सोमवार, 21 मई 2012

संवादों की मजबूती वाली एक अच्छी फिल्म 'जन्नत-2'

फिल्मः जन्नत-2
निर्देशकः कुणाल देशमुख
कास्टः इमरान हाशमी, रणदीप हुड्डा, मनीष चौधरी, एशा गुप्ता, मोहम्मद जीशान अयूब, बृजेंद्र काला
स्टारः तीन, 3.0
रेटिंगः ए (एडल्ट)  - गालियों का ध्यान रखें


इसे हथियारों की तस्करी पर बनी एक सस्ती फिल्म माना जा रहा था। इमरान हाशमी की बाकी फिल्मों जैसी ही एक और। कम से कम जरा एलीट किस्म की फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों के मन में तो यही पूर्वापेक्षा थी। पर फिल्म बहुत मामलों में अलग हो जाती है। बहुत फर्क पड़ता है संजय मासूम के संवादों से। शुरू से ही इमरान अपने चपल संवादों और वैसे ही हंसी भरे हाव-भाव से अपने किरदार सोनू दिल्ली को बेहद संप्रेषित बनाते जाते हैं। कैसे, इन संवादों के जरिए देखते हैं। सोनू दिल्ली छोटे-मोटे हथियारों की गैर-कानूनी ब्रिकी करता है। ऐसे अपराधियों पर एसीपी प्रताप (रणदीप हुड्डा) की नजर है। उसे लगता है कि सोनू के जरिए वह हथियारों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता तक पहुंच सकेगा। तो वह उसे दिल्ली के एक पुल पर बुलाता है। और इस मुलाकात में सोनू अनजान, भोला और ईमानदार आदमी बनते हुए कहता है... 
क्या बात कर रहे हो साहब
करीना कट पीस
इसी नाम से दुकान है जमना पार अपनी
कभी आ जाओ
अच्छी मलाई वाली चाय पिलाऊंगा...

पर जाहिर है खान नहीं मानता। वह हथकंडे अपनाता है। सोनू से पूछताछ करता रहता है, उसकी हथेली पर चाकू मारकर डराता है, उसे पुल से नीचे यमुना में लटका देने की कोशिश करता है, पर जैसे-तैसे बात निपटती है। यहां से सोनू अस्पताल पहुंचता है। बड़बड़ाता हुआ, हमें हंसाता हुआ। यहां डॉक्टर होते नहीं हैं, रात का वक्त होता है, ड्यूटी पर तकरीबन कोई नहीं होता। एक कमरे के आगे एक आदमी लाइन में लगा होता है। उसे हटाते हुए वह कहता है और हम चकित होते जाते हैं...
भाईसाहब, खून निकल रहा है
पहले मैं दिखा दूं, कहीं एड्स न हो जाए

भोली मक्कारी बरतते हुए वह डॉक्टर जाह्नवी सिंह तोमर के पास पहुंच जाता है। सीरियस मूड में, लंबे कद की खूबसूरत मॉडल जैसी डॉक्टर। अब यहां हाथ से बहते खून का दर्द मिट सा जाता है, और उसे मन ही मन प्यार हो जाता है। जाह्नवी हाथ पर पट्टी बांधते हुए पूछती है, वैसे तुम्हारे हाथ पर क्या हुआ... और वह (वैसे वह जाह्नवी से शुरू में झूठ नहीं बोलता, जैसा एक छोटा-मोटा अपराधी तो हर बात में आसानी से बोलता जाएगा) कहता है...
एक पुलिस वाले को गलतफहमी हो गई थी
उसने हाथ पर चाकू मारकर पुल पर उल्टा टांग दिया था
ये जो नए-नए पुल हैं न
कितने डेंजरस है आज समझ आ रहा है

मुझे इस डायलॉग में छिपा गहरा सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत ज्यादा रास आया। भला कितनी बार ऐसा होता है जब चलताऊ किस्म की मूवीज में इतने गहरे निहितार्थ वाले संवाद डाले जाते हों। महानगरों में जो बड़े-बड़े कंक्रीट के फ्लाइओवर और छह लेन-आठ लेन सड़के बन रही हैं, उनपर तो आलोचनाओं की पोथियां लिखी जा रही हैं, जो विकास के मॉडल पर विमर्श करती हैं। मैं खुद इसे बहुत जरूरी विषय मानता हूं। पर यहां इमरान हाशमी की कमर्शियल सी फिल्म में, वो भी हंसी-भरे संवाद में यह कहना कि ये नए-नए पुल कितने डेंजरस हैं आज पता चल रहा है... औसत बात तो नहीं है। इमरान के हाव-भाव और मैनरिज्म इस फिल्म में कुछ बदले-बदले हैं। उन्होंने खुद के अभिनय में पहले की तुलना में बेहतरी लानी शुरू की लगता है, जिसकी परिणीति ‘शंघाई’ में जरूर होगी।

आते हैं रणदीप हुड्डा पर। उनका खुले बटन वाला लुक और चुस्ती से भागने वाला अंदाज उन्हें आम एसीपीयों में अलग बनाता है। उनका हर रात शराब पीना, फिर अपनी टीम के द्ददा (बृजेंद्र काला) से छुट्टे सिक्के मांगना, टेलीफोन बूथ में जाना और अपने ही घर में बार-बार फोन मिलाना, घंटी का बजना, बाद में मैसेज छोड़ने की प्रतिक्रिया देती टेलीफोन ऑपरेटर की आवाज का बार-बार आना। ये सब कहानी का एक अलग जायकेदार इमोशनल पहलू है। दरअसल प्रताप की जान से ज्यादा प्यारी वाइफ ऐसे ही किसी गैर-कानूनी हथियार से मारी गई थी, जिसके जिम्मेदार थे हथियारों के तस्कर। तो वह ऐसे रैकेट के पीछे पड़ा है। ‘रिस्क’ और ‘डी’ जैसी फिल्मों के बाद से उनके लिए ऐसे धीर-गंभीर और सपट रोल करना आसान हो गया है। हमें उन्हें ऐसी भूमिकाओं में स्वीकार करना भी। उनके हिस्से भी एक बड़ा अच्छा संवाद आता है। जब फिल्म के महत्वपूर्ण अंत की ओर जाते हुए सोनू दिल्ली कहीं पीछे न हट जाए, एसीपी प्रताप उसे कहता है...
जैसे मेरे सिर में अटकी हुई गोली मुझे मरने नहीं देती
वैसे ही बल्ली की मौत तुझे जीने नहीं देगी...

आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में कहानी जान लेते हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में सोनू दिल्ली (इमरान हाशमी) कुत्ती कमीनी चीज के नाम से मशहूर है। वह और उसका जिगरी दोस्त बल्ली (मोहम्मद जीशान अयूब) छोटे-मोटे गैरकानूनी हथियार, शराब और पायरेटेड डीवीडी बेचने जैसा काम करते हैं। उन्हीं से उनकी लाइफ चलती है। सोनू को डॉक्टर जाह्नवी (एशा गुप्ता) से प्यार हो जाता है और यहीं से वह शरीफों वाली जिंदगी जीने का मन बना लेता है। मगर इससे पहले उसे एसीपी खान (रणदीप हुड्डा) की मदद करनी होगी, हथियारों के सबसे बड़े सप्लायर मंगल सिंह तोमर (मनीष चौधरी) तक पहुंचाने में। वह ऐसा करने भी लगता है, पर एक के बाद एक उसका रास्ता कठिन होता जाता है।

‘रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द ईयर’, ‘ब्लड मनी’ और टीवी सीरिज ‘पाउडर’ में दिखने वाले मनीष चौधरी ने इस फिल्म में हरियाणवी रूप धरा है। मंगल सिंह तोमर के रूप में वह उन्हीं मैनरिज्म के साथ नजर आते हैं, उसमें कोई फर्क नहीं आया है। हां, भाषा और उच्चारण में जरा बदलाव वह लाए हैं। सोनू से जब वह मिलते हैं तो कहते हैं...
हम दोनों की कुंडली मिलेगी
लगता है
शनि प्रबल है तेरा
लोहे में फायदा पहुंचाएगा...

हथियारों के इस गैरकानूनी धंधे को करने के पीछे की वजहों में खानदानी रसूख कायम रखने या पाने की न जाने मंगल सिंह की कौन सी कोशिश है। इसमें एक कम्युनिटी, जाति और धर्म की बात भी है। खैर, ये चीज भी नित्य-प्रतिदिन वाली नहीं है। एक सीन में सोनू को समझाते हुए मनीष का किरदार कुछ यूं बोलता है...
सन्यासी, अपराधी और लीडर
इन तीनों के रास्ते में रोड़ा होता है परिवार
इसलिए मैंने अपनी बीवी को मार दिया
क्योंकि मेरे लिए मिशन जरूरी था
पुरखों की कला का लोहा मनवाना था

फिल्म में मेरे पसंदीदा संवादों में एक वह है जिसमें एक इंस्पेक्टर एसीपी बने रणदीप के लिए कहता है (जब वह दारु पीकर अपनी मरी हुई वाइफ को फोन करने की कोशिश करता है) ...अढ़ाया पढ़ाया जाट फिर भी सौलह दूनी आठ।

पहले की फिल्मों में कहानी का लक्ष्य होता था दो दिलों के बीच प्यार होते दिखाना, फिर उसे पाने की लड़ाई और शादी के पहले क्या हुआ ये बताना। मगर ‘विकी डोनर’ और ‘जन्नत-2’ देखते वक्त महसूस होता है कि स्क्रिप्ट बेधड़क हो चली है। शादी इंटरवल से पहले ही हो जाती है। उसके बाद कुछ मोड़ आते हैं और हमें उससे एतराज नहीं होता। फिल्मों में रिसर्च के मामले में हाल ही में ‘पान सिंह तोमर’ का नाम लिया गया। ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में भी कहानी पर शोध किया गया, हालांकि उसमें विषयवस्तु की कमी नहीं थी। ‘जन्नत-2’ के बारे में भी एक वरिष्ठ अभिनेता ने मुझसे एक साक्षात्कार में हाल ही कहा था कि इसके लिए निर्देशक कुणाल देशमुख ने काफी रिसर्च की है। हथियारों की तस्करी, गैरकानूनी मैन्युफैक्चरिंग की जगहों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में।

फिल्म में गालियां बहुत है। आंशिक रूप से जे पी दत्ता की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ में, सुधीर मिश्रा की ‘ये साली जिंदगी’ में और बाकी कई फिल्मों में पहले हम सुन चुके हैं, मगर इस फिल्म में बहुत हैं। अब ऐसा लगता है कि गालियों वाली फिल्मों के लिए अलग रेटिंग हो जानी चाहिए। क्योंकि फिल्मों की नई पौध में एक किस्म ऐसी है जो रिएलिटी को सिनेमा बना देने में यकीन रखती है और ऐसा करने पर रिएलिटी की बहुतेरी ऐसी चीजें भी इस लोकप्रिय माध्यम में आ जाती है जो सबको नहीं करनी चाहिए, पर लोग करते हैं। फिल्मों में गालियां न हो तो बहुत ही अच्छा, पर कम से कम उम्र को तो रेटिंग में डाला जा ही सकता है। ‘जन्नत-2’ में गालियां मानें तो थोपी नहीं लगतीं। जैसे किरदार हैं, वो जिंदगी के हर पल में ऐसे ही कर्स वर्ड बोलते हैं। और वो इस फिल्म में भी है। तकनीकी तौर पर कहीं कोई खामी नहीं लगती। फिल्म का अंत बड़ा हिम्मती है, पर चतुराई से समेटा गया है। कुल मिलाकर हम दो-ढाई घंटे के शो के बाद ठगा महसूस नहीं करते, न ही हमें कुछ भी फालूदा परोसा जाता है। हथियारों की तस्करी से ये कहानी बहुत आगे जाती है। फिल्म का नाम भी उपयुक्त नहीं है। बस सीक्वल बनाकर जन्नत ब्रैंड से कुछ फायदा दिलाने की कोशिश है, जो बेहद कमजोर बात है। आगे खुद देखें और जानें।
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गजेंद्र सिंह भाटी