रविवार, 20 मई 2012

वर्मा का डिपार्टमेंट खराब हो रहा है और हमारा टाइम

फिल्मः डिपार्टमेंट
निर्देशकः राम गोपाल वर्मा
कास्टः राणा डगुबाती, संजय दत्त, अमिताभ बच्चन, विजय राज, अभिमन्यु सिंह, मधु शालिनी, अंजना सुखानी, लक्ष्मी मांचू
स्टारः डेढ़, 1.5

‘शिवा’ 1990 में आई थी। रामगोपाल वर्मा की पहली हिंदी फिल्म। तब के बड़े स्टार नागार्जुन, वर्मा के सिनेमा सेंस से बड़े प्रभावित हुए थे और उन्होंने फिल्म के निर्माण में पैसा लगाया। मेरी नजर में ‘शिवा’ वर्मा की अब तक की सबसे पैनी सिनेमैटिक फिल्म है। कैमरा, कहानी, किरदारों की प्रस्तुति, उनकी इमेज मेकिंग, इमोशंस का उठाव और भराव और निर्देशन में ब्लंट फैसले... सब के सब बड़े संतुलित थे।

‘डिपार्टमेंट’ तक आते-आते मामला बिल्कुल उल्टा हो जाता है। सब सिनेमैटिक पहलुओं का संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाता है। दर्शक थियेटर में जिस कहानी को सुनने आते हैं, उसकी जगह रामगोपाल उन्हें माचिस की डिबिया जितने छोटे कैमरों की करामातें दिखाते हैं। कहानी सुनाने की बजाय उनका पूरा ध्यान कैमरों को चाय की प्याली, पानी की गिलास, चाय के भगोने, डगुबाती के माथे, अमिताभ के हाथ, संजय की लात और पिस्टल पर बांधने में रहता है। हालांकि कैमरों से खेलने की उनकी इन्हीं आदतों ने उन्हें दूसरों से खास बनाया है। ‘नॉट अ लव स्टोरी’ और ‘डोंगाला मुथा’ को रामगोपाल ने कैनन 5डी से शूट किया, पारंपरिक मोटे-मोटे कैमरों को त्यागते हुए। अब ‘डिपार्टमेंट’ शूट हुई ईओएस 5डी कैमरों से। मैंने ‘रक्तचरित्र’ और ‘रक्तचरित्र-2’ के वक्त लिखा था कि फिल्ममेकिंग के स्टूडेंट्स इन फिल्मों से बहुत कुछ सीखेंगे, मगर ‘डिपार्टमेंट’ इस बात में बड़ा सबक है कि क्यों टेक्नीक के लिए स्टोरीटेलिंग और किरदारों को ताक पर नहीं रखना चाहिए।

आते हैं कहानी पर। ये मुंबई है। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट महादेव (संजय) फिल्म शुरू करते हैं। सरकारी रजामंदी से वह डिपार्टमेंट नाम की एक टीम बनाते हैं, जो कानूनी होते हुए भी गैरकानूनी काम करती है। यानी सीधे अपराधियों का एनकाउंटर। वह बड़े काबिल मगर सस्पेंडेड इंस्पेक्टर शिव (डगुबाती) को भी टीम में लेते हैं। अब शिव इस बात को लेकर कन्फ्यूज है कि यहां कौन सही है और कौन गलत? क्योंकि महादेव एक गैंगस्टर मोहम्मद गौरी (जो कभी नजर ही नहीं आता) के लिए काम करता है। फिर अपनी जान बचाने के बदले में कभी गैंगस्टर रह चुके मिनिस्टर सरजीराव (अमिताभ) शिव को बुलाते हैं, उसे फ्लैट देते हैं और इशारों पर नचाने लगते हैं। कहानी में सावतिया (विजय राज) का गैंग भी है, जिसमें डीके (अभिमन्यु सिंह) और उसकी महबूबा नसीर (मधु शालिनी) बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। कर्तव्य और करप्शन के खेल में फंसे किरदारों की कहानी मरती-मारती आगे बढ़ती है।

अभिमन्यु सिंह और विजय राज (संदर्भ के लिए विजयराज ‘जंगल’ में और अभिमन्यु ‘रक्तचरित्र’ में) का इतना शानदार इस्तेमाल हो सकता था, मगर दोनों के किरदार बोरियत भरी फूं फा ही करते रह जाते हैं। अमिताभ बच्चन ने ‘आग’ और ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’के बाद इस फिल्म में भी इतना अजीब बनने की कोशिश की है। या कहूं तो रामू ने उन्हें बनाने की कोशिश की है। मसलन, हाथ में घंटी बांधने वाला लॉजिक। बचकानेपन की इंतहा। मुझे अभी भी याद है जब रामगोपाल के असिस्टेंट रह चुके पुरी जगन्नाथ के निर्देशन में बनी ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ रिलीज हुई थी और लोगों ने फिल्म को पसंद नहीं किया था, तब रामगोपाल ने वही ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने कथित तौर पर अभिताभ बच्चन को प्यार से गंदी गालियां दी थी। उनके मुताबिक एक फैन के तौर पर साउथ में रहते हुए उनके और पुरी के मन में अमिताभ की जो फैंसी एंग्री यंग मैन वाली इमेज थी, उसे बुड्ढे के तौर पर फिल्म में सही से फिल्माया गया। जबकि बतौर आम दर्शक हमें ये तर्क हजम नहीं होता। वक्त बदला है, फिल्में भी और लोगों की सेंसेबिलिटीज भी। मगर रामगोपाल अडिग रहे हैं, चाहे वह सही हो या चाहे गलत। उन्होंने अपनी मर्जी की ही फिल्में बनाई है। इन लापरवाहियों का ही नतीजा है कि फिल्म दो घंटे से कुछ ज्यादा की होते हुए भी चार घंटे की लगने लगती है। इसके लिए 'अज्ञात’ लिखने वाले भी नीलेश गिरकर जिम्मेदार हैं, जिन्होंने ‘डिपार्टमेंट’ की कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। निराशाजनक। रही सही कसर संगीत पूरी कर देता है। कहीं तो ये म्यूजिक ‘सरकार’ और ‘सरकार राज’ में फिल्म को नए आयामों पर ले गया था पर यहां सिरदर्दी है। खासतौर पर फिल्म में डाला गया तथाकथित चर्चित आइटम सॉन्ग। गाना नहीं मीट की दुकान है।

वर्मा इसे एक सीधी-साधी फिल्म भी बनाने निकलते तो काफी था। पर इतना भी वह नहीं कर पाए। कोई आश्चर्य नहीं कि 'शिवा’ को लेकर उन्होंने अपने ब्लॉग में बहुत पहले लिखा था, “मुझे बस फिल्ममेकिंग में एंट्री लेनी थी, और उस वक्त मौका था, इसलिए बहुत सारी फिल्मों को कॉपी करके शिवा बना दी, ताकि बाद में अपने मन की फिल्में बना सकूं”। यही कहूंगा कि वह फिल्म अच्छी थी और अब जो वह अपने मन की कर रहे हैं वह लोगों के लिए व्यर्थ है। एक ऐसी ही व्यर्थ मन की चलाई चीज है डिपार्टमेंट, जिसे थियेटर में देख पाना बड़ा ही मुश्किल है। हां, टीवी पर प्रसारण के दौरान हो सकता है, खाली वक्त में कुछ अच्छी चीजें भी ढूंढी जा सकेंगी।
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गजेंद्र सिंह भाटी