मंगलवार, 29 जनवरी 2013

वॉलबर्ग का टाइमपास बामः ब्रोकन सिटी

In a still from movie, Russell Crowe, Carl Fairbanks and Mark Wahlberg.
‘बुक ऑफ इलाय’ देखी है?

ज्यादा संभावना है कि देखी होगी। ह्यूजेस भाइयों (एलन और एल्बर्ट) ने जितनी भी फिल्में बनाईं, उनमें विश्वयुद्ध के बाद खंडहर हो चुके स्याह अमेरिका के पश्चिमी तट तक एक रहस्यमयी किताब पहुंचाने को निकले फक्कड़ योद्धा इलाय (डेंजल वॉशिंगटन) की कहानी ही सबसे सरस है। सरस, मनोरंजन के पैमानों पर। ऐसी फिल्म जिसे सौ में से निन्यानवे फिल्मी नशेड़ी लगाकर देखना चाहेंगे। नीयाम लीसन की ‘टेकन’ जैसी, या सूर्या की ‘सिंघम’ जैसी। टाइमपास करवाने की आश्वस्ति देती। दोनों भाइयों ने दीर्घकालिक प्रासंगिकता वाली ‘मैनेस 2 सोसायटी’ और ‘अमेरिकन पिंप’ भी बनाईं, मगर उनके बारे में जानकारी कम है। फिलहाल दोनों अलग निर्देशन करते हैं, पर रचनात्मक जुड़ाव बना हुआ है। एलन से कुछ मिनट छोटे एल्बर्ट अपनी नई फिल्म लाए हैं। नाम है ‘ब्रोकन सिटी’। मार्क वॉलबर्ग और रसल क्रो की प्रमुख भूमिकाओं वाली ये फिल्म ‘बुक ऑफ इलाय’ वाले मनोरंजन की परंपरा पर ही बनी है। आप निस्संदेह देख सकते हैं। जाहिर है कसरें भी निकाल सकते हैं, पर व्यापक दर्शनीयता की योग्यता इसमें है। फिर वॉलबर्ग तो इसमें हैं ही। पिछली फिल्म ‘कॉन्ट्राबैंड’ में भी वॉलबर्ग की इस टाइमपास फिल्मों वाली उस्तादी का जिक्र हमने किया था।

ब्रोकन सिटी, न्यू यॉर्क सिटी है। ये शहर टूटा हुआ है, पर क्रिस्टोफर नोलन की बैटमैन फिल्मों (बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट, द डार्क नाइट राइजेज) जैसा नहीं। ये टूटन किरदारों की जिंदगी में है और एक धांधलेबाज मेयर के उन दावों में है जो वह शहर व लोगों की भलाई के लिए करता आ रहा है। और ज्यादा गहराई में जाकर कोई मायने ढूंढकर नहीं ला सकते। इसके अलावा एल्बर्ट ह्यूजेस की इस फिल्म को बस सीधे तरीके से देखने और अपने किस्म का आनंद उठाने की जरूरत है।

बिली टैगर्ट (वॉलबर्ग) से कहानी शुरू होती है। न्यू यॉर्क पुलिस का यह अधिकारी एक रात एनकाउंटर करता है। इस विवादास्पद शूटिंग पर बहुत शोर मचता है, अदालत में मामला चलता है, बिली की वर्दी छिन जाती है। उसे जेल भेजने की बात भी होती है पर शहर का मेयर निकोलस होस्टेटलर (रसल क्रो) उसे बचा लेता है। वह बिली को कहता है कि “तुम मेरी नजर में एक हीरो हो”। खैर, कुछ सात वर्ष बीत जाते हैं। अब उसका जीवन कुछ व्यवस्थित है। उसकी गर्लफ्रेंड नैटली (नैटली मार्टिनेज) एक इंडिपेंडेंट फिल्म में काम कर रही है, करियर बनाने में लगी है, उसके परिवार पर बिली के बड़े एहसान हैं। बिली अपनी जासूसी एजेंसी चलाता है। उसकी असिस्टेंट भी है, केटी (एलोना टैल)। वह फिल्म में एक ताजगी लाती है। शादी से बाहर लोगों के रिश्तों की फोटो खींचकर और जासूसी करके बिली गुजारा कर रहा है, हालांकि उसके क्लाइंट उधारिए ज्यादा हैं, इससे उसके पैसे अटके पड़े हैं। यहीं एक दिन उसके दफ्तर में आता है मेयर का फोन। उसने बिली को बुलाया है। बिली जाता है। चुनाव की सरगर्मियां हैं और वह उसे एक अलग काम सौंपता है। होस्टेटलर कहता है कि उसकी बीवी कैथलीन (कैथरीन जेटा-जोन्स) का किसी के साथ अवैध संबंध है, पता लगाओ की वह कौन है।

ये वो वक्त है जब चुनाव में खिलाफ खड़ा बड़ा कारोबारी जैक वैलिएंट (बैरी पेपर – सेविंग प्राइवेट रायन, द ग्रीन माइल) पब्लिक डिबेट में आरोप लगाता है कि होस्टेलर 30,000 शहरियों को बेघर कर 4 अरब डॉलर का घोटाला करने की योजना बना रहा है। बिली ऐसे चुनावी मौसम और इन खबरों के बीच ये नहीं सोचता कि इतना तिकड़मबाज और कुटिल होस्टेटलर भला अपनी बीवी के कथित नाजायज संबंधों को जानने में रुचि क्यों दिखाएगा। मगर नहीं, बिली जांच शुरू करता है तो कैथलीन की। मेयर इस काम के उसे 50,000 डॉलर देता है। वह बड़ा खुश होता है, जासूसी करता है, पता लगाता है और मेयर को बताता है। पर ये सीधी दिखती लड़, कुछ पेंच लिए है। ये पेंच फिल्म देखने तक बचाकर रखें। देखें। टेलीविजन रिलीज भी जल्द हो सकती है, तब भी देख सकते हैं।

(Broken City is a political thriller directed by Albert Hughes of the Hughes brothers. In the movie, ex-cop and private eye Billy is hired by incumbent Mayor Nicholas Hostetler to investigate his unfaithful wife. Billy takes the job, only to get into a big trouble. The movie stars Mark Wahlberg, Russell Crowe, Natalie Martinez, Catherine Zeta-Jones, Jeffrey Wright, Kyle Chandler, Barry Pepper.)
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शनिवार, 26 जनवरी 2013

पेश-ए-नज़र है, पंजाबी सिनेमा से ‘साड्डी लव स्टोरी’...

अगर मैं बच्चा होता तो धीरज रतन की बनाई ये पंजाबी फिल्म मेरे बचपन की मनोरंजक फिल्मों में से एक बनती, इसके गानों पर मैं उछलता-कूदता, अमरिंदर और दिलजीत मेरे पंसदीदा फिल्म स्टार हो जाते, सुरवीन और नीतू की खूबसूरती मेरे सपनों की फैंटेसी बनती। मगर अफसोस, मैं बच्चा नहीं हूं।


इससे पहले धीरज रतन ने ‘धरती’, ‘मेल करादे रब्बा’, ‘जिने मेरा दिल लुटेया’, 'तौर मितरां दी' और ‘जट एंड जूलियट’ जैसी हालिया पंजाबी फिल्मों (इन्हें इस वक्त की प्रमुख फिल्मों में गिन सकते हैं) की कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। निर्देशक के तौर पर ‘साड्डी लव स्टोरी’ उनकी पहली फीचर फिल्म है, जो उन्होंने लिखी भी है। कहानी एक लव स्टोरी और उसके अलग-अलग संस्करणों की है। गुरलीन (नीतू सिंह) एक एक्सीडेंट के बाद कोमा में चली गई है। अब दो युवक (अमरिंदर गिल और दिलजीत दोसांझ) उसके घर पहुंचते हैं और कहते हैं, उनका नाम राजवीर है और गुरलीन उनसे प्यार करती थी। घरवालों (सुरवीन चावला, कुलभूषण खरबंदा, डॉली आहलूवालिया, नवनीत निशां, मुकेश वोहरा) में उलझन है, क्योंकि गुरलीन ही बता सकती है कि असली राजवीर कौन है। घरवाले दोनों से उनकी लव स्टोरी पूछते हैं और अंत में जब गुरलीन को होश आता है तो भेद खुलता है। कहानी के स्तर पर यहां कुछ भी अनोखा नहीं है, प्रस्तुति और संपादन के स्तर पर कुछ नया करने की कोशिश की गई है, मगर बहुत उत्साहकारी फिल्म नहीं है। मौलिकता के लिहाज से महत्वाकांक्षी होकर कहूं तो जरा भी नहीं। दो-तीन बातें हैं जो फिल्म को आकर्षक बनाती हैं।
Seen in the still from Saadi Love Story, Amrinder Gill, Surveen Chawla and Diljit Dosanjh.
पहला, संगीत। इसमें जयदेव कुमार (दिल लै गई कुड़ी...) ने दिया है। ये सिर्फ इस फिल्म की ही बात नहीं है, तकरीबन हर पंजाबी फिल्म में अभी मजबूत म्यूजिक आ रहा है। मजबूत माने, जो कहीं से बासी न लगे, बांधे रखे और न चाहते हुए भी थिरका दे। जितनी मेहनत या प्रतिभा पंजाबी सिनेमा में संगीत के स्तर पर है अभी, यहां फिल्ममेकिंग के स्तर पर नहीं है, पर वहां पहुंच रहे हैं। दूसरा, अभिनय। दिलजीत दोसांझ ने कहीं से अभिनय सीखा है ये ज्ञात नहीं है, वह मूलत: गायक हैं (देखें, नानकी दा वीर, ट्रक, 15 सालां तों, रेडियो, पंगा, खड़कू ) और यहां यही चीज फायदेमंद है। वह प्राकृतिक होकर जो भी लाइन हो, बोलते हैं। इससे अभिनय न कम रहता है न ज्यादा जाता है। उनके कंठों में स्वर फेंकने की चपलता है। पंजाबी बोली हो और ऐसे डायलॉग तुरत फेंके जाएं और सीधे इमोशंस रखें तो हास्य पैदा हो जाता है। यही दिलजीत और अमरिंदर (साफ सुथरी छवि वाले लोकप्रिय गायक, देखें चन दा टुकड़ा या यारियां) करते हैं। हालांकि दोनों ही पेशेवर अदाकार नहीं हैं। पेशेवर तो जिमी शेरगिल को छोड़कर फिलहाल पंजाबी सिनेमा में कोई मुख्य अदाकार नहीं है। सब गायकी से ही आए हैं। सुरवीन चावला या नीरू बाजवा जैसी अभिनेत्रियां जरूर अपने अभिनय में बहुविधता ला सकती हैं। कूलभूषण खरबंदा और डॉली आहलूवालिया (विकी डोनर) जैसे चरित्र किरदारों की मजबूती तो फिल्म की नींव में लगी ही होती है। मगर हीरो लोगों के लिहाज से यहां पर धीरज जैसे निर्देशकों का काम बढ़ता है, क्योंकि फिर उन्हें सिंगर से एक्टर बने हीरो के लिए बेहद प्राकृतिक किरदार लिखने पड़ते हैं। ‘साड्डी लव स्टोरी’ में देखें, तो एक भी गहन भाव वाला दृश्य दोनों हीरो के लिए नहीं लिखा गया है। बस सीधे-सीधे दृश्य हैं, जिनमें माहौल, डायलॉग और निर्देशकीय प्रस्तुति से काम चल जाता है, बस हीरो को फ्रेम में खड़े होकर भीतर से निकलते प्राथमिक भावों में अपनी पंक्तियां बोल देनी होती हैं। फिल्म में एक भी अभिनय भरी चुनौती वाला दृश्य नहीं है जो दोनों हीरो के हिस्से आया हो। उस मामले में सुरवीन, खरबंदा और डॉली संतुलन बिठाते हैं।

जो तीसरी और आखिरी बात मुझे सबसे राहत भरी लगी वो थी हॉकियों से पीछा छूटना। जब 2010 में धीरज की ही लिखी ‘मेल करादे रब्बा’ आई थी तो उसमें जिमी शेरगिल के हीरो वाले टशन हॉकी लेकर दूसरे कॉलेज के लड़कों/गुंडों को पीटते रहने के आधार पर ही खड़े किए गए थे। पूरी फिल्म में कहीं भी हॉकी के उस हिंसक प्रयोग को गलत नहीं बताया गया, बल्कि फिल्मी मनोरंजन वाली शर्त तले न्यायोचित ठहराया जाता रहा। आखिर में लगा कि फिल्म खत्म हो रही है, अब तो कुछ सेंस डाला जाएगा, पर वहां आते हैं दिलजीत दोसांझ, अतिथि भूमिका में, हाथ में हॉकी थामे। उनके प्रवेश पर गुमराह बैकग्राउंड गीत ‘देख लो पंजाबी मुंडे किद्दा रौला पौंदे...बोतलां दे...’ बजता चलता है। वह जिमी (साथ में नीरू बैठी होती हैं) के किरदार से कहते हैं, "मेरा पढ़-लिखकर कुछ हुआ नहीं इसलिए तेरी तरह मैंने भी हॉकी हाथ में ले ली"। यहां बहुत से युवा दर्शकों को एक खास तरह का संदेश जाता है। कहने को कहा भी जा सकता है कि दिलजीत हॉकी प्लेयर बनने के संदर्भ में बात कर रहे हैं, पर पूरी फिल्म में जिमी के किरदार ने हॉकी का जैसा इस्तेमाल किया है उसके उलट कोई दूजा संदर्भ आ भी कहां से सकता है। खैर, हम बात ये कर रहे थे कि ‘साड्डी लव स्टोरी’ में कम से कम पंजाबी सिनेमा के बहुतेरे अपराध-उत्प्रेरक स्टीरियोटाइप नहीं हैं। इसलिए इतनी मनोरंजन न लगने के बावजूद मैं इसे अच्छी फिल्म कहूंगा। फिल्म कई मामलों पर कमजोर है पर अंत में भी एक भलाई वाला संदेश दिया जाता है।

देखते हुए फिल्म को मैं यूं अनुभव करता गया।

क्रेडिट्स के साथ ये गाना शुरू होता है...
नैणा ने छेड़ी ए खाबां दी गिटार,
बदलां दे रोड़ उत्तों जाणा अंबर पार...
गूंजेगी जहान विच
सारे असमान विच
दिल दे माइक उत्ते, धड़कन दी ही रफ्तार
ऐ ही ए साड्डी लव स्टोरी मेरे यार...

स्पष्ट, सुंदर, संप्रेषक। अच्छा लिखा गया। विजुअल भी साथ चलते हैं। सबसे पहले प्रीति बनी सुरवीन चावला नजर आती हैं। एक स्टेप में वह हाथ ऊपर करती हैं, तो उनकी बगल में उगे बाल नजर आते हैं। लगता है संपादक मनीष मोरे (तेरे नाल लव हो गया, मिट्टी वाजां मारदी, दिल अपना पंजाबी, मेल करादे रब्बा, तेरा मेरा की रिश्ता, धरती, जिने मेरा दिल लुटेया, जट एंड जूलियट) ने ध्यान क्यों नहीं रखा होगा, बड़ी स्क्रीन पर संपादन करते हुए भी। अब मेरे अवचेतन में संदर्भों की दूसरी परत चल रही होती है। उसमें रोजमर्रा के वायुमंडल में हावी होता फैशन, धन, फॉर्म्युला और वैचारिक मंदबुद्धि है। मुझे यूं देखने की जरूरत ‘सेटनटैंगो’ और ‘द टुरिन हॉर्स’ में बेला टार के काले, कीचड़ में भरे, गीले, धंसते, नैराश्य में तर, जड़, बंजर, काल-कवलित होते और चनखनाती गर्म हवाओं के सामने भुनते लोकों और वहां कपड़े गीले कर-कर के अपनी जांघें और बगलें पोंछती महिलाओं के लिए नहीं पड़ी। अगर ‘साड्डी लव स्टोरी’ की दूसरी अभिनेत्री नीतू सिंह पर ही आएं तो नैतिक-पुलिस वाला दंभ लिए वो ऊंचे दर्शक उसे ‘गिद्दे च लालटेण नचदी’ गाने में लाल भैंस कहते हैं। यहां सोसायटियों में शरीर के पसीने की गंध डियो से ढकने के बाद और देह के बाल बिल्कुल साफ करने पर ही असभ्य सभ्य हो पाता है। कितना अचरज भरा है कि इसी भौतिक सोच वाली आधुनिक प्रजाति के ठीक सामने बड़ा वर्ग उन मूल पंजाबियों का है जो गुरु ग्रंथ साहिब की दी हुई मौलिकता लिए हुए हैं, केश सहित, मेहनतकश शरीर से निकलने वाली पसीने की गंध सहित और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के भान सहित। मगर बड़ी तेजी से पहली तरह के पंजाबी बढ़ रहे हैं, दूसरी तरह के बीतती पीढ़ी हो रहे हैं। एटिकेट्स एक धोखे की तरह हैं, जो हमें ब्रिटिश रॉयल्टी से ताल्लुक रखने वाले किन्हीं हिज हाइनेस या हर हाइनेस के शेव किए पपी बनाते हैं। मगर बड़ी तेजी से हम बनना चाहते हैं और बन रहे हैं। सुरवीन चावला की बगल के वो एक-दो दिन पुराने बाल मुझे एहसास दिलाते हैं कि वो दो सेकेंड का दृश्य देख कितनों ने आंखें मीच ली होंगी, जैसे चाचा के कच्छे जैसे शब्दों पर ओ गॉड कहते हुए कॉमेडी सर्कस में अर्चना पूरण सिंह मीच लेती हैं। ये जो ऐसे मौकों पर भीतर का महानगरी या आधुनिक-विकसित-मेट्रोसेक्सुअल प्राणी जाग जाता है न, अपने तय ब्रैंड और प्रॉडक्ट लिए, ये कुछ दशकों या सदियों में फिर से जंगलों में जाएगा, देह पर बाल उगाएगा, मगर उससे पहले अपनी खतरनाक प्रवृति से बड़ा नुकसान करवाएगा।

अवचेतन में जब ये हरा और थका देने वाला रैप खत्म होता है तो क्रेडिट्स पर फिर ध्यान जाता है। इस वक्त लिप सिंक गड़बड़ा रहा होता है। बज रहे गाने और हिल रहे होठों में अंतर आ रहा होता है। एक जगह तो ये भी होता है कि नीतू सिंह नाचते हुए गा रही होती हैं और मर्द आवाज में गाना सुनाई दे रहा होता है। अमरिंदर के पीछे विदेशी लड़कियां नाच रही होती हैं। ये विदेशी बैकग्राउंड डांसर्स वाला जो सूत्र है पंजाबी वीडियो और फिल्मों में, बड़ा खौफनाक सा है। इतना सम्मोहन शायद ही गोरी चमड़ी के लिए विश्व के किसी और मुल्क में होगा, जितना हमारे यहां है। अब अमरिंदर को फैशन फोटोग्राफर स्थापित करना है तो पांच-छह विदेशी लड़कियों को खड़ा कर दिया जाता है। वे हिल रही होती हैं, और वह गा रहा होता है ‘ऐ ही है साड्डी लव स्टोरी मेरे यार’। दावे से कह सकता हूं कि देसी कुड़ियां भी होतीं तो उसका फोटोग्राफर होना स्थापित हो जाता। दिलजीत रॉकस्टार की तरह नीचे माथा झटक-झटक कर निभा रहे होते हैं। खैर, ये खत्म होता है, फिल्म शुरू होती है।

बराड़ साहब (कुलभूषण) घर के मुखिया हैं। बाकी सदस्य हैं मिसेज बराड़ (डॉली), उनकी बेटी (नवनीत निशां), नातिन प्रीति (सुरवीन) और पोती गुरलीन (नीतू)। गुरलीन पंजाब यूनिवर्सिटी (चंडीगढ़) के एक कॉलेज में पढ़ रही है। घरवाले विक्रम (अतिथि भूमिका) से उसका रिश्ता तय कर देते हैं। ये बताने के लिए उसके कॉलेज पहुंचते हैं तो वह कहती है कि वह राजवीर से प्यार करती है और उससे शादी करेगी। वह राजवीर के साथ मिलकर बिजनेस करना चाहती है और उसके लिए 40-50 लाख रुपये मांगती है। बराड़ साहब मना कर देते हैं (गुरलीन के पिता और बराड़ के बेटे ने बिजनेस में घाटा खाने की वजह से आत्महत्या कर ली थी)। इस पर प्रीति (सुरवीन) अपने नाना को मनाती है कि “दीदी अगर करना चाहती है बिजनेस जीजाजी के साथ तो प्लीज उन्हें पैसे दे दो न”। एक बहन के लिए दूसरी का घरवालों को मनाना यहां मुझे भोजपुरी फिल्म ‘तोहार नइके कवनो जोड़, तू बेजोड़ बाड़ू हो’ की याद दिला देता है। उसमें एक बहन अपनी मर्जी के लड़के से लव मैरिज करना चाहती है पर पिता मना कर देते हैं तो ममेरी बहन घरवालों को मनाती है। खैर, बराड़ साहब प्रीति के समझाने पर मान जाते हैं। फोन पर वह ये खबर गुरलीन को देती है तो बेहद खुश गुरलीन घर लौटती है, रास्ते में उसकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाता है। सब अस्पताल पहुंचते हैं। डॉक्टर कहता है कि वह कोमा में चली गई है। घरवाले मायूस घर आते हैं। फिर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘जागीरदार’ लिखी जीप में राजवीर (अमरिंदर) आता है। कहता है कि वह गुरलीन का राजवीर है। सब उसकी कहानी सुनते हैं, वह सुनाता है। फिर उसे घर में ठहराया जाता है। घरवाले गार्डन में आकर बैठते हैं कि एक बुलेट उसी जीप के पास आकर रुकती है। कंधे पर बड़ा सा गिटार (क्लीशे) लिए दूसरा राजवीर (दिलजीत) आता है। वह भी कहानी सुनाता है। इसे भी ठहराया जाता है। अब घरवाले दुविधा में हैं और दोनों में झूठा कौन है समझ नहीं पा रहे। इंतजार है गुरलीन के जागने का। तो कहानी आगे चलती है, सुनाने की सीमा यहीं तक की है।

दिमागी तहों में कुछ और चीजें कहानी के दौरान चलती हैं:
  • राजवीर बने दिलजीत के कमरे की दीवारों पर गुरदास मान और कुलदीप माणक की तस्वीरें लगी होती हैं। ये दोनों ही पंजाबी गायक असल में भी दिलजीत दोसांझ के आदर्श हैं।
  • क्या ‘लालटेण’ जैसे गाने के निर्माण का आधार ‘फेवीकॉल’ और ‘झंडू बाम’ जैसे हिंदी गाने हैं?
  • राजवीर एक क्लब में गिटार बजाता है और गाता है। लालटेण गाने में जब वह नाच रहा होता है तो पीछे स्क्रीन पर ‘वीएच1’ चैनल चल रहा होता है। क्षेत्रीय म्यूजिक चैनल तो हालांकि ‘पीटीसी’ और ‘एमएच1’ हैं, पर अंतरराष्ट्रीय ‘वीएच1’ का चलना म्यूजिक कल्चर और तय हो चुकी दिशा को दिखाता है।
  • पैट्रोल पंप पर राजवीर और गुरलीन में उलझन हो जाती है कि 100 रुपये तेल के किसने चुका दिए हैं? झगड़े के बाद दोनों 50-50 का तेल भरवा लेते हैं। अगली सुबह राजवीर (दिलजीत) को पता चलता है कि वह रुपये तो उस लड़की के थे। वह अपनी बुलेट ले निकलता है गुरद्वारे चढ़ाने। वहां बाहर आइसक्रीम की गाड़ी पर बहुत से बच्चे दिखते हैं तो उन्हें आइसक्रीम खिलाने के लिए वो रुपये दे देता है। मगर मुड़ता है तो गुरद्वारे से निकल रही गुरलीन दिखती है। वह बच्चों से रुपये ले उसके पीछे जाता है। बाद में होता ये है कि पचास रुपये देने के बाद दोनों एक रेस्टोरेंट में जाते हैं वहां शेक और जूस ऑर्डर करते हैं। बिल बनता है लगभग 300 रुपये का। क्या ये फिल्मों का पुराना क्लीशे नहीं है कि 50 रुपये के पीछे 300 रुपये खर्च हो जाते हैं? न जाने क्यों, अजीब लगता है।
  • घर की बच्ची (गुरलीन) कोमा में है, अस्पताल में पड़ी है, लेकिन घर में उस किस्म की टेंशन नहीं है। सुरवीन सपनों में खोई दीवानी सी अपने कथित जीजाजियों से उनकी और दीदी की लव स्टोरी सुनाने की रिक्वेस्ट करती रहती हैं। दादी और सासू भी अपने-अपने फ्यूचर जमाइयों को खिलाने, पिलाने, दुलारने में लगी रहती हैं। कहीं कोई दुखी नहीं है। बस एक कुलभूषण खरबंदा के चेहरे पर गुस्सा या चिंता रहती है, जो उनका चारित्रिक गुण ज्यादा लगता है और गुरलीन की तबीयत की चिंता कम।
  • और तो और प्रीति के बर्थडे पर बड़ी आलीशान पार्टी मनाई जाती है, खूब नाच-गाना होता है। ‘टेंशन नी लेणी सोणिए...’ संभवत: फिल्म के सबसे कमजोर क्षणों में से एक है।
  • ‘कोठी वी पवा दूं, तेनू सोने विच मड़वा दूं...’ ये लब भारत की क्षेत्रीय पारंपरिकता से आते हैं। जैसे, राजस्थान में ‘बींटी’ (अंगूठी) और ‘कांगसियो’ (कंघा) जैसे लोकप्रिय गाने हैं, जो हार्मोनियम और ढोलक लेकर ढोली गाते रहे। आज भी गाए जाते हैं। इनमें नायिका या तो इन चीजों को बनवाने या दिलवाने की मांग पूरे गाने में रोमैंटिक तरीके से पिया से करती है या फिर सैंया खुद उसे मनाते हुए, रिझाते हुए इन चीजों को ला देने की बात हीरोइन से कह रहे होते हैं।
  • कहानी की प्रस्तुति थोड़ी दुहराव भरी है। पहले लव स्टोरी 1 होती है, फिर लव स्टोरी 2, फिर रीकैप 1, फिर रीकैप 2, फिर इंटरवल के बाद इंटरवल से पहले का रीकैप और उसके बाद दोनों कहानियां गलत साबित होने पर दोनों लव स्टोरी पर क्रॉस मार्किंग। ... चूंकि चीजें लौट-लौटकर आती हैं इसलिए ये प्रारूप नयेपन को खत्म करता है। ऐसा भी लगता है कि विषय-वस्तु कम थी और कहानी में चिपकाव कम था जिसे बढ़ाने के लिए इस भटकाव को दोहराया गया। नतीजतन फिल्म खिंच गई।
मैंने शुरू में मौलिकता के लिहाज से महत्वाकांक्षी न होने की बात इसलिए भी कही क्योंकि ‘साड्डी लव स्टोरी’ हमने पहली बार नहीं देखी है। हालांकि धीरज रतन कुशल कथाकार हैं। ‘वाइटबोर्ड’ और ‘साल्वेशन’ में छिपे अनेक विमर्श (करप्शन, कोलाहल, नैराश्य, जीवन, मृत्यु) और दर्शन यूं ही नहीं आ गए होंगे। व्यावसायिक प्रारूप की शर्तें बहुत कुछ बदल देती हैं। पंजाबी सिनेमा अभी अपने बदले रूप में शुरू हुआ ही है। मल्टीप्लेक्स और वेस्ट से जुड़ाव का पूरा फायदा इसे मिल रहा है। संगीत और गायक इसका मजबूत पक्ष हैं, निर्देशक परिपक्व हो रहे हैं। कुछ वक्त बाद मनोरंजन के लिहाज से ये शायद देश का सबसे हैरान करना वाला क्षेत्रीय सिनेमा होगा।

(‘Saadi Love Story’ is a Punjabi feature film directed by debutant Dheeraj Rattan. He’s been a writer (Screenplay and dialogues) for many successful Punjabi movies, like, ‘Jatt and Juliet’, ‘Dharti’, ‘Jihne Mera Dil Luteya’ and ‘Mel Karade Rabba’. Before that he wrote a few Hindi movies. So, this movie is about two boys, both Rajveers (Amrinder Gill and Diljit Dosanjh), claiming that they are the true love of Gurleen (Neetu Singh), a girl lying in coma. Now the family (played by Surveen Chawla, Kulbhushan Kharbanda, Dolly Ahluwalia, Navneet Nishan) awaits for Gurleen to awake and tell the truth. In the meantime, the boys are busy telling their version of love story to the ever curious Preeti and family. ‘Saadi Love Story’ released on January 11, 2013.)
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गुरुवार, 24 जनवरी 2013

मैं तां अक्खां बंद कर तुरनाः स्वरा भास्कर

वह उत्तरोतर बढ़ रही हैं। इस साल उनकी कई महत्वपूर्ण फिल्में आएंगी। दिल्ली की घटना पर अपने समूह के साथ बनाए उल्लेखनीय गीत मां नी मेरी, मैं नी डरना, तेरे वरगा मैं नी बणना... वाला होंसला उनमें है। उनसे पहले हुई बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।


Swara Baskar.
दो साल पहले आई फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ में पायल के किरदार ने दिल्ली मूल की स्वरा भास्कर को एकाएक नई लोक-पहचान दी थी। फिल्म रिलीज होने के बाद वह एक राष्ट्रीय पत्रिका के मुखपृष्ठ पर दिखीं तो उन्हें देश के छह शीर्ष पुरस्कारों में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के नॉमिनेशन मिले। अब 2013 में स्वरा लौट रही हैं पांच अनोखे किरदारों के साथ। ‘रांझणा’, ‘औरंगज़ेब’, ‘लिसन अमाया’, ‘मछली जल की रानी है’ और ‘सबकी बजेगी बैंड’ उनकी आने वाली फिल्मों के नाम हैं। इसके अलावा वह मुंबई में अपने थियेटर ग्रुप ‘स्वांग’ के साथ प्ले और वर्कशॉप भी कर रही हैं। हाल ही में पाश की कविताओं पर आधारित एक नुक्कड़ नाटक ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ उनके समूह ने तैयार किया है। 1 फरवरी को रिलीज होने जा रही उनकी फिल्म ‘लिसन अमाया’ इसलिए भी सुर्खियां बटोर रही है क्योंकि कोई 28 साल बाद फारुख शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी साथ नजर आने वाली है। इन्हीं सब संदर्भों में स्वरा से बातें हुईं, विस्तार से, पढ़ें।

 और कौन सी फिल्में आ रही हैं?
‘लिसन अमाया’ के अलावा ‘औरंगज़ेब’ है, यशराज फिल्म्स की। उसमें अर्जुन कपूर हैं डबल रोल में और मैं पृथ्वीराज सुकुमारन (अय्या वाले) के ऑपोजिट हूं। इसका निर्देशन अतुल सभरवाल कर रहे हैं। वह फिल्म लेखक रहे हैं। रामगोपाल वर्मा के साथ काम किया है। ‘माई वाइफ्स मर्डर’ फिल्म उन्होंने ही लिखी थी। सोनी पर एक यशराज का सीरियल आता था ‘पाउडर’, अतुल उसके लेखक-निर्देशक थे। फिर ‘रांझणा’ है। उसमें मेरे साथ धनुष (कोलावेरी डी), सोनम कपूर और अभय देओल हैं। बहुत मजेदार रोल है। परफॉर्मेंस ओरिएंटेड है। फिल्म के लेखक-निर्देशक आनंद राय हैं। कुछेक और फिल्में हैं जो इस साल रिलीज हो सकती हैं। ‘सबकी बजेगी बैंड’ मॉडर्न रिश्तों पर बनी एक कॉमेडी है। इसे अनिरुद्ध चावला डायरेक्ट कर रहे हैं, नए निर्देशक हैं। फिर एक हॉरर फिल्म है ‘मछली जल की रानी है’। इसका निर्देशन देबलॉय डे कर रहे हैं। दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था ‘स्वाभिमान’, ये उसके निर्देशक थे। फिर एक फिल्म आई थी ‘चंद्रमुखी’ (1993) जिसमें सलमान खान और श्रीदेवी थे, ये भी उन्होंने ही डायरेक्ट की थी। बाद में वो कैनेडा चले गए थे, अब इस फिल्म के साथ लौट रहे हैं।

‘लिसन अमाया’ की कहानी क्या है?
बड़ी स्वीट सी स्टोरी है। रिश्तों पर और खासकर मां-बेटी के रिश्ते पर आधारित है। दीप्ति नवल मेरी मां का किरदार कर रही हैं, मैं अमाया का किरदार कर रही हूं। अमाया की मां विधवा हैं और अपने फैमिली फ्रेंड (फारुख़ शेख़) से प्रेम करती हैं। अमाया को जब ये पता चलता है तो सबके जीवन में बदलाव आते हैं और तीनों किरदारों की यात्रा आगे बढ़ती है। बड़े सहज और संवेदनशील तरीके से बनाई गई है। कई फिल्म समारोहों में जा चुकी है, पुरस्कार भी मिले हैं। सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और फिल्म का पुरस्कार मिला था ‘न्यू जर्सी इंडिपेंडेंट साउथ एशियन सिनेफेस्ट-2012’ में। अब मार्च में लंदन जा रही है एक और फिल्म समारोह में हिस्सा लेने। जहां-जहां लोगों ने फिल्म देखी है, आखिर में एक मुस्कान साथ लेकर जा रहे हैं। एक संपूर्ण फिल्म है। इसमें हंसी-मजाक भी है, खिलखिलाहट के पल भी हैं, भावुकता भी है और साफ-सुथरी है। परिवार के साथ देख सकते हैं।

फिल्म की निर्देशक-लेखक जोड़ी अविनाश और गीता हैं, उनकी पृष्ठभूमि क्या है?
मूलतः दोनों दिल्ली में विज्ञापन फिल्में बनाते थे, अब पहली फीचर फिल्म बनाने मुंबई आए हैं।

माइक मिल्स की ‘बिगीनर्स’ हो या महेश मांजरेकर की ‘अस्तित्व’ या फिर नागेश कुकनूर की ‘मोड़’... ये बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में रहीं, सिनेमा की व्यावसायिक मजबूरियों के कोलाहल से परे, कम किरदार, बांधे रखने वाला कथ्य और अच्छी कहानी लिए। जैसे कि संभवतः ‘लिसन अमाया’ है। मगर क्या ऐसा नहीं है कि ये भी उन्हीं फिल्मों की तरह कुछेक तक ही सिमट कर रह जाएगी या फिर फिल्म बनाने से पहले ही ये आप लोगों को स्पष्ट था?
Poster of Listen Amaya.
अविनाश-गीता ने अपनी कहानी बड़े साफ मन और ईमानदारी के साथ लिखी है। स्क्रिप्ट पढ़कर मुझे ये लगा और उन्होंने इसे वैसे ही परदे पर उतारा भी है। मैं इसे एक नॉन-कमर्शियल आर्ट फिल्म का दर्जा नहीं दूंगी, मैं इसे छोटी फिल्म का दर्जा भी नहीं दूंगी। क्योंकि 30 साल बाद ये फिल्म फारुख़ सर और दीप्ति मैम को साथ ला रही है। ये बड़ा यादगार कपल रहा है। दोनों बहुत ही बढ़िया एक्टर्स हैं। लोगों की प्रतिक्रिया इस न्यूज को लेकर बहुत अच्छी आई है, जिसने भी सुना है उसने कहा है कि अरे हमें दोनों बहुत पसंद हैं, हम उन्हें देखना चाहेंगे। उस कपल को लेकर बहुत नॉस्टेलजिया है, रोमैंस है। ईमानदार फिल्म इस लिहाज से भी है कि जितना डायरेक्टर से बन पाया उन्होंने उतना ही दिखाया। ये जैसी नहीं है, वैसी फिल्म होने की कोशिश भी नहीं करती। इसे दिल्ली में शूट किया, इंटीरियर भी वहीं थे, एक्सटीरियर भी वहीं शूट किए बड़े दिलचस्प ढंग से। हम सब उम्मीद से भरे हुए हैं। किसी के जीवन में ऐसी घटना नहीं भी घटी हो तो फिल्म देखकर उससे एक जुड़ाव जरूर बनेगा। गाने और म्यूजिक काफी रोचक है। इसमें किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माए गाने ‘इक लड़की भीगी भागी सी’ का रीमिक्स भी रखा है। मुझे लकी फीलिंग भी हुई क्योंकि मधुबाला मेरी फेवरेट एक्ट्रेस हैं।

मुंबई नगरिया में कैसे-कैसे अनुभव हो रहे हैं? ‘तनु वेड्स मनु’ के बाद प्रकार-प्रकार की स्क्रिप्ट आ रही होंगी?
‘तनु वेड्स मनु’ के बाद मुझे कई वैसे ही रोल पेश किए गए। इसी वजह से उस फिल्म के कुछ वक्त बाद तक मैं बहुत मना कर रही थी। मेरे कई महीने इनकार करने में निकल गए। फिर ये पांच फिल्में चुनी इस वक्त में, और पांचों में मेरी भूमिकाएं ऐसी हैं कि मैं बहुत खुश हूं। लग रहा है कि आगे भी उत्साहजनक काम आएगा। ‘रांझणा’ का अभी शूट चल रहा है और जैसे मैंने पिछली बार आपसे कहा था कि मुझे मीटी रोल चाहिए तो उस पर खुद भी खरा उतरने के लिए बहुत मेहनत कर रही हूं।

जीवन फिल्मी हो या कोई दूसरा, बहुत बार निराश होकर रोते हैं, जो पाना चाहते हैं या जो करना चाहते हैं, हो नहीं पाता। आपके साथ ऐसा कितनी बार हुआ है कि भूमिकाओं के स्तर की वजह से या खुद के अभिनय को ढूंढने की कोशिश करते हुए पर ढूंढ न पाते हुए, आप निराश हुई हों?
मुंबई में कोई भी एक्टर हो, स्थापित या नया... उसकी जिदंगी में ये आती-जाती रहती है, निराशा या असुरक्षा। मैं ‘तनु वेड्स मनु’ के तुरंत बाद वाले दिनों में निराश तो नहीं, पर परेशान हो जाती थी। क्योंकि मुझे आठ-नौ ऐसे रोल पेश किए गए जो पायल के किरदार की हूबहू नकल थे। मुझे तो लगा कि अपने फोन में रिंगटोन लगवा लूं कि “अगर आप मुझे हीरोइन की फ्रेंड के रोल के लिए फोन कर रहे हैं तो अभी रख दीजिए, नहीं तो मैं उठा रही हूं फोन”। मगर उसके बाद से मैं बहुत भाग्यशाली रही हूं। कुल-मिलाकर निराशा से बची हुई हूं। जब मैं शूट नहीं करती हूं तो काफी सारे एक्टिंग वर्कशॉप करती रहती हूं। चूंकि मैं एन.एस.डी. या एफ.टी.आई.आई. जैसे किसी स्कूल से नहीं हूं तो कहीं एक्टिंग करना भूल न जाऊं इस लिहाज से व्यस्त रहती हूं। मुंबई में हमारा छोटा सा थियेटर ग्रुप है, ‘स्वांग’, जिसके साथ हम थियेटर की वर्कशॉप या नाटक करते रहते हैं।

फिर भी परेशानी की घड़ी में तुरंत राहत पाने के लिए क्या करती हैं? कौन सी फिल्म देखती हैं, किताब पढ़ती हैं, मां को फोन करती हैं?
मैं बहुत परेशान हो जाती हूं तो दिल्ली चली जाती हूं अपने माता-पिता से मिलने। नहीं तो ‘अमर अकबर एंथनी’ देखती हूं और ‘केसाब्लांका’ देखती हूं। ये मेरी दो फेवरेट फिल्में हैं। बहुत ज्यादा खाना खाती हूं, मीठा खा लेती हूं बहुत ज्यादा। कुल मिलाकर बच ही जाती हूं।

जब दिल्ली न जाना हो पाए या तीन घंटे ‘अमर अकबर एंथनी’ देखने के लिए न हों तो क्या सूत्रवाक्य रहता है?
मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों के जो गाने हैं, वो जिंदगी की सबसे बढ़िया फिलॉसफी होते हैं। वो मुझे हमेशा काम आए हैं और अकसर याद रहते हैं। जैसे, “ओ राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है दुख तो अपना साथी है...” (दोस्ती, 1964)। मुझे लगता है कि इससे सच्ची बात लाइफ में इन चीजों को लेकर नहीं बोली गई है। दूसरा, देवआनंद साहब का गाना, “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया…” (हम दोनों, 1961)। मुझे कमाल लगते हैं ये दोनों दर्शन। इन्हें अगल-बगल में इंसान रखकर चले तो कट जाएगी।

‘स्वांग’ के बारे में बताएं, इसे कितना वक्त देती हैं?
मुंबई में हमारा ये लेखकों, निर्देशकों, अभिनेताओं और संगीतकारों का छोटा सा समूह है। सब अलग-अलग कोशिश कर रहे हैं बॉलीवुड में जाने की। सब उसी जनवादी कला और थियेटर से आते हैं। कुछ लोग इप्टा के सदस्य थे, कुछ दिल्ली की एक और संस्था के सदस्य थे। अलग-अलग समूहों से थे और मुंबई आकर हम सभी जुड़े। यहां हमने एक बड़ा अच्छा नुक्कड़ नाटक तैयार किया, पंजाब के नामवर कवि पाश की कविताओं पर आधारित, उसका नाम था ‘बीच का रास्ता नहीं होता’। पुणे और मुंबई में उसके शो किए। पहली बार कविता को नुक्कड़ नाटक के प्रारूप में किया जा रहा था और प्रतिक्रियाएं बहुत अच्छी रहीं। अभी इस ग्रुप ने एक गाना बनाया है, ‘मां नी मेरी मैं नी डरना’, दिल्ली की घटना के संदर्भ में। इसे रविंदर रंधावा ने लिखा और ग्रुप में संगीतकार हैं रोहित शर्मा उन्होंने कंपोज किया है।

‘रांझणा’ में फिर आनंद राय के साथ काम कर रही हैं…
बहुत खुश हूं। मुझे लग रहा है कि शायद इस बार मैं उनको बेहतर समझ पा रही हूं, उनके निर्देशों को बेहतरी से ले पा रही हूं। हम लोग 31 दिसंबर को बनारस में ही थे और न्यू ईयर सेलिब्रेशन हमने गंगा नदी में एक बोट पर किया था। वहां मैंने आनंद सर को कहा था कि “पता है अगर मैं ये फिल्म हॉल में देखती और मैं ये किरदार नहीं निभा रही होती तो मेरा दिल टूट जाता इसलिए थैंक यू सो मच”। बहुत कमाल का कैरेक्टर हैं। राइटर हिमांशु शर्मा ने कमाल लिखा है। इसमें बिंदिया का रोल कर रही हूं जो शायद पायल से भी मजबूत होगा। मैं पूरी उम्मीद कर रही हूं कि ये वैसे ही निकले जैसे लिखा गया था। दर्शकों को बिंदिया जरूर याद रहेगी, क्योंकि अभी तक जितने किरदार किए हैं उनमें सबसे मजेदार ये रहा है।

एक्सेंट बनारस का पकड़ा होगा?
कोशिश तो की है। बहुत ज्यादा भी भोजपुरी नहीं जा रहे थे। ऐसी भाषा रखी है जो एक आम हिंदी भाषी को समझ में आए और महाराष्ट्र, गुजरात, बेंगलुरु के दर्शकों को भी। फुल भोजपुरी नहीं है पर हां एक टच देने की कोशिश की है। मेरी नानी दरअसल बनारस की हैं, उनकी पैदाइश और परवरिश वहां की रही है।

‘औरंगज़ेब’ में क्या किरदार है?
ज्यादा तो नहीं बता पाऊंगी पर एक एक्शन ड्रामा है। मेरा किरदार एकदम अलग किस्म का है। उसके आसपास इतना कुछ हो रहा है पर बाकी सभी से ये बिल्कुल अलग दिखती है। ‘लिसन अमाया’ की अमाया, ‘रांझणा’ की बिंदिया और ‘औरंगज़ेब’ की सुमन ये तीनों विपरीत किरदार हैं। एकदम अलग-अलग दिशाओं में खड़ी औरतें हैं। ‘औरंगज़ेब’ शायद 17 मई को रिलीज हो रही है और ‘रांझणा’ शायद 28 जून को, तो उस वक्त तक मैं बिल्कुल अलग-अलग रोल कर चुकी होऊंगी।

तीन-चार महीने में दोनों पूरी हो चुकी होंगी?
हां, तकरीबन शूट तो हो ही चुका है। ‘रांझणा’ का म्यूजिक ए. आर. रहमान साहब तैयार करने में लगे हैं।

इन दिनों टेलीविजन पर माधुरी दीक्षित का ओले क्रीम का विज्ञापन चल रहा है, उसमें (क्रीम बरतने के बाद परिणाम के तौर पर) उनका चेहरा फोटोशॉप से ज्यादा गोरा और समतल बनाकर दिखाया गया है। 2011 में ब्रिटेन की एक विज्ञापन नियामक एजेंसी ने जूलिया रॉबर्ट्स के ऐसे ही विज्ञापन पर, इसी वजह से रोक लगा दी थी। फिर प्राकृतिक खूबसूरती के साथ डॉक्टरी छेड़छाड़ के उदाहरण लें तो लगता है अनुष्का शर्मा ने अपने ऊपरी होठ को हाल ही में ज्यादा रसीला बनाया है। कटरीना-कंगना और कई दूसरी संभवतः ऐसा पहले करवा चुकी हैं। हो सकता है आपको भी कभी ऐसे फैसले लेने पड़ें। तो सवाल ये है कि इन कदमों से आप कितनी सहमत हैं? दूसरा, ब्यूटी की जो मौजूदा परिभाषा अभी की फिल्में और इन अभिनेत्रियों के डॉक्टरी फैसले गढ़ रहे हैं, वो परिभाषा कितना प्रतिनिधित्व करती है पायल और बिंदिया जैसी औसत हिंदुस्तानी लड़कियों का, निम्न-मध्यमवर्गीय लड़कियों को छोड़ भी दें तो?
मैं इस पर तो कुछ नहीं कहूंगी कि कौन सी एक्ट्रेस ने क्या किया, क्या नहीं किया। निजी पसंद भी होती है लोगों की। आपका शरीर है आपको जो करना है उसके साथ। मैं सिर्फ अपनी बात बोलूंगी। मुझे किसी ने एक बार लैला-मजनू की कहानी सुनाई थी, शायद सच हो, कि किसी ने लैला को देखा तो मजनू के पास आकर बोले, “भई तुम पागल-वागल हो क्या, मतलब काली है”। तो मजनू हंसकर बोले, “भई लैला की सुंदरता देखने के लिए तुम्हें मजनू की आंखें चाहिए”। मुझे भी ऐसा ही लगता है। ब्यूटी का कोई एक नोशन या पैमाना नहीं होता है और नहीं भी होना चाहिए। कहावत भी है कि ‘सुंदरता देने वाले की आंखों में होती है’। हां, ये जरूर है कि मुंबई की इंडस्ट्री ऐसी जगह है जो आपको असुरक्षित बना सकती है। एक एक्टर या औरत के तौर पर सुंदरता को लेकर, उम्र को लेकर, मोटापे और पतलेपन को लेकर। मैं खुद हर वक्त यही सोचती रहती हूं कि मोटी हो रही हूं, पतली हो रही हूं, छोटी हो रही हूं, क्या हो रही हूं। अगर उस पथ पर अग्रसर हो जाएं तो आप बहुत असुरक्षित हो सकते हैं। लेकिन मैं अपने बारे में बोलूंगी कि मैं बहुत कोशिश करती हूं एक संतुलन बनाकर चलने की। जहां तक सर्जरी या सर्जिकल प्रोसेस का सवाल है, तो मैं इन सबसे अभी तक तो बची ही हुई हूं। आगे भी बचूंगी। मुझे बस एक ही डर लगता है कि अगर एक बार आप शुरू हो गए तो फिर कहां रुकेंगे। ये भी ठीक नहीं लगेगा, वो भी ठीक नहीं लगेगा। दिमाग जो है न वो सच में शैतानखाना है और मैं अपने आप को जानती हूं, अगर मैं एक बार शुरू हो जाऊंगी तो पता नहीं कहां जाकर रुकूंगी। इसलिए अच्छा है कि मैं उस पथ पर जाऊं ही ना। जहां तक इन गोरेपन और कालेपन वाले विज्ञापनों की बात है तो मुझे बड़े ऑफेंसिव लगते हैं ये। जैसे ये फेयर एंड लवली वाले विज्ञापन या इस किस्म का जो रंग को लेकर फितूर है हमारे देश में, खासकर लड़कियों को लेकर, ये मुझे बहुत नारी विरोधी लगता है। बहुत बुरा लगता है। ये हम लोगों के जीवन में एक रियल प्रॉब्लम हो सकती है। जैसे मेरी क्लास में ही लड़कियां होती थीं और लड़के उन्हें काली-काली कहकर परेशान करते थे। ये बड़ा मूर्खतापूर्ण है।

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में ऋचा चड्ढा की भूमिका को ही लें तो अब किरदार ऐसे लिखे जा रहे हैं कि उनके लिए आपको खास हिंदी-अंग्रेजी उच्चारण, विशेष चेहरे-मोहरे या आकार की जरूरत नहीं पड़ेगी। एक औसत हिंदुस्तानी लड़की वाले नाक-नक्श चलेंगे।
हां, ये बहुत अच्छी बात है। क्या रोल था, ऋचा ने कमाल का परफॉर्मेंस दिया है। मैं स्कूल टाइम से ही उसे बहुत अच्छे से जानती हूं। उसने बहुत बढ़िया काम किया और बहुत अच्छी एक्ट्रेस है वो। जैसे एक सीन है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ में जहां वो गाना आता है “तार बिजली से पतले हमारे पिया...” उसमें ऋचा एक जगह गाते हुए ही रोने लगती हैं... क्या कमाल का सीन किया है। मैंने उसे फोन करके कहा भी था कि यार तुमने तो शानदार निर्वाह किया है। तो ऐसे रोल लिखे जा रहे हैं, वाकई में अच्छी बात है। ऐसे ही रोल में आपको अपना अभिनय दिखाने का मौका मिलेगा।

मुंबई में नए-नए फिल्मकार पंख फैलाने की तैयारी में हैं, आपकी उन पर नजर है?
मैं किसी समूह का हिस्सा तो नहीं हूं, पर जानती हूं कि मुंबई में सिनेमा के लिए बहुत अच्छा दौर अभी है। सब अवसर खुल रहे हैं। युवाओं को, नए अभिनेताओं को, राइटर्स को, डायरेक्टर्स को मौके मिल रहे हैं। मैं भी चाहती हूं कि अच्छे रोल करूं। मैंने तो पहले भी कहा है कि एक लालची एक्टर हूं। मैं चाहती हूं कि मुझे और बेहतर, बेहतर, बेहतर काम मिले और बेहतर परफॉर्मेंस करने का मौका मिले। कि मैं ऐसी फिल्म करूं जिसे करने के बाद थक गई हूं, दस किलो वजन घट गया है, दिमाग खाली हो गया है, कुछ समझ नहीं आ रहा है, इमोशनली आप बह गए हो। बहुत ख्वाहिश है कि उस स्तर का अनुशासन एक एक्टर के तौर पर खुद के अंदर ला पाऊं। इस लिहाज से मैं खुद को एक नए और छोटे बॉलीवुड का हिस्सा मानती हूं।

आपकी मां सिनेमा पढ़ाती हैं और सिनेमा पढ़ाते हुए जिन चीजों की आलोचना करती हैं या सिनेमा को जिस तरह देखना सिखाती हैं या खुद जैसे देखती हैं, उसका कितना असर आप पर पड़ा है, फिल्मों को देखने के आपके तरीके पर और रोल करने के आपके फैसले पर?
काफी अलग है हमारी सोच। क्योंकि मां स्कॉलर, शिक्षक और विश्लेषक के तौर पर फिल्मों को देखती हैं। एक लिहाज से जिसे आप सिनेमा एप्रीसिएशन कह सकते हैं। जब मेरे पास स्क्रिप्ट आती है तो मैं एक्टर के नजरिए से देखती और सोचती हूं। थोड़ा ये देखती हूं कि मेरा रोल कैसा लग रहा है, क्या है इसमें, कितनी बड़ी फिल्म है, कितनी छोटी फिल्म है... ये सब मैं भी सोचने लगी हूं, थोड़ी दुकानदारी में लग गई हूं, यू नो। कुछ साल मुंबई में रहते हुए हो गए तो इस मामले में खुद को बिल्कुल दूध की धुला नहीं मानूंगी।

लेकिन जब आप सिनेमा की दुनिया में नहीं आईं थीं तब तक तो आप पर असर रहा होगा क्योंकि जैसी फिल्मों या उससे जुड़े साहित्य का ढेर आपके घर लगा रहता होगा...
कभी-कभी मेरी मम्मी कहती हैं कि तुम मुझे बिल्कुल घर की मुर्गी दाल बराबर ट्रीट करती हो। सारी दुनिया आकर मुझसे फिल्म ले जाती है और तुम्हें कोई कद्र नहीं है मेरी फिल्मों की। लेकिन हां, मैं अपनी मां के कई लेक्चर में बैठी हूं, बहुत अच्छी टीचर हैं और मजेदार ढंग से पढ़ाती हैं। उनके साथ कई फिल्में भी देखी हैं। यहां तक कि मैंने अंतरराष्ट्रीय फिल्में बहुत कम देखी हैं पर जितनी भी देखी हैं मां के साथ ही देखी हैं। जाहिर है असर तो रहा ही है और संभवतः फिल्मों के लिए मेरे अंदर जो प्रेम है वो मुझे मेरी मां से मिला है विरासत में। अब तो वो व्यस्त रहती हैं और कुछ-कुछ मैं भी।

विदेशी फिल्में जो आपने उनके साथ देखीं और हिल गईं?
‘डांसर इन द डार्क’। मेरी हालत खराब हो गई। इसके निर्देशक हैं लार्श वॉन त्रियर। मैं इतनी डिस्टर्ब कभी किसी फिल्म को देखकर नहीं हुई हूं जितनी ‘डांसर इन द डार्क’ (2000) को देखकर हुई। और कमाल का परफॉर्मेंस था, और जो सिंगर्स इसमें लिए हैं... ये मैंने अपनी मां के साथ देखी थी। पेड्रो एल्मोडोवर की कई फिल्में देखी हैं, जैसे एक थी ‘ऑल अबाउट माई मदर’ (1999)। तो ये दो फिल्में आज भी जेहन में ताजा हैं।

कॉमोडोर भास्कर (पिता) ने आपकी कौन सी फिल्म देखी है, उनको कैसी लगी?
वैसे बिल्कुल फिल्में नहीं देखते पर मेरी सारी फिल्में देखते हैं। जब मैं ज्यादा परेशान कर रही होती हूं तो इन दिनों धमकाते हुए कहते हैं, “देखो तुम मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो मैं भी आ जाऊंगी मुंबई, एक्टर बनने”। तो मैं कहती हूं कि नहीं प्लीज मुंबई मत आना। तो मेरी सारी फिल्में मेरे पेरेंट्स देखते हैं, मेरे करियर में पूरे जोश से रुचि लेते हैं। जब मुझे पिछले साल नॉमिनेशन मिले थे तो पेरेंट्स साथ आए थे अवॉर्ड सेरेमनी में।

अपने किरदारों को आप कैसे सुनती है? कैसे समझती हैं? कैसे आत्मसात करती हैं? कैमरे के सामने कैसे खुद को अभिव्यक्त करती हैं? जैसे सीन्स के बीच में, कुर्सी पर बैठे हुए, उस दिन का शेड्यूल खत्म कर घर जाते हुए रास्ते में, रात को सोते हुए, सुबह उठकर स्पॉट पर पहुंचते हुए... क्योंकि आपको हर किरदार में जान डालनी है तो ऐसी कई क्रियाएं करनी पड़ती हैं। जैसे मैंने दीपक डोबरियाल से बात की थी तो उन्होंने अपनी अनूठी क्रिया बताई, इरफान खान भी ऐसा करते हैं। नतीजतन ‘तनु वेड्स मनु’ में जिस किस्म के पप्पी भैया दीपक बने थे शायद वैसा यू.पी. वाला किरदार कोई पहले नहीं आया है, आता भी है तो बड़ा घिसा-पिटा। फिर ‘नॉट अ लव स्टोरी’ में उन्होंने चौंका दिया। आपकी क्या प्रक्रिया रहती है, आप खुद से कैसे बात करती हैं? किरदार सुनने से लेकर कैमरे के आगे अभिव्यक्त करने के बीच क्या-क्या चीजें हो जाती हैं?
मेरा थोड़ा अजीब है मामला। चूंकि मैं कॉलेज में लिट्रेचर की स्टूडेंट रही हूं तो मुझे अपने हाथ में सबसे पहले स्क्रिप्ट चाहिए। मैं बहुत असुरक्षित हूं अपनी स्क्रिप्ट को लेकर, मुझे उसे बार-बार छूने की जरूरत पड़ती है। वो हर वक्त मेरे पास रहती है। मुंबई में जैसे आदत होती है कि आपको सीन के प्रिंट मिलते हैं, लेकिन मैं हमेशा कहती हूं, मुझे नहीं चाहिए मेरे पास अपनी स्क्रिप्ट है। मैं दो-तीन बार पढ़ती हूं स्क्रिप्ट को। फिर अपनी समझ के हिसाब से और जो भी डायरेक्टर से ब्रीफ मिला है, उसके नोट्स बनाना शुरू करती हूं। आप अगर मेरी स्क्रिप्ट देखेंगे तो वो पूरी लिखाई से भरी हुई है, आगे-पीछे नोट्स लिखे पड़े हैं। जैसे स्टूडेंट्स वाली हरकतें होती हैं। फिर ये करती हूं कि कहानी में जहां मेरा किरदार आता है उससे पहले जब वो पैदा हुआ, उसके पैदा होने से फिल्म की कहानी में प्रवेश करने तक की पूरी काल्पनिक कहानी अपने मन में बना लेती हूं। फिर फिल इन द ब्लैंक्स की तरह सोचती हूं। मतलब छोटी सी चीजें हैं, स्टूपिड चीजें हैं, कि उसे कौन सी फिल्म पसंद आती होगी? उसके दोस्त कैसे होंगे? वह क्या खाना पसंद करती है? उसे किसके सपने आते हैं? स्टूपिड चीजें... जिसका कोई लेना देना नहीं है फिल्म में लिखी उसकी घटनाओं से। मैं उसकी समग्र (होलिस्किटक) पर्सनैलिटी बनाती हूं। जैसे वो लड़की बीच-बीच में आ रही है फिल्म में, तो जहां-जहां नहीं नजर आ रही है तब क्या कर रही होगी? ये मैं अपने लिए चुन लेती हूं। फिर मेरे लिए बहुत जरूरी है कि लड़की कहां की है? किस परिवार में पैदा हुई है? तबका क्या है? मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यमवर्गीय या मजदूर वर्ग की है? उसके हिसाब से उसका बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव तय होगा। मतलब न सिर्फ उसके कपड़े... जैसे एक अंदाज होता है न कि सलवार-कमीज पहनकर भी आप साउथ डेल्ही के ही लगोगे... लेकिन अगर आप स्लम के हो या छोटे शहर के हो तो आपकी चाल अलग होगी। आपके कंधों की मुद्रा अलग होगी। तो इन सब चीजों पर ध्यान देने की कोशिश करती हूं। स्पीच या भाषा को लेकर बहुत जागरुक रहने की कोशिश करती हूं। ये देखती हूं कि आप किस उम्र का किरदार निभा रहे हैं। जैसे ‘लिसन अमाया’ में मैंने एक यंग एनर्जी लाने की कोशिश की है। ‘औरंगज़ेब’ में मेरे किरदार में स्थिरता है तो स्थिरता पकड़ने की कोशिश की है। ‘रांझणा’ में बिंदिया अल्हड़ है पागल है थोड़ी सी। तो उस किस्म की एनर्जी पकड़ने की कोशिश की है मैंने। मूलतः मेरी प्रक्रिया यही रहती है। मैं बार-बार वापस जाती हूं स्क्रिप्ट पर, उसे पढ़ती हूं, नोट्स को बार-बार पढ़ती हूं। ये सारी की सारी कवायद करने के बाद मैं खुद में ही वो सीन विजुअलाइज करती हूं। मतलब बिना डायरेक्टर के डायरेक्शन के, बिना ब्लॉकिंग के। और फिर मैं कोशिश करती हूं कि सेट पर आकर ये सारा भूल जाऊं। ताकि वहां पर आकर जो दूसरे एक्टर्स कर रहे हैं ऑन द स्पॉट उसी इंटरैक्शन में कुछ अच्छा सा इम्प्रोव निकले। मतलब वो इम्प्रोव असल भी लगे और सच्चा भी हो उस किरदार की जड़ों के प्रति।

समकालीन अभिनेता-अभिनेत्रियों में कौन धाकड़ लगते हैं सबसे ज्यादा?
मुंबई में इस वक्त जिधर नजर घुमाएं उधर बहुत बढ़िया एक्टर हैं। सब नए एक्टर बहुत यंग, टेलेंटेड, सुदंर और एनर्जी से भरे हुए हैं। ये हमारे लिए कॉम्पिटीशन भी हैं और हिंदी सिनेमा के लिए अच्छी बात भी हैं। ऋचा चड्ढा मुझे अच्छी लगती हैं, कमाल की एक्टर हैं। पिछले साल जितने भी नॉमिनेट हुए सारे ही बड़े टेलेंटेड थे। परिणीति चोपड़ा बहुत अच्छी एक्ट्रेस है, बहुत अच्छी एनर्जी है उसकी। अदिति राव हैदरी, हुमा कुरैशी बहुत ही सुंदर एक्ट्रेसेज हैं। बहुत खूबसूरत लड़कियां हैं दोनों। शहाना गोस्वामी बहुत उम्दा एक्ट्रेस हैं। मोनिका डोगरा का प्रेजेंस बहुत अच्छा है। पूर्णा जगन्नाथन की स्क्रीन प्रेजेंस मुझे बहुत अच्छी लगती है। प्रियंका चोपड़ा और इलियाना डिक्रूज का काम ‘बर्फी’ में बहुत कमाल लगा। मतलब क्या कंट्रोल है, इतना नियंत्रित परफॉर्मेंस किया। सोनम मेरे साथ ‘रांझणा’ में है। बहुत अच्छी, उदार और दोस्ताना लड़की है। ऐसा मैंने बहुत कम अभिनेत्रियों में देखा है। बहुत साफ और सच्चे मन की है। लड़कों में मुझे लगता है कि आयुष्मान खुराना में बहुत संभावनाएं हैं। उसकी भाषा बड़ी साफ है, चूंकि वह रेडियो जॉकी रह चुका है। साफ हिंदी बोलता है जो मुझे हमेशा पसंद आता है। नवाज (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) तो खैर कमाल एक्टर हैं। दीपक डोबरियाल मेरे बहुत पुराने और फेवरेट एक्टर हैं। अर्जुन कपूर बड़ा अच्छा एक्टर है, मैंने उसे ‘इशकजादे’ में देखा, अब ‘औरंगज़ेब’ में भी देखा। बहुत बढ़िया काम किया। धनुष के साथ काम करने का मौका मिला। कमाल का एक्टर है। ‘आडूकलम’ मैंने देखी है जिसके लिए उसे नेशनल अवॉर्ड मिला। धनुष जब आया ‘रांझणा’ के लिए तो उसे बिल्कुल हिंदी नहीं आती थी, लेकिन आप उसका काम फिल्म में देखिए, फ्लो देखिए, कमाल का है। पृथ्वीराज हैं, आई थिंक साउथ के एक्टर्स से मैं बहुत प्रभावित हुई हूं। टेलेंटेड हैं और क्या तकनीकी नॉलेज है उनका, इतने अच्छे से वो कैमरा समझते हैं।

2012 में कौन सी फिल्मों ने आपको प्रभावित किया है?
जाहिर तौर पर ‘कहानी’। मुझे बहुत अच्छी लगी। ‘शंघाई’, कमाल की फिल्म लगी। सटीक, अच्छी और कलात्मक। आज शहरी जीवन में हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट मौजूद है झुग्गियों के पुनर्वास (स्लम रीहैबिलिटेशन) का उसे दिबाकर ने बहुत कमाल तरीके से प्रस्तुत किया। मैं मिली तो मैंने उनसे बोला भी था। ‘विकी डोनर’ मुझे बड़ी मजेदार लगी और क्या परफॉर्मेंस था बाप रे बाप। माई गॉड, डॉली जी और अनु जी और जिन्होंने दादी (कमलेश गिल) का रोल किया, कमाल, कमाल। उनके साथ बाद में मैंने एक विज्ञापन भी किया। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अनुराग ने क्या स्केल पे बनाई है, विजुअली वो शानदार ही बनाते हैं, सबसे ज्यादा तो क्या परफॉर्मेंस रहे उसमें। उसमें मनोज जी, ऋचा और नवाज का काम तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा। ‘पान सिंह तोमर’, माई गॉड क्या फिल्म थी। मैं तो पागल हो गई देखकर। मनोज जी का परफॉर्मेंस ‘गैंग्स...’ में और इरफान का ‘पान सिंह...’ में क्लास था। मुझे ‘बर्फी’ भी काफी अच्छी लगी एक्चुअली। रणबीर का काम बहुत कमाल लगा।

कौन ऑलटाइम फेवरेट हैं?
शाहरुख खान। मैं उनसे फिल्मफेयर नॉमिनेशन नाइट पर मिली। पिछले साल जब मैं नॉमिनेट हुई थी ‘तनु वेड्स मनु’ के लिए और वो स्टेज पर कुछ रिहर्स कर रहे थे। मैं स्टेज पर गई और मैंने कहा कि मैं 1995 से इस दिन का इंतजार कर रही हूं। उन्होंने मुझे गले-वले लगाया और मैं स्टेज से गिरने को हुई तो मुझे वापस खींच लिया। मुझे माधुरी दीक्षित बहुत पसंद हैं। बहुत बड़ी फैन हूं उनकी। रानी मुखर्जी की मैं बहुत बड़ी फैन हूं। मधुबाला, वहीदा जी, जूलिया रॉबर्ट्स, मैरिल स्ट्रीप... ये चारों भी मेरी ऑलटाइम फेवरेट में से हैं। मैरिल स्ट्रीप को देखकर तो ये उम्मीद जागती है कि यार उम्र का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अच्छे एक्टर हो तो आप अच्छे एक्टर हो और आपको अच्छा काम मिलेगा।

माधुरी और जूलिया की तो मैंने पहले आलोचना कर दी?
नहीं, ठीक है। एक होता है फिल्म में काम और दूसरा होता है मार्केट का एंगल। दुर्भाग्य से जिस दौर में हम रह रहे हैं उसमें आर्ट पर मार्केट बहुत हावी है। बहुत ज्यादा। कुछ चीजें मजबूरी में भी हो जाती हैं यार, अब क्या करेंगे आप। आप जितने बड़े स्टार बनते जाते हो तो उसका सामना आपको ज्यादा करना पड़ता है। इसीलिए अभी मैं बहुत आसानी से बोल दूं सर्जरी की बात और ये-वो... आगे जाकर आप क्या पता कितने बड़े स्टार बन जाओ और आपको क्या-क्या चीजें एनडोर्स करनी पड़ें। आप दस चीजों का विज्ञापन कर रहे हैं... तो दस शर्तें हैं...। तो ठीक है क्या करेंगे।

लेकिन थोड़ा भिड़ना भी तो चाहिए?
तो फिर ठीक है, हम वहां पहुंचेंगे तो भिड़ेंगे।

मजबूत महिला किरदारों वाली फिल्में देखती या पढ़ती हैं क्या?
मैरिल स्ट्रीप की बात करें तो मुझे उनका काम ‘द ब्रिजेज ऑफ मेडिसन काउंटी’ (1995) में बहुत अच्छा लगा था। बहुत शार्प सा काम था। बहुत शांत तरीके से निभाया है। हाल ही में आई ‘ब्लैक स्वॉन’ (2010) मुझे बहुत अच्छी लगी। मैंने बतौर एक्टर भी उस रोल के बारे में बहुत सोचा। मैं कमर्शियल फिल्में भी उस नजरिए से काफी देखती हूं। श्रीदेवी जी का काम जैसे मैं काफी याद रखती हूं। ‘चालबाज’ हुई, ‘चांदनी’ हुई, ‘मिस्टर इंडिया’… एक्टर के तौर एक एनडियरिंग या प्यारी लगने वाली क्वालिटी उनमें है। मैं हमेशा एक्टिंग ही नहीं देखती हूं, ये छोटी-छोटी चीजें भी मेरे जेहन में रह जाती हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ भी आइकॉनिक फिल्म रही। एक एक्टर के लिए ड्रीम रोल है अनारकली का। ‘मदर इंडिया’ मुझे बहुत पसंद है।

लक्ष्य क्या है जिंदगी का?
एक एक्टर के तौर पर मेरा ऐसा बॉडी ऑफ वर्क हो कि याद रहे। मैं फेम भी चाहूंगी पर सिर्फ फिल्में ही वो जरिया नहीं होंगी उसके लिए... जीवन में फिल्मों के आगे भी बहुत सारी चीजें आएंगी। जो भी मैं करूं उसका असर पड़े लाइफ पर। ऐसा काम जो ज्यादा जमीनी हो और उसमें लोगों से इंटरैक्ट करने का ज्यादा मौका मिले।

Swara Bhaskar is a young, energetic and talented actress. She's from Delhi. She studied in Delhi University and did her masters in sociology from Jawaharlal Nehru University. Her mother Ira Bhaskar is a film studies professor at JNU and father C Uday Bhaskar is a well known strategic expert. After doing films like 'Madholal Keep Walking', ‘Guzaarish’, ‘The Untitled Kartik Krishnan Project’ and 'Niyati', Swara appeared in Anand L. Rai's 'Tanu Weds Manu' as Payal and got rave reviews. Now she's coming up with five good movies this year. Avinash Kumar Singh's 'Listen Amaya' is releasing on 1st of Feb. This movie also reunites veterans like Farooq Sheikh and Deepti Naval after 28 years. Then Swara will be seen as Bindiya in Rai’s ‘Raanjhnaa’ with Dhanush, Sonam Kapoor and Abhay Deol. She plays Suman in Yashraj’s ‘Aurangzeb’ directed by debutant Atul Sabharwal. ‘Machali Jal Ki Raani Hai’ and ‘Sabki Bajegi Band’ is her other projects.
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मंगलवार, 22 जनवरी 2013

इश्तेहारी ‘इनकार’ के इश्तेहारी निष्कर्ष

अच्छे इरादों से बनी, भलाई और त्याग का संदेश देती निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ उस बहस को खत्म नहीं कर पाती जिसे शुरू करने का दावा करती रही


सुधीर मिश्रा की पिछली फिल्म ‘ये साली जिंदगी’ मुझे काफी अच्छी लगी थी। सीधी, स्पष्ट, अनूठी प्रस्तुति वाली और रोचक। ‘इनकार’ भी जरा फ्लैशबैक में चलती है पर अस्पष्टता लिए है। अर्जुन रामपाल, चित्रांगदा और सुधीर जिस तरह न्यूज चैनल्स के दफ्तरों में और शैक्षणिक संस्थानों में इसे ‘कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ यौन शोषण’ पर बनी फिल्म कहकर प्रचारित कर रहे थे, वैसी ये है नहीं। फिल्म में ‘मौला तू मालिक है’ गाने में स्वानंद किरकिरे की लिखी एक पंक्ति आती है, ‘नैनों के भीगे भीगे इश्तेहारों से, तुझको रिझाना है...’, ‘इनकार’ भी इश्तेहारी पेशे को पृष्ठभूमि बनाकर यौन शोषण और महिला-पुरुष गैरबराबरी का इश्तेहार सा गढ़ती है और रिझाने की कोशिश करती है। इसका अंत अच्छे संदेश के साथ होता है, हमें भला इंसान बनाता है, पर बात पूरी फिल्म में चलती बहस से अंत में अलग हो जाने की है। आखिर के दस मिनट को छोड़कर पूरे वक्त हम कोर्टरूम ड्रामा वाले अंदाज में सुनवाई होती देखते हैं। ‘राशोमोन’ (अकीरा कुरोसावा की इस क्लासिक में एक घटना का सच तीन लोग अपने-अपने संस्करणों में सुनाते हैं) वाले अंदाज में सच के अलग-अलग संस्करण देखते हैं। कौन गलत है, कौन सही है ये तय करना चाहते हैं। ...पर आखिर में फिल्म एक लव स्टोरी का रंग घोलकर खत्म हो जाती है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे फिल्म के क्लाइमैक्स में अच्छी बातें नजर आती हैं, मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है, पर फिर इनकार शब्द के मायने क्या रहे? फिर यौन शोषण को ना कहने के संदेश का क्या हुआ?
Chitrangada Singh and Arjun Rampal, in a still from 'Inkaar'

कथित तौर पर लियो बर्नेट और ग्रे वर्ल्डवाइड जैसी विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तरों में शूट हुई ये कहानी शुरू होती है हरियाणवी लहजे में। छोटा राहुल रोता हुआ घर आता है और अपने पिता (कंवलजीत सिंह) से बाहर खेलने नहीं दे रहे लड़कों की शिकायत करता है। पिता जवाब में उसे जिंदगी का बड़ा (सही/गलत) सबक देता है, जो कुछ यूं होता है, “देख बेट्टा, कोई चीज तेरी हो ना और तुझे कोई नहीं दे ना... तो तू छीन लियो उसको...”। लगता है सुधीर हमें सुझा रहे हैं कि वर्क प्लेसेज में महिलाओं के साथ गैर-बराबरी या यौन शोषण के बीज पुरुषों में यहीं ऐसे ही पड़ते हैं और खाप के संदर्भ में मर्दवादी मर्द ढूंढने में हरियाणा से आसान संदर्भ कोई मिल नहीं सकता। हांलाकि ये शॉर्टकट ही है। खैर, बताता चलूं कि फिल्म का क्लाइमैक्स इस धारणा को तोड़ देता है। यही राहुल फिल्म के आखिर में जब अपने एजेंसी के साथियों को ई-मेल भेजता है तो उसमें इन्हीं पिता की सीख का जिक्र करते हुए लिखता है, “मेरे पिताजी हमेशा कहते थे कि तुझे कोई गलत साबित कर दे ना तो उसे (उसका साथ) कभी छोड़ियो मत...”। और हम गलत साबित हो जाते हैं कि ये सहारणपुर का बच्चा और उसका पिता गलत वैल्यूज वाले लोग नहीं थे, जैसा हमें शुरू के डायलॉग से लगे। लेकिन पूरी फिल्म में दर्शक सच के हर नए पक्ष के साथ मैन्यूपुलेट होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे राहुल और माया हुए अपने-अपने पूर्वाग्रहयुक्त सचों से। ये फिल्म कुछ और हो न हो, ये जरूर साबित करती है कि हम जल्दी से जल्दी बलि के बकरे या बुरे को ढूंढने के लिए तड़प रहे होते हैं। हम सच्चाई या भलाई को संभावना ही नहीं देना चाहते। कुछ चाहते हैं कि माया को गलत साबित करने के लिए मुझे जरा सा लॉजिक मिल जाए, बाकी राहुल के लिए ऐसा सोचते हैं... पर फिल्म के डायरेक्टर सुधीर मिश्रा दोनों तरह की सोच को गलत साबित कर देते हैं। ये वर्क प्लेसेज में सेक्सुअल हरासमेंट की कहानी कम और मानव मस्तिष्क की तहों में जाती फिल्म ज्यादा है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के प्रमोशन के वक्त रिपोर्टर पूछते हैं कि फिल्म में हीरो कौन है या विलेन कौन है? फिल्मकार की चिढ़ से बेखबर और इस बात से अपरिचित कि ग्रे शेड्स भी होते हैं, हर इंसान में बुरे-अच्छे दोनों बसते हैं। खैर, हम कहानी क्या थी इससे ज्यादा खिसक लिए।

मुंबई की एक प्रतिष्ठित विज्ञापन एजेंसी का सीईओ है राहुल वर्मा (अर्जुन रामपाल) और उसकी नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर है माया लूथरा (चित्रांगदा सिंह)। बात ये है कि माया ने राहुल पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। कंपनी के अंदर ही जांच पैनल बना है। इसकी अध्यक्ष हैं समाज सेविका मिसेज कामदार (दीप्ति नवल) और बाकी सदस्य है एजेंसी के लोग। अब सुनवाई हो रही है। राहुल और माया अलग-अलग आकर अपना-अपना पक्ष रख रहे हैं। राहुल का कहना है कि माया सोलन की एक डरी हुई लड़की थी जिसे चलना, बैठना, बात करना, सोचना, विज्ञापन के आइडिया प्रेजेंट करना और इस पेशे का क-ख-ग उन्होंने ही सिखाया है। एक ऐसी जगह में जहां निरोध, ब्रा, पेंटी, डियो से लेकर न जाने कैसे-कैसे विज्ञापन बनाते हैं तो हंसी-मजाक भरी फ्लर्टेशन (एक किस्म की छेड़छाड़) चलती रहती है। प्रोजेक्ट पर बात करने के लिए लेट नाइट एक-दूसरे के घर भी जाते हैं, पार्टी भी करते हैं। ऐसे में कोई इसे शोषण मानता है तो शोषण की सीमा कहां शुरू होती है? ऐसे तो इतने डेडलाइन वाले माहौल में काम करना मुश्किल हो जाएगा? माया के आरोप हैं कि राहुल ने कुछ शब्दों के इस्तेमाल में या एक बार अपने घर बुलाकर उसे परेशान करने की कोशिश की है। वह कहती है कि दफ्तर में जैसे उसके बारे में सब बातें करते हैं कि वह राहुल के साथ सोई तो उसकी तरक्की हुई या जैसे मर्द कलीग उसे देखते हैं, ये सब सहनशक्ति की सीमा के परे हैं। इस प्रकार से बहुत परतें बाहर आती हैं। आखिर में कहानी एक नतीजे पर पहुंचती है, पर मुद्दे से जुड़े किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती और यौन शोषण पर बनी फिल्मों की श्रेणी से बाहर हो जाती है।

सुनवाई के दौरान माया कहती है, “हां, मैं मानती हूं कि उसने (राहुल) मुझे सबकुछ सिखाया है, पर इसका मतलब ये नहीं कि वह हर बार आएगा तो मैं अपनी टांगें चौड़ी (स्पलिट माई लेग्स) कर लूंगी”। यहां फिल्म का अंदरुनी टकराव ये है कि ऐसा पहले कहीं दिखाया ही नहीं गया कि यौन संबंध वाला सीधा न्यौता राहुल ने कहीं दिया है या फिर उसकी कामेच्छा धधक-धधक कर बाहर आई है। ऐसे में रोचकता लाने या सनसनी फैलाने का औजार मानने के अलावा इस संवाद की दो संभावनाएं और हैं। पहली: आदमी जब गुस्से में होता है अथवा जब किसी को बहुत बुरा समझता है जो उसका दिमाग, जो-जो घटा है उन घटनाओं का अपना ही सच तैयार करता है, अपने पूर्वाग्रहों के साथ। हो सकता है माया का ये संवाद उसका अपना वही सच हो। दूसरा: गुस्से में होने की वजह से माया के मन में राहुल के जेस्चर्स या उससे जुड़ी स्मृतियों की छवि सुनवाई के दौरान यूं ही लापरवाही से रीसाइकिल होकर बाहर आती है। गुप्ता (विपिन शर्मा) का संवाद “औरत जब हो जाए खूंखार, खा जाए सारी दुनिया मारे न डकार” भी कहानी के किसी लॉजिक को मदद नहीं करता। माया का कहा “इन एल्फा मेल्स की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए एक एम्बीशस वूमन को एल्फा वूमन बनना पड़ता है” भी किसी पक्ष को संपुष्ट नहीं करता, हां उसका नजरिया दिखाता है जो इस पेशे में आगे बढ़ने के लिए उसे अपनाना पड़ा। इस पूरी डिबेट में शायद सबसे ईमानदार और हकीकत भरी बात एक ही होती है, जब माया का बॉस उसे कहता है, “देखो माया, तुम एक बहुत पुरानी कहावत को सच साबित कर रही हो कि औरतें सीनियर पजिशन के लिए बहुत इमोशनल और कमजोर होती हैं”। ऐसा असल जीवन में भी समझा जाता है। मर्द लोग हूबहू ऐसा ही सोचते हैं। इसका सार्वजनिक जीवन में जहां भी हो विरोध किया जाना चाहिए।

बीच में एजेंसी के हेड से बात करते हुए माया बैठे-बैठे सपना देखने लगती है कि एक बड़ा क्लाइंट उसके हाथ से निकल गया है और बॉस उसे डांटते हुए कह रहा है, “उल्लू, गधी, कबूतरी, साली, पान की पीक से रंगी...”। फिल्म में यह एकमात्र फनी सीन पूरी बातचीत की गंभीरता खत्म करता है। सेक्सुअल हरासमेंट पर बहस, वर्जन सुनने की उठा-पटक, राहुल-माया की सफाइयां-गवाहियां... सब मजाक लगने लगती हैं। एक तरफ तो हम माया से सहानुभूति दर्ज करते हैं जब वह कहती हैं कि “इन लोगों ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है और आप मेरी तकलीफ समझ नहीं सकते...”, हम समझने की कोशिश करते हैं, पर इस फनी अवरोध के बाद पूरी फिल्म ही निरर्थक सी हो जाती है। एक और दृश्य में माया का मंगेतर उससे कहता है, “बहुत हो गया। तुम ये केस वापस ले लो। लंदन-न्यू यॉर्क में मेरे भी बहुत से क्लाइंट हैं, बहुत बदनामी होगी। एंड यू वर स्लीपिंग विद हिम ना... (वैसे तुम भी तो उसके साथ सो रही थी न)”। इस संवाद से दो चीजें स्पष्ट होती हैं। पहला, यानी प्रफुल्ल ये हकीकत जानता है और वह भी कहीं किसी के साथ सोता होगा। दोनों व्याभिचारी हैं और इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। दूसरा, आधुनिकता के इस तमाशे में दोनों इस बारे में कैजुअल हैं। कॉरपोरेट कार्यक्षेत्र में शोषण के इस रूप के प्रति सहानुभूतिशील हो पाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि यहां चारों तरफ दारू है, हर बात पर जाम हैं, भोगवाद है, झूठ बेचने का धंधा है, पूंजी प्रधानता है और सामाजिक गैर-जिम्मेदारी है। क्या ऐसे में सब सही हो जाने की उम्मीद की जा सकती है? इन चीजों को बोने से उगता तो कामेच्छा या भोग ही है न। एक किस्म की आर्थिकी से उपजा चक्र तो वही है न। ऐसे में किस विमर्श की बात हम कर रहे हैं? शायद यही वजह है कि कहानी के अंत में यौन शोषण जैसी कोई चीज निकलती ही नहीं है।

मुझे किसी दिन पंचायतों में महिला-पुरुष सरपंचों की गैर-बराबरी वाली कहानी देखकर बड़ी खुशी होगी। वह कहानी कम कैपिटलिस्ट होगी, कम मानव रचित परिस्थितियों वाली होगी। वह ज्यादा बेसिक/मूल होगी। राजस्थान के गांवों में घूंघट में काग़जी सरपंचाई कर रही औरतें और असल में काम संभालते उनके पति की कहानी... क्या ये भारत की जड़ों के ज्यादा करीब नहीं होगी? महानगरी वर्किंग एरिया में जो असमानताएं हैं या जो आपसी असमंजस हैं वो ज्यादा उसी व्यवस्था की वजह से हैं। जबकि पंचायतों में जो महिलाओं के साथ गैर-बराबरी है वो हमारी मूल सामाजिक परिस्थितियों का नतीजा है। इसमें माया ने ये समझा और राहुल तो ऐसा था, वगैरह नहीं होगा। चीजें क्रिस्टल क्लियर होंगी और फैसला लेना, सीख लेना और सोचना आसान होगा। अन्यथा अपने अंत की वजह से ‘इनकार’ तो एक आम हिंदी फिल्म बनकर रह जाती है।

'Inkaar' is a Sudhir Mishra movie. His previous presentation 'Yeh Saali Zindagi' was a complete film with great performances and tight direction. This is the story of Rahul (Arjun Rampal) and Maya (Chitrangada Singh) working in one of India's leading advertisement agencies as CEO and National Creative Head, respectively. She files a sexual harassment complaint against him. A committee is set up, headed by Mrs. Kamdar (Dipti Naval) a social worker. A hearing begins and layered and biased truth starts to come out. Though the end of the story is less about physical harassment and more about how a human being should be. I appreciate it. 
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बुधवार, 16 जनवरी 2013

मुझे कॉम्प्लेक्स या फ्रस्ट्रेशन नहीं होता, जिदंगी बड़ी सादी है, मैंने रक्खी ही ऐसे हैः सैमुअल जॉन

मिलिए ‘अन्ने घोड़े दा दान’ में मेलू के किरदार को निभाने वाले सैमुअल जॉन से, पंजाब में उनका थियेटर दलितों, मजदूरों, बच्चों और समाज के हाशिये पर पड़े तबकों को समर्पित है

Samuel John seen behind in a still from 'Anhey Ghorhey Da Daan.'

ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ का कोई ग्यारह साल पहले चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी के इंग्लिश ऑडिटोरियम में मंचन हुआ था। बेहद जीवंत तरीके से ये एकल प्रस्तुति दी थी सैमुअल जॉन ने। पिछले साल जब इसी ऑडिटोरियम में गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ को दिखाया गया तो उसमें भी सैमुअल अहम भूमिका में थे। पंजाब के साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्होंने रिक्शा चलाने वाले पात्र मेलू को पूरे समर्पण से निभाया था। फिल्म को बीते साल तीन राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसने भारतीय कला फिल्मों के अस्तित्व को बहुत वजन प्रदान किया। इस बारे में और निर्देशक गुरविंदर सिंह से हुई मेरी बातचीत को आप काफी पहले यहां पढ़ चुके हैं, अब मौका है सैमुअल के बारे में जानने का। इस मुलाकात में वह ‘जूठन’ के पंजाबी में किए अपने सोलो परफॉर्मेंस को कुछ पल पहले की सी ताज़ग़ी से याद करते हैं। उनका थियेटर दलितों, मजदूरों और छोटे किसानों के विमर्श पर केंद्रित जो है। फिलहाल उनके पीपल्स थियेटर ग्रुप का केंद्र लहरागागा, संगरूर (पंजाब) है। सैमुअल बताते हैं कि वह बीते 20 साल से रंगमंच से जुड़े हैं। व्यावसायिक पंजाबी सिनेमा और मनोरंजन में पंजाब के समाज और विषयों को लेकर जो दुखभरा शून्य आया है उसमें ये उन नींव के पत्थरों जैसे हैं जो बुनियादी स्तर पर काम कर रहे हैं, नाम ज्यादा नहीं है। सैमुअल के काम को उनके नाटक ‘बागां दा राखा’ में (यहां और यहां भी) देख सकते हैं। एक शॉर्ट फिल्म ‘आतू खोजी’ में भी उन्होंने काम किया। उनका मुख्य ध्येय रंगमंच है और समाज के हाशिये पर पड़े तबकों वाला रंगमंच है, बीच में ‘अन्ने घोड़े दा दान’ जैसी फिल्में भी आ जाती हैं कभी-कभार। प्रस्तुत है अतीत हो चुके किन्हीं क्षणों में उनसे हुई ये बातचीतः

अपने बारे में कुछ बताएं?
मेरा नाम सैमुअल जॉन है। मैं पंजाब में थियेटर करता हूं। मेरा थियेटर दलित श्रेणी, मजदूर लोग और छोटे किसानों की समस्याओं पर बेस्ड होता है। पटियाला यूनिवर्सिटी के थियेटर डिपार्टमेंट से मैं पासआउट हूं। मेरा गांव कोटकपूरा के पास है, अठेलवां कलां, वहां पर मैंने अपनी शुरू की पढ़ाई की। अब 20 साल से थियेटर से जुड़ा हूं।

Samuel John
पंजाबी फिल्में?
ज्यादा मैं हिस्सा नहीं बनता हूं फिल्मों का, पर पहले एक फिल्म की थी ‘मिट्टी’ जितेंदर मोहर के डायरेक्शन में बनी थी। उसकी मैंने एक्टिंग वर्कशॉप ली थी। मेरा मानना है कि पंजाब की फिल्मों के सब्जेक्ट लोगों के जीवन से जुड़े हुए नहीं हैं। वो एक खास... पंजाब के कुछ अमीर शहजादों या फॉरेन में रहने वालों जिनके पास पैसा है, बस उन्हीं के लिए बनती हैं। उनको लगता है यही पंजाब है। उन्हें ये पता ही नहीं है कि असली पंजाब में किस किस्म का जीवन है, वो कैसे जी रहे हैं, उनकी क्या समस्याएं हैं। पंजाब की फिल्में बहुत दूर हैं मुद्दे से। मैंने कभी कोशिश नहीं की कि मैं इंडस्ट्री की ओर आऊं।

फिर ‘अन्ने घोड़े दा दान’ क्यों की?
इसका डायरेक्टर इधर बार-बार एक्टर्स चुनने के लिए आ रहा था। वह पूछ रहा था कि उसकी कहानी के ऐसे पात्र हैं... जो उसे चाहिए। जिस-जिस जगह वो गया वहां मेरा जिक्र हुआ, कि जिस किस्म का ये सब्जेक्ट है नॉवेल का तो आप सैमुअल जॉन से मिलो। क्योंकि इस किस्म के सब्जेक्ट और मुद्दे उसके नाटकों में रहते हैं। तो मेरी फोन पर बात हुई, बात आई-गई हो गई, मैंने ध्यान नहीं दिया, लेकिन अंत में यही हो गया। मैंने सोचा, नॉवेल (गुरदयाल सिंह का उपन्यास अन्ने घोड़े दा दान) तो मैंने पढ़ ही रखा है, विषय अच्छा है, लोगों से मिल लेते हैं। मैं मिला, इन लोगों ने मुझे फाइनल कर लिया। फिर मेलू का मैंने पात्र किया।

कैसी लगी फिल्म, बनने के बाद?
फिल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि ये ग्लैमराइज नहीं करती। आंखों को अच्छा-अच्छा-अच्छा लगे वो नहीं है। इसमें पंजाब के उन लोगों की बात है जिन्हें दो किस्म का दर्द है। एक तो ये गरीब हैं और दूसरा नीची कास्ट के हैं। वो शहर की ओर कैसे सोच रहे हैं कि गालियां सुननी पड़ती है। सोचते हैं कि चलो शहर की ओर चलें। अपना काम करने के लिए कि जीवन में तब्दीली आए। लेकिन वहां भी जो बंदे पहुंच चुके हैं उनकी जिंदगी में कोई चेंज नहीं आया है। तो जो शहर में हैं वो सोचते हैं कि यार इससे अच्छा तो गांव में ही थे, कहीं न कहीं वो सुरक्षा महसूस करते थे कि हां, है, हमारा गांव है, हमारे घर हैं। और जो गांव में है वो सोच रहा है कि यार जैसे पहले लोग गए हैं हम भी शहर चलें। ये इस किस्म का दमन अपने साथ लेकर जी रहे हैं इस फिल्म के पात्र। मुझे फिल्म का सब्जेक्ट बहुत बढ़िया लगा और दूसरा ये एक्सपेरिमेंट करना कि गुरविंदर ने असली लोग पकड़े गांव के, वैसे-वैसे चेहरे वाले, पेंटिंग्स की तरह। जो उसको चेहरा चाहिए वो उसने ले लिया वहां से। वो भी मुझे अच्छी बात लगी कि कम से कम लेबर करने वाला बंदा फिल्म जो इंटरनेशनल लेवल पे चली गई उसमें काम कर रहा है। मुझे लगता है कि पंजाब के लोग इस फिल्म को देखेंगे या समझने की कोशिश करेंगे। तो ये थोड़ा ट्रेंड बदलेगा कि आम बंदा है उसके जीवन के बारे में फिल्म बनाई जाएंगी। इस किस्म के सीरियस मुद्दे आगे आएंगे।

पारंपरिक पंजाबी नामों से आपका नाम अलग है, इसकी वजह क्या है?
वैसे तो मेरा जन्म सिख फैमिली में हुआ। ये नाम मैंने खुद रखा। क्योंकि हमारे थोड़ा सा प्रभाव क्रिश्चिएनिटी का था। वैसे अमृतसर साइड में भी आपको ऐसे बहुत से क्रिश्चियन नाम वाले दलितों की बस्तियां मिलेंगी। वहां क्रिश्चियन लोग हैं। लेकिन मैं सिख हू्ं। हालांकि मैं रिवोल्यूशनरी हूं, इंकलाब की धारा को मानता हूं। मेरे लिए धर्म व्यक्तिगत मुद्दा है। हर बंदे को हक हो कि वो अपने धर्म में विश्वास रखे। लेकिन टोटैलिटी में जिंदगी के हमें केंद्रित इस बात पर होना चाहिए कि उसकी कद्र कैसे हो? इंसानियत की, मानवता की। जैसे ये सोचा जाए कि सिखों का पंजाब है और हिंदू बंदे को निकालने की बात हो तो मुझे दुख होगा। मुझे दुख होगा और इसके लिए मैं लड़ता हूं, इसके लिए हम लड़ते रहे हैं कि पंजाब या हिंदुस्तान सब लोगों के लिए है। कोई कहीं भी रहे, बंदा कहीं भी जाकर अपना काम करे। तो ऐसा समाज चाहिए। हम तो पूरे समाज को ऐसा बनाना चाहते हैं कि जहां इमोशंस की और ह्यूमन लाइफ की कद्र हो। मेरे थियेटर में ऐसी बातें रहती हैं।

कितने प्ले आप कर चुके हैं? क्या किताबों से प्रेरित होते हैं, या आसपास की लाइफ को देखकर खुद लिखते हैं?
कुछ तो मैं कहानियों को ड्रामेटाइज करता हूं। पंजाब में जो दलित स्टोरी राइटर हैं, उनकी कहानियों को लेता हूं, कुछ इम्प्रोवाइज करता हूं। जब मैं बच्चों का थियेटर करता हूं तो उसको भी ड्रामेटाइज करता हूं लोक कथाओं को लेकर।

आप संगरूर के आसपास ही करते हैं या पूरे पंजाब में?
पूरे पंजाब में घूमता हूं। पहले 1991 में मैं पटियाला की यूनिवर्सिटी आ गया था, वहां रहा चार-पांच साल। काम किया। फिर बॉम्बे चला गया। बॉम्बे में तीन साल था। वहां फिल्म के लिए नहीं गया, बस देखने के लिए गया था कि पूरे हिंदुस्तान को देखो। वहां भी मैंने काम किया बच्चों के थियेटर के लिए। स्ट्रीट थियेटर मैं ज्यादा करता था। जैसे बॉम्बे में जो दंगे हुए उनका बच्चों पर क्या असर पड़ा। इसको हमने इम्प्रोवाइज किया। ‘हम तो खेलेंगे’, ये नाटक था। मेरे सामने मुद्दा यही आया कि जो बच्चे होते हैं वो किसी भी धर्म, किसी भी जात, किसी भी देश के हों, उनको खेल और खेलना बहुत अच्छा लगता है। वो छिन जाता है लड़ाई-झगड़े से। किसी कास्ट के आधार पर हों, किसी धर्म के आधार पर हों, तो उनको दुख होता है। मेरा काम ज्यादा तो संवेदनशीलता पर है। कि इंसान को संवेदनशील कैसे किया जाए, उसके भीतर की संवेदना जागे। उसके बाद में चमकौर साहिब आया, चार साल वहां रहा। फिर पटियाला आया। आजकल मेरा सेंटर लहरागागा, संगरूर जिले में है। वहां पीपल्स थियेटर है हमारा।

कितने लोग हैं?
किया तो हमने ‘मैकबेथ’ भी है, तीस-चालीस लोग थे हम। लेकिन क्या हुआ कि हमारा पैसे-वैसे का खर्च नहीं निकलता और करवाने वाले 20-25 हजार कैसे देंगे। तो अब मैंने जो उसकी फॉर्म निकाली है, अब हम चार-पांच लोग हैं। दलितों की बस्तियों में जाते हैं या डफली बजाते हैं, लोग इकट्ठे होते हैं और किसी न किसी घर में नाटक कर देते हैं। तो लोग आटा-दाल या कुछ दे देते हैं तो गुजारा हो जाता है। या पैसा मिल जाता है। कुछ किसान यूनियन या मजदूर यूनियन वाले बुला लेते हैं, वहां करने चले जाते हैं। इस किस्म का है।

ऑफिस बना रखा है क्या?
नहीं, मेरा पूरा घर है, वहीं रिहर्सल चलती हैं। मेरा सात-आठ मरले का घर है। उसमें दो-तीन कमरे हैं और वहां थड़ा बनाया हुआ है, एक मैंने ओपन थियेटर भी बनाया हुआ है। चार सौ बंदों की क्षमता का है, स्टेज बनी हुई है, ग्रीन रूम है, वहां लोग आते हैं, वहां शो वगैरह चलते रहते हैं।

परिवार में कौन-कौन हैं?
मेरी वाइफ है जो चंडीगढ़ में म्यूजिक की टीचर है, इसलिए मेरा यहां आना लगा रहता है।

आपके थियेटर का व्याकरण क्या है?
मैं तीन बातों पर काम करता हूं। संसार की किसी भी रचना, चाहे इतनी मोटी-मोटी किताबें हों, किसी भी रचना के लिए ऑर्टिस्ट अपनी पूरी बॉडी को यूज करे। माइंड को यूज करे तो ज्ञान होगा कि क्या बात है। बॉडी के थ्रू वो बताएगा कि मैं क्या कर रहा हूं, जैसे हम कबड्डी खेलते हैं। कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी... करते हैं हम... हमारा दिमाग चल रहा है कि किसको हाथ लगाकर भागना है। बॉडी पीछे है, बॉडी को संभाल रहे हैं कि कैसे यूज कर रहे हैं, साथ में कबड्डी, कबड्डी बोल रहे हैं। आए, हाथ लगाया, बंदा गया, चेंज हो गया पूरा। तो बॉडी, वॉयस और माइंड इन तीनों के साथ की थ्योरी पर मैं काम करता हूं। एक भी पैसा नहीं चाहिए, मैं खर्चा ही नहीं करता। मैं एक्टर पे छोड़ता हूं। उसी का सेट बनेगा, उसी की आवाज के जरिए, उसकी भाव-भंगिमाओं के जरिए सब बात निकलेगी।

परिवार का क्या रिएक्शन रहता है, क्योंकि आज जैसे ढर्रा बन गया है न कि आप जवान हो गए, आपने पढ़ाई पूरी कर ली, आपको इतनी तनख्याह मिलेगी...
पहले-पहले परिवार में होता है कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो। लेकिन धीरे-धीरे पता चल जाता है और जैसे भी उनको इज्जत मिलती है तो वो उस हिसाब से करते रहते हैं। पहले पहले था बाद में उनको पता चल गया कि ऐसे ही करेगा ये बंदा।

आइडियोलॉजी के लेवल पर देखते हैं कि जितने भी फिल्मवाले हैं चाहे वो हिंदी के हों या पंजाबी के हों, वो इस बात को सिरे से खारिज कर देते हैं... वो कहते हैं कि कोई समाज बदलता नहीं है, बस एंटरटेनमेंट दो।
 वो सही हैं। पता है क्यों? हम जब तब्दीली को देखते हैं तो उसका फॉर्मेट अपने दिमाग में यही बनाते हैं कि जब तक हम जिएं तब तक तब्दीली हो जाए समाज में। हा हा हा। ऐसे नहीं होगा, ऐसे नहीं होगा भाई। पीढ़ियों से चल रहा है जो, आप ये चाहते हैं कि आपकी उम्र 60 साल की है, 70 साल की है, उतने में बदलाव हो जाए। असंभव, साथी। ये तो पता नहीं कितनी पीढ़ियां जाएंगी। मैं ये मानता हूं... कि जंगल को आग लगी है, तो हम क्यां करें? पंछी इधर-उधर भाग रहे हैं और इस बीच एक चिड़िया क्या कर रही है, उड़कर जाती है और समंदर में से एक चोंच भरकर लाती है पानी की, और जंगल पर डाल रही है। सब देखकर हंसते हैं और कहते हैं, “ये क्या हो रहा है, तू भाग ले, तेरे इतने पानी से क्या होगा”। वो कहती, “जंगल को आग लगी है और मैं अपना फर्ज अदा कर रही हूं। आग बुझे या न बुझे इससे मुझे कोई मतलब नहीं है”। तो मेरा मानना है कि हमारी जो कला (थियेटर) है, वो वे ऑफ लाइफ है। हम अपना फर्ज अदा कर रहे हैं और ये जीने का ढंग है। मुझे नींद ही नहीं आती, मैं पैसे के पीछे भागूं तो। मैं एकदम मजदूर जैसे दिहाड़ीदार बंदा जाता है ऐसे काम पर जाता हूं। और कोई कॉमप्लेक्स नहीं है। आज तक मेरी जिंदगी में एक भी ऐसी रात नहीं है कि मैं फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो गया या मुझे नींद नहीं आई। नो। मेरा जीवन ही बहुत सादा, मैंने रक्खा ही ऐसे ए। काहे की प्रॉब्लम।

आप अंदरूनी हिस्सों में जाते हैं। पंजाब मूलत: एक सामंती समाज है, आप जो समझाना चाह रहे हैं वो नहीं समझेंगे। आपको गाली देंगे, आपको परेशान करेंगे, आपकी राह में रोड़े अटकाएंगे, आपके पास ऐसे दसियों किस्से होंगे। आपको परेशानी देने वाले लोग जो नहीं समझना चाहते कि आप क्या कहना चाह रहे हैं। वो अपनी ही बातों को फॉलो करना चाहते हैं। ऐसे में उनका सामना करते वक्त आप कैसे व्यवहार करते हैं? क्या सोचते हैं? क्या करें? क्या न करें? प्ले कर रहे हैं, समाज के लिए कर रहे हैं, अच्छे के लिए कर रहे हैं लेकिन जिन लोगों के लिए कर रहे हैं, वो कहते हैं, हमें अपने बच्चे को आईएएस बनाना है, हमें उसको एमबीए कराना है, कैट का एग्जाम दिलवाना है...
हां, सही है बात आपकी, लेकिन जो मेरा फॉर्मेट है न, मेरे नाटक इस किस्म के नहीं होते। वो लोगों को बांध लेते हैं, कभी आज तक नहीं हुआ कि मेरे नाटक में प्रॉब्लम आई हो। किसी बंदे को पता ही नहीं चलता, चाहे मेरा विरोधी ही क्यों न हो बंदा, कि मैंने क्या मैसेज दे दिया। दूसरी बात, पंजाब में पहले से ही क्रांतिकारी लोग रहे हैं उनका आधार अभी भी लोगों के बीच में है। प्रोग्रैम ही वहां होते हैं ज्यादा। तो उसमें कोई आकर दंगा-फसाद या झगड़ा करे ये नहीं होता। बाकी खुद मैं भी मार्शल किस्म का बंदा हूं। गरीब बंदा है उसको मैं समझाऊंगा, कोई अमीर मुझे डराना चाहेगा तो मैं उसे कहता हूं कि भई आज तो नाटक कर रहे हैं कल कोई दूसरा काम भी कर लेंगे, सीधी बात है। प्रैक्टिकल बात है, मैं थ्योरी में जाके... ये नहीं। मैं तो ये कहता हूं कि जिस बंदे के साथ धक्का होता है, वो बोले, बाद में जो हो सकता है करे। क्यों घुट-घुट के जिए? घुट-घुटके जीने में मेरा यकीन नहीं है। मेरा फलसफा है कि आप अपनी फ्रीडम के साथ जिओ। पर उसमें ध्यान रहे कि आपकी वजह से किसी ह्यूमन लाइफ को नुकसान न हो। वो बाधा न आए।

पंजाबी फिल्में आप देखते हैं, उनके अंदर पता नहीं दर्जन-दर्जन गलतियां होती हैं, समाज को कुराह ले जाने वाली। जैसे आप ‘मेल करादे रब्बा’ देखेंगे तो उसमें हीरो हॉकी लेकर पीटता रहता है सबको। इसी से वो हीरो बन जाता है। फिल्म जब खत्म होती है तो आखिरी सीन में भी हॉकी का ही प्रभाव हमको नजर आता है। तो जैसे फिल्म देखकर बाहर आ रहे हैं, जैसे स्टूडेंट हैं उनकी गाडिय़ों में हॉकी नहीं भी रहती तो रहनी शुरू हो जाएगी। पंजाब में जैसे समाज है, जैसे लंगर का चलन है, सबकी सेवा करना है, प्रेम करना है, इंसानियत और मानवता को आगे ले जाना है। ऐसे में पंजाबी फिल्में आ रही हैं वो युवाओं को टशन में रहना सिखा रही हैं।
बिल्कुल, पंजाब के इस कल्चर की बात नहीं होती। फिल्म और कला में जैसे आप कह रहे हैं न, कि पंजाब के लोगों का प्यार, कल्चर था कि कास्ट को तोड़ना, सभी के लिए बराबर की लंगर की परंपरा, एक-दूसरे के धर्म की इज्जत... ये सब चीजें सामने ही नहीं आने दे रहे। क्योंकि पंजाबी इंडस्ट्री जो है, जैसे कुछ मसंद लोग थे गुरु साहिब के टाइम में वो दसवंद लेकर जाते थे गुरु साहेब के पास, तो वो खुद ही अपने पास ही रख लेते थे, लेके ही नहीं पहुंचते थे। तो जो पंजाब है उसका कल्चर कुछेक अमीर लोगों के हाथ में चल रहा है। आम बंदे की भागीदारी कम हो गई है। जैसी आपने बात की तो वो तो बहुत रिच कल्चर है पंजाब का, बहुत ज्यादा। वो सब सामने आना चाहिए न यार, वो लिट्रेचर में आना चाहिए, वो पेंटिंग में आना चाहिए, वो म्यूजिक में आना चाहिए। मैं आपको घटना बताता हूं। मैं नास्तिक बंदा हूं। तो मेरे ग्रुप में एक बंदा ब्राह्मण परिवार से है। वो जाता था मंदिर वगैरह। मैं उसे बोलता था कि तू पहले आराम से मंदिर जाके आजा, उसके बाद रिहर्सल करेंगे, चाहे तू दस मिनट लेट हो जाना। ये इज्जत है। मैं तो नास्तिक हूं फिर इसका मतलब क्या है। कि नहीं भई, वो उसके जीवन में महत्वपूर्ण है। क्या हुआ, क्या हुआ, वो धोती-तिलक लगाए फिर क्या हुआ। वो दाढ़ी रखकर आ रहा है, पगड़ी बांधकर फिर क्या हुआ। मान लो कोई नास्तिक है फिर क्या हुआ। ह्यूमन लाइफ महत्वपूर्ण है।

पर ये फ्यूजन कहां से आया। क्योंकि पटियाला में पढ़ते हुए वहां विश्वविद्यालय में आपने अति-वामपंथी विचारधारा देखी होगी, फिर आपने अपने काम में मानवता की थीम को जोड़ लिया है, ये नहीं नजर आता है। आप जाएंगे दिल्ली तो वो अतिवादी ही होगा। वो कहेंगे कि मैं पंडत का किरदार भी नहीं करूंगा। मैं गोधरा के दंगों पे प्ले करूंगा तो मैं उसमें नरेंद्र मोदी ही नहीं बनूंगा। आप उलट हैं, पंजाब पर सटीक बैठते हिसाब के हैं। ये कैसे तय किया कि ऐसे होना है?
ये मैंने जीवन को करीब से देखा है। मैं खुद को पांच फुट आठ इंच का नहीं मानता, न मैं अपने आपको सिर्फ पंजाबी मानता हूं, न मैं हिंदुस्तानी मानता हूं। मेरा विश्व दृष्टिकोण है। दुनिया में... कहीं भी कोई जीवन है, मनुख है, वो ऑक्सीजन से सांस लेता है... मैं ये मानता हूं। जब ये हकीकत है ब्रह्मांड की तो आप इतना संकीर्ण क्यों हो रहे भाई? सीधी सी बात है। कला में ये बातें होनी चाहिए। जब आदमी भगवान को मानता है न, तभी ये मान पाता है, क्योंकि वह न तो हिंदु रह जाता है, उसके भीतर ऐसी संवेदनशीलता आती है कि वो कभी किसी को मार नहीं सकता है। चाहे वो सिख हो या बजरंग दल का हो, मेरा ये मानना है। जिसका गॉड में विश्वास है वो कभी किसी को मार नहीं सकता। मेरा मानना है ये बातें आर्ट में आनी चाहिए, थियेटर में आनी चाहिए।

आपको प्यारा क्या लगता है, थियेटर?
मैं थियेटर में ज्यादा हूं, वही मुझे प्यारा है। इंडस्ट्री का क्या है, ये फिल्म इंडस्ट्री है यहां कौन मुझे आने देगा, मैं क्यों ज्यादा एनर्जी वेस्ट करूं, मैं अपना काम करता रहता हूं। खुद को आइडेंटिफाई मजदूर और गरीब बंदे से करता हूं। और अनपढ़ बंदे से। कभी किसी को बताता भी नहीं कि पढ़ा-लिखा हूं। मैंने तीन बार पीएचडी की है। नहीं, क्यों, काहे के लिए। अरे भई, दो-चार क्लास पढ़ गए हो, कौन से सींग उग आए हैं अपने। तो क्या पेट पाड़ोगे लोगों का, हां मैंने पीएचडी की है। मेरे को प्रकृति की दी हुई जो ये लाइफ है न ये बड़ी खूबसूरत लगती है। और थियेटर इस जीवन के बहुत करीब है। लाइव है न। तो मैं लाइव चीजों को ज्यादा करता हूं। चाहे राजनीतिक तौर पर समझो या कैसे भी कि ‘अन्ने घोड़े दा दान’ इंटरनेशनली गई है, और मुद्दे सामने लाई है अच्छी बात है।

(Samuel John is a theater artist and film actor. Staging in different parts of Punjab, his plays are mainly woven around Dalits, lower castes, laborers and children. At present his group is based at Lehragaga, Sangrur in Punjab. He played the role of Dalit rickshaw puller Melu in three National award winning Punjabi feature film Anhey Ghorhey Da Daan (Alms of the Blind Horse), directed by Gurvinder Singh.)
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रविवार, 13 जनवरी 2013

मैंने कुमुद मिश्रा को ‘इल्हाम’ में देखा और बस रो दियाः मंत्र

रंगमंच अभिनेता, टेलीविजन प्रस्तोता, रेडियो जॉकी, फिल्म कलाकार और स्टैंड अप कॉमेडियन मंत्र से मुलाकात हुई। अपने मनमोहक अंदाज में इस लंबी बातचीत में वह छूते चले पिया बहरुपिया, कॉमेडी सर्कस, रेडियो, दिनेश ठाकुर, ओशो, थियेटर, अतुल कुमार, सखाराम बाइंडर, शाहरुख खान, दर्शन, पीयूष मिश्रा, बॉलीवुड, ब्रॉडवे बनाम पारंपरिक रंगमंच, अश्लीलता, बर्फी, कॉमेडी, मिस्टर बीन और जीने का फलसफे जैसे कई विषयों को। धैर्य रख सकें तो पढ़ें।
 
Mantra
सर एंड्रयू एग्यूचीक सीधे बंदे हैं। वह ऑलिविया से शादी करना चाहते हैं, पर सब जानते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। वह बुद्धिमान हैं, बहादुर हैं, भाषाओं के जानकार हैं, नाचना जानते हैं, रंगत वाले कपड़े पहनते हैं, नौजवान हैं। मगर उनके हालात उनकी छवि किसी मूर्ख की सी बना देते हैं जैसा कि हमारी आदत होती है, मुसीबत में पड़े किसी पर हंसना। विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ (वॉट यू विल) में एंड्रयू पर हम हंसते हैं। मगर पूरणजीत दासगुप्ता की परिस्थितियां बेचारगी वाली नहीं हैं। हम उन पर हंसते नहीं हैं, बल्कि वह हमें हंसाते हैं। कोई बारह साल ‘रेडियो मिर्ची’ के पहले ब्रेकफस्ट शो में रेडियो जोकींग करते हुए भी, बाद में भी रेडियो पर ‘बजाते हुए’ लगातार, फिर दिल्ली के गलियारों में 2003 में बैरी जॉन से थियेटर सीखने के बाद बहुत सारे प्ले करते हुए, ‘भेजा फ्राई-2’ और ‘हम तुम और शबाना’ जैसी कुछ फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में, टेलीविजन पर भांति-भांति के शो की एंकरिंग करते हुए, ‘कॉमेडी सर्कस’ में स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए, थियेटर को समर्पित अतुल कुमार द्वारा निर्देशित शेक्सपियर के हिंदी रूपांतरित प्ले ‘पिया बहरुपिया’ में एग्यूचीक को निभाते हुए... वह लगातार हंसा रहे हैं। असल जिंदगी में भी जब उनसे मिलता हूं तो उनका स्वर, आभा, व्यक्तित्व इलाइची के दानों की गंध से भी हल्का और भीतर समाहित करने लेने वाला होता है। जीवंतता सुलगते लोबान की खूबसूरती लिए सुलगती है। लंबी बातचीत के दौरान बीच-बीच में वह हंसाने की कोशिश करते हैं, हालांकि इससे जवाब कट-कट जाते हैं, पर उनके इरादे नेक होते हैं। कोई बारह-चौदह साल पहले जबलपुर के ओशो आश्रम में उन्होंने सन्यास ले लिया था। वहां उन्होंने ‘मंत्र’ नाम धारण किया। इसीलिए 2000 से शुरू हुए उनके कार्यक्षेत्र में उन्हें मंत्र नाम से ही जाना जाता है। उच्चारण हालांकि मंत्रा हो चुका है। हमें हिंदी नाम को भी पहले अंग्रेजी में लिखकर फिर हिंदी में पढ़ने की कोशिश करने की आदत जो है। मंत्र की मां चंद्रा दासगुप्ता एक अभिनेत्री रहीं। पिता प्रबीर दासगुप्ता कोलकाता में ‘दासगुप्ता पब्लिकेशंस’ चलाते थे। हालांकि मंत्र बातचीत में प्रमुखता से मां के बारे में बात करते हैं। वह खुलकर हर मुद्दे पर बात करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाले लगते हैं। कहते हैं कि भाषा कोई भी हो बस काम अच्छा होना चाहिए। उन्हें हीरो बनने या मुख्य भूमिका करने की कोई लालसा नहीं है। बोलते हैं, “कैरेक्टर आर्टिस्ट हूं, मुझे हीरो नहीं बनना। मेरे आदर्श शाहरुख नहीं हैं, इरफान खान हैं”। फिलहाल ‘कॉमेडी सर्कस’ के मौजूदा संस्करण में हिस्सा लेते, कुछ टीवी शो की एंकरिंग करते, ‘पिया बहरुपिया’ का मंचन देश के अलग-अलग शहरों में करते हुए... मंत्र अपने तीन नए प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

तो क्लाउन आपका स्कूल ऑफ थियेटर है, कुछ बताइए आपकी इस दुनिया के बारे में।
2008 से ही मैं अतुल कुमार से जुड़ गया था। उनके स्कूल ऑफ थियेटर को पसंद करता हूं। जो इस एक्सट्रीम पर हैं जैसे रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी। इनका ‘हैमलेट - द क्लाउन प्रिंस’, ये जो थियेटर क्लाउन वाला करते हैं जिसमें शेक्सपीयर की बड़ी से बड़ी ट्रैजेडीज को वो क्लाउन के जरिए पेश करते हैं, ये मेरा स्कूल ऑफ थियेटर था। मैंने ज्यादातर अंग्रेजी थियेटर किया है और अंग्रेजी थियेटर का मार्केट है भी और नहीं भी। इंडिया हैबिटैट सेंटर से लेकर कामानी से लेकर एलटीजी से लेकर चिन्मय मिशन तक.. दिल्ली में कोई ऐसा हॉल नहीं है जो हमने छोड़ा हो। 60-65 प्रतिशत तक मेरे प्ले अंग्रेजी में रहे हैं। इसकी एक अलग ऑडियंस है, जो कमर्शियल थियेटर में नहीं गिनी जाती है, हालांकि मैं हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुका हूं। हिंदी मेरी उत्तीर्ण भाषा है, सबसे ज्यादा मैं हिंदी का ही उपयोग करता हूं लेकिन अंग्रेजी पर मेरी पकड़ उतनी ही ज्यादा है और ये जो थोड़ा चेहरा मिला है फिरंगियों माफिक तो इसका भरपूर फायदा डायरेक्टर साहब उठाते हैं।

और नाम आपका मंत्र है...
हां, और नाम मंत्र है तो आदमी कन्फ्यूज हो जाता है कि भइया ये आदमी है क्या, गोरा-चिट्टा लग रहा फिरंगी है, नाम मंत्र है, बोल शुद्ध हिंदी रहा है, आवाज अमरीश पुरी जैसी है, क्या करेगा ये? ...थियेटर करते मुझे 12 साल हो गए। लेकिन ‘पिया बहरुपिया’ मेरा सबसे बड़ा हिंदी प्रोडक्शन रहा है। इसके अलावा मेरे अंग्रेजी प्रोडक्शन बहुत बड़े रहे। अतुल के साथ काम करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। वो अगर मुझे प्रोडक्शन में भी ले लेते तो मैं अपने बिजी शेड्यूल में से टाइम निकालकर प्रोडक्शन भी देखता, क्योंकि अतुल के आस-पास बहुत कुछ देखने को मिलता है, समझने को मिलता है। हालांकि उनका डायरेक्शन का स्टाइल बहुत अलग है। वह बेहतर एक्टर हैं, ही इज अ ब्रिलियंट एक्टर ऑन स्टेज। और एक डायरेक्टर के तौर पर वह सब-कुछ एक्टर्स पर छोड़ देते हैं। ‘पिया बहरुपिया’ भी वैसे ही बना। हम पे ही छोड़ दिया और हम पूछते रहे कि सर करें क्या? बोले, कल्ल लो। तो अच्छा कर लेते हैं, तो हमने अपने हिसाब से किया। थोड़ा ये, थोड़ा वो। सब इम्प्रोवाइजेशन था। बाकी मेरा अपना एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है, अलग स्कूल ऑफ थियेटर है, वो मैं करूंगा आने वाले टाइम में, मेरे अपने तीन प्ले तैयार हो रहे हैं। उन पर काम कर रहा हूं।

आदमी एक हद के बाद सीख चुका होता है, या सीखता रहता है?
नहीं, नहीं... हमेशा सीखता रहता है। थियेटर में तो हमेशा वही हालत रहती है जो कक्षा में एग्जाम देने वाले बच्चे की होती है। कि क्या होगा? बड़े से बड़ा एक्टर... वहां जाकर जबान फिसल जाए... फंबल कर जाए, कितना भी बड़ा आपका कॉन्फिडेंस क्यों न हो। और मेरे लिए तो हर प्ले के साथ कुछ नया हो जाता है। टीवी का क्या है एक-बार कर दिया तो वही रहता है, 25 साल बाद भी ‘शोले’ में बच्चन साहब को देखेंगे तो उनका हाथ वैसा ही रहेगा लेकिन अगर वो प्ले होता तो अलग हो जाता। बच्चन साहब कुछ और कर रहे होते, शाहरुख कुछ और कर रहे होते।

स्टेज पर उतरने के बाद नर्वस होते हैं स्कूली दिनों के माफिक, लेकिन जब एक बार उतर जाते हैं तो खुलकर खेलते हैं?
अरे, उसके बाद तो... मैं इतना मानता हूं कि एक बार स्टेज पर उतरने के बाद डायरेक्टर मेरा क्या कल्ल लेगा। डायरेक्टर का सबसे बड़ा डर भी रहता है कि ऐसे एक्टरों से पाला न पड़े लेकिन मैं कभी साथी कलाकारों को परेशान करने वाला रिस्क, चेंज या एक्सपेरिमेंट नहीं लेता। ऐसी कोई लाइन नहीं बोल दूंगा कि मेरे सामने जो एक्टर है वो घबरा जाए कि ये क्या बोल गया। लेकिन खेलने का बड़ा मौका मिलता है। थियेटर में मेरे लिए सबसे जरूरी चाह ये है कि मुझे पुराने जमाने वाला ख्याल आ जाता है कि सामने ऑडियंस बैठी हैं और आप उनके सामने पेश कर रहे हो कुछ। ये कहीं हिल के जाएगा नहीं ये आदमी...। टीवी पर वह मुझे रिमोट से बंद करके उठ सकता है, ये (थियेटर ऑडियंस) उठ कर जाएगा नहीं, मैं रोक सकता हूं इसको। मुझे ये सब करने में बड़ा मजा आता है।

लेकिन इतने किस्म की पहचान आपकी हैं, कहीं न कहीं तो दिक्कत होती होगी? कहीं तो सोचते होंगे कि मैं इस आइडेंटिटी का अपने से करीबी ताल्लुक मानता हूं? जैसे अब लग रहा है कि आप थियेटर को सबसे ज्यादा करीब पाते हैं।
नहीं गजेंद्र जी, मैं क्या बताऊं। मैं ये कहता हूं कि मैं एक कलाकार हूं। मुझे मीडियम से इत्ता फर्क नहीं पड़ता। अपने करियर के ज्यादातर वक्त मैं रेडियो पर रहा। 12 साल रेडियो किया। 10 साल थियेटर किया। तकरीबन 6 साल से टेलीविजन कर रहा हूं मैं। फिल्में कर रहा हूं 5-6 सालों से लेकिन मेरे लिए कोई बदलाव नहीं रहा। हां, रेडियो पर मेकअप नहीं लगाना पड़ता था। बस यही फर्क था। रेडियो में चड्डी बनियान पहनकर पहुंच गए, जो भी बोल दिया बोल दिया, लोगों को मजा आता था। आपको वो नहीं करना पड़ता था कि थोड़ी बॉडी बनाएं, थोड़ा फिट रहें, फेशियल कराने जाएं, थोड़ा शेव करें। मैं तो सर एक्टर नहीं होता, मैं कभी दाढ़ी नहीं बनाता। नेचुरल चीजें रोकने में मेरे को बड़ा तकलीफ होती है। मैं दाढ़ी-बाल नहीं काटता, लेकिन अब एक्टर हूं तो करना पड़ता है। कोई मीडियम मेरे लिए खास नहीं है, कोई मीडियम मेरे लिए दूसरे से ज्यादा उत्तीर्ण नहीं है। हां, रेडियो से प्यार करता हूं क्योंकि रेडियो ने बहुत ज्यादा सिखाया है। ये नाटक करना भी एक तरह से रेडियो से ही शुरू हुआ। रेडियो पर प्ले हुआ करते थे, ‘हवामहल’ प्रोग्रैम आता था। स्टूडेंट होते थे हम तब। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में हम लोग साउंड डिपार्टमेंट में हुआ करते थे। आज हमारे पास हजार चीजें हैं। आपको किसी की भी आवाज चाहिए, दुनिया में किसी की आवाज चाहिए, बटन दबाया आ गया। उस टाइम पे मेरे को आज भी याद है हमारे सीनियर थे बोस साहब। वो विनोद के किरदार की आवाज निकालते थे तो... हमारे पास क्यू शीट आती थी लंबी सी, कि मतलब 2 मिनट 35 सेकेंड के बाद चहल-कदमी होगी। वो चहल-कदमी का मेरे पास क्यू आता था तो ईंट लगाते थे और ऐसे रस्सी बांधते थे, वेट करते थे, जैसे ही लाल लाइन वहां पर जली, चहल-कदमी शुरू, खटक-खटक-खटक-खटक... बीच-बीच में गड़गड़ाहट के लिए एल्युमीनियम शीट बजाते थे। वो रेडियो थियेटर ही था एक तरह से। एक तरह से आप बना रहे थे, इट वॉज अ थियेटर ऑफ माइंड। कहते हैं न नेत्रहीन का चलचित्र है रेडियो। जो आप पेंट कर सको एक पिक्चर श्रोता के लिए वही मजेदार बात है।

मगर आपकी ‘कॉमेडी सर्कस’ वाली पहचान भी हावी है, लोग स्टेज पर प्ले के बाद कामेडी करने की रिक्वेस्ट करने लगते हैं।
‘कॉमेडी सर्कस’ चल गया यार। मतलब, आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने ‘कॉमेडी सर्कस’ को पांच सीजन लगातार ना बोला है। क्योंकि मेरा प्रण था कि मैं कभी कोई रिएलिटी शो नहीं करूंगा। ये लोग लगातार मेरे पीछे पड़े रहे जबकि मेरा फिक्स था कि एक्टिंग के लिए फिल्म्स और थियेटर। टेलीविजन, सिर्फ एंकरिंग। बहुत सारे शो मैंने एंकर किए हैं। मैं चैनल वी का वीजे था। बिंदास टीवी पर वीजेइंग करता था। ज्यादातर मैं वीजे ही था, पर ये लोग पीछे पड़े। फिर एक बार तो लिटरली हमारे जो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर हैं विपुल शाह और निकुल देसाई, उनने आए और बोला कि (बेहद ड्रमैटिक अंदाज में) “देखो बेटा, छोटी सी इंडस्ट्री है, कहीं न कहीं टकराएंगे, अच्छा नहीं लगेगा ...तब हम ना बोल दें”। मैंने कहा, सर आप धमकी दे रहे हो क्या। “...हां, ...यही समझो”। (हंसते हुए) मजाक कर रहे थे, फिर उन्होंने मुझे समझाया।

जैसे नसीरुद्दीन शाह हैं, शबाना आजमी हैं। बाद के इंटरव्यू में इन्होंने एक तौर पर स्वीकार किया कि “जितनी जान हम थियेटर के प्लेज में लड़ाते थे, बीच में हमारे पास जो ऐसी कमर्शियल फिल्में आईं जो बिल्कुल सिर के ऊपर से निकलने वालीं थीं, उनमें जब हमने काम किया तो उतनी मेहनत नहीं की। हमने सोचा कि जब उतनी ही ऊर्जा की जरूरत है तो ऊपर-ऊपर से ही करके निकल जाते हैं”। आपके परफॉर्मेंस में ‘कॉमेडी सर्कस’ में ऐसा नहीं नजर आता, आप अपने परफॉर्मेंस में अनवरत हैं, वहां स्क्रिप्ट चाहे कितनी भी ढीली हो।
‘कॉमेडी सर्कस’ थियेटर ही है। उसे करने के लिए मेरे पास सबसे बड़ा कारण ही ये है कि वो थियेटर है। वो उसको कैप्चर करके टीवी पर दिखा रहे हैं, उसका मेरे से कोई लेना-देना नहीं है। मैं उस वक्त वहां मौजूद उन चालीस-पचास लोगों और सामने बैठे अर्चना-सोहेल के लिए परफॉर्म कर रहा हूं। आखिरकार वो एक्ट दस-पंद्रह मिनट के प्ले ही तो हैं।

...लेकिन जो स्क्रिप्ट आपको दे रहे हैं, वो आपके पसंद न आए, कभी बचकानी लगे?
उसमें आप कुछ नहीं कर सकते। ‘कॉमेडी सर्कस’ फैक्ट्री है। वहां मशीन से जैसे प्रोडक्ट निकलते हैं वैसे प्रोडक्ट निकलते हैं। शो के राइटर्स सात-सात दिन कमरे से बाहर नहीं निकलते हैं। मैं उनको जानता हूं। मेरे चहेते राइटर हैं वकुंश अरोड़ा, कानपुर का लड़का है। इतना बेहतरीन राइटर है। वो एक ही चीज बोलता है, “यार और कोई टेंशन नहीं है, पर बाहर निकलूं और देखूं, तो कुछ नया लिखूं न”। वो कमरे से बाहर नहीं निकलते। हफ्ते के सातों दिन अंदर ही रहते हैं और मशीन की तरह लिखते हैं। कैसे लिख लेते हैं मेरे को भी नहीं मालूम। और वहीं पर से ये हल्की स्क्रिप्ट आती हैं। ऐसे में आपको जुगाड़ बिठाकर, कुछ नया-पुराना लगाकर एक कलाकारी दिखाकर, अगर वो आठ नंबर की है तो उठाकर नौ पर पहुंचाना पड़ता है। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये शो ही ऐसा है। उनको बनाना है। चैनल कितने साल से चला है? पांच साल से चल रहा है..।
Mantra performing in 'Piya Behrupiya.'

फिल्मों में अगर ऐसे रोल आएं तो, या उनमें रुचि नहीं है?
नहीं, किए हैं मैंने पांच-छह रोल। लेकिन फिल्मों की दुनिया ही अलग लगी। एक थियेटर एक्टर के तौर पर मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम रहा। क्योंकि आप समझते हैं, थियेटर की जैसे शुरुआत होती है, मसलन, ‘पिया बहरुपिया’। फरवरी (2012) में हमने प्ले बनाना चालू किया। किरदार को डिवेलप किया। लगातार लाए, लाए, लाए और प्ले के महीने भर पहले आप किरदार बन गए। प्ले के दिन तो आप अपने आपको जानते ही नहीं, किरदार को ही जानते हैं। और प्ले शुरू होता है और आखिर तक जाता है, एक ग्राफ रहता है। फिल्मों में जिस दिन आया तो मेरी जान ही निकल गई, पहले दिन ही क्लाइमैक्स शूट। ओपनिंग सीन, आखिरी दिन। मैं बोला ऐसे कैसे होगा, मुश्किल है थोड़ा। तो बोले, “ऐसे ही होगा सर, हमारे पास यही लोकेशन पहले है तो क्लाइमैक्स ही शूट होगा”। मैंने बोला, हीरो-हिरोइन मिले नहीं, रोमैंस हुआ नहीं, तुम पहले शादी का सीक्वेंस शूट कर रहे हो, फिर उनका कॉलेज में मिलना दिखाओगे, फिर कहीं बीच में रोमैंस करोगे। तो फिल्मों के साथ बड़ा मुश्किल है। और एक सीन डिवेलप होता है प्ले में। अगर कोई सीन है, मां मर गई... तो पहले मां मरेगी, फिर बेटे को मालूम पड़ेगा, फिर बेटा रिएक्ट करेगा, फिर वो कुछ करेगा। जबकि फिल्म के अंदर सीधे, मां मर गई... । वो फीलिंग जब तक कि आती है, तब तक तो कट है। मैं ये नहीं कहता कि फिल्म के एक्टर्स कुछ कम हैं। मैं बोलता हूं फिल्म के एक्टर्स को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, टु बी ऑन द मूमेंट, ऑन द स्पॉट। तुरंत, शिफ्ट। मैंने फिल्म एक्टर्स को देखा है, मैंने थियेटर एक्टर्स को भी देखा है, प्ले से पहले लगे पड़े हैं, लाइनें रट रहे हैं। वहीं फिल्म वाले मजे से सुट्टा मार रहे हैं, आने-जाने वाले को ...और बढिय़ा सब, क्या हाल-चाल... फिर आवाज आई... मां मर गई और वो मां-मां करके रोने लगता है। औचक कट, औचक शिफ्ट।

कोई 30-35 साल पहले जैसे हमारी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं (कैरेक्टर आर्टिस्ट) हुआ करती थीं। जो ‘मिली’ में गोपी काका थे, ‘मदर इंडिया’ में लाला थे, या वही ‘गंगा-जमुना’ में लाला बने थे और पॉजिटिव लाला बने थे, और जो ललिता पंवार के रोल हुआ करते थे, निरुपा रॉय के हुआ करते थे, उनमें एक किस्म से इमोशंस की इंटेंसिटी थी जो बाद में वैसे किरदारों के लिए इतनी क्लीशे बना दी न... कॉमेडी से भी बनी.. कि देखो मां है तो रोती ही रहती है। लेकिन उन अदाकारों की जो एक्टिंग हुआ करती थी, जैसे आप कह रहे हैं न कि चुटकी बजाते बोलोगे और रोने लगेंगे कि मां मर गई.. तो क्या उस मामले में वो दिग्गज नहीं थे। उन्हें आज कितना कम पहचाना जाता है?
अरे, कैरेक्टर आर्टिस्टों के बल पर तो फिल्में चलती हैं और उन्हीं को सबसे कम पहचान मिलती है। आज आप देखिए हीरोज को जरूरत है कैरेक्टर आर्टिस्ट की। अकेले नहीं संभाल पा रहे। कैरेक्टर आर्टिस्ट एक रिएलिटी लाते हैं। एक असलियत लाते हैं फिल्म के अंदर, क्योंकि हीरो तो हीरो ही लगता है।

जैसे ‘रॉकस्टार’ में कैंटीन वाले खटाना (कुमुद) का रोल न होता तो रणबीर के किरदार में भी बात नहीं आती...
कुमुद जी से मेरी बातचीत होते रहती है वक्त-वक्त पे। उनका मैंने लास्ट प्ले देखा ‘इल्हाम’मानव कौल का प्ले था। सर मैं रो दिया। मैं स्टेज पर रो दिया। मैं बैकस्टेज गया उनसे बात करने के लिए मैं बात नहीं कर पाया मैं रो दिया। मैं इतना भावुक हो गया कि मैंने बोला ये आदमी असली रॉकस्टार है। मेरे ख्याल से रणबीर ने बहुत सीखा होगा उनसे। लेकिन कुमुद जी को आप फिल्म में देखिए... और कुमुद जी को आप स्टेज पे देखिए। दोनों में अलग इंसान नजर आएंगे आपको। स्टेज एक अलग दुनिया है सर।
Kumud Mishra (right) in 'Ilhaam'. Photo Courtesy: Kavi Bhansali
मैं अगर एक आम आदमी की तरह समझना चाहूं। कि मुझे कुछ नहीं पता थियेटर के बारे में। मैं अपनी जिंदगी और दो वक्त की रोटी में उलझा रहता हूं, बस मनोरंजन के लिए कभी घुस जाता हूं फिल्मों में। कभी थियेटर का नाम अखबार में पढ़ लेता हूं ... कि ये थियेटर वाले हैं, ऐसा... वैसा। इस बीच आखिर ऐसा क्या है थियेटर में कि लोग इतनी तारीफ करते हैं? थियेटर ही सब-कुछ है, फिल्में उतनी नहीं हैं?
आम आदमी को सबसे ज्यादा मजा थियेटर में इसलिए आता है... दो कारण मानता हूं मैं इसके। एक तो मुझे एंटरटेन किया जा रहा है, ये शाही फीलिंग आती है, ठीक है...। कि मेरे लिए हो रहा है कुछ काम। एक महत्व महसूस होता है। कि ये एक्टर मुझसे बात कर रहा है। फिल्म के अंदर वो स्टार है, वो कैमरे से बात कर रहा है। यहां पर वो मुझसे बात कर रहा है, मेरी आंखों में आंखें डालकर बात कर रहा है। एक वो वाली फीलिंग सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी सबसे बड़ी बात है, आप टच कर सकते हो थियेटर को। आप छू सकते हो, महसूस कर सकते हो। जबकि फिल्मों के अंदर वो नहीं होता, फिल्मों में अगर हवा चली है तो वहां चली है। थियेटर में अगर मैं बोल रहा हूं कि ये चली हवा, तो सामने वाले को अंदर महसूस होने लगता है। वो जो लाइव सा इसका तत्व है, वो आपको केवल थियेटर में मिल सकता है। अतुल कुमार का मैं उदाहरण देता हूं आपको। हाल ही में वह दक्षिण अफ्रीका में थे। जोहानसबर्ग में प्ले कर रहे थे, ‘नथिंग लाइक लीयर’। किंग लीयर का रूपांतरण। उसके अंदर एक सीन है। जहां पर उसकी जिंदगी में कुछ तूफान आया है और वो तूफान से कहता है, अंग्रेजी में डायलॉग है कि जिसका मतलब है कि “मेरी जिंदगी में तू जब से आया है, मेरी जिंदगी में खलबली मचा दी है। ए तूफान तू कब तक चलेगा”। जिस वक्त वो ये डायलॉग बोल रहे थे, जोहानसबर्ग में, स्टेज के ऊपर बने कांच के गुंबद के ऊपर ओले गिरने लगे। और यहां पर उन्होंने कहा कि “ऐ तूफान ..” तो वहां घड़ घड़ घड़.. मतलब असली। अतुल बोले, “मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए और ऑडियंस में दो-तीन की फ* गई”। बोले, “ये क्या हो गया”। लाइव फील... वहां पर हो गया तो हो गया। आपके डायलॉग बोलते-बोलते, आप बारिश की बात कर रहे हो बारिश हो गई, तूफान की बात कर रहे हो तूफान हो गया, फिल्म में नहीं हो सकता। फिल्म में क्रिएट किया जाता है, लेकिन वो माहौल जो लाइव होता है। आपको मजा आने लग जाता है कि यार केवल एक्टर और थियेटर ही नहीं, पांचों तत्व जो हैं वो उस वक्त एकजुट हो गए हैं। तो हवा मेरी बात सुन रही है, पानी मेरी बात सुन रहा है, ये फीलिंग आती है।

थियेटर के इतिहास में चाहे भारत में ले लीजिए, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय... ऐसे कौन से तानसेन या बैजू बावरा हैं जो दीया जला देते हैं गाके, या दिया बुझा देते हैं?
मैं गिरीष कर्नाड साहब का बहुत बड़ा फैन हूं। उनके लेखन का बहुत कायल हूं। भले ही वो ‘अग्निबरखा’ हो जिसमें मैंने किरदार निभाया था ब्रह्मराक्षस का, उसका किरदार फिल्म में प्रभुदेवा जी ने निभाया था। और प्रभुदेवा जी को लोग याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मराक्षस का किरदार निभाया था। सब ने अपने अलग-अलग किस्म के ब्रह्मराक्षस बनाए हैं। या गिरीष कर्नाड साहब का ‘तुग़लक’। मैं तो मोहम्मद-बिन-तुग़लक को वैसे ही याद करता हूं जैसे कर्नाड साहब ने दिखाया है। मैंने इतिहास नहीं पढ़ा, मैंने कर्नाड साहब को पढ़ा। वहां से मुझे बहुत कुछ उठाने को मिला, सीखने को मिला क्योंकि वो मेरी जेनरेशन के नहीं हैं पर कम से कम उन्हें ही मैं देख सकता हूं, मैंने तानसेन को तो देखा नहीं, जहां तक नाटक का सवाल है। उसके बाद अगर आप संगीत पर आ जाएं, लाइव परफॉर्मेंस में जो जादू क्रिएट करते हैं, वो अपने आप में फिर बेताज बादशाह हैं आरिफ लोहार साहब पाकिस्तान के। उनका एक लाइव परफॉर्मेंस देख लिया मैंने.. (सरप्राइज होते हुए) कौन है वो आदमी.. कहां से आया है? उनके जो वालिद साहब हैं आलम लोहार वो अपने आप में संगीत के सम्राट हुआ करते थे। संगीत थियेटर का अंतनिर्हित अंग है। मैं आजकल हर चीज को संगीत के साथ जोड़कर देखता हूं। कि कहीं न कहीं इन दोनों का कॉम्बिनेशन मिल जाए थियेटर और म्यूजिक का, तो असली जादू पैदा होता है।

और कौन हैं जिनकी परफॉर्मेंस नहीं देखी तो क्या देखा?
दिनेश ठाकुर साहब, दुर्भाग्य से अब वह नहीं हैं। मुझे याद है, मैं 2006 में रेडियो कर रहा था और कर-कर के गला बंद हो गया और ऐसा बंद हुआ कि आवाज की सिसकी तक बंद हो गई। मैंने महीने भर की छुट्टियां ले ली थीं। करने को कुछ था नहीं तो उस वक्त तकरीबन एक हफ्ते तक मैंने दिनेश ठाकुर साहब का पूरा फेस्टिवल देखा और उनके अलग-अलग नाटक देखे। सिंपल। कोई ताम-झाम नहीं। कि कहीं से लाइट आ रही है, कि कहीं से म्यूजिक आ रहा है, कि कहीं से कुछ विजुअल डिलाइट आ रहा है। कुछ नहीं, बस स्टोरीटेलिंग। साधारण स्टोरीटेलिंग। उनको देख बड़ा मजा आया। एक रियल एलिमेंट। ये दिनेश ठाकुर, कुमुद मिश्रा आम इंसान दिखते हैं। स्टार्स नहीं दिखते हैं। मैं एक तरीके से कभी-कभी खुश होता हूं कि यार ऊपर वाले ने सूरत दी है, फिर मैं ये सोचता हूं कि इस सूरत के साथ एक आम इंसान का किरदार निभाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। जबकि कुमुद जी के लिए या दिनेश जी के लिए ये बाएं हाथ का खेल था। क्योंकि कहते हैं न, इफ यू लुक द कैरेक्टर, हाफ द वर्क इज डन। नाना पाटेकर को देखा, मराठी प्ले करते हुए। अरे, उस आदमी के तो मैं पैर धो-धो के पिऊं। ‘सखाराम बाइंडर’ देखा मैंने उनका। बाप रे, मतलब, मुझे नहीं लगता कि सखाराम उनसे बेहतर कोई कर सकता है। ‘सखाराम...’ सयाजी शिंदे ने किया, वो भी थियेटर किया करते थे, मतलब ये लोग रियल लगते हैं। मैं ‘सखाराम बाइंडर’ करूंगा तो मेरे को किसी अलग तरीके से सखाराम को पेश करना पड़ेगा। मैं नहीं लगता वो बीड़ी फूंकने वाला। अगर मुझे वीजे का रोल मिलेगा तो बड़ा आसानी से कर लूंगा। लेकिन वहीं पर तो एक कलाकार, वहीं पर तो एक अभिनेता का काम शुरू होता है। मुझे ऐसे किरदार मिलें इसका मैं इतंजार कर रहा हूं। भले ही वो फिल्मों में हों, भले ही वो थियेटर में हों।

कुछ शानदार रोल वाली फिल्में करने की इच्छा नहीं है?
उस किस्म के किरदारों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं। अभी तक जो भी फिल्में करी थीं अधिकतर में मेरा सहयोगी किरदार था, हीरो के बेस्ट फ्रेंड वाला रोल था, अब वही रोल आ रहे हैं। क्योंकि फिल्में बड़ी सीमित हैं। कि जो चलता है वही चलने दो। कोई भी एक्सपेरिमेंट करने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए खान साहब चलते हैं और चलते ही हैं। और सही बात है। बॉलीवुड जो है क्रिएटिव आर्ट को दिखाने से ज्यादा बिजनेस मीडियम है। आज आप सलमान खान साहब की ‘एक था टाइगर’ को लेकर 400 करोड़ कमा सकते हैं, वहीं सलमान खान अगर मंत्र को ले लेते तो 4000 रुपये नहीं कमा पाते, या चार लाख नहीं कमा पाते। क्योंकि स्टोरी ऐसी कोई खास नहीं थी। वो सलमान खान थे इसलिए चली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री कला को पलट के नहीं देगी केवल बिजनेस करेगी तो कब तक चलेगा ये। इसी लिए जो ये डायरेक्टर्स की नई खेंप है... ये कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये भी अब उसी सेक्टर का हिस्सा बन गए हैं। सब आते हैं, एक ऑफ बीट फिल्म बनाते हैं और उसके बाद इंतजार करते हैं कि एक बड़ा डायरेक्टर उन्हें मिल जाए क्योंकि सबको रोटी कमानी है।

जो आते हैं वो पहले सिस्टम और स्टार्स के खिलाफ खरी-खोटी सुनाते हैं, पर उन्हीं के साथ फिल्में डिस्कस करने लगते हैं, पूछने पर कहते हैं कि यार क्या करें उनके साथ भी काम करना पड़ेगा।
सबको कमर्शियल हिट चाहिए। बहुत कम ऐसे... अतुल कुमार की बात करता हूं। इस मामले में मैंने उनके जैसा आदमी मंच पर नहीं देखा। उन्होंने ‘तक्षक’ फिल्म में काम किया था। उन्हीं के साथी हैं रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, कोंकणा सेन शर्मा। आज आप उन सबको देखते हैं, वक्त निकाल कर ... वो करते हैं। अतुल कुमार ने जीवन रंगमंच को समर्पित किया है। इस बात पर मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसलिए जब मुझे उन्हें बोलना होता है कि दो नई फिल्में मेरे को मिली हैं तो मैं गर्व के साथ नहीं जाता हूं उनके पास, शर्म के साथ जाता हूं, सिर झुकाकर जाता हूं कि सर... फिल्में... मिली हैं... करता .... हूं मैं... जाके। वो भी कहते हैं, ...ठीक है बेटा, करो। करो सबका अपना-अपना है। न कि ये कि क्या बात कर रहा है दो नई फिल्में मिली हैं, वाह। तो बहुत कम हैं जो थियेटर को समर्पित हैं। इसलिए मैं परेश रावल साहब को बहुत मानता हूं। जैसे उनकी ‘ओ माई गॉड’ आई है वो उन्हीं का प्ले है ‘किशन वर्सेज कन्हैया’, उसी पर बनी है। परेश रावल या नसीरुद्दीन शाह ऐसे हैं जिन्होंने बैलेंस बनाकर रखा है। ये मेरे आदर्श हैं। मैं ऐसा बैलेंस बनाकर रखना चाहता हूं जहां पर मैं थियेटर, फिल्म या टेलीविजन, सब में समान रूप से मिल-बांटकर काम कर सकूं और वो बड़ा मुश्किल है। क्योंकि टाइम नहीं निकलता है। प्ले के लिए अपने शूट छोड़कर जाता हूं। वहां प्ले की फीस जितनी मिलती है उससे दोगुना तो मैं अपने खाने-पीने पर खर्च कर देता हूं। थियेटर पैसे के लिए नहीं किया जा सकता। अगर पैसों के लिए आप थियेटर कर रहे हो तो आप जी नहीं पाओगे। और पैसों के लिए नहीं कर रहे हो तो कहां से लाओगे पैसा। कहीं न कहीं से तो आएगा, आज मैं थियेटर में पैसा लगाता हूं, खुद का प्रोडक्शन चालू करने वाला हूं, कहां से लाऊंगा प्रोडक्शन करने का पैसा। वो मैं दूसरे क्षेत्रों से लाता हूं लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि उनकी इज्जत कम है। टेलीविजन ने तो बहुत कुछ दिया है, उसकी वजह से आज लोग जानते हैं पहचानते हैं और शायद वो देखकर मेरा प्ले देखने आते हैं।

लेकिन अतुल और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व थियेटर के गलियारों तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
चलेगा न सर। हमारे लिए अतुल कुमार अमिताभ बच्चन से बड़ा है। सत्यदेव जी का जब निधन हुआ तो जो एक रैली निकली थी पृथ्वी (पृथ्वी थियेटर, मुंबई) से वो देखने लायक थी, जब मैंने देखी तो मैं मान गया कि सत्यदेव जी अमर हो गए। जरूरी नहीं कि अख़बार में उनके बारे में छपे, कि लोग उनके बारे में बात करें या न करें। जिनको जानना था वो उनके कायल थे, उनका (सत्यदेव दुबे) काम हो गया। उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। थियेटर का समुदाय भी बहुत बड़ा समुदाय है। ऐसा नहीं है कि कम लोग हैं। लेकिन बात ये है कि हर थियेटर एक्टर फिल्म अभिनेता नहीं बनना चाहता। ...ये जानकर मेरे को खुशी होती है। कि केवल थियेटर को सीढ़ी बनाकर नहीं चल रहे फिल्मों में जाने के लिए, वो अपने आप में एक जरिया है, अपने आप में एक मीडियम है।

हर फील्ड में जो एक अंदरूनी आलोचना चलती रहती है ...कम्युनिटी के भीतर कि हम लोग क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, वो बंदा गलत कर रहा है, ये सही कर रहा है, उसने एक्सपेरिमेंट ज्यादा कर दिया ये नहीं करना चाहिए था, वहां सीमा पार कर दी। पत्रकारिता में जैसे होता है कि हम बहुत से एंकर्स की आलोचना करते हैं कि वो किस तरीके से बात कर रहे हैं, जिसका मजाक सीरियल्स या फिल्मों में उड़ता भी है जो जायज है। तो थियेटर में अभी कौन सी आलोचना है जो चल रही है?
... कि क्या आप ब्रॉडवे या वेस्टर्न थियेटर को टक्कर दे सकते हैं? या क्या वो टक्कर देने लायक हैं? या उनकी दुनिया अलग है, हमारी दुनिया अलग है? मैं लंदन में थियेटर पढ़ा हूं, वहां पर गया, मैं वहां के म्यूजिकल्स का हिस्सा बना। इतने भव्य प्रोडक्शंस कि उत्ते मैं तो फिल्म बन जाए। हवा में उड़ रहा है आदमी, आप केबल ढूंढ नहीं सकते कि काहे में उड़ रहा है। हमारे यहां दिल्ली में वो... ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ या ‘जिंगारो’। उन्होंने भरपूर कोशिश की वहां पर पहुंचने की। बहुत पैसे लगाए ...क्या हुआ? वो एक जगह रुके हुए हैं। क्योंकि वो अपना थियेटर बदल नहीं सकते हैं। वो कमानी में आकर शो नहीं कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि उनका सीमित है। वहीं पर चार केबल उन्होंने लगा रखी हैं, उसी से उनको उडऩा है। तो सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि कहीं ये तामझाम या विजुअल डिलाइट, इस शब्द को मैं बार-बार कह रहा हूं, दिखाने के चक्कर में प्ले की आत्मा को तो नहीं खो रहे? या आत्मा दिखाने के चक्कर में आप सामने वाले को बोर तो नहीं कर रहे? कि ये फ्लड लाइट लगा ली और उसी में पूरा प्ले निपटा दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता। ऑडियंस वहां पर आई है और अपना कीमती समय आपको दे रही है। उसे मनोरंजन दो। भले ही वह किसी भी जॉनर का प्ले हो, उसको एंटरटेनमेंट दो। ये जो दुविधा है कि थियेटर में ये करना चाहिए या नहीं? क्या केवल एक कहानीकार से काम चल जाएगा या उसके साथ उसको एक आइटम डांस डालना जरूरी है? थियेटर में भी वही हो रहा है, आइटम क्या है प्ले का? मतलब रंग, विजुअल डिलाइट, गाना-बजाना... क्या इनकी इतनी ज्यादा जरूरत है? या जैसे पुराने जमाने के सादे नाटक हुआ करते थे। कि मैं आऊंगा, कहानी सुनाऊंगा, ये मां है ये बेटा है, दोनों की बातचीत... बस। लेकिन अब उसे नए तरीके से दर्शाया जाता है। पहले बालक का रोल, फिर वो बड़ा हुआ थोड़ा, फिर और बड़ा हुआ, फिर पूरा बड़ा हुआ तो इस तरह चार एक्टर हो गए एक ही किरदार को निभाते हुए... सबका अपना-अपना क्रिएटिव तरीका है उसे दर्शाने का।

पीयूष मिश्रा जब थे ‘एक्ट-वन’ में दिल्ली में तो उनके दीवाने बहुत थे और जैसे सुपरस्टार्स के फैन होते हैं, वैसे उनके हुआ करते थे। उस समय उनकी जो एक बाग़ी विचारधारा थी, वो तेजाब फैंकते थे जब बोलते थे... लोग जल जाते थे। लेकिन पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो पूरी बातचीत में ये लगातार आता रहा कि यार अब छोड़ो। तो ऐसे लोग जो इतना असर अपने कहने-करने में रखते हैं और बॉलीवुड में यूं पूरी तरह चले जाते हैं और विज्ञापन और फिल्म करने के बाद उनके सार्वजनिक बोल-चाल में सपोर्ट की बजाय थियेटर वालों के लिए एक चुनौती आ जाती है... तो लोग कहते हैं अब आपके पास क्या जवाब है आपका सबसे खास बंदा तो ये कह रहा है? उसके जवाब में आप क्या कहेंगे? या वो थियेटर और फिल्मों में एक बैलेंस बनाकर चल रहे हैं? या ठीक है फर्क नहीं पड़ता? या उनको हक़ है कि वो इतनी कमाई करें... या ये कि अभी वो अपना नया मत ठीक से बना नहीं पाए हैं, बना रहे हैं? जैसे वो बड़ा मजबूती से कहते हैं कि यार ठीक है छोड़ो, सबको पैसा कमाना है। ‘बॉडीगार्ड’ हिट है तो हिट है, तुम कौन होते हो खारिज करने वाले...
पीयूष मिश्रा जी जैसे जो हैं, इन्होंने इतना काम कर दिया है कि अब उनको उस मामले में टोका नहीं जा सकता। वो जितना थियेटर को दे सकते थे उन्होंने दिया है और अभी भी कोशिश कर रहे हैं देने की। और हम कोई नहीं होते कि उन्हें कहें कि आप ऐसा न करें। जैसे सचिन तेंडूलकर को कब रिटायर होना चाहिए, ये उस इंसान पर ही निर्भर करता है जिसने इतना कुछ कर दिया है। हां, मैं रोहित शर्मा के लिए बोल सकता हूं, क्योंकि रोहित शर्मा को खुद को प्रूव करना बाकी है। एक वक्त के बाद उन्हें (पीयूष) एक्सपेरिमेंट करने का पूरा-पूरा हक़ है। आज अगर पीयूष मिश्रा जी प्ले करने आएंगे तो वो आदमी जिसने उन्हें फिल्मों से या किसी और माध्यम से जाना है वो दूसरे को भी कहेगा कि अरे यार उनका ये प्ले देखने चलते हैं इनको अपन ने उसमें देखा था न। वो बड़ा मजेदार होता है। शाहरुख खान ने भी अपने करियर की शुरुआत थियेटर से की। उन्होंने भी काफी थियेटर किया। जरा सोचिए, अगर शाहरुख खान कल को एक प्ले करता है, थियेटर को कितना बड़ा बूस्ट मिलेगा। इसलिए नहीं कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत है, इसलिए नहीं कि हमें उनकी जरूरत है लेकिन उनका भी एक हक बनता है। ये उनका कर्तव्य और दायित्व है दरअसल। उनको वक्त निकाल कर एकाध प्ले कर देना चाहिए। फिर मैं विदेश का उदाहरण दूंगा आपको। वहां सौ-सौ पाउंड की टिकट है। सौ पाउंट कित्ते हो गए... आठ हजार.. आठ हजार की टिकट है। क्यों? क्योंकि वो प्ले में लीड एक्टर वो है... क्या नाम है उसका हैरी पॉटर... डेनियल रेडक्लिफ और सुनने में आया है प्ले में वो पूरा न्यूड सीन दे रहा है। लोग सोचते हैं अरे क्या बात है, न्यूड सीन... प्ले देखें तो सही क्या कर रहा है..। बहुत बड़े-बड़े एक्टर्स हैं हॉलीवुड के, जो अपना वक्त निकालकर थियेटर करते हैं, न केवल थियेटर को कुछ देने के लिए बल्कि थियेटर से बहुत कुछ लेने के लिए। तो ये दूरी कम होनी बहुत जरूरी है। थियेटर वालों को फिल्मों में जाने की जरूरत है, फिल्म वालों को थियेटर में जरूरत है। बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलेगा।

‘कॉमेडी सर्कस’ का कुल-मिलाकर अनुभव कैसा रहा? वो जो एक अनवरत मजाक जज लोगों की और एक-दो जोड़ियों की होती है वहां। जिन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है जैसे कृष्णा-सुदेश हो गए या कपिल हो गए, उनकी स्क्रिप्ट में कुछ लोगों का मजाक एक बार नहीं बार-बार लिखा जाता है। राजीव ठाकुर हुए और दूसरे भी हैं... तो वो शर्मसार करने वाला वाकई में होता है उनके लिए जिनका मजाक उड़ता है?
अरे होता है। राजीव ठाकुर बता रहा था। ठाकुर साहब फ्लाइट में बैठे हैं और पीछे से बीच सीटों के आवाज आई, “ठाकुर बोहत आठ-आठ ले रहे हो”। तो वो शर्म से पानी-पानी हो गए। क्योंकि इस मामले में ‘कॉमेडी सर्कस’ में हम बड़े मजे लेते हैं ठाकुर साहब के। हमारे भी लिए जाने लगे, सस्ता डेली बोला जाने लगा। अब उसका कितना अपने ऊपर ले रहे हैं ये आप पर है। जैसे ‘गुरु’ में अभिषेक बोलता है न कि “लोग बात कर रहे हैं तो अच्छा ही है”। ‘कॉमेडी सर्कस’ के अंदर वैरी फ्रैंकली, ये आपस में ही मजे ले रहे हैं और जनता को मजा इसीलिए आ रहा है कि ये हंसते-खेलते लोग हैं, एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे हैं। जिस दिन सीरियस हो गए न उस दिन इनका भी वही हाल हो जाएगा जो बाकियों का हुआ है। ये मस्तमौला लोग हैं, इसमें काम करने वाले 80 प्रतिशत पंजाबी हैं और काम करवाने वाले बाकी 20 पर्सेंट गुजराती हैं। तो इन्हीं दोनों ने दुनिया चला रखी है। तो एक-दूसरे का मजाक उड़ाना या बॉलीवुड के बड़े लोगों का मजाक उड़ाना इसकी हिम्मत सिर्फ ‘कॉमेडी सर्कस’ ही कर सकता है, ये जोक कोई और करे तो उस पर पुलिस केस हो जाएगा। कभी-कभी जोक हद पार कर जाते हैं, वल्गैरिटी की सीमा पार कर जाते हैं। उस समय पर हमारी भी भौंहे चढ़ जाती हैं कि यार, क्या हम सही कर रहे हैं? तो हम भी अपनी तरफ से बोल देते हैं कि भई ये नहीं बोलेंगे हम। लेकिन वो कॉमेडी का जॉनर ही वही सर। आप वेस्टर्न कॉमेडी भी देखें, स्टैंड अप कॉमेडी, दो ही चीज है से-क्-स और ड्रग।

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस समय जितनी भी फिल्में बन रही हैं, जैसे ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ नहीं बन सकती थी इस टाइम के अलावा कभी। हालांकि ‘क्या सुपरकूल...’ को मैं बहुत खराब फिल्म मानता हूं, बेहद गैर-जरूरी फिल्म मानता हूं... लेकिन जो ये कोशिश हो रही है कि ‘कॉमेडी सर्कस’ में एडल्ट बातें जितनी होती हैं... है न... डाल दिया निकाल लिया... तो इसकी एक वजह ये नहीं है कि भारत में ज्यादातर अभी व्यस्क हैं। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली उम्र के ज्यादा हैं, नए-नवैले शादीशुदा हैं?
हां, और वैरी फ्रैंकली, आज का यूथ जो भाषा बोल रहा है, उस जेनरेशन को अभी-अभी पार किया है मैंने। मैंने 15-16 साल की उम्र में वो सब चीजें नहीं बोली थीं... लेकिन आज न केवल टेलीविजन के जरिए, फिल्मों के जरिए ये डायलॉग अब बहुत आम हो गए हैं। और बच्चे-बच्चे की जबां पर गाली है, बच्चे-बच्चे की जबां पर नंगाई है। वह केवल टेलीविजन तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा अगर कोई जरिया है तो वो है इंटरनेट। वो दिन दूर नहीं जब इंटरनेट सब चीजों को खा जाएगा। टीवी, फिल्म, रेडियो सब निगल लेगा वो... दुनिया केवल इंटरनेट से चलेगी, शादियां इंटरनेट पे हो जाएंगी, बच्चे इंटरनेट पे पैदा हो जाएंगे और वो कोई नहीं रोक सकता। एक वक्त में मुझे कोई जानकारी चाहिए होती थी तो फलानी लाइब्रेरी में जाके फलाने कोने से फलानी किताब निकालनी होती थी। आज मैं गूगल टाइप करता हूं सब मालूम चल जाता है यार, दो सेकेंड के अंदर-अंदर। तो एक्सेसेबिलिटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उसी का नतीजा है कि आप क्या सुपरकूल हैं हम या कॉमेडी सर्कस या इस किस्म के काम देखते हैं।

हेल्दी सब्जेक्ट पर ‘विकी डोनर’ भी आती है। स्पर्म डोनेशन पर बहुत ही सकारात्मक तरीके से सोचते हैं। इससे करीने से बनी आ भी नहीं सकती थी।
अच्छे तरीके से दिखाया गया। वही चीज अगर अश्लील तरीके से दिखाते तो फिल्म बिगड़ जाती। आपको हर दौर में एक गांधी और एक हिटलर मिलेगा ही मिलेगा। इस दौर में भी वैसे ही हैं। अभी भी अपने आपको साध कर काम कर रहे हैं सब। नहीं भई, हम साफ-सुथरा काम ही करेंगे। कुछ हैं जो वक्त के साथ चल रहे हैं और वक्त इस वक्त का ये है कि उल्टा-सीधा एक समान।

आपका और ‘कॉमेडी सर्कस’ के बाकी लोगों का इस पर कोई मत नहीं होता... जो प्रोसेस उन्होंने एक शुरू किया है या बाकी जगह भी चल चुका है? ऐसा प्रोसेस जिसे रोका या पलटा नहीं जा सकता। जैसे आप कह रहे हैं इंटरनेट कब्जा कर लेगा, तो उससे पहले के जिस एक टाइम फ्रेम में हम हैं कि कौन क्या कर रहा है और कितना जिम्मेदार है, तो उस पर कोई ओपिनियन है कि यार सब ऐसा ही हो गया है हम क्या करें?
नहीं, नहीं। बिल्कुल नहीं। मेरा पूरा मानना है कि एक-एक चीज जो हमारे आस-पास है वो हमारी ही बनाई गई है। ऐसा तो है नहीं कि एक दिन अचानक से आकर अश्लीलता ने हमें टेकओवर कर लिया। हमारे ही द्वारा बनाई गई चीज है। और कितना ज्यादा इंसान ईज़ी हो गया है, चीजों को अपनाने लग गया है। एक टाइम था, बाहरवाली औरत बहुत बड़ा हौव्वा था और घरवाली-बाहरवाली एक कॉमन फैक्टर हो गया है। वैसे ही कॉमेडी में चार्ली चैपलिन का केले के छिलके पर फिसलकर गिरना ह्यूमर था। आज होता है तो... अरे यार बहुत पुराना कर रहा है यार। आज तो तंबू और बंबू है। आज जब तक कोई जाकर गर्म तवे पर बैठ नहीं जाता, ऐसे टेढ़े-मेढ़े चलता नहीं है तब तक हंसी नहीं आती है। तो वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। और बदलाव तो प्रकृति का नियम है उसे अपनाना भी चाहिए। लेकिन वही है बैलेंस... कितना बैलेंस आप बनाकर चल सकते हो।

‘कॉमेडी सर्कस’ पर आपने जितने भी एक्ट किए हैं, उस दौरान मैंने देखा है... कि कृष्णा-सुदेश के हिस्से कुछ गैग आएं हैं तो वो थप्पड़ मार लेंगे या सूदिया बोल देंगे या फिर मां का साकीनाका। कपिल हैं तो वो उस लड़की को गले लगाते रहेंगे या उसे कोस देंगे.. या उनके भी फिक्स गैग्स हैं कि लोग हंस पड़ेंगे। आपके अपने जोड़ीदारों के साथ कोई तय मुहावरे या गैग नहीं हैं, आप व्यस्क बातें भी नहीं करते। ऐसे में ये ज्यादा चुनौती भरा हो जाता है?
मेरे लिए तो ‘कॉमेडी सर्कस’ एक जरिया है भड़ास निकालने का। मुझे वो किरदार जो कहीं और जाकर करने को मिलेंगे नहीं, मैं वहां पर जाकर कर देता हूं। और चूंकि मैं थियेटर से जुड़ा हूं मुझे एक चीज पता है कि प्ले जब खत्म हो तो सामने वाला अपने साथ कुछ लेकर जाए। मनोरंजन तो मिले ही मिले, साथ में कुछ ख़्याल लेकर जाए, सोचना लेकर जाए। तो मेरे 60-70 फीसदी एक्ट व्यंग्यात्मक होते हैं। उनमें सामाजिक या किसी न किसी दृष्टिकोण से मैसेज देने की कोशिश करता ही करता हूं। जैसे, हमारा एक अच्छाई-बुराई वाला एक्ट था, वो ऐतिहासिक एक्ट हो गया, अर्चना पूरण सिंह रो दी उसमें। उनने बोला कि मैंने आज तक पांच साल के करियर में ऐसा एक्ट देखा नहीं। क्यों? क्योंकि कॉमेडी थी और साथ में संदेश भी था। पूरी तरह सेंसफुल था और पूरा पैकेज था। हमारी कोशिश रहती है कि ज्यादातर चीजें वैसी बन पाएं। मैं रेडियो में था, रेड एफएम पर, जहां पर टैगलाइन थी ‘बजाते रहो’, लोगों को बड़ा लगता था, बजाते रहो, मतलब लोगों की बड़ी बजा रहे हैं यार। मेरा मंत्र था कि बजाने वाले को मजा आना चाहिए और बजवाने वाले को मजा आना चाहिए। उसको भी मजा आना चाहिए कि अरे यार अच्छी बात बोली इसने मेरे बारे में, मैं इस चीज का ख्याल रखूंगा अगली बार। नहीं तो आप.. अरे यार तुम तो क्या...। तो वो भी एक तरीका है क्योंकि आपके पास ताकत है माइक्रोफोन की। लेकिन अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो आप उसी चीज को कपड़े में लपेटकर रखेंगे और ऐसे इस्तेमाल करेंगे कि सामने वाले के काम आए।

फैमिली में कौन हैं? कैसा सपोर्ट है?
मेरा खानदान कलकत्ता से है। पूरे खानदान में किसी ने दूर-दूर तक कभी टेलीविजन पर, फिल्मों में या थियेटर में काम नहीं किया। वो संगीत से जुड़े हुए हैं। क्योंकि हर बंगाली घर में आपको रविंद्र नाथ टैगोर की तस्वीरें, किताबें और रबींद्र संगीत मिलेगा ही मिलेगा। हमारे वहां भी है। वो खुश होते हैं। मैं कभी-कभी जाता हूं। पहली बार गया। अपने भाई-बहनों से मिला, कजिन हैं सब। मैंने देखा मेरे खानदान में कोई डबल इंजीनियर, कोई साइंटिस्ट, एक एनवायर्नमेंटलिस्ट, एक जियोलॉजिस्ट, एक डॉक्टर... तो उनने मेरी तरफ पलटकर देखा कि “आप..?” मैं बोला कि मैं... एंटरटेनर हूं मैं। बोले, “हां वो सब तो ठीक है, पर काम क्या करते हो”। खैर, तो उनको क्या समझाऊंगा मैं। वो मेरा खानदान थोड़ा अलग है और उनके साथ मैं कभी रहा नहीं हूं। मेरी पैदाइश इंदौर, मध्य प्रदेश की रही है। बचपन से वही मेरी फैमिली हैं। और माताजी अब मेरी पुत्री जैसी बन गई हैं। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है उनकी उम्र कम ही होती जा रही है। मेरी मां को मजा आता है कि मेरा बेटा टीवी पर आ रहा है। वो कभी मेरे को ये नहीं बोलती कि ये करो, वो करो।

शादी, बच्चे?
नहीं सर मैं बैरागी। मैंने अभी तक अपने आप को बचाए रखा है। और अब पूरी कोशिश रहेगी की ऐसा ही रहूं। हम में इतना प्रेम है कि उसमें एक इंसान समा नहीं पाएगा। तो किसी एक की जिंदगी बर्बाद करने से अच्छा है सबकी जिंदगी आबाद की जाए। मेरा स्कूल ऑफ थॉट आप आध्यात्मिक भी कह सकते हैं और एक तरह से सन्यास आश्रम में पला हूं। मैं कहीं सेटल नहीं हो सकता। कोई एक जगह मेरी फाइनल जगह नहीं है। मेरे लिए यात्रा मायने रखती है, डेस्टिनेशन नहीं। तो किसी एक को मैं डेस्टिनेशन नहीं बना सकता। 

कौन-कौन से दोस्त हैं जो आज फिल्मों में चल गए हैं और खुशी होती है?
खुराना (आयुष्मान) का बड़ा अच्छा लगता है मेरे को। मेरा रेडियो का एक साथी था होज़ेक जो आज एमटीवी पर बड़ा फेमस वीजे बन गया है। और ज्यादातर मेरे साथ थे वो पीछे ही रह गए यार। चंदन राय सान्याल बेहतरीन है। थियेटर में साथ थे। ‘कमीने’ में थे। रणवीर शौरी और विनय पाठक मेरे सीनियर हैं। यही बेल्ट है।

आपमें बड़ी एनर्जी है, ऐसा क्या है कि रोज सुबह उठकर आप इतने उत्साहित पूरे दिन रहते हैं?
जीने की इच्छा है। केवल एक ही सीक्रेट है मेरा। थैंकफुलनेस। शुक्रिया। भगवान का नहीं। मैं नास्तिक नहीं हूं, पर प्रकृति का शुक्रिया जिसने मुझे इतना कुछ दिया। इसने इतनी पत्तियां दी, इतनी हरियाली दी है, आप इतने अच्छे महाशय मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हैं, मेरे पास फोन है जिससे मैं बात कर सकता हूं, सिगरेट रखी है मेरे पास में, चड्डा मिल गया है पहनने को, हवा लग रही है। छोटी-छोटी चीजों में मेरे को खुशी मिल जाती है। जितना मैं शुक्रिया अदा करता हूं, थैंकफुल रहता हूं उतनी ही एनर्जी मुझमें बढ़ जाती है। जीने की इच्छा रहती है। नहीं तो इंसान जीने की इच्छा छोड़ दे तो अरबों-खरबों पास हों क्या कर लेगा।

निराशाओं से घिर जाते हैं...
मैंने कोई गुरु बना नहीं रखा है पर रजनीश (ओशो) की बातें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। एक वक्त पर मैंने रजनीश को बहुत पढ़ा है। रजनीश ने एक ही चीज कही थी कि लाइफ इज अ सेलिब्रेशन। उस सेलिब्रेशन का हिस्सा बनो और फूल के साथ कांटे भी आना लाजिमी है, अगर फूल ही फूल मांगोगे तो वो कांटे कहां जाएंगे बेचारे। हर चीज को अपना लो तो अपने आप अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाएगा। तो निराशाओं से घिरना स्वाभाविक है, पर उसी वक्त में सोचना चाहिए कि सांस ले रहा हूं। कौन है जो सांसें पहुंचा रहा है, टैक्स तो मैं दे ही नहीं रहा हूं इसके लिए। मुफ्त में मिल रही हैं, थैंक यू यार। इत्ता काफी है मेरे लिए।

निजी जिंदगी में दिक्कत हो, उस मौके पर भी परफॉर्म करना होता है। कैसे करते हैं?
मुझे स्टेज पर चढ़ने के बाद मां, बाप, भाई, बहन कोई नहीं दिखता। जब तक एक्ट खत्म नहीं हो जाता मैं और कुछ सोचता भी नहीं हूं। और चिंता हो भी जाती है तो मुझे और ज्यादा ताकत मिलती है। सोचता हूं कि अरे ये तो एक्टर की परीक्षा है। कि यहां पर कोई मृत्युशैय्या पर पड़ा है और तुझे स्टेज पर जाकर कॉमेडी करनी है। राज कपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती है। मैं खुश हो जाता हूं, और बेहतर परफॉर्म कर देता हूं। दो-तीन दोस्तों को बोल रखा है, तबीयत खराब करवाते रहा करो अपनी और फोन करते रहा करो एक्ट के पहले।

प्लैनिंग नहीं करते कभी न आप?
नहीं, मैं बिल्कुल फ़ितरती इंसान हूं। जो भी है अब है, ये मेरा हमेशा का मंत्र है।

बुक्स कौन सी पढ़ते हैं?
रजनीश की किताबें। लोगों से और बाकियों से कहना चाहूंगा कि ‘संभोग से समाधि तक’ के अलावा बहुत कुछ कहा है उनने। वो अपने वक्त के बहुत आगे पैदा हुए शख़्स थे। आप उनकी बातों में विश्वास करें न करें, उनका ज्ञान लें न लें, लेकिन उनकी किताबों में बहुत कुछ पड़ा है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा, मतलब छान मारा, ऐसी कोई उनकी किताब नहीं है जो मैंने न पढ़ी हो। बाकी पब्लिशिंग हाउस से आता हूं। दासगुप्ता पब्लिकेशंस है कलकत्ता में। 1886 से है। तो पढऩे लिखने के तो शौकीन है हीं। कुछ अच्छा आ जाए तो वो पढ़ लेते हैं। उससे कहीं ज्यादा मुझे आध्यात्म की बातें इंट्रेस्ट देती हैं। आजकल सद्गुरू जग्गी वासुदेव काफी चल रहे हैं। उनका ईशा योग। तो वो मुझे ठीक लगते हैं। उनकी बातों को सुनता हूं। सुनता सबकी हूं करता अपनी हूं।

मूवीज जो अच्छी लगी?
‘पान सिंह तोमर’, क्योंकि मैं इरफान खान की कोई फिल्म मिस नहीं करता। ‘बर्फी’ सबसे अच्छी लगी। रणबीर वैसे मेरे पुराने परिचित हैं पर एक बार जब ‘कॉमेडी सर्कस’ में फिल्म प्रमोट करने आए तो धमका कर गए कि फिल्म रिलीज हो रही है देखना और देखकर मैसेज जरूर करना, वरना मैं समझूंगा तूने देखी नहीं। मैं शाम का शो देखने गया। मैंने लिखा कि आपने अच्छा किया और आपमें और भी ज्यादा टेलेंट है तो इससे भी अच्छा करेंगे। ‘बर्फी’ रणबीर-प्रियंका से कहीं ज्यादा डायरेक्टर-सिनेमैटोग्राफर की फिल्म थी। जैसे दार्जिलिंग को उन्होंने दिखाया है। तो इतना क्रेडिट आमतौर पर उन्हें मिलता नहीं है।

बीन, चैपलिन और हार्डी... ये ईंधन के स्त्रोत हैं जो कभी खत्म नहीं होने वाले।
बिल्कुल। बीन का तो मैं बहुत बड़ा कायल हूं। इसलिए कि वो आदमी बहुत ही खडूस आदमी है असली जीवन में। जैसे मेरे साथ भी होता है, पर बीन के सामने आकर कोई कहता है एक जोक सुनाओ न, तो बीन उनके मुंह पर कहता है “तुम्हारी ऐसी की तैसी, मैं तुम्हारे बाप का नौकर बैठा हूं यहां पर। मैं फिल्मों में जो करता हूं वो असल जिंदगी में नहीं हूं”। जो फिल्मों में उन्होंने किया वो असल जिंदगी में नहीं किया। कलाकार की इज्जत करनी चाहिए। वो जहां जो करता है उसे वहां वो करने दो। कहीं प्लंबर मिला तो ऐसे थोड़े ही करोगे कि नल ठीक करने लग जा।

(From Mantra’s wall – “The palaces you build will be the abodes of someone else tomorrow.”)
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