की चाल, मल से भरी संकरी गलियां और दुर्गंध भरे शौचालय देखकर आमिर उल्टी कर देता है। फोन के दूसरी ओर से निर्देशक राजकुमार गुप्ता का यह संवाद किसी तेज गति से आती ईंट की तरह नायक और दर्शक को आकर लगता है, 'देखा, हमें हगने की जगह नहीं देते हैं तो जीने की क्या देंगे..। ' आमिर और उसे जिहादी आत्मघाती बम बनाने को प्रतिबद्ध उस आवाज के बीच का यह संवाद निरंतर और बहुआयामी है।
फिल्म 'अ वेडनसडे ' के जरिए निर्देशक नीरज पांडे का जवाब आक्रामक है। बहुतों को गलत तो कईयों को सही लगेगा। मगर हकीकत और बहस को और समृद्ध ही करेगा। नीरज पांडे ने अपनी इस पहली निर्देशित फिल्म से ही काफी लोकप्रियता हासिल की है। वर्षों बाद अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह जैसे शीर्ष अभिनेताओं को एक बार फिर साथ लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इससे पहले दोनों ने शाहरूख खान और पूजा भट्ट के अभिनय वाली फिल्म 'चाहत ' में साथ काम किया था। खैर फिल्म की कहानी साधारण, पर प्रस्तुतिकरण विशेष है। मुंबई पोलिस के कमिश्नर राठौड़ को एक गुमनाम फोन आता है। इसमें कहा जाता है कि अगर कहे मुताबिक चार खूंखार आतंकियों को नहीं छोड़ा गया तो मुंबई के अलग-अलग इलाकों में लगाए गए बम फोड़ दिए जाएंगे। पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर और गुमनाम नसीरुद्दीन शाह के बीच की बातचीत पुलिस प्रशासन, उसकी तकनीकी दक्षता, आधुनिकीकरण, आम आदमी में पसरे डर, आतंकियों के हौंसले और सरकारी नाकामी के प्रति एक आम आदमी के गुस्से के इजहार के बीच चलती है। फिल्म का क्लाईमेक्स कमजोर समझे जाने वाले देश के 'कॉमन मैन ' की सहनशक्ति का विस्फोट है।
मुंबई मेरी जान बेहद विश्लेषण वाली और राह सुझाने वाली फिल्म है। यहां लोगों पर आतंकी घटना के पड़े प्रभाव के साथ मुंबई के बारे में भी बात की गई है। मुंबई में 2006 में हुए ट्रैन बम धमाकों का शहर के छह अलग-अलग किरदारों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसी का फिल्म पीछा करती है। एक युवा पेशेवर की भूमिका में माधवन की कहानी है। यह युवा अपनी गर्भवती पत्नी और परिवार के बार-बार कहने के बावजूद कार सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता है कि उससे शहर के भयावह ट्रैफिक में और इजाफा न हो। मगर एक दिन के धमाकों के बाद वह महसूस करता है कि अब रेल की यात्रा की कल्पना भी उसके लिए डरावना सपना बन चुकी है। सोहा अली खान एक महत्वाकांक्षी पत्रकार की भूमिका में है। धमाकों के बाद वह लोगों से पूछती फिर रही होती है कि 'आपका रिश्तेदार मारा गया, आपको कैसा लग रहा है? ', तभी उसे पता लगता है कि ये धमाके उसके मंगेतर को भी लील गए हैं। अब उसके साथी मीडियाकर्मी उसकी भूमिका में हैं। उस पर प्राइम टाइम कार्यक्रम बनता है, 'रूपाली बनी रूदाली ' ।
इरफान खान दक्षिण भारत से आए एक चाय वाले बने हैं। वह इस शहर के व्यवहार से दुखी हैं। फिल्म का एक दृश्य देखिए। एक 15-16 साल का लड़का मंहगी गाड़ी में कीचड़ उछालता निकलता है। साईकिल पर आ रहे चाय वाले पर इसके छींटे उछलते हैं। आगे वह युवा चाय-पान की दुकान पर 100 रूपये से भी ज्यादा कीमत वाली सिगरेट मांगता है और इरफान खान तीन रूपये का पारले-जी बिस्कुट। अब इरफान चाय-बिस्कुट ग्रहण कर रहा है और देख रहा है कि कैसे सिगरेट फूंकते इस युवा ने कई दसियों हजार वाले अपने मोबाइल को जमीन पर फैंक कर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया क्योंकि उसे गुस्सा आ गया था। फिल्म की इस कहानी में उत्तर भारतीयों के साथ मुंबई में होने वाले बुरे बर्ताव से इतर दक्षिण भारतीय होने का जो दुख इस किरदार ने अभिनीत किया है वह अपने आप में पहली बार सिनेमा के पर्दे पर उकेरा गया है। खैर एक बड़े मॉल से अपनी पत्नी और बेटी के साथ बाहर फैंक दिए जाने से यह किरदार क्रोधित हो जाता है और मॉल में बम होने की नकली अफवाह फैलाने लगता है।
मुंबई मेरी जान में दो अदने कांस्टेबलों की भी कहानी है। परेश रावल और विजय मौर्य ने अपने अभिनय में कमाल ही कर दिया है। दोनों बर्बर और अन्यायसंगत सिस्टम से भीतर ही भीतर फटे जा रहे हैं। एक-दूसरे के अच्छे इरादों को कुचला जाता देखते ये दोनों किरदार आपसी रिश्ते और सहारे से अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हैं। यह कहानी इस फिल्म की सबसे बेहतरीन और आधार मूलक कहानी है। फिल्म में मरीन ड्राइव पर कुछ साल पहले एक बूथ में एक पुलिस वाले द्वारा एक लड़की का बलात्कार किए जाने की सच्ची घटना का संदर्भ है। टीवी पर उस दोषी पुलिस वाले को ले जाते हुए दिखाया जा रहा है और इस पर ये कांस्टेबल बात कर रहे हैं। यह बातचीत उस घटना के वक्त किसी टीवी चैनल की बहस या अखबार के संपादकीय पन्ने पर नहीं नजर आई थी।
एक पढ़े-लिखे बेरोजगार की भूमिका में के. के. मेनन हैं। ये पूरा दिन निठल्ले बैठे सांप्रदायिक साजिशों वाली कहानियां गढ़ते रहते हैं। इन कहानियों की हकीकत अंतत: और कुछ नहीं उसकी भड़ास ही होती है। उसका आंतरिक क्रोध फूटता रहता है। देश में पिछले साठ सालों से चल रही धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की बहस में यह फिल्म भी शामिल होती है। यह बेरोजगार युवा खुद अपने दुख से उपजे दुख से कुछ उत्तर पाता है तो कुछ जवाब कांस्टेबल के रूप में परेश रावल उसे देते हैं।
दरअसल तीनों ही फिल्में आतंक का डीएनए तलाशती फिरती हैं। फिर चाहे वह आतंक ट्रेन धमाकों का हो या गरीब होने का, प्रशासन को बदल पाने की कोशिशों में पूरी तरह असफल होने का हो या बेरोजगार होने का, मीडिया बनकर खड़े होने का हो या मीडिया को सामने खड़ा पाने का, बड़े शहर के तथाकथित विकास का हो या भीड़ भरे शहर में भी एक-दूसरे से अंजान होने का। ये फिल्में सामाजिक विमर्श करने का मिशनरी दावा करने वाले मीडिया का कान मरोड़ती हैं। ये फिल्में सिनेमा में समानांतर और मुख्यधारा दोनों को हाथ पकड़कर साथ ले जाती है। तीनों फिल्मों के निर्देशक बेहद युवा हैं और किन की तो यह पहली निर्देशित फिल्में है। मानव मन की लाल पत्थर वाली गुफाओं में ये फिल्में सफलतापूर्वक जाती हैं। ये फिल्में जोड़ती हैं। बातें करती हैं। बोलती हैं। असर डालती है। वह सब कुछ करती हैं जिसके लिए चित्रपट अस्तित्व में आया था। जिसके लिए सिनेमा बना था।
गजेन्द्र सिंह भाटी