गुरुवार, 30 अगस्त 2012

"मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं बस"

शोनाली बोस से बातचीत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'अमु' की निर्देशक

शोनाली बोस ने 1984 के दंगों पर 2005 में एक फिल्म बनाई थी। नाम था ‘अमु’। बेहद सराही गई। उस साल फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला। इस साल के शुरू में ‘अमु’ और अपनी नई स्क्रिप्ट ‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ के लिए शोनाली को दुनिया का बड़ा प्रतिष्ठित ‘सनडांस-महिंद्रा फिल्ममेकिंग अवॉर्ड-2012’ दिया गया। पहली बार किसी इंडियन का यह अवॉर्ड मिला था। इसके अलावा 1930 के चिटगॉन्ग विद्रोह पर लिखी उनकी फिल्म ‘चिटगॉन्ग’ भी रिलीज को तैयार है। इसे शोनाली के नासा में साइंटिस्ट हस्बैंड देबब्रत ने डायरेक्ट किया है। उनसे काफी वक्त पहले बातचीत हुई। वह ऐसी इंसान हैं जिनसे जिंदगी और उसके किसी भी पहलू पर गर्मजोशी से बात की जा सकती है। कोई चीज उन्हें दबाती नहीं, कोई विषय उन्होंने भटकाता नहीं और तमाम मुश्किलों के बीच वह जरा भी मुरझाती नहीं। दो साल पहले उनके 16 साल के बेटे ईशान की मृत्यु हो गई। जिस वैल्स ग्रूम्समैन कंपनी के दाढ़ी-मूंछ ट्रिमर को इस्तेमाल करते हुए ईशान की जान गई आज उसके खिलाफ शोनाली और बेदब्रत लॉस एंजेल्स के कोर्ट में केस लड़ रहे हैं। प्रस्तुत है शोनाली से हुई बातचीत के कुछ अंशः

आपको सनडांस और महिंद्रा का संयुक्त अवॉर्ड मिला। ये अवॉर्ड कितना बड़ा है, क्या है?
ग्लोबल अवॉर्ड है। वर्ल्ड सिनेमा में योगदान देने के लिए पहली बार किसी भारतीय को यानी मुझे दिया गया है। दुनिया के चारों कोनों से लोगों को मिला, पहली फिल्म ‘अमु’ और अगली फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए मिला है। ‘अमु’ मेरी सबसे प्यारी फिल्म रही है तो उसके लिए भी मिला इसकी खुशी ज्यादा है।

‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ क्या है, कहानी जेहन में कैसे आई?
इसका आइडिया मुझे जनवरी 2010 में आया। जनवरी में पटकथा लिखनी शुरू की और जून तक पूरी कर दी। लैला की कहानी है। उसका शानदार-हंसोड़ दिमाग एक अवज्ञाकारी देह में फंसा है। वह बार-बार प्यार में पड़ती है, यौन संबंध बनाना चाहती है और बॉलीवुड सॉन्गराइटर बनना चाहती है।

इसकी कास्टिंग को लेकर कौन-कौन दिमाग में हैं?
18 साल की लड़की के लीड रोल में कोई बिल्कुल नई लड़की होगी। एक पावरफुल रोल है उसमें विद्या बालन के लिए ट्राई कर रहे हैं।

Poster of 'Amu'
छह-सात साल बाद अब अमु को देखती हैं तो फिल्म आपको कितनी कमजोर या मजबूत लगती है?
अमु मेरे बच्चे जैसी हैं। एक मां अपने बच्चे को किन आंखों से देखें... पर ओवरऑल प्राइड और लव की फीलिंग है। अभी भी मुझे हर रोज मेल आते हैं, लोग कहते हैं कि आई लव्ड इट। वो मेरी शुरुआत थी।

कबीर के रोल में अंकुर खन्ना भी फिल्म में थे। उन्हें आपने कहां से कास्ट किया। वृंदा कारत को कैसे लिया?
वृंदा मेरी मौसी हैं, मां जैसी हैं, नहीं तो वो नहीं करती। मैं हमेशा नया फेस चाह रही थी। मुझे मालूम था कि वो बड़ी कमाल एक्ट्रैस हैं। वो पहले थियेटर में थीं, फिर राजनीति में चली गईं। मैं तो उनके साथ रहती ही हूं। तो मुझे पता था कि वो राइट पर्सन थी। मैंने मुश्किल से मनाया। मुझे याद है फिल्म देखने के बाद नसीरुद्दीन शाह ने फोन करके कहा कि ये किसी भी इंडियन एक्टर का बेस्ट परफॉर्मेंस था अब तक का, किसी भी फिल्म में। जहां तक अंकुर को लेने का सवाल है, तो मुझे प्रैशर था कि एक्टर में शाहरुख को लो या बड़े स्टार को लो, पर मैं नया एक्टर लेना चाहती थी। ऐसा लड़का चाहती थी जो वलनरेबल (कुछ कमजोर) हो इसलिए उन्हें लिया। अंकुर मुंबई के हैं, कलकत्ता में बड़े हुए, दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़े। कोंकणा के बैचमेट थे, साथ एक्टिंग करते थे। तब वो कोंकणा के बॉयफ्रैंड थे। वैसे वो खुद डायरेक्टर भी हैं।

और कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में कैसे आईं?
कजोरी का किरदार कोई इंडियन-अमेरिकन ही निभा सकती थी। मैंने एक हजार लड़कियों को ऑडिशन किया था। दूसरे रोल के लिए बड़े लोगों को भी अप्रोच किया। अपर्णा सेन से भी संपर्क किया। उन्होंने कहा कि मैं तो पहले ही एक फिल्म डायरेक्ट कर रही हूं इसलिए ये रोल नहीं कर पाऊंगी। फिर उन्होंने पूछा कि लड़की के रोल में किसे ले रही हो? मैंने कहा, ऐसा-ऐसा रोल है और ढूंढ रही हूं तो उन्होंने अपनी बेटी कोंकणा का नाम सुझाया। मैंने सोचा, हद है, मैं मां को लेने आई और ये बेटी को थोप रही है। फिर मैं वहां से निकली। कुछ दिन बाद मैंने अपर्णा मासी को फोन किया और कोंकणा को स्क्रिप्ट देने के लिए कहा। फिर ऑडिशन के लिए उन्हें दिल्ली बुलाया। पर मैंने कहा कि रहना मेरे ही घर पर होगा क्योंकि होटल वगैरह का खर्च नहीं दे सकती। तो इस तरह कोंकणा फिल्म में आईं।

अमु के बाद दूसरी फिल्म में इतना वक्त क्यों लिया?
‘चिटगॉन्ग’ 2009 में शुरू की। उससे पहले ‘अमु’ 2007 में अमेरिका में रिलीज हुई। हमारे लिए नॉर्थ अमेरिका की रिलीज बहुत जरूरी थी। तो बड़ी मेहनत थी। चूंकि फिल्म वहां की सिख कम्युनिटी के सहारे और मदद से बनी थी इसलिए उन्हें दिखानी जरूरी थी। ऊपर से मैं ‘अमु’ को डाऊनटाउन में रिलीज करना चाहती थी, वहां जहां मैनस्ट्रीम अंग्रेजी फिल्में रिलीज होती हैं। तो 2007 में यूएस-कैनेडा रिलीज था। ‘चिटगॉन्ग’ को मैं और मेरे हस्बैंड देबब्रत साथ मिलकर डायरेक्ट करना चाहते थे, फिर हमने फैसला लिया कि वो ही करेंगे। ताकि लोग उसे शोनाली की फिल्म न बताएं।
Shonali with Bedabrata

देबब्रत के बारे में कुछ बताएं?
वह नासा के टॉप साइंटिस्ट हैं। आपके सेलफोन में जो कैमरा होता है उसका चिप उन्होंने ही डिजाइन किया था। आईआईटी पासआउट थे। सत्यजीत रे, रित्विक घटक का प्रभाव था उनपर कलकत्ता में पलते-बढ़ते हुए। ‘अमु’ की मेकिंग में पूरे वक्त वो मेरे साथ थे।

आप फिल्ममेकर पहले हैं कि सोशल एक्टिविस्ट? क्या किसी फिल्ममेकर को फिल्में बनाते हुए इतना मजबूती से सामाजिक और पॉलिटिकल मुद्दों पर कमेंट करना चाहिए जितना आपने ‘अमु’ के वक्त किया?
मैं एक्टिविस्ट ही हूं। 18 की थी जब 1984 दंगों के बाद मंगोलपुरी-त्रिलोकपुरी कैंप्स में जाती थी। भोपाल गैस ट्रैजेडी में भी दिल्ली से ही हिस्सा लिया। मिरांडा की स्टूडेंट बॉडी में एक्टिव थी। तब कई लड़कियों और औरतों के साथ ईव टीजिंग होती थी तो उसका विरोध मैंने किया और कार्रवाही शुरू करवाई जो पहले दिल्ली में नहीं होती थी। ये छोटा सा मुद्दा है पर बता रही हूं कि जुड़ी थी। मैंने देखा कि हर कैंप में सिख रो-रोकर बता रहे थे कि हमारे हिंदु पड़ोसियों ने हमें बचाया। जबकि अखबार में आता है कि ये स्वतः ही हुआ। पढ़कर मैं चकित थी। जब हम ‘अमु’ शूट कर रहे थे तो जगदीश टाइटलर ने हमें डराया कि शूट बंद करो। पर हमने कहा कि नहीं बंद करेंगे। हमने हथियारबंद होकर सामना किया। दो रिंग बनाई शूट के इर्द-गिर्द। मुझे अब भी धमकियां मिलती हैं। फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ए सर्टिफिकेट दिया। वो लाइन मिटा दी जिसमें दंगों में शामिल छह जनों का जिक्र होता है। एक बार हमने फिल्म सरदार पटेल स्कूल में प्रीमियर की, वहां बच्चों ने पूछा कि मैम हमें क्यों नहीं बताया गया अपने पास्ट के बारे में। फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला पर कितने अफसोस की बात है कि इसे किसी चैनल पर दिखाने की मंजूरी नहीं है।

आप खुद कैसी फिल्में देखना पसंद करती हैं?
फेवरेट है ‘चक दे इंडिया’। मुझे हिंदी फिल्मों से प्यार है। मेरे लिए परफैक्ट वो है जो पूरी तरह एंटरटेनिंग हो और मैसेज भी दे। ‘चक दे’ में शाहरुख ने शानदार परफॉर्मेंस दिया, सब लड़कियां नई थी। तो ये खास हो जाता है। ‘बंटी और बबली’ भी पसंद है। उसमें छोटी पॉलिटिकल चीजें हैं, लगता है कि इनके पीछे कुछ थॉट था, एंटी- एस्टेबलिशमेंट वगैरह। ‘कुछ-कुछ होता है’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ भी खूब पसंद हैं। आई लव करन। ‘धोबी घाट’ और ‘उड़ान’ देखकर भी खुशी होती है। कोई भी इंडियन अच्छी फिल्म बनाए तो मैं बड़ी खुश होती हूं।

वर्ल्ड सिनेमा में कौन फेवरेट हैं?
सनडांस में जैसे एक फिल्म थी, ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’, उसे शायद अगले साल ऑस्कर मिले। ये फिल्म सनडांस की लैब से ही निकली है। वह कोई 20 साल का डायरेक्टर (बेन जेटलिन) था, तो मुझे कुछ-कुछ शर्म भी आई कि कैसे खुद को फिल्ममेकर समझती हूं। इतने यंग लड़के ने क्या ब्रिलियंट फिल्म बनाई है। मैं तो कहीं से भी उसके बराबर नहीं।

कमर्शियल इंडियन सिनेमा में कौन पसंद?
90 पर्सेंट तो मिडियोकर हैं, मुझे आप मिडियोकर का हिंदी शब्द बताइए। ... कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा कमर्शियल सिनेमा में। इतनी शानदार कहानियां हमारे देश में हैं तो बनाते क्यों नहीं। स्टूपिड फिल्मों में चालीस-पचास करोड़ लगा देते हैं। पर अच्छी स्टोरी में पैसे नहीं लगाते हैं, क्यों? ‘अमु’ बनाई तो उस वक्त लोगों ने तारीफ की, अच्छी फिल्म बनाएंगे तो तारीफ करेंगे ही, हां, लेकिन निर्माता नहीं हैं। कमर्शियल और आर्ट हाउस दोनों में। पहले आर्टहाउस मूवमेंट में एनएफडीसी ने भी हाथ बंटाया, पर अब ये सब कुछ नहीं कर पाते। अगर हम हजारों फिल्में साल में बनाते हैं तो ऐसा न हो कि उनमें से सिर्फ चार-पांच ही अच्छी हो। ऐसा नहीं है कि टैलेंट नहीं है, पर उसका यूज नहीं हो पा रहा।

मौजूदा वक्त में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं और क्यों?
दिबाकर बैनर्जी ने तीन प्यारी फिल्में बनाईं। मुझे ‘खोसला का घोंसला’ बहुत अजीज है। पॉलिटिकल फिल्म है। ‘पीपली लाइव’ भी पॉलिटिकल फिल्म है।

आने वाले वक्त में कैसी फिल्में बनाना चाहती हैं?
जैसे मेरी तीन फिल्मों के सब्जेक्ट तैयार हैं। सब राजनीतिक नहीं है, पर मैं रियल लाइफ सिचुएशन पसंद करती हूं। अलग-अलग तरीकों की पॉलिटिकल फिल्में पसंद करती हूं। जैसे एक क्राइम ड्रामा है जिसमें यूएस में पुलिस और एफबीआई की इमेज कितनी अच्छी है, कितनी बुरी ये दिखाने की कोशिश है। क्योंकि मैं जानती हूं कि अमेरिका में वो क्या तरीके आजमाते हैं। 9-11 के बाद उन्होंने लोगों पर नजर रखी, सिविल राइट्स का पतन हुआ। उनकी हर फिल्म के अंत में ऐसे मुद्दों में वो अच्छे आदमी बन जाते हैं। मेरी फिल्म में हकीकत होगी। पॉलिटिकल रिएलिटी। अब चोर पुलिस की कहानी में आप पुलिस कैसे दिखाओगे। मैं पंजाब की पुलिस भी जानती हूं और अमेरिका की भी। सिस्टम की भी बात है कि वो कैसे हैं। और भी दूसरे सब्जेक्ट हैं।

निजी जिंदगी कैसी चल रही है?
मेरे बच्चे हमेशा मेरी प्राथमिकता हैं। जिदंगी में कुछ वक्त पहले एक दुर्घटना हुई। मेरा 16 साल का बच्चा गुजर गया। तो अमेरिका से मैं इंडिया आ गई। पर मेरे पति को वहीं रहना है उन यादों के साथ। सनडांस में भी मैं गई लॉस एंजेल्स, तो कुछ पलों के लिए इमोशनल हो गई। बस मैं फंक्शन में गिरी ही नहीं। ईशान का जन्म हुआ तब मैं फिल्म स्कूल के पहले साल में थी। तो मां बनने का अनुभव और फिल्में साथ-साथ रही। मैं नही चाहती थी कि बच्चों को बैबी सिटर के पास रखूं। मैं किसी रेस में नहीं थी। मैं मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं। बस। आप कभी सपने में भी नहीं सोचते कि आपका बच्चा आपकी आंखों के आगे दम तोड़ेगा। अब ‘मार्गरिटा...’ भी बनाऊंगी तो अपने बेटे की स्कूल छुट्टियों में। मैं कॉम्प्रोमाइज नहीं करूंगी। न बच्चों के लेवल पर और न ही फिल्म मेकिंग के लेवल पर।

इंडियन सिनेमा में आपके हिसाब से क्या मिसिंग है जो होना चाहिए, या सब कुछ सही है?
हमें सेंसर बोर्ड से छुटकारा पाने की जरूरत है, ये संस्थान पॉलिटिकल है पूरी तरह। हमारा मजाक उड़ाता है। उसके बावजूद देखिए कि आज औरतें कैसे ड्रेस करती हैं। मैं अपने बच्चों को नहीं दिखाना चाहूंगी ये सब। बीड़ी जलइले... गाने को देखिए.. कैसे कमर मटकाती है हीरोइन, पर बच्चे देख रहे हैं। फिर क्या मतलब सेंसर का। नेशनल मूवमेंट होना चाहिए उसे हटाने का। दूसरा प्रोड्यूसर्स को जागना चाहिए और दर्शकों को कोसना बंद करना चाहिए। ‘पीपली...’ भी बनी थी और लोगों ने देखी। ‘खेलें हम जी जान से’ पचास करोड़ में बनती है और लोग पसंद नहीं करते, पर प्रॉड्यूसर्स का पैसा लगता हैं। ‘वाट्स योर राशि’ के बाद भी आशुतोष को फिल्म बनाने के पैसे दिए गए। तो दर्शकों को मत कोसो, प्रोड्यूसर घटिया फिल्मों पर पैसे फैंक रहे हैं। राइटिंग तो अच्छी होनी चाहिए न। सनडांस के लेखकों से लिखवा दो। मैं हूं, फ्री में लिख दूंगी।
Although there couldn't be any talk on the movie, but, here is the poster.
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गजेंद्र सिंह भाटी