गुरुवार, 3 जनवरी 2013

अमीर कुस्तरिका के साथ मैं लिफ्ट में था, जिंदगी में वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगाः वासन बाला (पैडलर्स)

बातचीत 2012 की बेहतरीन स्वतंत्र फिल्मों में से एक ‘पैडलर्स’ के निर्देशक वासन बाला से

 

जाते 2012 के दौरान साल के बेहतरीन फिल्म लेखकों के साथ किए अपने कार्यक्रम में टीवी फिल्म पत्रकार राजीव मसंद ने एक सवाल पूछा। “वो कौन सी हिंदी फिल्म थी जो इस साल आपने देखी और मन ही मन सोचा कि काश मैंने ये लिखी होती” ...इसके जवाब में ‘इशकजादे’ के निर्देशक और लेखक हबीब फैजल कहते हैं, “एक फिल्म है जो अभी तक रिलीज नहीं हुई है। पैडलर्स। बहुत ही प्रासंगिक फिल्म”। हिंदी सिनेमा के सौंवे वर्ष में स्वतंत्र फिल्मों का भी जैसे नया जन्म हुआ है। इस साल बहुत ही शानदार स्वतंत्र फिल्में बनीं हैं और उन्हीं में से एक है पहली दफा के निर्देशक वासन बाला की फिल्म, ‘पैडलर्स’। कान फिल्म फेस्टिवल-2012 के साथ चलने वाले इंटरनेशनल क्रिटिक्स वीक में फिल्म को दिखाया गया। वासन की फिल्म अब तक टोरंटो, कान, लंदन बीएफआई और स्टॉकहोम फिल्म फेस्टिवल में जाकर आ चुकी है और बहुत तारीफ पा चुकी है। मुंबई में ही रहने वाले वी बालाचंद्रन और वी राजेश्वरी के 34 वर्षीय पुत्र वासन पहले बैंकर रहे, फिर फिल्मों का जज्बा इस दुनिया में ले आया। वह अनुराग कश्यप की ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ के निर्माण वाली टीम में रहे। बेहद नामी ब्रिटिश फिल्मकार माइकल विंटरबॉटम की फिल्म ‘तृष्णा’ की भारत में हुई शूटिंग के दौरान वासन ने हाथ बंटाया। उन सबके बाद अब उनकी खुद की फिल्म आई है। अगर सबकुछ सही रहा तो जल्द ही सिनेमाघरों में ‘पैडलर्स’ नजर आएगी।

Vasan Bala
‘पैडलर्स’ कब बनकर तैयार हुई? उसके बाद जितने भी फिल्म फेस्ट में गई उसका अनुभव कैसा रहा?
फिल्म जैसे बनी थी मैं उससे ही काफी हैरान था। क्योंकि इसके मुख्य विषयों पर जाएं तो एलियनेशन, पेसिमिज्म और इनकनक्लूसिव टाइप की लाइफ की बात है। जैसे, शहर में हमारी जिंदगियों में एलियनेशन है, भीतर नैराश्य उपज रहा है और सब-कुछ अनिर्णायक सा है। अगर फिल्मी फॉरमेट को देखें तो उसमें सब उल्टा होता है और मैं चाहता था कि मेरी फिल्म में ऐसा न हो। इसलिए हैरान था कि ऐसी फिल्म बन कैसे गई। बनी भी और फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। वहां भी पहली बार के फिल्मकारों मिलना हुआ, जाना कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म कैसे बनाई और वो क्या सोचते हैं। उनमें एक किस्म की विनम्रता थी जो मुझे बहुत पसंद आई कि बस जमीन से जुड़े रहो और स्टोरी आइडिया की तलाश में रहो। तो बहुत अच्छा रहा लोगों से बात करके और जानकर।

कहानी आपके दिमाग में किस वक्त आई?
फिल्म एक तरह से प्रतिबिंब ही है कि आप किस मानसिक स्थिति में हो। मैं भी काफी अलग-थलग महसूस कर रहा था जब कहानी लिखी। काफी निराश था जिंदगी और करियर को लेकर। बहुत ही अनिर्णायक स्थिति थी जो अभी भी है मेरे ख्याल से.. समाधान तो निकलना भी नहीं चाहिए...। तो ये सब चीजें और रोजाना के ऑब्जर्वेशन फिल्म में आए। किसी कहानी या बाकी चीजों से ज्यादा मैं एक फिल्म में वही देखता हूं। जो भी डेली ऑब्जर्वेशन होते हैं मेरे, या लोगों के, चीजों के, उसको जैसे है वैसे डॉक्युमेंट्री की तरह दर्शाते जाओ। कैरेक्टर्स को फॉलो करके देखो कि वो जाते कहां हैं, फिर एक तरह से कैरेक्टर्स अपनी कहानी खुद बना लेते हैं और जो भी समाधान है वो अपने लिए ढूंढ लेते हैं। उस तरह की एक कोशिश थी फिल्म बनाने की। मोटा-मोटी फिल्म में तीन किरदार हैं। एक नारकोटिक्स ब्यूरो में पुलिस इंस्पेक्टर है जो कि खूबसूरत है, सफल है, पर वह इर्रेक्टाइल डिस्फंशन से ग्रसित है। इसकी वजह से उसकी खुद की एलियनेशन है। उसने अपने आप को एक तरह से बांध रखा है। निराशा अपने आप में पाल रखी है। इसी वजह से उससे कुछ चीजें हो जाती हैं। दूसरी एक बांग्लादेशी इमिग्रेंट है जो कि टर्मिनली बीमार है। इस बीमारी की वजह से वह खुद को अलग कर लेती है, नैराश्य पाल लेती है और वैसा ही काम करती जाती है। मतलब उसमें आशा और निराशा का एक विचित्र सा मिश्रण है। वह खुद जिंदा रहने और अपने बच्चों को जिंदा रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। तो ये एक ‘स्ट्रेंजली कोल्ड ऑप्टिमिज्म’ है। ‘स्ट्रेंजली कोल्ड परपजफुल एग्जिस्टेंस’ है जो आस-पास के लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है। अब जो तीसरा किरदार है वो एक मासूम लड़का है। मुंबई में है और किशोरवय में भीतर हर जगह स्वीकृति पाने का जो उबाल खुद के लिए होता है, वह उसमें है। तो वह अपने आपको उस परिस्थिति में अलग-थलग पाता है। ये तीनों लोग मुंबई जैसे शहर में किसी न किसी कारण से अकस्मात मिलते हैं, फिर उसके क्या परिणाम होते हैं, यही फिल्म है। मुंबई को हमने फिल्म में एक घोस्ट टाउन दिखाया है। मतलब ऐसा शहर जहां लाखों-करोड़ों लोग रहते हैं पर दिखता कोई नहीं है। हमने रात में काफी शूटिंग की और महानगर के अंदर की एलियनेशन दिखाने की कोशिश की, जहां आप भीड़ में भी अकेले घूमते हो। शायद इसीलिए आपको सिर्फ लोगों की आवाज सुनाई देती है। फिल्म में वातावरण में एक भीड़ बनाई गई है, पर विजुअली जब देखोगे तो आप सबको अकेला पाओगे। फिल्म का ट्रीटमेंट और फील ऐसा है। फिल्म का शीर्षक है ‘पैडलर्स’ जिसका मतलब ही होता है वह जो चलते-फिरते चीजें बेचता रहता है। ये गतिमान रहते हुए रोजमर्रा की चीजें बेचने के कॉन्सेप्ट जैसा है। जैसे हम ईमानदारी बेचते हैं, भरोसा बेचते हैं, प्यार बेचते हैं... एक तरह से ये उसी का विस्तार है।

कहानी के लिए ‘पैडलर्स’ को ही क्यों चुना? दूसरा, इसमें किरदार सिर्फ तीन हैं तो क्या इसकी एक वजह ये है कि जो भी नए फिल्मकार होते हैं उन्हें आर्थिक मदद नहीं होती.. तो कम किरदारों में वो एब्सट्रैक्ट बात ज्यादा कह पाते हैं और इकोनॉमिकली भी ज्यादा बेहतर रहता है?
ये कहानी मेरे उस वक्त के माइंडसेट के हिसाब से है। इसकी स्क्रिप्ट अगर मुझे पांच साल बाद दी जाए तो मैं इतनी ईमानदारी और सहज तरीके से शायद तब न कह पाऊं। क्योंकि पांच साल बाद शायद एक अलग लाइफ हो, इतना गुस्सा न हो अपने अंदर और ये सब चीजें अलग असर डालें। ये समाज की अस्वीकृति, अलगाव-थलगाव और निराशा खूब सारे पैसों और सुविधाओं से नहीं आ सकती। तो उस वक्त और माहौल से ‘पैडलर्स’ बनी। अब जो अगली फिल्म होगी वो शायद ‘पैडलर्स’ जैसी न हो। मतलब एक फिल्मकार की दृष्टि से स्टाइल औऱ ट्रीटमेंट एक हो सकता है पर फील वैसा नहीं। आप लाइफ में आगे बढ़ जाते हो, पीछे रह जाते हो या बीच में रह जाते हो... आपकी फिल्मों में अहसास उसी मुताबिक आते-जाते हैं।

शूटिंग का अनुभव कैसा रहा? दर्दनाक, मजेदार, आसान, मुश्किल?
कभी शूटिंग की कहीं इजाजत नहीं मिल पाती थी, किसी दिन शूट नहीं हो पाता था, किसी दिन कुछ चाहिए होता था वो मिलता नहीं था। ऐसी कठिनाइयां थीं तो भी मजेदार होती गईं, क्योंकि हम सभी बिना उम्मीदों के आगे बढ़ रहे थे और नतीजे का कोई अंदाजा नहीं था। कुछ पाने की चाह न थी, तो सब कुछ मिलता गया। फिल्म को बनाया तो पता चला कि अच्छा एक फिल्म फेस्टिवल भी चीज होती है, अच्छा एक रिलीज भी चीज होती है, रिव्यूज भी होते हैं, डायरेक्शन भी चीज होती है... सब पता चला। तो स्ट्रगल, स्ट्रगल लगा नहीं। एक जिद में बनाते गए। मेरे पास बहुत शानदार टीम भी थी। एक जैसी सोच वाले बंदे थे, सब हो गया। अगर कुछ स्ट्रगल रहा भी होगा तो उन लोगों ने मुझ तक आने नहीं दिया, जो बहुत भावभरा था। ये लौटकर कभी नहीं आने वाला है लाइफ में। अब पीछे पलटकर देखता हूं तो लगता है कि यार, ये कैसे बन गई।

टीम के बारे में बताएं?
छोटी ही थी। सेट पर हम पंद्रह-बीस लोग होते थे। इनमें मेरी एडिटर हैं प्रेरणा सहगल, मेरे डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी) हैं सिद्धार्थ दीवान, मेरे साउंड डिजाइनर हैं एंथनी रूबन, मेरे म्यूजिक डायरेक्टर करण कुलकर्णी... उनका म्यूजिक बहुत कमाल है काफी यूनीक है, मेरी प्रोड्यूसर गुनीत हैं, मेरे एग्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर अचिन जैन हैं जिन्होंने सेट पर कमाल कर दिया... इतने कम बजट में इतनी सारी लोकेशंस जो उन्होंने मैनेज करके दी। सब ने बहुत ही कमाल योगदान दिया है।

पहले क्या-क्या किया?
अनुराग कश्यप को असिस्ट करता था। उनके लिए बीच में थोड़ी-बहुत कास्टिंग भी कर लेता था। फिर उसके बाद माइकल विंटरबॉटम को असिस्ट किया उनकी फिल्म ‘तृष्णा’ में। उसके बाद कुछ एक-दो शॉर्ट फिल्म बनाईं, जो कुछ मजाकिया सी थीं, जो उस वक्त के माइंडसेट से निकली थी, बन गईं। फिर अहम मोड़ तब आया जब लगा कि यार फीचर फिल्में बनानी हैं। उसके पहले मैंने एक-दो स्क्रिप्ट लिखीं थीं जो बननी बाकी हैं, उसी दौरान लिखी गई थी ‘पैडलर्स’ जो अब बन भी गई। अब लॉजिक बिठाना चाह रहा हूं तो समझ नहीं आ रहा कि कैसे बनी। उसके पहले आठ साल बैंकिंग में था। पहले आइडिया ही नहीं था, फिर फिल्मलाइन में आना था मगर घरवालों को बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उस दौर में तब जो-जो होता गया करता गया।

कौन से बैंक में काम किया और जॉब क्या-क्या कीं? क्या सोचते थे?
मुंबई में आईसीआईसीआई बैंक में था। उसके बाद एक सॉफ्टवेयर सेल्स कंपनी में था जो डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बनाती थी आईएसओ सर्टिफाइड कंपनियों के लिए। तो वहां पर मैं काफी इंडस्ट्रियल बेल्ट घूमा। फैक्ट्रियों में जाकर डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बेचता था। बीच में कुछ वक्त विज्ञापन कंपनी ‘मुद्रा’ में रहा। ऐसे ही कुछ न कुछ करता रहा। कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं था कि करना क्या है करियर में। बस जो काम मिलता गया, करता गया। हर तीन-चार महीने में काम छोड़ भी देता था, पसंद नहीं आता था। यूं ही बस भटकने वाला लक्ष्यहीन अस्तित्व था। फिर खुशकिस्मती रही कि अनुराग कश्यप मिल गए। उसके बाद एक तरह से निश्चय हो गया कि यही होना है अब, भले ही इसमें सफल हों या न हों पर फिल्ममेकिंग को ही शायद अपना वक्त दूंगा।

जयदीप साहनी के बारे में ये था कि अपनी नौकरी से संतुष्ट न थे तो बॉस को इस्तीफे में लिखा कि ‘तेरी दो टकेयां दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए...’। कहीं ऐसा तो नहीं था जब आप बार-बार जॉब छोड़ रहे थे या बाद में ही महसूस हुआ जब अनुराग मिल गए कि फिल्में बनानी हैं?
फिल्में बनाने का शौक हमेशा था। यही था कि एक दिन चेन्नई जाऊंगा और मणिरत्नम के साथ काम करूंगा। लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घरवालों को बताऊं। या शायद ये कि जिस दिन बताऊंगा तो वो सोचेंगे कि मैं एक पलायन का रास्ता ढूंढ रहा हूं... कि ऐसे ही जबर्दस्ती का कुछ बोल रहा हूं। और सबको पता ही था कि फिल्ममेकिंग मुश्किल चीज होती है घुसने में ही। किसी को विश्वास नहीं था कि अगर मैंने एक चीज बोली है तो करूंगा या उस चीज पर रुका रहूंगा। जब जॉइन किया अनुराग कश्यप को और उन्होंने देखा कि ऐसा नहीं है ये किसी दोपहर को आ नहीं रहा है या ये नहीं कह रहा है कि मैंने नौकरी छोड़ दी... उन्होंने देखा, एक साल, दो साल, तीन साल, चार साल, मैं जुड़ा रहा लगातार तो उनको भी भरोसा हो गया कि हां, ये शायद यही करना चाहता है। क्योंकि इतने लंबे वक्त तक उन्होंने किसी भी दूसरी चीज में मेरा इतना समर्पण देखा ही नहीं था। वो जब थोड़े संतुष्ट और आश्वस्त हो गए तो मुझे भी अच्छा लगा कि हां, शायद में भी कुछ ठीक ही कर रहा हूं।

अब माता-पिता क्या कहते हैं, छोड़ दो ये काम या करते रहो?
वो कह रहे हैं कि करता जा। वो अभी ये नहीं कह रहे कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो... वो कह रहे हैं शायद तुम्हें कुछ कहना है तुम कह दो वो। और कुछ नहीं हो पाया तो आ जाओ, घर ही आ जाओ। अभी वो करियर और उन चीजों को लेकर टेंशन में नहीं हैं। उन्हें पता है कि ये जो भी है अपने पैशन में कर रहा है। उस चीज को लेकर वो आश्वस्त हैं कि अभी मैं छोड़कर नहीं आऊंगा।

आपका बचपन कहां बीता और बच्चे थे तब कैसे थे?
बॉम्बे (मुंबई) के अंदर एक छोटा शहर है माटूंगा। वहां जितने भी लोग हैं वो एक-दूसरे के दादा-परदादा सबको जानते हैं। वह बॉम्बे की एक अजीब सी सुखद जगह है। बॉम्बे अप्रवासियों से बना हुआ है.. तो इमिग्रेंट हिस्ट्री दस-पंद्रह साल होती है या ज्यादा से ज्यादा बीस साल, लेकिन मेरे दादा तक बॉम्बे से हैं और मेरे मां-पिताजी की पढ़ाई तक यहीं हुई है, उनका बचपन भी यहीं बीता है। तो बहुत दिनों तक ये अहसास ही नहीं था कि बहुत बड़े शहर में रह रहा हूं। जब गांव जाता था तब अहसास होता था... लोग बोलते थे कि अरे बॉम्बे से आया है। नहीं तो मुझे अपनी लाइफ और उनकी लाइफ में कुछ खास फर्क नहीं लगा। वही किराने की दुकान में जाते थे, वही सब लोग मिलते थे, सबकुछ वही होता था। इस तरह बहुत ही मासूम और भोली परवरिश थी। फिर कॉलेज गया और बाहर दुनिया देखी। तब तक मैं 20 साल का था तो कोई सवाल ही निरर्थक था और किसी को पूछता भी नहीं था कि आप कहां से हो... जब समझने लगा तो लगा कि मैं ही अल्पसंख्या में हूं। तब वो कल्पना और अपना घर छोड़कर जाना बहुत आकर्षक लगा। क्योंकि जितने भी लोगों को मिला वो दो-तीन बार अपना घर बदल चुके थे, स्कूल बदल चुके थे, मेरा कोई ऐसा अनुभव था ही नहीं। एक ही स्कूल था, एक ही कॉलेज था, एक ही घर था और सब-कुछ बहुत सैटल्ड सा था। मैं अपने आप में अनसैटल्ड होता था कि मैं इतना सैटल्ड क्यों हूं। और पता नहीं कुछ सवाल हैं जो अपने आप के लिए आप खड़े कर लेते हो, जो इश्यू हैं ही नहीं, मैं भी कुछ ऐसे ही इश्यू से जूझता था अपने आप में। फिल्म बनानी है? नहीं बनानी है? मेरे आसपास ऐसा कोई नहीं था जो इस कला में या फिल्मों में रुचि रखता हो। मैं फिल्में देखता था और कहता था तो सब कहते कि अच्छा फिल्में बनानी है तो पहले कन्फर्म कर ले कुछ। मुझे उसमें से निकलने में ही काफी वक्त लग गया। ये मासूमियत वाला दौर था। एक बार जब इंडस्ट्री आया और देखा सब, तो मालूम पड़ा कि क्या स्ट्रगल है। पर पता नहीं क्यों तब तक एक निश्चय हो गया था कि बस यही करना है, मतलब मैं खुद अपने अनिर्णय की स्थिति से थक चुका था। अंत में जब यहां आया तो तय कर लिया कि अब यही करना है, जो भी हो। आर या पार।

लेकिन वासन, माटूंगा की अपनी जिस अपब्रिंगिंग का आप जिक्र करते हैं, वो एक तरह से वही सामाजिक  परवरिश रही कि वहां एक-दूसरे की केयर बहुत थी, एक-दूसरे के दादा-परदादा का नाम जानते थे। मैं राजस्थान से हूं तो 60-60 गांव दूर लोग एक-दूसरे को जानते हैं, वो बता देंगे कि 60 गांव दूर वो रहते हैं आप इस रास्ते से चले जाइए। तो माटूंगा की ऐसी परवरिश के संदर्भ में क्या आप मानते हैं कि खुशनसीब रहे क्योंकि आने वाली पीढ़ी को वैसा लालन-पालन नसीब नहीं होगा। संभवतः एक फिल्मकार के तौर पर भी आपको अपनी उस परवरिश का बहुत फायदा मिलेगा।
...और एक तरह से मैं भी जब देखता हूं तो हमारी जेनरेशन थी, जैसे आपकी और मेरी भी शायद, वो लास्ट ऑफ द वीएचएस जेनरेशन है.. वो जो दो-दो रुपये कॉन्ट्रीब्यूट करके वीएचएस में फिल्म देखते थे, मतलब पहुंच थी भी और नहीं भी थी, पर उन सीमित विकल्पों में ही इतना खुश रहते थे कि यादें बहुत मजबूत हैं। मेरे ख्याल से उस तरह का सिनेमा जो बनेगा अब आगे जाकर, अभी उसका आखिरी चरण चल रहा है। उस तरह की यादों का भी। उसमें भी मैं अपने साथियों में देखता हूं और ढूंढता हूं तो लगता है और हम बात भी करते हैं कि हां, ये लास्ट फेज है नॉस्टेलजिया का। और मैं उत्साहित भी हूं कि आने वाली पीढ़ी एक नई सोच लेकर आएगी, उसके लिए हम कितने खुले दिमाग के होते हैं और उसे स्वीकार करते हैं। मेरे लिए भी चैलेंज होगा क्योंकि मुझे लगता है कि हम बाऊंड्री पुश करते हैं, पर आने वाली पीढ़ी जो अपना ही माइंडसेट और अपनी ही चॉयस लेकर पली-बढ़ी है, वो जब पुश करेगी तो हम स्वीकार करेंगे क्या? और जो 19-20 साल के युवा अनुराग कश्यप को असिस्ट करने आते हैं उनमें एक बहुत ही अजीब सी आग है, तो उनके काम को देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित हूं।

इस उत्सुकता में जरा डर भी है कि यार कुछ ऊट-पटांग तो नहीं कर देंगे?
मुझे तो लगता है कि अपने स्पेस में सुरक्षित महसूस करना चाहिए। अगर कुछ काम कर पाए तो शायद, और नहीं भी कर पाएं तो शायद, उतना ही था आपका उद्देश्य। इसलिए उस बात को लेकर कोई चिंता नहीं है कि आगे आकर कोई कमाल कर जाए... क्योंकि अंततः मैं एक कमाल फिल्म देखना चाहता हूं और अपना कमाल काम दिखाना चाहता हूं। काम जितनी ईमानदारी और मेहनत से कर पाऊं वो तो करूंगा ही पर मजा तो वही है कि आप थियेटर में जाकर फिल्म देखते हो, वो किसी की भी हो और अच्छी हो तो क्या बात है। अपने दायरे में सुरक्षित हूं। बेहतर लोग तो रहेंगे ही और हमसे लोग बेहतर हों तो उनसे सीखने को मिलेगा। छोटा हो बड़ा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।

फिल्म बनानी है, अगर आपके लहजे में कहूं तो ये कचरा आपके दिमाग में डालनी वाली फिल्में कौन सी रहीं?
मेरे माता-पिता चूंकि काम करते थे तो बचपन में मेरी एक केयर टेकर होती थी, वनीता। वो अमिताभ बच्चन की बहुत बड़ी फैन थी। और गणपति में हमारे यहां भी, जैसे ‘स्वदेश’ आपने देखी होगी वो जैसे परदे लगाकर फिल्म दिखाते थे, वैसे फिल्म दिखाई जाती थी और वो मेरी मां को झूठ बोलती थी कि वासन तंग कर रहा है कि उसे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखनी है, जबकि देखनी उसे होती थी और वो मुझे लेकर चली जाती थी। उस वक्त मैं महज तीन या चार साल का था पर वो कभी भूल नहीं पाता। मेरे ख्याल से वहीं से शुरू हो गया था। अगर ऐसा फिल्मी कीड़ा या कचरा मेरे अंदर भरा है तो उसका श्रेय वनीता को जाता है। मैं उसकी गोद में सिमटा रहता था और वो मुझे लेकर घूमती रहती थी फिल्म दिखाने। उसके बाद जब वीएचएस घर पर आया तो पिताजी ने मुझे ‘जैंगो’ और ‘वेस्टर्न्स’, ‘ब्रूस ली’ और ‘स्टीव मेक्वीन’ की फिल्म और बहुत सारी ‘एक्शनर्स’ से दिखाईं। उस तरह पिताजी ने असर डाला। उसके बाद जाहिर है जब एक उम्र में आप आ जाते हो तो खुद ही ढूंढने—जानने लगते हो। तो मेरी शुरुआत तो पिताजी ने और वनीता ने की।

बचपन की पांच-छह ऐसी फिल्में बताइए जिनका सम्मोहन आज फिल्म निर्माण के तमाम तकनीकी पहलू जानने के बावजूद आपके लिए कम नहीं हुआ है?
बिलाशक एक तो ‘मिस्टर इंडिया’ (शेखर कपूर) है। जब भी देखता हूं, मुंह खुला का खुला रह जाता है। दूसरी, ‘शक्ति’। उसे जब मैंने देखा तो उस उम्र में भी मैं थोड़ा हिल गया था, पता नहीं उसके अंदर का गुस्सा था, दुख था या तीक्ष्णता थी। उस फिल्म को मैं आज भी देखता हूं तो यादों में लेकर चली जाती है। उसके अलावा ‘द नेवर एंडिंग स्टोरी’ (1984, वॉल्फगॉन्ग पीटरसन) थी जिसे जब देखा तो बहुत प्रभावित हुआ लेकिन हाल ही में फिर देखी तो पता चला कि बहुत खराब बनी थी। फिर एक जापानी फिल्म देखी थी जिसका नाम भी मुझे याद नहीं है। तब मैं शायद छह या सात साल का था। वो कहानी थी एक स्कूल टीचर की और एक अनाथ बच्चे की। वो कहानी अब भी याद करता हूं तो अटक जाता हूं, दूरदर्शन दिखाता था ये सब। शुरुआती प्रभाव तो ये ही थे। गुरुदत्त की कुछ फिल्म तब भी स्ट्राइकिंग लगीं थीं। ‘प्यासा’ जब देखी, मतलब कुछ समझ में तो नहीं आया था पर कुछ था उन विजुअल्स में जो उनकी ओर खिंचता चला गया।

‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ और ‘देव डी’ की कास्टिंग के वक्त क्या सीखा?
क्योंकि कास्टिंग डायरेक्शन भी जरूरी रोल होता है। जैसे गौतम (किशनचंदानी) ने अनुराग की फिल्मों की, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की और तिग्मांशु धूलिया ने ‘बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग की थी। जैसे गौतम ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ में की थी और ‘देव डी’ में भी वही कास्टिंग डायरेक्टर थे, मैं उनका सहयोगी था। उन्होंने बहुत आजादी मुझे दी और उनसे बहुत सीखा। अनुराग से भी सीखा और राजकुमार गुप्ता से बहुत कुछ सीखा। राजकुमार गुप्ता से एक तरह से अनुशासन सीखा। वो जितने अनुशासन और ध्यान केंद्रित करके काम करते हैं, मैं आज भी अगर आलस महसूस करता हूं तो उन्हें याद कर लेता हूं और ठीक-ठाक काम करने लगता हूं। अनुराग की टीम में तो हरेक से ही सीखने को मिलता है। वो एक कमाल मैदान है सीखने का।

लेकिन कास्टिंग करने के दौरान सबसे बड़ी सीख क्या रही?
वो ये कि आप किसी भी चीज को काबू में करने की कोशिश न करो। अनुराग कश्यप जैसे अपने एक्टर्स से पेश आते हैं। वो कंट्रोल में किए बिना कंट्रोल करते हैं उनपर। कभी एहसास नहीं होने देते कि मैं डायरेक्टर हूं, मैं बताता हूं। ये उनका तरीका बिल्कुल ही नहीं है। वो भ्रम होता है न कि डायरेक्टर ही सबको सबकुछ बताता है, वो टूट गया उनके साथ काम करके क्योंकि वो बहुत ज्यादा आजादी देते हैं सबको और उस आजादी में भी अपना एक कंट्रोल रखते हैं। वहां आपके काम को इज्जत मिलती है, न कि आप डिक्टेशन लेते रहते हो। ये कमाल सीखें रहीं जो जिंदगी भर साथ रहेंगी। मैं भी लोगों को आजादी देना चाहूंगा और उनपर विश्वास रखना चाहूंगा और कभी असुरक्षित नहीं होउंगा।

माइकल विंटरबॉटम के साथ आपने ‘तृष्णा’ में सहयोग किया राजस्थान में शूटिंग में...
उनका बहुत ही अनइमोशनल (अभावुक) अप्रोच है। मैथोडिकल नहीं कहूंगा, ऑर्गेनिक ही है पर वह इमोशन में नहीं बहते, वह पल की सच्चाई को ढूंढते हैं। ये बड़ा अनोखा गुण है जो उनमें मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत ही स्पष्ट और तकरीबन मिलिट्री अनुशासन के साथ काम करते हैं माइकल। वो मैंने भी आजमाया, जाहिर है उन जितना तो नहीं कर पाया.. जो कि एक रेजिमेंटेड स्टाइल ऑफ फिल्ममेकिंग है जो किसी भी इमोशनल बहकावे में नहीं आती और ऑब्जेक्टिव रहती है। ये एक ऐसी चीज है जो जिदंगी में कभी न कभी हासिल करने की कोशिश करूंगा। चाहे पांच-दस परसेंट ही हो।

डायरेक्टर के काम में अनइमोशनल अप्रोच को थोड़ा और समझाइए…
वह अपने काम में इमोशनल हैं, पर जो सतह पर भावुक होना होता है वो उन्होंने खुद में से पूरी तरह से निकाल बाहर किया है। उनकी कहानी में, उनके काम में इमोशन हैं, पर सतही तौर पर नहीं है बल्कि बहुत गहराई में हैं। उस स्थिति को हासिल करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हम सतही तौर पर तो काफी भाव अपने में दिखाते हैं पर उसे गहराई में ले जाकर सतह पर से मिटा देना, सतह की बिल्कुल ही परवाह न करना, वो मैंने उनमें देखा। ये बहुत ही प्रेरणादायक लगा। ऐसा वर्क अप्रोच मैंने नहीं देखा है। ये एक तरह से धोखा देने वाला, छलने वाला भी है क्योंकि आप बाहर से नहीं देख पाते हो वो इमोशन। पर अंदर से वो उतने ही भावुक हैं, शायद ज्यादा भी हों। सतह के इमोशंस का रुख मोड़ने या मिटाने से एक अलग लेवल की वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टिविटी) आती है आपकी फिल्मों में। आप जबर्दस्ती के इमोशन थोपते नहीं हो लोगों पर। आप अपना नजरिया देते हो पर दर्शकों की आजादी का भी ख्याल रखते हो। कि अगर दर्शक चुनना चाहें किसी पल को महसूस करने के लिए तो वह खुद महसूस करें न कि फिल्म का म्यूजिक और एक्सप्रेशन उस पर लादें। क्योंकि जैसे हिंदी फिल्मों में एक प्रथा रही है कि अलग दुख है तो सारी परतें दुखी होंगी। म्यूजिक भी दुखभरा होगा, एक्सप्रेशन भी दुखभरे होंगे और आसपास के लोग भी दुखी हो जाएंगे। इस तरह हमें किसी और इमोशन को महसूस करने की आजादी ही नहीं है। माइकल की फिल्मों में मुझे वो ऑब्जेक्टिविटी अच्छी लगी कि किरदार का दुख दर्शक तय करेगा महसूस करना है कि नहीं करना है न कि हर सिनेमैटिक टूल यूज करके उस पर लादा जाएगा।

‘तृष्णा’ की शूटिंग राजस्थान में कहां हुई और उस दौरान का क्या याद आता है आपको?
ओसियां (जोधुपर) में और सामोद बाग में हुई शूटिंग। मुझे ओसियां का सबसे अच्छा लगा। हमें फिल्म में फ्रेडा पिंटो (‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ फेम) के लिए एक परिवार ढूंढना था। माइकल ने एक असल परिवार ढूंढा और उनके साथ फ्रेडा को ढलने को कहा। उसके एक हफ्ते बाद हमने उस फैमिली के साथ शूटिंग शुरू कर दी, डॉक्युमेंट्री के अंदाज में, जैसे वो जब सोकर उठते थे तभी हम शूट करते थे। वो जब चाय बनाते थे तभी हम भी शूट करते थे। खाना बनाते थे, हम तब शूट करते थे। उनके बच्चे जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल जाते हुए शूट करते थे। किसी भी तरह की कोई मिलावट या छेड़छाड़ नहीं थी, कोई कंट्रोल लादा नहीं गया। मेरा काम वहां ये था कि हिंदी में उन लोगों से बातचीत कर पाना और उन्हें ये बताना कि अपने रोजमर्रा के काम के अलावा कुछ न करें। मेरी जिम्मेदारी बस उन्हें समझाना था कि आप जो करते हो करते रहो। लोगों या कैमरा से सतर्क होने की जरूरत नहीं है। उस दौरान की गई बातचीत और सबक काफी काम आए जब अपनी फिल्म बनाई। कि प्राकृतिक माहौल में कैसे शूट करते हैं और कैसे लोगों की सतर्कता कैमरे के लिए खत्म कर देते हैं।

माइकल की कौनसी फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं?
‘इन दिस वर्ल्ड’ (2002) और ‘द किलर इनसाइड मी’ (2010) को देखकर मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था।
Poster of Peddlers.

‘पैडलर्स’ जैसी जो गैर-वित्तीय तरीके की फिल्में हैं, न बनने में ज्यादा पैसे लेती हैं, न ज्यादा पैसे उगाहती हैं... तो आने वाले वक्त में पेट के लिए क्या करेंगे? क्या बॉलीवुड का रुख करेंगे या अपनी तरह की फिल्मों में ही कुछ बदलाव करेंगे? आपका यकीन मणिरत्नम की बनाई फिल्मों में है जो कलात्मक रूप से बहुत अच्छी हैं और लोगों का उतना ही ज्यादा मनोरंजन करती हैं?
मेरे ख्याल से आगे जिंदगी में जब, जो भी ईमानदारी से महसूस होगा, जो भी उन पलों की सच्चाई होगी... बिना कुछ डिजाइन किए कि ये कमर्शियल होंगी या ये नॉन-कमर्शियल होंगी। मैं किन्हीं पहले की सोची-समझी धारणाओं के हिसाब से नहीं बनाऊंगा। उस वक्त जिंदगी के उस पल में, उस पीरियड में वो आ जाएंगी अपने आप। वो आर्ट भी हो सकती हैं वो कमर्शियल भी हो सकती हैं। अभी अगर ‘पैडलर्स’ से दस लोग जुड़ा हुआ महसूस करते पाते हों, तो हो सकता है मेरी अगली स्टेट ऑफ माइंड से कोई और दस लोग कनेक्ट करें। तो फर्क ये होगा न कि फिल्म कैसी होगी ये। फिल्ममेकिंग अप्रोच और इंटेंशन वही रहनी चाहिए, बस स्टेट ऑफ माइंड के हिसाब से फिल्म और ऑडियंस बदल जाएगी।

आप जैसे नए फिल्मकारों के साथ ये है कि बहुत पैसा आप नहीं कमा रहे फिर भी पैशन जिंदा है, इसकी वजह क्या है, ये कब तक रहेगा या आपके हिसाब से कब तक रहना चाहिए?
अब पैशन जिंदा तो.. कह नहीं सकते.. कल ही मेरी शादी हो गई और कल ही मैं सोच लूं कि नहीं भाई ये जो मैं कर रहा हूं गलत कर रहा हूं.. मेरे ख्याल से ये उस मूमेंट की ऑनेस्टी है और ये जब तक रहे सही दिशा में रहे। मतलब ये जो पैशन और बातें हैं ये कोई और फॉर्म में न रहे। तो बताना मुश्किल रहेगा कि कब तक रहेगा। क्यों है, ये भी नहीं बता पा रहा हूं।

‘मूमेंट की ऑनेस्टी’ की जो बात आप करते हैं, ये कहां आपने अंततः एक बड़े सच के तौर पर स्वीकार किया अपने जीवन में? कि जो पल है बस उसी में जीना... ये किससे सीखा? किसी किताब से, माता-पिता से या फिल्में बनाते हुए महसूस किया या खुद ही खोजा?
ये अनुराग और माइकल विंटरबॉटम के साथ काम करते हुए ही महसूस किया और सीखा। हां, कहीं न कहीं ये बात अंदर रही होगी पर अनुराग और माइकल के साथ काम करते हुए उसका एक आर्टिक्युलेशन (स्पष्ट समझ और समझाइश) मिल गया मुझे। उसकी एक स्पष्ट तस्वीर मिल गई। ये काम के दौरान ही हुआ और संभवतः और भी स्त्रोत रहे होंगे, जो सबकॉन्शियसली और भी गाढ़ा बनाते रहे होंगे इस विचार को।

आपने एक बार कहीं कहा कि जब पहली फिल्म बनाई तो दिमाग में जो बहुत सारा कचरा होता है वो निकल गया। किस संदर्भ में कहा और वो क्या ये था कि फिल्म बनाने से पहले जो पचास तरह के असमंजस होते हैं या पचास तरह की हेकड़ी होती है कि ये ऐसे हो जाता होगा या ये वैसे हो जाता होगा, या मान लें ये चीज ऐसे करें तो बेहतर है, या उसे बहुत ज्यादा हाइपोथैटिकली ले लेते हैं या इग्जैजरेट (बढ़ा-चढ़ा लेना) कर लेते हैं पहले ही। ये किस सेंस में था?
आपने बहुत सही बात बताई है, आखिर में जो दो-तीन चीजें कहीं। एक तरह से ये इन्हीं बातों का मिश्रण था। कचरा जो है उसे मैं बहुत नेगेटिव तरीके से नहीं लेता हूं। क्योंकि वो निकालना जरूरी है सिस्टम से। कभी न कभी वो कचरा सेहत के लिए खुराक बना होगा जो अब निकालना जरूरी था। उससे आगे बढ़ना जरूरी था। जो ये भाव मेरे भीतर थे एलियनेशन, निराशा और दिशाहीन होकर जीने के... मेरे ख्याल से इनका एक हिस्सा ऑफलोड हो गया, बाहर निकल गया, इस फिल्म के साथ। तो मैं आगे और शायद सकारात्मक रहूं, अपने आपको बांधकर न रहूं। जैसा कि मेरे कैरेक्टर खुद को बांधकर रखते हैं, मैंने भी बांध रखा था खुद को, अपनी ही रजामंदी से, वो कचरा बाहर निकल गया। अपनी कैद से रिहा होना भी एक बड़ी बात थी जो ‘पैडलर्स’ बनाकर हुई।

आप ‘पैशन फॉर सिनेमा’ (फिल्म वेबसाइट) से जुड़े हुए थे लंबे वक्त तक, फिर आप लोगों ने ये पहल बंद क्यों कर दी?
मैं भी हैरान हूं दरअसल, कि एक-तरह से सब जुड़े थे, अपना काम कर रहे थे, पर पता नहीं वो कायम नहीं रह पाया। कोशिश रहेगी कि शायद आगे फिर से वो वक्त आए, फिर से वो प्लेटफॉर्म हो। हालांकि अब तो ट्विटर है, फेसबुक है। पैशन फॉर सिनेमा तब थी जब दोनों सोशल मीडिया वाले माध्यम नहीं थे। अपने विचार जाहिर करने के लिए, बातचीत करने के लिए सम्मिलित मैदान नहीं था। अब ट्विटर और फेसबुक आ गए हैं तो कहीं न कहीं पैशन... के न होने की भरपाई हो जाती है। वही लोग हैं जो लिखते थे या लिखना चाहते थे और अब उन्हें नया मंच मिल गया है, साथ हैं। जो बातें वो लोग कहना चाह रहे हैं कह ही रहे हैं। यादें आती हैं पर कमी महसूस नहीं होती।

लेकिन उसी मंच पर आप लोगों ने अपनी कल्पनाएं और विचार बांटें होंगे, क्योंकि आज कई स्वतंत्र फिल्मकार हैं जो उसी मंच से निकले हैं...
सौ फीसदी। जैसे मंजीत सिंह हैं, हंसल मेहता सर हैं। हम लोग सभी किसी न किसी बिंदु वहां रह ही चुके हैं और आने वाले कुछ फिल्ममेकर भी हैं जो वहां रह चुके हैं। आप सही कह रहे हैं वो एक तरह से जेनेसिस बन गया था।

‘51वें कान फिल्म फेस्टिवल’ में खुद की फिल्म लेकर जाना, उसे वहां शो करना, लोगों के सवालों के जवाब देना और दूसरी बहुत सी फिल्में देखना भी... ये कैसा रहा?
बेशक जानता था और इसके बारे में सुना भी था पर गया पहली बार था। बहुत ही जिंदा अनुभव था, उम्मीदें तो थीं ही नहीं कि आप वहां तक पहुंच जाओगे। लिहाजा बड़ी बात थी। पर सबसे अच्छा ये लगा कि अपने जैसे पहली बार के फिल्ममेकर्स को देखा। उनसे बात की, उनकी स्ट्रगल जानी तो एक चीज जानी कि दुनिया भर में स्वतंत्र सिनेमा (इंडिपेंडेंट सिनेमा) का जो परिदृश्य है वो एक जैसा ही है। और उतना ही मुश्किल है हरेक के लिए अपने मौलिक विचारों और जिद वाली फिल्म बनाना। उनसे बात करके यूं अच्छा लगा। और कान में माइकल हैनिके की फिल्म, जो वो जीते थे, उसे वहां बैठकर देखना अपने आप में अनुभव था। वहां मैं ‘ऑन द रोड़’ (वॉल्टर सालेस) देखने के लिए जा रहा था और जब लिफ्ट में चढ़ा तो अमीर कुस्तरिका अंदर खड़े थे। कुस्तरिका की जो फिल्में हैं ‘ब्लैक कैट, वाइट कैट’ (1998) और ‘अंडरग्राउंड’ (1995) वो देखकर मैं हैरान रह गया था। वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगा कान के, शायद जिंदगी भर याद रहेंगे। कोई बात नहीं हुई मेरी उनसे पर वो 40 सैकेंड मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं कि लिफ्ट में मैं उनके साथ था। पूरे फिल्म फेस्ट में हैरतअंगेज पल बस वही थे।

2012 की हिला देने वाली फिल्में कौन सी रहीं आपके हिसाब से?
वो तो एक ही है आनंद गांधी की ‘शिप और थीसियस’। आनंद बहुत ही स्पेशल फिल्ममेकर हैं। बहुत ही कमाल फिल्म बनाई है उन्होंने। तमिल में एक फिल्म बनी है ‘कुमकी’ जो एक महावत और उसके हाथी की कहानी है। म्यूजिक से लेकर उसे जैसे शूट किया गया है, जिस महत्वाकांक्षा के साथ बनाई गई है तो वो मुझे इस साल तमाम इंडियन फिल्मों में अच्छी लगी। एक और फिल्म है जिसे अपनी जिद और आइडिया के लिए मैं सलाम करता हूं वो है ‘मक्खी’। ऐसा विचार दिमाग में लाना इस देश में और उसे कमर्शियल लैवल पर सफल बनाना मुझे नहीं लगा कि कभी संभव था। इस फिल्म से भी मैं काफी हैरान रहा। कि हर आइडिया में आपका जो यकीन है... जिसे हर बिंदु पर आप खारिज कर सकते हो स्टूपिड और सिली कहकर, ऐसा हर पड़ाव उन्होंने (मक्खी के निर्देशक राजामौली) ने पार किया।

कुमकी किस बारे में है?
एक महावत और एक उसका दोस्त होता है। उनका एक हाथी होता है जिसका नाम कुमकी है। वो घूमते-घामते एक गांव में आते हैं जहां कुम्मन नाम का एक और हाथी है जो खेतों को उजाड़ देता है। तो गांव में एक ऐसे हाथी की तलाश है जो कुम्मन का मुकाबला करे और उसे खेतों से बाहर रखे। लेकिन कुमकी जो है वो थोड़ी डरपोक सी है। महावत को वहां गांव की एक लड़की से प्यार हो जाता है और वो वहीं रुक जाते हैं। वहां वो ये झूठा दावा कर देते हैं कि कुमकी ये कर देगी। आगे की कहानी वह लव स्टोरी है और महावत का हाथी के साथ बदलता रिश्ता है। प्यार और बलिदान की कहानी है। ये वैसे ही है जैसे ‘मक्खी’ में था कि जानवरों में जो इंसानी जज्बा होता है उसे भुनाया गया, वैसा ही कुमकी में किया गया। बहुत ही भव्य और सम्मोहित कर देने वाले दृश्यों के रूप में।

क्या आपने पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ देखी? कैसी लगी?
मैंने देखी है और मुझे काफी अच्छी भी लगी। ऐसा कहा जाता है कि वो (गुरविंदर सिंह, निर्देशक) मणि कौल जी की धारा पर फिल्में बनाते हैं। वो विजुअली बहुत स्टनिंग थी और बिना कुछ कहे काफी कुछ कह गई। एक तरह से वो बोलते हैं न अंदरूनी चोट, वो देकर जाने वाली फिल्म बनाई उन्होंने, जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ बढ़ाए-चढ़ाए, यहां तक कि उस फिल्म में तो डायलॉग भी कुछ नहीं थे। उन चेहरों, उस वातावरण और उस मौसम को लेकर ही उन्होंने कुछ कमाल कर दिया।

हमेशा ‘तीसमारखां’ जैसी फिल्में भी आती रही हैं जो 80-100 करोड़ में बनती हैं जो 8 रुपये का नतीजा भी नहीं दे पातीं... क्या ऐसी फिल्मों का समाधान ‘पैडलर्स’ और ‘शिप ऑफ थीसियस’ है?
नहीं, उसका समाधान तो ये फिल्में नहीं हैं, पर एक तरह से अगर आप आर्थिकी (इकोनॉमिक्स) देखें तो अगर आज 5,000 थियेटर हैं भारत में, तो वो सभी एक ‘तीसमारखां’ और एक ‘दबंग-2’ के लिए बने हैं। और उस बीच हम अपनी फिल्म उन थियेटरों में घुसा सकते हैं। बाकी बातें करने की बजाय हमें ये देखना चाहिए कि उनमें हम अपनी फिल्में घुसा कैसे सकते हैं। क्योंकि वहां जो पॉपकॉर्न है और प्रति सीट रख-रखाव का जो खर्च है उसकी भरपाई इन फिल्मों से होती है। अगर वास्तविक होकर देखें तो हमारी फिल्मों से वो भरपाई नहीं होती। और न ही हमारे यहां ऐसे कोई सरकारी थियेटर हैं कि पहल करके सिर्फ स्वतंत्र फिल्में (इंडि) ही वहां दिखाईं जाए। क्योंकि कमर्शियल हो या आर्ट, बीच में मीडियम तो वही है। हमें देखना चाहिए कि उनका इस्तेमाल कैसे करें। क्योंकि रख-रखाव का खर्च तो उन्हीं से आता है। उनसे लड़ने की बजाय हमें हमारे सह-अस्तित्व की कोई जमीन तलाशनी चाहिए। क्योंकि अगर इतनी फिल्में बन रही हैं और इतनी तादाद में लोग देख रहे हैं तो शायद कोई वजह है। कम से कम हम लकी हैं कि 5000 थियेटर हैं, उनमें से शायद 100 थियेटर हमें मिल जाएं या 200 मिल जाएं 300 मिल जाएं। लड़ाई तो जारी रहेगी जहां वितरक बोलेगा कि भई आपकी फिल्म तो चलती नहीं है। दर्शक भी भिन्न-भिन्न रुचियों के और पढ़े-लिखे हो चुके हैं। उदारवाद (पोस्ट लिबरलाइजेशन) के बाद से इतना सुधार आया है, हालांकि पॉकेट्स में ही, ये नहीं कहूंगा कि पूरा देश बदल गया है। तो धीरे-धीरे वहां से फायदा उठाना शुरू कर सकते हैं। और अगर हमारी पीढ़ी को ये फायदा न हो तो आने वाली एक, दो, तीन और चौथी पीढ़ी को तो सौ फीसदी होगा। जैसे श्याम बेनेगल, शेखर कपूर और गोविंद निहलानी ने अपने वक्त में मुकाम बनाया जिसकी वजह से एक राम गोपाल वर्मा और एक अनुराग कश्यप आए तो उनसे शायद हम आए होंगे और हम से शायद कोई और आएंगे। ये और बेहतर ही होता जाएगा।

जब आप फिल्मों की दुनिया में नहीं थे तो बहुत से फिल्मकारों के बारे में सोच अवाक रह जाते होंगे, कि ये बंदा है इसने ये बनाई है, वो बनाई है, जब आप उनसे मिलते गए और सिनेमा बनाना सीखते गए तो क्या उसके बाद भी अवाक होते हैं या वो विस्मयबोध अब चला गया है कि ये तो ऐसे ही बनती है, उसने बना ली होगी वैसे ही?
अनुराग कश्यप से एक बड़ी सीख थी कि प्रभावित होते रहना। मतलब उनमें अब भी वो विस्मयबोध है कि किसी फिल्म को देख कर अपना जबड़ा तोड़ लेते हैं कि ये क्या पिक्चर बना दी। मैंने देखा है कि बहुत से लोग जो इतनी फिल्में देख चुके हैं वो एक तरह से प्रभावित होना बंद कर चुके हैं। उनको कुछ भी इम्प्रेस नहीं करता। सबकुछ एक तरह से खारिज कर देते हैं कि हां, ये तो ठीक है, ठीक है। तो मुझे अनुराग सर में वो अच्छा लगा और आज भी अगर रमेश सिप्पी सामने आ जाएं तो जरूर अवाक रह जाऊंगा कि उन्होंने ‘शोले’ बनाई थी। आज भी राम गोपाल वर्मा सामने आएं तो उनकी मौजूदा फिल्में चाहे जो भी हों, उनकी ‘सत्या’ ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया था, मैं अभी भी उनकी ऑ में रहूंगा। हां, जब आपका व्यक्तिगत रिश्ता होता है तो ये बदल जाता है जैसे अनुराग कश्यप दोस्त हैं पर एक फिल्ममेकर के तौर पर तो अभी भी मैं उनकी ऑ में हूं। दोस्त के रूप में मैं उन्हें चार चीजें कह दूं या वो मुझे चार चीजें कह दें पर फिल्मकार के तौर पर मैं अभी भी उनको बहुत मानता हूं और सीखना चाहता हूं।

‘पैडलर्स’ में गुलशन देवय्या हैं, उन्होंने बड़ी खास भूमिका निभाई है। उन्हें ‘यैलो बूट्स...’ और ‘हेट स्टोरी’ जैसी फिल्मों में मैं नोटिस कर रहा हूं... उनमें ऐसा क्या है कि स्वतंत्र और छोटी फिल्मों को एक हीरो के रूप में वह संपूर्ण बना देते हैं। फिल्म में वह खड़े हो जाते हैं तो उसमें शाहरुख खान की कमी नहीं लगती?
उनमें आक्रामकता, विनम्रता और शर्मीलेपन का विचित्र मेल है। वह बहुत बड़े दिल के भी हैं। अपने दायरे में बहुत ही सुरक्षित महसूस करते हैं। चाहे कोई भी चीज हो, उनका अपने काम से ध्यान नहीं हटता। उनकी जो दयालुता है वो परदे के बाहर आकर भी छूती है, जैसे आपको लगता है कि यार इसको देख लूं तो मुझे बड़े हीरो की कमी महसूस नहीं होती। क्योंकि उनके अंदर ही वो विशालता है किसी भी रोल को करने में। वो रोल में रुचि लेते हैं, न कि किसी और चीज में। जिंदगी को लेकर उनके कोई डिजाइन या योजनाएं नहीं हैं। उस पल उन्हें जो अच्छा लगता है वह करते हैं। उसमें उनकी ईमानदारी भी झलकती है और वह बहुत मजेदार इंसान भी हैं। आपको बहुत सहज महसूस करवाते हैं और एक भाईचारा रहता है। ऊपर से वह प्रतिभासंपन्न भी हैं। तो सारी चीजों के साथ अगर टेलेंट भी आ जाए तो किसी भी डायरेक्टर के लिए कम्पलीट पैकेज हो जाता है। वो अपनी एक छाप तो छोड़ ही रहे हैं, लोगों की नजरों में हैं, पर आने वाले दिनों में दमदार काम दिखाएंगे। उनका जो सिक्योर नेचर है उसकी वजह से वो बहुत लंबा चलने वाले हैं। उनका करियर शायद हिट और फ्लॉप पर निर्भर नहीं होगा।

इंडिया में इस साल बहुत कुछ हो गया और जो ये घटनाएं हैं इनसे शायद फिल्मकारों को प्रेरणा मिलती होंगी। चाहे अन्ना का आमरण अनशन हो, केजरीवाल ने जो घोटालों के खुलासे किए थे या उनका जो उभार हुआ है राजनीति में या दिल्ली वाली जो अभी घटना हुई है, या बहुत सी फिल्मी हस्तियां गुजर गईं एकदम से, या अमेरिका में गोलीबारी हुई, या सिलेंडर की रेट बढ़ गई, महंगाई बढ़ गई... तो इतनी सारी चीजें जब होती हैं तो क्या कहानियां निकलती हैं? या ऐसा होता है कि ये घटनाएं साइड से चली जाती हैं और आप कुछ और ही सोचते रह जाते हैं?
ये घटनाएं कहीं न कहीं जेहन में छप जाती हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ही घटना घटी वैसे ही आप फिल्म बनाने के बारे में सोचो तो वो उस घटना का फायदा उठाना हुआ। अगर उस सोच को सबकॉन्शियसली पकने देते हो अंदर तो एक वक्त के बाद उस गुस्से और निराशा के पार चले जाते हो और हर चीज को बहुत वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिवली) ढंग से देख पाते हो। जो भी घटना होती है वो सबके जेहन में जरूर रह जाती है पर तुरंत कोई रचनात्मक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं देता क्योंकि वो उसका मार्केटिंग टूल हो जाता है। दिल दहलाने वाले मामलों और समाज को बदल देने वाले मामलों में तो ऐसी चीजों की सलाह बिल्कुल नहीं दी जा सकती। उस बात को समझकर सही तरीके से दर्शाने के लिए एक वक्त चाहिए होता है ताकि सबकॉन्शियसली आप उसके साथ रहो और फिर एक टाइम आए जब सही नजरिए से आप उसे बता पाओ। नहीं तो अगर दिल्ली के इस अपराध पर कोई फिल्म बना दे तो वो बहुत असंवेदनशील होगा। लेकिन अगर इस घटना के साथ आप रहते हो, समाज पर उसके असर को देखते हो तब एक नतीजे पर आप पहुंच सकते हो कि हां अब एक फिल्म बनाई जा सकती है, इसका ये नजरिया है जो असंवेदनशील नहीं है। यानी ये एक सच्ची नीयत वाला बिंदु हो जो उसका फायदा न उठाए। उसे सनसनीखेज न करे, तभी वो लोगों तक पहुंचेगा भी। तो हां, मेरे ख्याल से जो भी लिख रहा होता है उस पर इन चीजों का असर जरूर पड़ता है और वो सबकॉन्शियस में कहीं न कहीं रह जाता है। और वो कहीं न कहीं, किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी वक्त पर निकलेगा ही।

अभी राम गोपाल वर्मा ने जो ‘द अटैक्ट ऑफ 26/11’ बनाई है तो इसके बारे में आप क्या कहेंगे? ये भी वही चीज कर गई कि देशमुख का इस्तीफा वगैरह हुआ?
जैसे ‘ब्लैक फ्राइडे’ बनी थी, वो धमाकों के दस साल बाद बनी थी। वो इतनी ऑब्जेक्टिव है और इतनी स्पष्ट है कि फिल्ममेकर ने कोई पक्ष नहीं लिया और अपनी राय नहीं थोपी। बल्कि उसने सच्चाई बताई और लोगों ने उस पर राय दी। तो उतनी मैच्योरिटी जरूरी है। जैसे माइकल विंटरबॉटम ने भी ‘सराजेवो’ और ‘गुवेंतानामो’ जैसे बहुत सारे उफनते मुद्दों पर फिल्में बनाईं हैं पर उन्होंने उन चीजों को पकने दिया है, एक तरह से उनका वस्तुपरक रूपांतरण पेश किया है न कि उन्हें सनसनीख़ेज करके दिखाया। मैं आशा कर रहा हूं कि ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’ वैसी ही ऑब्जेक्टिव फिल्म हो।

कैसी फिल्मों से नफरत है?
नफरत तो नहीं है पर एक वक्त पर बहुत खास राय वाला हुआ करता था। घिसी-पिटी प्रतिक्रिया होती थी कि अरे ये बकवास है वो बकवास है। अब जैसे कोई फिल्म आएगी तो देखने का मन नहीं करेगा बस, पर किसी के काम से नफरत नहीं है।

जैसे-जैसे स्वतंत्र या मुख्यधारा वाले नए फिल्मकार आ रहे हैं और अपने विचारों की प्रधानता वाली कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं, तो उनकी आवक बढ़ने से नग्नता और गाली-गलौच (न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज) का विषय भी मुखरता से उठेगा। कुछ लोग नग्नता और गालियों को स्वीकार करते हैं, कहते हैं होती है इसलिए दिखाते हैं, अनुराग (कश्यप) भी बहुत बार कहते रहे हैं कि हम बोलते हैं तो क्यों न इस्तेमाल करें फिल्मों में। आपका क्या मानना है और अपनी फिल्मों में कितना उसका इस्तेमाल करना या न करना चाहते हैं?
जैसे ही सवाल आता है कि क्या करना चाहिए वैसे ही अपने आप उसके नियम बनते हैं और ये जो फिल्मकार हैं शायद उन्हीं नियमों को तोड़ना चाहते हैं। कभी-कभी कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा सकती हैं, क्योंकि आप दरवाजा तोड़ने के लिए जोर लगाते हो तो पता नहीं कितना जोर लगाते हो। कभी-कभी जरूरत से ज्यादा जोर शायद लग जाता है। तो मेरे ख्याल से जब तक ये कहा जाता रहेगा कि आप इतना ही कर सकते हो और इतना नहीं कर सकते, तब तक वो जोर लगता रहेगा और कभी ज्यादा लगेगा, कभी कम लगेगा। जब तक इसको लेकर स्वीकृति नहीं आएगी तब तक ये होते रहेंगे, कभी शॉकिंग होंगे और कभी सही मात्रा में। ये मेरे ख्याल से बंद नहीं होगा।

या अपनी फिल्मों में आप कभी नग्नता और गालियों का इस्तेमाल करेंगे तो इसी संदर्भ में कि कोई रचनात्मक रोक लगाएगा या तानाशाही करेगा तो करेंगे... या फिर कहानी में कहने की जरूरत है तो करेंगे नहीं तो नहीं करेंगे?
हां, बिल्कुल वही। अब जैसे किसिंग एक वक्त में मार्केटिंग टूल हुआ करता था तो अब वह मार्केटिंग टूल नहीं रहा क्योंकि स्वीकार हो चुका है और कोई उससे हैरान नहीं होता है। जैसे ही ये हैरानी बंद हो जाएगी वैसे ही उसका अति इस्तेमाल बंद हो जाएगा। न्यूडिटी को ही लें, तो मान लीजिए आपके थियेटर में एक्स रेटेड फिल्में दिखाए जाने को मंजूरी मिल गई तो लोग इतनी नग्नता देख चुके होंगे कि फिल्मों में उसको आप मार्केटिंग टूल की तरह इस्तेमाल ही नहीं कर पाएंगे। क्योंकि वो कहेंगे कि यार इससे ज्यादा तो मैंने उसमें देखी है। तो जैसे ही सेंसरशिप बंद हो जाती है वैसे ही जितनी जरूरत है इसका इस्तेमाल उतना ही होता है। अभी तो हम इतना छिपाकर रखते हैं चीजों को कि कोई चुपके से पोर्न देखता है या इंटरनेट पर देखता है, तो मेरे ख्याल से जितनी स्वीकार्यता है वो सिनेमा में भी जैसे आएगी तो नग्नता और गालियों का असर उतना नहीं होगा जितना दस साल पहले या बीस साल पहले होता होगा। एक बिंदु के बाद ये फिल्म के हित में ही इस्तेमाल होगा न कि बाजारू हथकंडे के तौर पर यूज होगा।

फिल्म आलोचना कैसी होनी चाहिए? क्या ऐसी होनी चाहिए कि फिल्म बनाने वाले को पढ़कर मदद मिले? वो फिल्म आलोचना ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी होनी चाहिए कि ‘पैडलर्स’ जैसी?
जैसे-जैसे नई फिल्में बन रही हैं, वैसे ही आलोचक भी नए आ रहे हैं। उनकी भी पढ़ाई और फिल्मी साहित्य तक पहुंच समान, फिल्मकार की भी समान है। ये दोनों ही कहीं न कहीं आकर एक बिंदु पर मिलेंगे। आप जल्दीबाजी में ये भी नहीं कह सकते कि फिल्म आलोचना हमारे मुल्क में खराब है, क्योंकि फिर तो आप ये भी कहेंगे कि यहां फिल्ममेकिंग भी फालतू है। इस खींचतान का कोई अंत नहीं होगा फिर। अब आप अपना खुद का ब्लॉग खोलकर उसके दर्शक और पाठक बना सकते है, अब आपको सिर्फ मैगजीन या अखबार में ही लिखना जरूरी नहीं है... तो फिल्मकार और आलोचक की समझ और ज्ञान का एक बिंदु पर मेल होगा। अब ये हो सकता है कि जैसे कोई फिल्ममेकर न्यूडिटी दिखाना चाहे तो वो दिखाएगा और कोई आलोचक अपना ज्ञान दिखाना चाहेगा तो वो दिखाएगा... इन दोनों का सह-अस्तित्व तो होना ही है। होगा यही कि चार फिल्मों में से आपको एक बहुत पसंद आएगी तो चार आलोचना वाले मंचों में से भी एक पसंद आएगा। इनमें जो निरंतर है और औसत राय रखेगा वो कायम रहता जाएगा। मेरे ख्याल से इस पीढ़ी की फिल्ममेकिंग को वो परिभाषित करते जाएंगे। एक संतुलित नजरिया होना चाहिए, हमें ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो फिल्ममेकर बेकार है और ये भी नहीं कि वो आलोचक बेकार है।

नए लड़कों में ऐसे कितने हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और आपके हिसाब से अच्छी फिल्में देंगे?
श्लोक शर्मा, नीरज घेवन, सुमित पुरोहित और सुमित भटीजा (जिन्होंने ‘लव शव ते चिकन खुराना’ लिखी थी)... ये चार ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और ये लोग कुछ कमाल करने वाले हैं।

आपकी फिल्म का बाहरी फिल्म महोत्सवों में जाना या भारत में ही ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा देखा जाना, क्या ज्यादा जरूरी है?
सबसे ज्यादा जरूरी है एक फिल्म को किसी भी तरह का दर्शक मिलना। मेरे ख्याल से निजी संतुष्टि तो तब मिलती है जब दर्शक देश में मिलें, आप बाहर जब जाते हैं जब लगता है कि शायद देश में न मिलें। अपनी फिल्म के लिए तो मैं यही चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा अपने देश के ही मिलें, बाहर के तो बोनस में होने चाहिए।

फूड फॉर थॉट के लिए क्या करते हैं। किताबें, अख़बार या फिल्में या गलियां... क्या पकड़ते हैं?
उस पल में जो भी चीज मदद करे वो करता हूं। जिस दिन घूमने का मन किया, स्टेशन पर बैठने का मन किया... कुछ भी ऐसा जो मन में हलचल मचाए। कभी-कभी कमरे में बैठे-बैठे कुछ हो जाता है... जैसे कहते हैं कि बड़े-बड़े विचार तो टॉयलेट में बैठे हुए आ जाते हैं। पर किताबें पढ़ने या फिल्में देखने से ज्यादा लोगों के बीच बैठने से मदद मिलती है।

अगर, तो किताबें कैसी पढ़ते हैं?
मुख्यतः फिक्शन नहीं पढ़ता हूं। जिस फिल्म या विचार के लिए जरूरत है उसके ईर्द-गिर्द जो भी लिखा है वो जुटाकर पढ़ने की कोशिश करता हूं। कभी-कभी ‘100 राइफल्स’ जैसे ग्राफिक नॉवेल पढ़ लेता हूं। उसके अलावा तो ख़बरें और नॉन-फिक्शन किस्म की चीजें पढ़ता हूं।

जैसे आपने कहा कि लोगों के बीच बैठे-बैठे विचार आ जाते हैं, तो कभी जब परिवार या दोस्तों के बीच बैठे होते हैं तो ऐसा होता होगा कि एक रचनात्मक व्यक्ति बैठा कहीं भी है एक समंदर उसके अंदर पल रहा है। दूसरा, वहां जो दोस्त-रिश्तेदार बैठे होते हैं क्या वो कभी बुरा नहीं मानते कि यार ये क्या इंसान है, अलग ही अपने सोचे जा रहा है, बात में ध्यान ही नहीं दे रहा?
हमेशा होता है, नाराज ही रहते हैं लोग। पर एक विनम्रता भी आ जाती है उनके साथ बैठकर क्योंकि वो आपको जमीन पर ले आते हैं। अच्छा भी लगता है और कभी-कभी आप भागना भी चाहते हो। पर ठीक है वो आपको भला-बुरा भी कहते हैं तो आप चाहो तो उसमें से व्यंग्य ढूंढ लेते हो, आलोचना ढूंढ लेते हो ...तो ये रुचिकर होता है। और भी खास इसलिए क्योंकि वो नजरिया और राय बिना किसी एजेंडा के आती है।

‘उड़ जाएगा हंस अकेला...’ पैडलर्स के ट्रेलर में सुनाई देता है। क्या आप कुमार गंधर्व को सुनते रहे हैं या संगीतकार ने सुझाया?
कुमार गंधर्व का गाया ये गीत मैं तीन साल से अपने फोन में लेकर घूम रहा हूं। ये जब फिल्म बन रही थी तो मैंने करण (म्यूजिक डायरेक्टर) को निवेदन किया कि इसकी बस एक पंक्ति इस्तेमाल कर लो। एक पूरे गीत की तरह तो मैं इसे रीक्रिएट नहीं करना चाहता था क्योंकि जैसे लिखा और गाया गया है वो किसी भी परिपेक्ष्य से फिर रचा नहीं जा सकता है। बस मेरा स्वार्थी मन था जो चाहता था कि एक ये लाइन फिल्म में रहनी ही चाहिए। मैंने करण से कहा कि किसी भी ऐसे फकीर या सिंगर से गवा दो जिसकी पूरे गाने से अपना करियर शुरू करने की महत्वाकांक्षा न हो, कोई मिला नहीं तो उसने खुद गा लिया।

अमेरिकी फिल्मकार क्विंटिन टैरेंटीनो की नवीनतम फिल्म ‘जांगो अनचैन्ड’ की रिलीज से पहले वहां के बेहद गंभीर और अहम अश्वेत फिल्म निर्देशक स्पाइक ली ने कहा था कि इसमें उनके पुरखों को (अश्वेतों) सही से नहीं दर्शाया गया है, ये उनका अपमान करती है, इसलिए वह टैरेंटीनों की फिल्म नहीं देखेंगे..। जानना चाहता था कि इसे कैसे देखा जाए क्योंकि टैरेंटीनो का एक अलग ही हास्य वाला अंदाज होता है जो कुछ खास को ही समझ आता है बाकियों को अपमानजनक लगता है।
एक तरह से टैरेंटीनो तो मजे लेना चाहते हैं और मौजूदा वक्त में वह अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने अपना खुद का टैरेंटीनों जॉनर बनाया है। जो कि जॉनर के ऊपर जॉनर, जॉनर के ऊपर जॉनर और फिर उनका जॉनर है। मेरे ख्याल से वो एक यूनीक केस है और वैसा कोई होना चाहिए। ये एंटरटेनिंग है और ऐसा कभी नहीं हुआ है कि उनकी कोई भी फिल्म देखकर मैं निराश निकला हूं। तो जितना भी शरारती, गलत और पॉलिटिकली इनकरेक्ट हो उनका दिमाग, मैं देखना चाहूंगा उनकी फिल्म। क्योंकि ये मजेदार होती हैं, उकसाती भी हैं, हंसाती भी हैं और कभी-कभी किसी की खिल्ली भी उड़ाती हैं पर मैं बुरा नहीं मानता। मुझे बहुत पसंद हैं। 

(Vasan Bala lives in Mumbai. He made his first movie 'Peddlers' last year and since then it has been taken very well in various International film festivals. He previously worked with Anurag Kashyap on films like 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots' and 'Gulaal'. Vasan was also an associate director to Michael Winterbottom on film 'Trishna'. He is working on his next script.) 
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