गुरुवार, 13 जून 2013

नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’ : रिश्तों की रसायनशाला

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 

 
नीरज घैवन हैदराबाद में पले-बढ़े। इंजीनियरिंग की, एक कंसल्टिंग फर्म में एक साल काम किया और मार्केटिंग में एमबीए की डिग्री ली। फ़िल्में बनाने के लिए उन्होंने मार्केटिंग में भविष्य छोड़ दिया। बाद में अनुराग कश्यप से जुड़े। उनको कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में असिस्ट किया। पिछले साल आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर और स्क्रिप्ट सुपरवाइजर रहे। अनुराग की ही आने वाली फिल्म ‘अग्ली’ में वह सेकेंड यूनिट डायरेक्टर हैं। नीरज 2011 में अपनी पहली शॉर्ट फिल्म ‘शोर’ बना चुके हैं। फिल्म का प्रीमियर अबु धाबी फ़िल्म फेस्टिवल में हुआ। फिर साउथ एशियन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल, न्यू यॉर्क में इसने पुरस्कार जीता। अब उनकी दूसरी शॉर्ट फिल्म ‘द एपिफनी’ आई है। यह एक तलाकशुदा जोड़े की कहानी है। पुणे में अपने कॉलेज रीयूनियन में हिस्सा लेकर दोनों न चाहते हुए भी एक ही गाड़ी में मुंबई लौट रहे हैं। रास्ते में मदद के लिए पुकार रही एक बूढ़ी औरत और उसके पोते को ये कार में लिफ्ट देते हैं। ये छोटा और अगंभीर लगने वाला कदम उनकी जिंदगी में नए मायने लेकर आता है। आगे फ़िल्म वर्ग, संस्कृति, नैतिकता, पुराने घावों और असल जिंदगी की हकीकतों को पिरोती चलती है। अपनी अगली फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे नीरज ने ‘द एपिफनी’ पर बात की।

एपिफनी शब्द के क्या मायने हैं?
एक अजीब सा वाकया जो हमारी आम सोच में नहीं होता लेकिन फिर कहीं से आ जाता है और उस सोच को बदल देता है। यही एपिफनी है। जैसे, इस जोड़े की जिंदगी में वह बूढ़ी औरत एपिफनी बनकर आती है।

इस कहानी के पीछे के हजारों विचार क्या रहे?
मैंने पहले ‘शोर’ नाम की एक फ़िल्म बनाई थी। वह भी एक शादीशुदा जोड़े के बारे में थी लेकिन वह एक अलग जोन में रची-बसी कहानी थी। मुझे यह विषय बहुत लुभाता है। एपिफनी के सिलसिले में मुझे कहा गया था कि इंडिया इंक के बारे में फ़िल्म बनाएं। मैंने कहा कि मैं इनक्रेडेबल इंडिया के बाकी विज्ञापनों की तरह इसे नहीं बनाना चाहता कि जहां सिर्फ जयपुर के बाग, रंग, महल और बनारस के घाट जैसी चीजें दिखाकर छोड़ दी जाएं। मेरे लिए यह इंडिया मेरा वाला था। यहीं पर मैंने यह कहानी चुनी। एक तलाकशुदा कपल की कहानी होने के अलावा यह इंडिया के बारे में बात करने के लिए रूपक (मेटाफर) है। जैसे, हम लोग कहते हैं कि हम एक सेक्युलर देश हैं, समदर्शी देश हैं, लेकिन क्या सच में हैं ? शायद शहरों में हम आगे हो गए हैं तो ऐसा मानते हैं लेकिन छोटे शहरों और गांवों में तो आज भी वही भारत है। अभी भी भेदभाव तो है। इन सबके बीच देश में अच्छा यह है कि किसी को छोटी सी दिक्कत हो जाए तो सारे जमा हो जाते हैं। जैसे, एक मोहल्ले में बहुत से लोग रहते हैं। सब अलग-अलग तरह से रहते और जीते हैं। पानी के घड़े तक को लेकर बात हो जाती है कि “तुम तो मच्छी बनाते हो”, “इसमें से बास आती है”। लेकिन मान लीजिए मुंबई में हमला हो गया तो ये बातें भूल सब फोन करके हाल-समाचार लेते हैं कि “यार तुम घर पहुंच गए क्या ठीक-ठाक”। तो यह एक मानवीय चेहरा है। भारतीय होने का यह श्रेय बड़ा है। हम में इतनी भाषाएं और इतने प्रांत है, इतनी विभिन्नता है फिर भी हम किसी न किसी चीज से जुड़े हैं। मेरे लिए इन चीजों को किसी न किसी रूप में फ़िल्म में दिखाना जरूरी था। मसलन, इस कपल ने मान लिया है कि हम साथ नहीं रह सकते। फिर अकस्मात उन्हें एक गाड़ी में साथ जाना पड़ता है, उनके एक दोस्त को आना होता है लेकिन वह आ नहीं पाता। अब कोई चारा नहीं है। मुंबई भी एक ऐसी ही गाड़ी है जिसमें हर तरह के लोग साथ में हैं। इतनी विविधता के बावजूद। हम सब रह रहे हैं लेकिन जब भी कुछ होता है तो साथ आ जाते हैं। जैसे, ये दोनों कार में जा रहे हैं और इनकी अनबन शुरू हो जाती है। बाद में बातचीत बंद हो जाती है। यहां वह बूढ़ी औरत आती है और वह इंडिया का सिंबल होती है।

Neeraj Ghaywan
फ़िल्म में जो भारत है वो रुढ़िवादी समाज वाला भारत नहीं है। पहले ऐसा होता था कि मर्द कहते थे कि “औरत तुम घर पर बैठो” या “तुम दहेज लेकर नहीं आई हो”, अब डिबेट एक-दूसरे की विचारधारा पर है, आइडियोलॉजी के झगड़े हैं। वो जमाना गया जब प्रथाएं थीं और हम उन पर झगड़ रहे थे। ‘द एपिफनी’ में आप देखेंगे कि वह औरत सबसे सफल है, वह गाड़ी चला रही है। उसका पति आदर्शवादिता की वजह से अटका हुआ है। पीछे जो बूढ़ी महिला बैठी हैं वह गांवों में बसा भारत है। ये कल्चरल डिवाइड है। फिर देखिए कि वह आदमी बुढ़िया की मदद करना चाहता है जबकि उसकी भाषा भी नहीं जानता। वहीं उसकी पूर्व-पत्नी जो उस बूढ़ी औरत की भाषा (मराठी) जानती है फिर भी उसके प्रति उत्साहकारी एटिट्यूड नहीं रखती। न चाहते हुए भी उसे बूढ़िया और उसके पोते की मदद करनी पड़ती है। आगे जाकर जब दोनों को पता चलता है कि बच्चे की हालत सही नहीं है, वह बेहोश हो गया है तो सकपका जाते हैं और अपना झगड़ा भूल जाते हैं। कि हम लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर दी, इतना अटपटा हो गया है। अब वो चाहते हैं कि बुढ़िया को हेल्प करें और जुट जाते हैं मदद करने में। कहानी में इन सब विचारों के कई स्तर हैं। जैसे, वह औरत अगर शुरू में बुढ़िया और बच्चे को अपने गाड़ी में नहीं बैठाना चाहती तो इसलिए क्योंकि उसे ऑफिस के काम से जल्दी पहुंचना है। हम ऑफिस के प्रैशर की वजह से कभी-कभी अपनी नैतिकता खो देते हैं। हालांकि बाद में वह हेल्प करना चाहती है।

तलाकशुदा पति-पत्नी का परदे पर निर्माण...
मैं कोई बहुत ग्रेट राइटर नहीं हूं इसलिए मैं अपने विषय के संबंध में बहुत सारे लोगों से बात करता हूं। मैं मानता हूं कि सच कल्पना से बहुत आगे होता है और बहुत सुंदर होता है। सिनेमा में भी वही दिखाना चाहता हूं। चूंकि ये कहानी मूलतः एक तलाकशुदा जोड़े की थी इसलिए असल जिदंगी में तलाक ले चुके जोड़ों से मैंने बातें की। उन्होंने बताया कि तलाक के बाद के झगड़े बेहद अलग तरीके से होते हैं। उनमें बहुत ज्यादा बातें नहीं होती हैं, व्यंग्य या ताने ज्यादा होते हैं। इस वजह से मेरे मन में था कि मुख्य भूमिकाओं के लिए असली पति-पत्नी को लेना चाहिए। यहीं पर रत्नाबली और सुहास को लिया। रत्नाबली सच में बंगाली हैं और सुहास पंजाबी। दोनों पति-पत्नी हैं। जब तलाकशुदा जोड़े की असल जिदंगी बतानी थी तो नाटकीयता से समझौता किया। एक बहुत जरूरी चीज थी जो मैं बताना चाहता था कि ऐसा नहीं होता कि अंत में सब कुछ बदल जाता है। सब कुछ नहीं बदलता है। आप देखेंगे कि इन दोनों किरदारों के रिश्ते में भी ज्यादा कुछ बदलाव हुआ नहीं। जैसे, आखिर में वह कहती है कि “तुम बेटी से मिलने आ सकते हो”, तो ये हल्का सा चेंज है। असल जिंदगी में बड़ा चेंज नहीं आता है। यहां तक भी हो कि ये दोनों शायद मुंबई पहुंचने के बाद कभी भी नहीं मिलेंगे।

फिर फ़िल्म बनाने में कितना वक्त लग गया? क्या पड़ाव रहे?
उस वक्त मैं एक फ़िल्म में जुटा हुआ था और जद्दोजहद में था। मन मेरा आधा-अधूरा था। बहुत सारी चीजें कर रहा था। ‘अग्ली’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। माइंड सेट नहीं था तो ‘द एपिफनी’ को लिखा और विचार और विकसित होने लगा, कोई 10-15 दिन गए होंगे। क्योंकि वो आइडिया दिमाग में पलता रहता है, फिर ‘कुछ ऐसा करें वैसा करें’ दिमाग में घुटता रहता है। लिखने बैठा तो 10 दिन में शायद लिख दिया था। शूटिंग में बहुत दिक्कत हुई। पूना-बॉम्बे हाइवे दूर था, बहुत से लोगों ने कहा कि पास के ही हाइवे पर शूट कर लो लेकिन मुझे लगता है कि हर कहानी का एक शोर होता है और हमें उसी में जाना चाहिए। मेरा सिद्धांत है कि जिन लोगों की बात कर रहा हूं उनकी दुनिया में जाकर ही बात करूं। इसलिए पूना-बॉम्बे हाइवे पर ही जाकर शूट किया।

दिक्कत क्या आई शूटिंग में?
दिक्कत ये थी कि आमतौर पर सेट्स पर एक मॉनिटर होता है जिसमें डायरेक्टर देखता रहता है कि शॉट में क्या हो रहा है। मेरे साथ दिक्कत ये थी कि गाड़ी के बोनट पर कैमरा रखा हुआ था तो मैं अंदर बाजू में नहीं बैठ करता था। ऊपर से कैमरा छोटा था तो उसमें भी नहीं दिख रहा था कि क्या हो रहा है। मॉनिटर नहीं था तो कलाकारों के परफॉर्मेंस के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था, ये चीज सबसे ज्यादा दिक्कत कर देती है। चूंकि मुझे अंदेशा पहले से था इसलिए मैंने दोनों के साथ बहुत वर्कशॉप कीं। एक चुनौती ये थी कि फ़िल्म में वास्तविकता की प्रस्तुति कैसे हो क्योंकि फ़िल्म बनाते वक्त आपकी ऑब्जेक्टिविटी चली जाती है। इसलिए कुछ तलाकशुदा लोगों को मैंने दिखाई। दो-तीन लोग रो दिए। मैं आश्वस्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लगता है एकदम से जिंदगी हमारे सामने आ गई है। बाद में और लोगों को भी दिखाया। उनके फीडबैक को भी मैंने अंतिम नहीं माना था। मगर अब जब फ़िल्म उपलब्ध है और इतने सारे लोग बोल रहे हैं कि फ़िल्म ने बहुत टच किया है तो राहत होती है। लोगों ने इतने मैसेज किए हैं कि इनबॉक्स भर गया है। मैं बहुत खुश हूं। जो देख रहे हैं, कनेक्ट कर रहे हैं। मुझे ये भूख नहीं है कि दस लाख या पचास लाख लोग इसे देखें। जितने लोग भी देखे उन्हें पसंद आए और वे आकर ये भी बताएं कि क्या अच्छा नहीं लगा। इतनी तारीफ के बाद लगता है कि कोई तो बोले ये खामी थी। जैसे, एक ने लिखा कि “आप शायद ड्रामा और दिखाते”। इस पर मैंने लिखा कि “मैंने तीन-चार कपल से पूछा था और उन्होंने कहा कि तलाकशुदा कपल का माजरा अलग होता है, उसमें ड्रामा नहीं जंचता”।

तकनीक वाला या मूल सिनेमा...
‘शोर’ बनाई तो लोगों को बहुत पसंद आई। मैंने सोचा नहीं था कि इतनी पसंद आएगी। मगर ‘द एपिफनी’ के वक्त मैं चाहता था कि सिर्फ क्राफ्ट पर ध्यान दूं। जैसे, आपको सिर्फ एक सीमित स्पेस दे दिया जाए और कहा जाए कि बस एक कैमरा है और कुछ नहीं है माध्यम, तो आप कैसे करेंगे? मैं ऐसी ही मुश्किल परिस्थिति से भिड़ना चाहता था। आखिरकार ये चीजें न भी हों तो फ़िल्ममेकिंग का सबसे प्योर फॉर्म तो नेरेटिव ही होता है। वो तो आपके साथ हमेशा ही होता है। मुझे वो दिख जाता है तो मैं सब भूल जाता हूं। साधन जरूरी होते हैं लेकिन उनके बगैर जो सिनेमा बने वो पवित्रतम रूप होता है सिनेमा का।

ऐसे पवित्रतम रूप वाले सिनेमाकारों में आपको कौन पसंद आते हैं?
बेला तार (हंगरी) हैं। मैंने उनकी तकरीबन सारी फ़िल्में देखी हैं। उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। अफसोस कि उन्होंने फ़िल्में बनाना छोड़ दिया है। डारिएन ब्रदर्स (जाँ पियेर और लूक डारिएन, बेल्जियम) मेरे फेवरेट्स में से एक हैं। उनकी फ़िल्मों में कुछ भी टेक्नीकली करप्ट करने वाला नहीं होता है। इनारित्तू (आलेहांद्रो गोंजालेज इनारित्तू, मेक्सिको) की फ़िल्में बहुत ही इंटरपर्सनल होती हैं। असगर फरहादी (ईरान) की सारी फ़िल्में मैंने देखी हैं। इनके अलावा माइकल हेनिके (ऑस्ट्रिया) हैं, फैलिनी (फेडरीको फैलिनी, इटली) हैं। इन सबकी फ़िल्मों पर बड़ा हुआ हूं।

संगीत को लेकर आपकी सोच क्या रही?
म्यूजिक नरेन चंदावरकर ने दिया है। वह पहले ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में म्यूजिक दे चुके हैं, हाल ही में उन्होंने ‘शिप ऑफ थीसियस’ में भी म्यूजिक दिया है। इस फ़िल्म के दौरान हुआ क्या कि हमें जल्दी में बनानी थी। तीन दिन में शूट किया, दो दिन में एडिट किया और दो दिन में पोस्ट प्रोडक्शन किया। म्यूजिक डायरेक्टर ने बोला कि “मुझे टाइम दो मैं खुश नहीं हूं, मैं अपने आप से ही करता हूं”। डेडलाइन का प्रैशर था पर मैं अच्छा महसूस कर रहा था कि वो इतनी मेहनत कर रहे थे। तो मैंने कहा, ठीक है करिए। उन्होंने पूरी रात जागकर क्लैरिनेट के साथ प्रयोग किए। इस तरह अलग रहा। मैं रॉ इंस्ट्रूमेंट्स में जाता हूं। वाइडर स्पेस में जो इंस्ट्रूमेंट काम करते हैं वो बाकी में नहीं करते। जैसे, एंड क्रेडिट्स में बहुत अच्छा क्लैरिनेट आता है। फ़िल्म के शुरू में बहुत रॉ म्यूजिक आता है, बीच में डिस्टर्ब करने वाला साउंड आता है और आखिर में क्लैरिनेट आता है।

एंड क्रेडिट्स में दोस्तों को शुक्रिया कहा...
दरअसल मैं बहुत लोगों की राय लेता हूं। वरुण ग्रोवर और मैं बहुत अच्छे दोस्त हैं। उसके साथ मिलकर मैंने अगली फ़िल्म लिखी है जिसे डायरेक्ट करूंगा। द्विजोत्तम भट्टाचार्य ने बहुत मेहनत की। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से सब हैंडल किया। अनुभूति भी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, उन्होंने भी बहुत मदद की। अपनी जिंदगी से उन्होंने फ़िल्म को बहुत कुछ दिया। कुणाल शर्मा भी, इन सबको शुक्रिया कहा।

मुख्य भूमिकाओं के लिए रत्नाबली, सुहास और ज्योति सुभाष का चुनाव कैसे किया?
‘शोर’ एक बनारसी कपल की कहानी थी जो बनारस छोड़कर आते हैं बंबई में गुजारा करने। आदमी की नौकरी चली गई है। काम मिल नहीं रहा है, वह ऑटोरिक्शा ढूंढ रहा है और घर में गरीबी है। तो औरत सिलाई का काम शुरू करती है। उसमें उनकी लड़ाई शुरू हो जाती है। बाद में पता चलता है कि ऑटो का परमिट महंगा है और वो सिलाई उसके लिए कर रही है। उन किरदारों के सिलसिले में मेरे दोस्त वासन बाला ने मुझे रत्नाबली के बारे में बताया कि वो कल्कि कोचलिन के साथ अंग्रेजी थिएटर करती हैं। उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती है। तो विनीत सिंह जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हैं, ‘शोर’ में हैं, उन्होंने रत्नाबली को बनारसी डिक्शन सिखाया। रत्नाबली ने फ़िल्म के लिए अपना पूरा कायपलट किया। साड़ी पहनी, चोटी बांधी, तेल लगाया, बनारसी हिंदी बोली... तो मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। मैंने कहा कि आपके साथ ही अगली फ़िल्म बनाऊंगा। उनके हस्बैंड सुहास भी एक्टर हैं। उन्होंने ‘तलाश’ में छोटा रोल किया है। उन्होंने बहुत बार साथ काम किया। सुहास ने ‘शोर’ में म्यूजिक किया। तो दोनों एक्टर थे और मुझे सेमी-डॉक्युमेंट्री स्टाइल में शूट करना अच्छा लगाता है इसलिए सोचा कि इस रियल कपल को लिया जाना चाहिए। अम्मा (ज्योति सुभाष) को तो मराठी फ़िल्मों में देखा था। बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्मों में वह काम कर चुकी हैं। उनका काम मुझे बहुत पसंद है। उनका चेहरा ही इतना अच्छा है।

एक ही फ्रेम में देहाती भाषा, परिवेश और कच्चापन लिए अम्मा हैं और वो दोनों शहरी पति-पत्नी। इससे एक अलग ही दृष्टिगत विरोधाभास पैदा होता है, उनकी सोच में भी वो फर्क है?
अम्मा का नजरिया भी वैसा ही है जैसा गांव के लोगों का होता है। जैसे, गांव के लोगों को लगता है कि शहर के लोग बहुत सुखी हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। अब फ़िल्म में उन्हें नहीं पता कि ये दोनों औरत-मर्द तलाकशुदा हैं। एक मौके पर वह कहती भी हैं कि तुम्हारे पास तो सब कुछ है फिर क्यों झगड़ा करते हो। कुछ लोगों का नजरिया होता है कि पैसा ही सब कुछ है। लेकिन वो बूढ़ी अम्मा अपने नजरिए में ज्यादा खुश है। जैसे, फ़िल्म में एक जगह उसे समझ नहीं आता कि दोनों का शुक्रिया अदा कैसे करें तो वह टिफिन में पोहा लाती है और उन्हें खिलाती है।

जो वैचारिक बहस इन पति-पत्नी के बीच चलती रहती है कि एक आदर्शवादी है और दूसरी प्रगतिवादी, उसके रेशे कैसे बुने?
फ़िल्म में इनके बीच दो तरह की बहस होती हैं। पहली हल्कीफुल्की होती है, जैसे “तुम फिश खाती हो”, “सरसों का तेल लगाती हो” या “तुम बटर पनीर मसाला...”। यानी तूतू-मैंमैं वाली फाइट। लेकिन दूसरी गंभीर होती है। जैसे, सुहास उसे यहां तक कह देता है कि “तुम बहुत ही घटिया (घृणित) इंसान हो, तुमने मुझे अपनी बेटी से तीन साल दूर रखा”। अगर आपने पढ़ी हो तो अयान रैंड की एक किताब है ‘फाउंटेनहैड’। उसमें दो आर्किटेक्ट होते हैं। एक हावर्ड रोर्क है जो बहुत आदर्शवादी है। वहीं उसका दोस्त पीटर कीटिंग है जो कहता है कि मैं बिल्डिंग बनाऊंगा क्योंकि पैसे आएंगे और मुझे आगे बढ़ना है। फिलॉसफी के बारे में इन दोस्तों के बीच बहुत बातें होती हैं। इसी तरह मैंने दर्शकों को फ़िल्म के किरदार भी समझाए हैं कि सुहास आदर्शवादी है और रत्नाबली प्रैक्टिकल। वह कहती है कि “मुझे पैसे कमाने हैं क्योंकि अपनी बच्ची की उतनी अच्छी परवरिश करनी है, जितनी मैं चाहती हूं”। इसीलिए सुहास की आदर्शवादी सोच पर चोट करते हुए वह कहती है कि, “वैन इट कम्स टु फैमिली, यू हैव टु वॉक अवे टु बिकम दिस बिग वाइज मैन, मिस्टर हावर्ड रोर्क आहूजा”।

आपने कौन सा कैमरा यूज किया ? और क्रू कितना बड़ा था?
बाकी की फ़िल्में बड़े कैमरे पर शूट हुईं पर मेरी फिल्म का स्पेस छोटा था और डबल कैमरा सेट अप था इसलिए 5डी पर शूट किया। डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) संतोष वसंदी का आइडिया था कि हम लोग लैंस से बढ़िया लुक ला सकते हैं। रत्नाबली हालांकि गाड़ी चलाना जानती हैं पर एक नई गाड़ी, ट्रकों से भरे हाइवे पर चलाना मुश्किल था और जब दो कैमरा आपके आगे हों तब और भी। तो क्रू को जरा बड़ा रखा।

Neeraj Ghaywan is a young and an emerging Indian filmmaker. He has an engineering and marketing background which he left behind to persue filmmaking. Since then he has assisted filmmaker Anurag Kashyap on few of his recent projects. He was the script supervisor and assistant director for ‘Gangs of Wasseypur’ and second unit director for the upcoming ‘Ugly’. Before ‘The Epiphany,’ Neeraj had made a wonderful short film called ‘Shor’ (Noise), in 2011. At present he is working on the script of his first full length feature film.
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