शनिवार, 26 नवंबर 2011

हनीमून की छुअन, बाकी बोरियत

फिल्मः ट्वाइलाइट सागाः ब्रेकिंग डॉन-1 (ए सर्टिफिकेट)
निर्देशनः बिल कॉन्डन
कास्टः क्रिस्टन स्टीवर्ट, रॉबर्ट पैटिसन, टेलर लॉन्टर
स्टारः ढाई स्टार, .5


ट्वाइलाइट सीरिज की सबसे कमजोर फिल्म है 'द ट्वाइलाइट सागा: ब्रेकिंग डॉन-1’। फिल्म के ट्रेलर्स और उड़ती खबरों के बाद दर्शकों के लिए कोई सस्पेंस तो वैसे भी नहीं रहता, उसके बाद जो भी बचता है वो किसी अमेरिकन टेली-सीरिज जैसा लगता है। भेडिय़ा बने जैकब हों या वैंपायर एडवर्ड, कहीं भी उनके टे्रडमार्क स्टंट देखने को नहीं मिलते हैं। वो जो तकरीबन पिछली तीनों फिल्मों में थोड़ी-ज्यादा मात्रा में थे। अगर शादी और हनीमून के पीरियड को छोड़ दें तो एडवर्ड को एक थके-हारे पति की तरह इधर-उधर कोनों में लाचार खड़ा ही दिखाया गया है। आखिर के पांच-दस मिनट में जरूर वो थोड़ा सा एक्टिव होते हैं। इस फिल्म के सेंटर में बैला है, वो कई फिजीकल बदलावों से गुजरती हैं और बाकी दोनों को-स्टार से ज्यादा फुटेज ले जाती हैं। जैकब निराश करते हैं। फिल्म में एक ही जगह उन्हें फूट-फूटकर रोना होता है और वो रो तक नहीं पाते। ट्वाइलाइट फैन्स इस फिल्म को देखकर नाखुश नहीं होंगे, पर जो बाकी दर्शक हैं उन्हें फिल्म बोर करेगी। मैं इसे एक औसत फिल्म मानूंगा। मगर इसकी सहज आगे बढ़ती कहानी और फिल्मांकन ठीक है। शादी के पहले और बाद में हनीमून के दौरान बैला-एडवर्ड के बीच की रोमैंटिक-इनोसेंट अभिव्यक्तियां अद्भुत हैं। फिल्म के बेस्ट प ये ही हैं एक-दो कॉमिक पल दे जाते हैं बैला के फादर चार्ली स्वॉन बने बिली बर्क।

बैला-एडवर्ड महागाथा भाग-4
वैंपायर एडवर्ड कलिन (रॉबर्ट पैटिसन) और इंसान बैला स्वॉन (क्रिस्टन स्टीवर्ट) पिछली तीनों फिल्मों से एक-दूसरे के प्यार में रहे हैं। अब बहुत मुश्किलों के बाद एडवर्ड-बैला की शादी की बेला आई है। इनकी शादी का कार्ड जब भेडिय़ा बॉय जैकब (टेलर लॉटनर) के पास पहुंचता है तो वह जंगलों में भाग जाता है। लेकिन फिर सेरेमनी में पहुंचता भी है। उसे बैला से प्यार है और वो नहीं चाहता कि बैला भी शादी के बाद वैंपायर बने या मर जाए। खैर, इतनी चिंताओं के बाद शादी हो जाती है और न्यूली वैड कपल हनीमून पर में सरप्राइज प्लेस पर जाते हैं। यहां से आगे वो न पढ़ें जिन्होंने फिल्म देखी नहीं है या जो सरप्राइज एलीमेंट खोना नहीं चाहते। तो दोनों में रोमैंस होता है और बैला प्रेग्नेंट हो जाती है। एडवर्ड, जैकब सब चाहते हैं कि वो पेट में पल रहे आधे वैंपायर-आधे इंसान से भ्रूण को जन्म न दे, क्योंकि ये बहुत तेजी से बढ़ रहा है और बेला का इंसानी शरीर उसे पोषण नहीं दे सकता। यहां तक लगता है कि फिल्म में बैला की जान जाना तय है।

कुछेक ऑब्जर्वेशन
# एडवर्ड बताता है कि उसने अपने पास्ट में बहुत से लोगों को मारा है। इस पर बैला कहती है, 'और वो सब मर्डरर्स थे, तुमने शायद जितनी जान ली नहीं हैं उससे ज्यादा बचाई हैं इसके जवाब में एडवर्ड कहता है, 'लेकिन वो सब इंसान थे, मैंने उनकी आंखों में देखा और उन्होंने मुझे एहसास करवाया कि मैं क्या कर रहा था और मैं क्या कर सकता था। हमारी हिंदी फिल्मों के कानून तोडऩे और इंसानों को मारने वाले हीरोज से तो ये वैंपायर हीरो एडवर्ड ही ईमानदार है जो खुले मन से अपने किए कत्ल स्वीकारता है। शायद फिल्म के ऐसे तत्वों ने ही इसे बड़ी अनोखी हिट फ्रैंचाइजी बनाया है।
# बैला-एडवर्ड की शादी के बाद टोस्ट पार्टी में सबका बारी-बारी दोनों के बारे में बोलना इंट्रेस्टिंग है। हंसाते हैं बैला के पिता, जो अपनी बारी आने पर कहते हैं, 'आई नो एडवर्ड वि बी गुड हस्बैंड। आई नो देट। कॉज, आई एम कॉप। आई नो थिंग्स। (मुझे पता है कि एडवर्ड एक अच्छा पति साबित होगा। मैं जानता हूं, क्योंकि, मैं कॉप हूं। मैं जान लेता हूं।) हल्के के वाइन के नशे में उसका सीरियस फेस के साथ रुक-रुककर डायलॉग डिलीवर करना हंसाता है।
# सुहागरात से पहले बैला का नर्वस होना, वॉशरूम में आइने के सामने खुद को देखना, बैग में से सेंशुअस कपड़े निकालते जाना और मायूस होना नर्वस होना और सोचना कि जाने मैं कैसे एडवर्ड के सामने इन कपड़ों में जा पाऊंगी। क्योंकि प्यार का फिजीकल पड़ाव आने जा रहा है। उसकी ये नर्वसनेस निर्मल, अद्भुत और कैमरे पर बेहतरी के कैप्चर हुई है।
# प्राइवेट बीच पर चांद की रोशनी में नहाए समंदर के बीच बैला का इंतजार करता एडवर्ड हो या मैरिज सेरेमनी में सामने से पिता संग आती बैला को देखकर उसका शर्माते हुए मुस्कराना, या फिर हनीमून के दौरान न होते हुए भी सेंशुअस दिखने की कोशिश करती बैला को देख उसका खिलखिला उठना और बिस्तर में औंधे मुंह लुढ़क जाना। ये सब ऐसे पल हैं जो ट्वाइलाइट सीरिज की टीम के काम को नक्काशीदार और उम्दा बनाते हैं। बहुत कम फिल्में ऐसी हुई हैं जिनमें युवा शादीशुदा जोड़ों के इन अंतरंग सिहरन और गुदगुदी वाले पलों को इतना ऑरिजिनली कैप्चर किया गया हो। अद्भुत।

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गजेंद्र सिंह भाटी

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

यूं ही भुला दी जाएगी देसी बॉयज

फिल्मः देसी बॉयज ()
निर्देशकः रोहित धवन
कास्टः अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, चित्रांगदा, दीपिका पादुकोण, अनुपम खेर
स्टारः ढाई स्टार, 2.5

अंतत: रोहित धवन ने 'देसी बॉयज’ में कुछ भी नया क्रिएट नहीं किया है। उनके इमोशनल करने और हमें एंगेज रखने के तरीके में पिता डेविड धवन की फिल्मों का अंश दिखता है। वहीं कहानी, कैरेक्टर्स के सोचने का ढंग और मैसेज एकदम हॉलीवुड फिल्मों सा है। बावजूद इसके कि फिल्म मुझे बहुत औसत लगी, रोहित का निर्देशन टेक्नीकली कहीं भी कमजोर नहीं पड़ता। हां, क्लाइमैक्स में दो-चार झोल-झाल हैं। उन्होंने एक्टर्स के काम निकलवाया है, सीन कम्युनिकेटिव रखे हैं, गानों को फिल्माने में बहुत सारे रंग बरते हैं। तेरे पीछे आया मैं... गाने की ही बात करें तो जॉन-दीपिका के पीछे नाचते दर्जनों विदेशी डांसर, डेविड की 'राजा बाबू’ और 'साजन चले ससुराल’ जैसी दर्जनों फिल्मों के सॉन्ग पिक्चराइजेशन की याद दिलाते हैं। पर टाइटल से लेकर कहानी तक हमें कुछ भी नया नहीं लगता। मेल एस्कॉर्ट का कॉन्सेप्ट इंडिया की ऑडियंस (कुछेक अंग्रेजी बोलने वाले यूथ को छोड़ दें तो) के लिहाज से अनफिट लगता है। ये तो जैरी के कैरेक्टर में अक्षय के अपने नैफ्यू वीर के साथ और गुजरात में रहने वाली मां के साथ जो इमोशनल कनेक्शन है, हम उसी में सेंटी हो जाते हैं, वरना कहानी में जॉन-अक्षय के मर्द वेश्या बनने और फैंसी डांस करने में कुछ कनविंसिंग नहीं है। फैमिली के साथ देखने के लिए ये फिल्म नहीं है। यंगस्टर्स अपनी-अपनी समझदारी पर जा सकते हैं, वैसे नहीं भी देखेंगे तो कुछ मिस नहीं करेंगे। रोहित धवन के पास निर्देशक के तौर पर बाकी सब कुछ है, बस दिशा नहीं है। उनके एंटरटेनमेंट की आप परिभाषा देखिए, जैरी सुबह नाश्ते में कॉर्नफ्लैक्स में दूध डालता है और दूध पूरा नहीं होता तो शैंपेन मिला देता है, ये महज कूल लगता ही है, है नहीं। या फिर जॉन का अक्षय को कहना कि जितना तू अपने जूते का साइज (मेल एस्कॉर्ट बनने वाले फॉर्म पर साइज के कॉलम में अक्षय का किरदार जैरी 11 लिख आता है) लिखकर आया है न उससे कल सुबह शहर की सारी लड़कियों की लाइन लग जाएगी। अगर हम अपनी फिल्मों को 'कॉमेडी सर्कस’ या 'रास्कल्स’ जितनी औकात तक न समेटें तो इंडियन सिनेमा के सुनहरे पल सृजित हो सकते हैं और ये होना दर्शकों और फिल्ममेकर्स पर निर्भर करता है।

मंदी में मेल प्रॉस्टिट्यूट बनने की कथा
इंडिया से यूके पढऩे आए थे जैरी (अक्षय कुमार) और निक (जॉन अब्राहम)। कई साल बीत गए और अब दोनों दोस्त लंदन के अपार्टमेंट में साथ रहते हैं। जैरी का पूरा नाम जिग्नेश पटेल है और निक का निखिल माथुर। निक इनवेस्टमेंट बैंकर है और जैरी चूंकि ग्रेजुएट नहीं है इसलिए छोटा-मोटा काम करता है। निक की मंगेतर राधिका अवस्थी (दीपिका पादुकोण) है तो जैरी की जिंदगी में उसका नन्ना सा नैफ्यू वीर (शरमन जैन) है। जब ब्रिटेन में मंदी का असर होता है तो दोनों की नौकरी चली जाती है। वीर की स्कूल फीस भरने और उसकी कस्टडी बनाए रखने के लिए निक को पैसे चाहिए। नहीं तो उसे किसी फॉस्टर फैमिली को दे दिया जाएगा। ऐसे में शहर की सबसे मशहूर मेल एस्कॉर्ट (मर्द वेश्या) कंपनी होने का दावा करते उसके मालिक (संजय दत्त) इन दोनों को जॉब ऑफर करते हैं। मगर पैसे आने के बावजूद दोनों अपनी सबसे कीमती चीजों को खो देते हैं। बाकी कहानी इनके उन चीजों को हासिल करने के बारे में है। फिल्म में इकोनॉमिक्स प्रफेसर तान्या मेहरा (चित्रांगदा सिंह) और राधिका के पिता सुरेश (अनुपम खेर) के किरदार भी हैं।

कुछ सीन और रोल के अंदर...
# मां (भारती आचरेकर) हर बार गुजरात से बेटे जिग्नेस को फोन करती है। बेटा गुजराती में जवाब देता है और हम हंसते हैं। क्लाइमैक्स के दौरान वह बेटे की ग्रेजुएशन सेरेमनी में भी आती है और वो सीन एंटरटेनिंग है। निक
से अपनी 15 साल की दोस्ती तोडऩे के लिए वह बेटे को चांटा लगाते हुए कहती है, 'अगर तू उसे माफ नहीं करेगा तो मुझे लगेगा कि तुझे पैदा करके मैंने अपना फिगर यूं ही खराब किया।
# अनुपम खेर के रूप में एक पिता है जो बेटी के बॉयफ्रेंड के साथ पूल में लेटे-लेटे नशीली सिगरेट पी रहा है और हमें हॉलीवुड मूवी के किसी सीन का सेंस दे रहा है। उसकी अजीब सी शेव की हुई मूछें और खुद को फॉर्मर गायनेकॉलोजिस्ट कहना पर वैसा बिल्कुल भी लग पाना भी वैसा ही माजरा है।
# अजय बापट के रोल में 'थ्री इडियट्स’ की स्टैंप लिए ओमी वैद्य आते ही चौंकाते हैं, लगता है कि लो, तुम इस फिल्म में भी हो। यहां के बाद से वो घिसे-पिटे लगते हैं।
# संजय दत्त का ये कहना कि मां, बहन और बीवी को अपने-अपने रिश्तों में खुशी तो मिलती है। पर उनके अंदर की औरत को जो खुशी चाहिए वो हम देसी बॉयज ही देते हैं। अगर नहीं समझ आया बापट, तो अपनी सातों बहनों के मुस्कराते चेहरों को देख लेना तुम्हें पता चल जाएगा। ये डायलॉग ढीला और बेहुदा है।
# रा रा री री... 'खलनायक फिल्म की ये धुन संजय दत्त की आहट को शायद सबसे ज्यादा ड्रमैटिक बनाती है। रोहित धवन ने यहां इसका यूज किया।
# जो लोग दीपिका पादुकोण की अकड़ी हुई असहज एक्टिंग से परेशान रहते हैं, उन्हें इस फिल्म में भी परेशानी ही मिलेगी, बस एक आंसू बहाने वाले सीन को छोड़ दें तो। चित्रागंदा को सेंशुअस और ग्लैमरस इकोनॉमिक्स प्रफेसर लगना था और वो लगीं भी। वैसे उनका रोल उतना डिफाइन किया हुआ नहीं था, क्लाइमैक्स में उनका जिगनेस की मां के सामने गुजराती बोलना मुस्कान देता है।
# जॉन और अक्षय की एक्टिंग हमेशा जैसी है। डायरेक्टर रोहित ने उनके किरदारों को बीच-बीच में अलग करते स्ट्रोक दिए हैं। जैसे, जॉन की गर्लफ्रैंड दीपिका के साथ अक्षय के किरदार का चिढ़े रहने वाला रिश्ता।

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गजेंद्र सिंह भाटी

सोमवार, 21 नवंबर 2011

हमें हैपी, हिम्मती, परोपकारी और सोशल बनाती हैपी फीट टू

फिल्मः हैपी फीट टू (अंग्रेजी, थ्रीडी, एनिमेटेड)
निर्देशकः जॉर्ज मिलर
वॉयसओवरः एलाइजा वुड, रॉबिन विलियम्स, एलिजाबेथ डेली, पिंक, ब्रेड पिट, मैट डेमन
स्टारः चार स्टार
आपको ऐसा नहीं लगता कि हम लोगों ने बहुत अरसे से एक बहुत अच्छी फिल्म नहीं देखी है? ऐसी फिल्म जो कहीं भी हमारे मनोरंजन में कमी न छोड़े, जिसमें एक पल भी उबासी न लेनी पड़े, जो आपके बच्चों पर रुई के रेशे जितना बुरा असर भी न डाले, बल्कि आपके बचपन वाली परोपकारी, हिम्मती और अच्छा बनने की सीख आपके बच्चों को भी दे और जो सिनेमैटिकली संपूर्ण हो। 'हैपी फीट टू' एक ऐसी ही फिल्म है। सबसे खास बात ये कि फिल्म हमें सोशल बनाती है। एक-दूसरे की परवाह करना सिखाती है। थियेटर में भले ही हम पलायनवादी होकर जाते हैं, पर लौटते हैं कुछ गुण खुद में लेकर। फिल्म जरूर देखें। अगर बिना उम्मीदों के देखेंगे तो ज्यादा ठीक होगा। अपनी फैमिली और बच्चों को ले जाना बिल्कुल न भूलें। साथ ही ये भी याद रखें कि फिल्म इंग्लिश में और थ्रीडी में है। फिल्म में रॉबिन विलियम्स का वॉयसओवर बहुत हंसाता है। स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई और समझदार है। 'मैड मैक्स' फिल्मों वाली अनोखी सीरिज बनाने वाले डायरेक्टर जॉर्ज मिलर ने 'हैपी फीट' की इस सीक्वल पिक्चर में भी खरा उतरकर दिखाया है। कोई शक नहीं कि अपने समकालीन निर्देशकों के मुकाबले जॉर्ज ज्यादा सार्थक मनोरंजन रचते हैं।

कहानी जिंदगी सिखाते पेंगुइन्स की
ये एंपरर पेंगुइन लैंड है। रिद्म, नाच, गाने और खुशियों से भरी कॉलोनी। अपनी वाइफ ग्लोरिया (पिंक) और बेटे ऐरिक (एलिजाबेथ डेली) के साथ हमारा जाना-पहचाना टैप डांसर मम्बल (एलाइजा वुड) रहता है। मम्बल पिता बनना सीख रहा है तो ऐरिक बचपन के सपने और इरादे छू-तलाश रहा है। असफल कोशिशों के बाद ऐरिक के मन में न नाच पाने का डर बैठ गया है। पर उसे उडऩे वाले पेंगुइन स्वेन (हैंक अजारिया) में अपना आदर्श दिखता है। पेंगुइन उड़ नहीं सकते पर ऐरिक गलतफहमी पाले है। खैर, इसी बीच एंपरर लैंड और इसके सारे पेंगुइन बड़ी मुसीबत में फंस जाते है। अब मम्बल को कुछ करके सभी को बचाना है।

किरदारों के पीछे की वॉयस
मम्बल: 'द लॉर्ड ऑफ द रिंग्स' वाले एलाइजा वुड ने मम्बल को आवाज दी है। उन्हें सुनकर लगता भी है कि वह नए-नए पेंगुइन पिता बने हैं।
ऐरिक: एलिजाबेथ डेली ने शिशु पेंगुइन को बेमिसाल आवाज दी है। पतली सी, मासूम और दिल भर देने वाली आवाज। एलिजाबेथ ने ही 'बेब: पिग इन सिटी' में बेब पिग को चमत्कारिक आवाज दी थी।
रेमॉन: द ग्रेट रॉबिन विलियम्स। रेमॉन के साथ उन्होंने रंगबिरंगी स्वेटर वाले पेंगुइन लवलेस का वॉयसओवर भी किया है। फिल्म में जब भी रॉबिन की आवाज सुनाई पड़ती है, हर शब्द पर खासतौर पर लड़कियां हंसती है। रेमॉन के दिलफेंक आशिक के रोल को उन्होंने अमर सा किया है। बेमिसाल।
ग्लोरिया: ऐरिक की मां ग्लोरिया की आवाज बनी हैं पिंक। उनका वो सीन याद रहता है जहां वो नाराज ऐरिक को समझाने के लिए अपने हस्बैंड मम्बल को इशारे में ही दूर चले जाने को कहती है और फिर गाना गाता हैं।
विल और बिल: ये दोनों क्रिल यानी कुछ संतरी रंग के झींगे बड़े खास हैं। इवॉल्यूशन और प्रकृति को किसी क्रांतिकारी नजर से देखते पहले झींगे विल को आवाज देते हैं ब्रैड पिट और उनके भोले-पक्के दोस्त बिल बनते हैं मैट डेमन। यकीन जानिए, पूरी फिल्म में इन दोनों की आवाज ऐसी रहती है कि हम पहचान नहीं पाते कि वॉयसओवर किसका है। हां, कहीं-कहीं मैट डेमन की आवाज पकड़ में आती है।

बहुत सी कहानियां और रिश्ते
फिल्म में कई कहानियां चलती हैं। नन्हे ऐरिक से पिता का अलग रिश्ता चलता है तो मां उसे अलग तरीके से सिखाती, शांत करती है। ठीक वैसा ही जैसा हमारे घरों में होता है। फिर अपनी मुश्किलों के बीच मम्बल का पहले एलीफेंट सील की मदद करना। उसकी जान बचाना। यहां से इन दोनों का एहसान वाला रिश्ता बन जाता है। यहां तक कि सील के दो बच्चों से नन्हे पेंगुइन ऐरिक का भी नजर ही नजर में दोस्ताना हो जाता है। रेमॉन अपनी प्रेमिका ढूंढ रहा है। पहले-पहल हमें लगता है कि वह बस फ्लर्ट करने और जगह-जगह मुंह मारने वाला मूर्ख है, पर हम गलत साबित होते हैं। आखिर में वह खुद को बड़बोला मगर सच्चा साबित करता है। स्वेन पेंगुइन होकर भी उड़ता है इसके दीवाने पूरे एडली लैंड वाले पेंगुइन हैं, पर वह मन ही मन किसी उलझन से गुजर रहा है। जो मुसीबत एंपररलैंड के पेंगुइन्स पर आती है, तो सबकी कलेक्टिव कहानी बनती है। फिर दूसरे लैंड से पेंगुइन्स का एक आवाज पर मदद के लिए चले आना कमाल है।

अविस्मरणीय हैं पल
# नाचते हुए नन्हा ऐरिक फिसलकर गिर जाता है और औंधे मुंह बर्फ में धंसता है। किसी शिशु की तरह डर के मारे वह सुसु कर देता है। सब हंसते हैं और शर्म के मारे वह कांपने लगता है। विस्मयकारी। अब कांपते हुए वह हिचकियां सी लेने लगता है, जैसे अब वह फूट-फूटकर रोने लगेगा। वह खाई में छिप जाता है और उसे मां ग्लोरिया, पिता मम्बल, दोस्त बॉडिका और एटिकस और यहां तक कि रेमॉन भी अपने-अपने तरीके से मनाते हैं।
# जब वह फिर फिल्म में दूसरी बार रोने को होता है तो मां ग्लोरिया अपने पति को आंख के इशारे से दूर भेज देती है ताकि वह अकेले में एक मां की तरह उसे शांत कर सके। बताइए ऐसा आपने कितनी बार हमारी फिल्मों में देखा है।
# बीच मास्टर नाम का एलीफेंड सील जब खाई में गिर जाता है तो उसके दो बच्चे अपनी पतली सी मासूम आवाज में डैडी-डैडी पुकारते हैं। ये वॉयसओवर ऐसा है कि आपकी आंखें नम हो जाती है।
# पहले मदद के लिए हजारों पेंगुइन्स का आना और फिर सैंकड़ों एलीफेंट सील का, अद्भुत इमेज रचता है। कुछ ऐसा ही होता है जब उसी बर्फ के नीचे समंदर में लाखों झींगे रंगीन जगमगाहट पैदा करते हैं।
# मूवी में हर सॉन्ग और उसका विजुअल पिक्चाराइजेशन सम्मोहित कर देने वाला है। जिन्हें अंग्रेजी नहीं भी आती वो भी गानों की रिद्म को अपने शरीर में महसूस करते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

रविवार, 20 नवंबर 2011

जाने को बड़ी औसत है ये शकल

फिल्मः शकल पे मत जा
निर्देशकः शुभ मुखर्जी
कास्टः सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, शुभ मुखर्जी, प्रतीक कटारे, हर्षल पारेख, चित्रक बंधोपाध्याय, आमना शरीफ, जाकिर हुसैन
स्टारः ढाई, 2.5'शकल पे मत जा’ की बनावट ऐसी है कि पैशनेट काम और कुछ अच्छे पलों के बावजूद आप तृप्त होकर इसकी तारीफ नहीं कर पाते हैं। बहुत सारी कसक और बोरियत मन में रह जाती है। फिल्म शुरू होते ही क्रेडिट्स के साथ दिल्ली की सड़कों पर बहुत तेजी से कैमरा दौड़ाती है। बहुत अच्छा लगता है। फिर हम सीआईएसएफ के देसी जवानों और इन चारों अजीब से बर्ताव करने वाले लड़कों की बातों को सुनते हैं। लगने लगता है कि फिल्म किसी इमैच्योर ने बनाई है। यहां से कहानी को रोचक बनाए हुए आगे ले जाने में बहुत बार गलतियां होती हैं। खुद अंकित के रोल में डायरेक्टर शुभ ही अपने डायलॉग रिपीट करते रहते हैं। 'घासमांडू’, 'लग गई’ और 'फट गई’ जैसे उनके कर्स वर्ड बहुत बारे ठूसे हुए लगते हैं। उनके एक्सप्रेशन बहुत ही लिमिटेड हैं। फिल्म में जान आती है तो सौरभ शुक्ला के आने से, पर फिर वही होता है डायरेक्शन की दिशा का गुम जाना। अगर कुछ अच्छे डायलॉग, फनी हालात और जरा एंटरटेनिंग क्लाइमैक्स न होता तो ये फिल्म नहीं देखने लायक हो जाती। पर फ्रेंड्स के साथ एक बार देख सकते हैं। थोड़ा मजा आएगा। अगर कुछ और बेहतर देखने को है तो मूवी को टाल सकते हैं।

एक्टर कैरेक्टर और उनका असर
सौरभ शुक्ला: चौहान के रोल में उनकी वाइफ का नाम सविता होना और लड़कों के बैग से निकली सविता भाभी की कॉमिक्स का लिंक भिडऩा हंसाता है। उनकी एंट्री अच्छी होती है, मगर बाद में वो अच्छे, बुरे और ढीले लगते हैं। फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी हैं।
रघुवीर यादव: ओमप्रकाश के रोल में उनसे हरियाणवी इतना अच्छा नहीं बना गया। पूरी मूवी में वो 'तेरी भैण का तेरी’ बोलते रहते हैं। चार-पांच बार तो बहुत हंसी आती है, उसके बाद नहीं। रघुवीर का पूरा यूज निर्देशन में
नहीं हुआ। इनका एक डायलॉग याद रहता है, 'बातें तो ऐसी कर रहे हैं जैसे लाल किले को सफेद कर देंगे रात भर में।
शुभ मुखर्जी: फिल्म बहुत बार कन्फ्यूज्ड लगती है तो अंकित के रोल में इनकी एक्टिंग और एक्सप्रेशन के कारण। तुलनात्मक रूप से डायरेक्शन ठीक-ठाक।
प्रतीक कटारे: चाइल्ड आर्टिस्ट प्रतीक अपने किरदार ध्रुव में कुछ खास नहीं कर पाते। बस उनका एक डायलॉग ही याद रहता है, 'मैं छोटा शकील नहीं, वकील बनना चाहता हूं।'
चित्रक: रोहन के रोल में अमेरिकन एक्सेंट की इनकी तुड़ी-मुड़ी हिंदी हजम नहीं होती। शुरू में तो हमें समझना पड़ता है। फिल्म बहुत आगे बढ़ जाती है तो हम कनविंस होते हैं। फिर भी इनका गेटअप और भोंदूपन कहानी को
इंट्रेस्टिंग रंग देता है।
हर्षल: बुलाई के रोल में हर्षल भी रोहन की तरह हमारी नजरों में चढऩे में वक्त लेते हैं। पर उनकी एक्टिंग में चित्रक की ही तरह कोई खामी नजर नहीं आती। हिंदी सिनेमा का एक और भोला किरदार।
आमना शरीफ: अमीना के रोल में आमना शरीफ को न भी लेते तो चलता। यूजलेस।
जाकिर हुसैन: टेरेरिस्ट ओमामा के रोल में जाकिर 'तेरे बिन लादेन’ के मजाकिया ओसामा की याद दिलाते हैं। पर उनका (आदित्य लखिया का भी) अरबी और उर्दू जैसे कुछ बने-बनाए अजीब शब्द (मसलन, अल बकायदा) बोलना पकाता है। दोष दूंगा निर्देशक और राइटर को।

ये है कहानी
दिल्ली एयरपोर्ट में सीआईएसएफ के गाड्र्स ने चार लड़कों को एक लैंड कर रही अमेरिकी एयरलाइंस का वीडियो बनाते हुए पकड़ा है। ये हैं अंकित शर्मा (शुभ मुखर्जी) उसका छोटा भाई ध्रुव (प्रतीक कटारे), लंबे बालों वाला भोला दोस्त बुलाई (हर्षल पारेख) और हिंदी कम समझने वाला भोंदू दोस्त रोहन मल्होत्रा (चित्रक बंधोपाध्याय)इंस्पेक्टर ओमप्रकाश (रघुवीर यादव) इनसे पूछ-पूछकर थक जाता है और उसे कुछ संदिग्ध लगता है तो एटीएस ऑफिसर चौहान (सौरभ शुक्ला) को बुला लेता है। इस एयरपोर्ट पर आतंकियों और बम धमाके की पक्की सूचना आती है और इस बीच ये चारों फंसे हुए हैं। फिर कहानी में असली आतंकियों की एंट्री होती है। क्लाइमैक्स भागमभाग भरा है।

आखिर में...
फिल्म में रघुवीर यादव और उनकी एयरपोर्ट सिक्योरिटी में लगी सीआईएसएफ टीम में ज्यादातर हरियाणवी हैं। रघुवीर भी तेरी भैंण की तेरी... बोलकर ही हरियाणवीपन दिखाने की कोशिश करते हैं पर असफल रहते हैं। असली हरियाणवी छाप तो हमारी फिल्मों में वो कैरेक्टर आर्टिस्ट ही ला पाया है जो 'दिल से में अमर वर्मा बने शाहरुख को थप्पड़ जड़ता है और 'रॉकस्टार में बस स्टैंड पर गिटार बजाते जर्नादन जाखड़ को।
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गजेंद्र सिंह भाटी

रविवार, 13 नवंबर 2011

अचरज भरे टिनटिन, स्नोई और हैडॉक

फिल्म: एडवेंचर्स ऑफ टिनटिन: सीक्रेट्स ऑफ यूनीकॉर्न
निर्देशक: स्टीवन स्पीलबर्ग
कास्टः जेमी बेल, एंडी सर्किस, डेनियल क्रेग, साइमन पेग, निक फ्रॉस्ट
स्टारः साढ़े तीन स्टार, 3.5


बहुत वक्त बाद स्टीवन स्पीलबर्ग का नाम बतौर डायरेक्टर बड़े स्क्रीन पर देखा। साथ में प्रॉड्यूसर बने पीटर जैकसन का भी। दोनों फिक्शन और कंप्लीट एंटरटेनिंग फिल्में बनाने वाले दिग्गज हैं। कोई शक नहीं कि 'द एडवेंचर्स ऑफ टिनटिन: द सीक्रेट्स ऑफ द यूनीकॉर्न’ में हम एक भी खामी नहीं ढूंढ पाते। शर्तिया कह सकता हूं कि परफॉर्मेंस कैप्चर एनीमेशन के जरिए बनी इस फिल्म के किरदार जितने एक्सप्रेशन दे पाते हैं उतना दुनिया के आधे से ज्यादा असल एक्टर्स भी नहीं देते। थॉम्पसन एंड थॉम्पसन ब्रदर्स (साइमन पेग और निक फ्रोस्ट) फनी हैं। इतने कि हमें किसी जिंदा जॉनी लीवर या राजपाल यादव की जरूरत हंसने के लिए नहीं पड़ती। इसमें इनका पर्स चोर के घर पहुंचकर मूर्खता करने वाला सीन कमाल है। सामने हजारों चोरी के पर्स सजे हैं और चोर के मुंह से खुद को क्लेप्टोमैनिया (चोरी की आदत) का मरीज बताने के बावजूद ये दोनों उसका मतलब कुछ और लगाते हैं। ये स्क्रीनप्ले की बारीकी और कसावट है। यही वजह है कि आप ये भी नहीं अंदाजा लगा पाते कि ये फिल्म टिनटिन की तीन बड़ी कॉमिक बुक्स कहानियों को मिलाकर बनाई गई है। फिल्म का फ्लो कमाल का है। बच्चे, बड़े और जवान सबको मूवी स्मार्ट लगती है। कैप्टन हैडॉक को अपने हाव-भाव, एक्सप्रेशन और आवाज देने वाले एंडी सर्किस वही हैं जिन्होंने 'द लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’ में गोलम के सबसे इंट्रेस्टिंग किरदार को आवाज दी थी। बहुत अच्छी फिल्म है, फैमिली फिल्म है, बच्चों को जरूर देखनी चाहिए।

एडवेंचर टिनटिन के
टिनटिन (जेमी बेल) बहुत यंग और बहादुर खोजी जर्नलिस्ट है। पूरे घर की दीवारें उसके अचीवमेंट की कतरनों से मढ़ी हुई हैं। इन अचीवमेंट्स में बराबरी का साथी है उसका बर्फ सा सफेद डॉगी स्नोई। इस यूरोपियन कस्बे की एक दोपहरी में टिनटिन एक लकड़ी की शिप 'यूनीकॉर्न’ का मॉडल खरीदता है। यहीं से विलेन इवान सेखरीन (डेनियल क्रैग) और एक और आदमी यूनीकॉर्न को पाने के लिए टिनटिन के पीछे पड़ जाते हैं। इस शिप में छिपाए किसी कागज को पाने के लिए सेखरीन टिनटिन को किडनैप कर एक जहाज में बंद कर देता है। यहां जहाज का असली कैप्टन हैडॉक (एंडी सर्किस) भी बंद है। पर नशे में धुत्त। फिर स्नोई संग दोनों भाग निकलते हैं और एक रेगिस्तान में पहुंच जाते हैं। हैडॉक को मृगतृष्णा की वजह से अपने पुरखों की कहानियां याद आने लगती हैं। उसे दिखता है कि 17वीं सदी में उसके पुरखे सर फ्रांसिस हैडॉक असली यूनीकॉर्न जहाज के कैप्टन थे और एक लुटेरे जहाज से लड़ते हुए उन्होंने खजाने से भरा ये जहाज समंदर में डुबो दिया। और उसकी लोकेशन तीन यूनीकॉर्न मॉडल में छिपा दी। यहां से टिनटिन और हैडॉक आगे बढ़ते हैं और सेखरीन का सामना करते हुए अपने एडवेंचर को अंजाम देते हैं।

सीन, स्टंट और किरदार
# एनीमेशन वर्क किस स्तर का है ये समझने के लिए वो सीन देख लेना काफी होगा जहां टिनटिन मोटरसाइकिल पर बैठ उड़ती चील का पीछा कर रहा है और बगार शहर की गलियों, तारों और छतों पर हैरतअंगेज ढंग से स्टंट कर रहा है।
# 'अवतार’ और 'अप’ के बाद अगर कोई अचरज दिलाने वाली स्मार्ट एनीमेशन और स्क्रीनप्ले फिल्म आई है तो वो ये है।
# काले-भूरे खतरनाक से बुलडॉग को डराता सफेद सा छोटा स्नोई कितना रियल लग सकता है, देखकर हैरानी होती है। बावजूद इसके सीन सॉफ्ट और चुस्त बना रहता है।
# टिनटिन का किरदार स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्मों के खोजी किरदारों सा ही लगता है। इसमें 'इंडियाना जोन्स’ के हैरीसन फोर्ड जब दुर्लभ आर्टिफेक्ट्स ढूंढने निकलता है तो कैसे इस प्रोसेस पर पग-पग पर खुद से सवाल-जवाब करता है और डिस्कस करता है। वही टिनटिन भी करता है। हर स्टेप पर खुद से सवाल-जवाब।
# जब आप एनीमेशन को और परखना चाहें तो रेगिस्तान में पहुंचे कैप्टन हैडॉक की गर्दन के बाल और हाथ की बनावट को देखिएगा। मैंने इतना इंसानी हाथ आज तक किसी एनीमेशन मूवी में नहीं देखा।

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गजेंद्र सिंह भाटी

शनिवार, 12 नवंबर 2011

रेनेसां पेंटिंग जैसी पर बेजान: तरसेम सिंह की इममॉर्टल

फिल्म: इममॉर्टल
निर्देशक: तरसेम सिंह धंडवर
कास्ट: हैनरी केविल, मिकी राउर्की, ल्यूक इवॉन्स, फ्रेडा पिंटो, स्टीफन डॉर्फ, जॉन हर्ट
स्टार: दो, 2.0

सुकरात की लाइन 'आत्मा सबकी अमर होती हैं, पर जो सदचरित्र होते हैं उनकी आत्माएं देवीय हो जाती हैं' से डायरेक्टर तरसेम सिंह अपनी फिल्म का आधार बनाते हैं। इंडिया मूल के हैं और अलग फिल्में बनाते हैं। न समझ आने वाले संकेतों, अब्सट्रैक्ट किरदारों और आर्टिस्टिक से फ्रेम वाली। समझना हो तो उनकी 2006 में आई फिल्म 'द फॉल' देख लीजिए। फिल्म जबरर्दस्त थी, पर आम दर्शकों की समझ से परे। खैर, जैसा उन्होंने खुद कहा था, ये फिल्म रेनेसां काल की पेंटिंग जैसी लगती है, पर इसी से दर्शक के लिए फिल्म के टाइम और कहानी को समझना कठिन होता जाता है। अगर कहूं तो इससे ज्यादा स्पष्ट फिल्म '300' थी। इस फिल्म में सबसे मजबूत पहलू है विलेन बने मिकी राउर्की, जो 'आइरन मैन 2' में वैंको के रोल में रेसट्रैक पर इलैक्ट्रिक चाबुक से कारों को पपीते की तरह काटते नजर आते हैं। 'इममॉर्टल्स' में अगर ये विलेन मजबूत है तो हीरो हैनरी कमजोर। एक तो फिल्म के स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स में जान नहीं है और दूसरा लड़ाई वाले सीन छोड़ दें तो हैनरी की एक्टिंग में गुस्सा और इंटेंसिटी नहीं है। जिसने भी ड्रेस और सेट डिजाइन किए हैं वो बहुत बड़ा कामचोर रहा होगा। फिल्म को हम इंडिया में फ्रेडा पिंटो के एंगल से कनेक्ट कर रहे हैं, पर उन्हें देखकर आप पक जाते हैं। आपको किसी स्कूली स्टेज प्ले की रिहर्सल भी शायद इस फिल्म से बेहतर मिलेगी। रही-सही कसर थ्रीडी का अतिरिक्त अंधेरा पूरा कर देता है। काश, जैसे उम्दा कुछ बेरहमी के सीन है, उतनी ही पूरी फिल्म भी हो पाती। माइथोलॉजिकल फिल्मों को फॉलो करने वाले एक बार देख सकते हैं, बाकी न देखें तो अच्छा होगा।

इममॉर्टल होने की कहानी
ग्रीक माइथॉलजी में कहीं हजारों साल पहले की बात है। किंग हाइपरियॉन (मिकी राउर्की) ने मानवता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। उसे उस धनुष की तलाश है जिसे युद्ध के देवता एरस ने बनाया था। धनुष मिलेगा तो वह टाइटन्स नाम के उन बर्बर लड़ाकों को कैद से आजाद करवा देगा जिन्हें देवताओं ने कैद कर दिया था। इनके आजाद होने पर हाइपरियॉन अजेय हो जाएगा। वहीं राज्य में थीसियस (हैनरी केविल) रहता है। गरीब, बहादुर, निडर। उसे बचपन से ही एक बुजुर्ग के वेश में रहने वाले देवता ज्यूस (जॉन हर्ट) ने तैयार किया है। पर ये थीसियस पर है कि वो मानवता की इस लड़ाई में नेतृत्व करना चाहता है कि नहीं। पर जब हाइपरियॉन उसकी आंखों के सामने उसकी मां का गला रेत देता है तो उसकी दिशा बदल जाती है। इस लड़ाई में उसके करीबी सहयोगी हैं भविष्यवाणी करने वाली ओरैकल पायेद्रा (फेडा पिंटो) और एक चोर स्टावरोस (स्टीफन ड्रॉफ)।

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गजेंद्र सिंह भाटी

बुधवार, 9 नवंबर 2011

देखें अपंग विंटर की हेल्दी कहानी

फिल्मः डॉल्फिन टेल (अंग्रेजी)
निर्देशकः चार्ल्स मार्टिन स्मिथ
कास्टः नाथन गैंबल, कोजी जूल्सडॉर्फ, हैरी कॉनिक जूनियर, मॉर्गन फ्रीमैन, एश्ले जूड, ऑस्टिन स्टोवल
स्टारः साढ़े तीन स्टार, 3.5

जापान में हर साल होते 20,000 मासूम डॉल्फिनों के गुप्त नरसंहार पर बनी थी 2009 में आई ऑस्कर विनर डॉक्युमेंट्री ' कोव'। कोव मतलब आड़, ओट, खंदक या खोह। इस फिल्म के डायरेक्टर और नेशनल जियोग्रैफिक के फोटोग्रफर लूई फिहोयो ने शुद्ध पानी में रहने वाली इस बेहद सेंसेटिव और सोशल मछली की करूण कहानी पर अदभुत फिल्म बनाई। दो साल बाद डायरेक्टर चार्ल्स मार्टिन स्मिथ लेकर आए हैं एक सच्ची घटना पर बनी 'डॉल्फिन टेल'। फिल्म बेहद पवित्र, सरल और सिनेमैटिकली संपूर्ण सी है। असल में विंटर नाम की वो डॉल्फिन आज भी जिंदा है और स्वस्थ है। शायद दुनिया की अकेली ऐसी डॉल्फिन जो अपनी तैरने वाली पूंछ कटने पर भी जिंदा है और जिसे कृत्रिम पूंछ लगाई गई। बच्चे खासतौर पर इस फिल्म को देखें। पानी और मछलियों को छूने के उस चाव को महसूस करने के लिए जो शायद बचपन वाले ही कर पाते हैं। मासूम बने रहने के लिए देखें। फिल्में सार्थक होती हैं ये मानने के लिए देखें। फैमिली के बड़े भी साथ इसलिए देखें क्योंकि ऐसी हेल्दी मूवीज बहुत कम आती हैं। ये कोई 'लूट', 'बॉडीगार्ड', 'रेडी' और 'गेम' नहीं है, पर इतना दावा है कि पूरे वक्त आप गाल पर अपनी कलाई टिकाए फिल्म में डूबे रहेंगे।

डॉल्फिन की टेल यूं है...
सोयर नेल्सन (नाथन गैंबल) दिखने में 9-10 साल का लड़का है। वैसे तो छोटे हैलीकॉप्टर बनाने का शौकीन है पर अपने स्वीमिंग चैंपियन कजिन ब्रदर काइल (ऑस्टिन स्टोवल) से बहुत प्रेरित है। चाहता है कि काइल ओलपिंक्स तक जाए। मगर काइल फौज में चला जाता है। अब बुझा-बुझा रहने वाला सॉयर एक दिन समंदर किनारे एक घायल बॉटलनोज डॉल्फिन को देखता है। उसका फंदा काटता है और सहलाता है। उसके बाद से उस मरीन हॉस्पिटल जाने लगता है जहां उसे रखा गया है। वैसे तो यहां के डॉक्टर क्ले (हैरी कॉनिक जूनियर) किसी सिविलियन को आने नहीं देते, पर चूंकि ये डॉल्फिन सॉयर को देख खुश होती है इसलिए उसे आने देते हैं। डॉ. क्ले की बेटी हैजल (कोजी जूल्सडॉर्फ) इसका नाम विंटर रखती है। घाव ज्यादा होने के कारण विंटर की पूंछ काटनी पड़ती है। कहानी आगे बढ़ती है तो विंटर को कृत्रिम पूंछ दिलाने के लिए, इस मरीन हॉस्पिटल को बिकने से रोकने के लिए और बिना अंगों के लोगों को प्रेरणा देने के लिए। फिल्म सच्ची कहानी पर बनी है।

मनोरंजन का अलग पैमाना
'डॉल्फिन डेल' जैसी फिल्मों का जॉनर बिल्कुल अलग होता है। ये पूरी तरह फिल्मी होती हैं लेकिन असली कहानी के हूबहू करीब। फिल्म के आखिर में क्रेडिट्स के साथ असली विंटर के विजुअल्स दिखाए जाते हैं। कि कैसे 2005 में वह फ्लोरिडा के तट से बचाई गई, कैसे पूंछ काटने के बाद वह बची और कैसे इस पूरे अभियान से फ्लोरिडा के लोग, विकलांग सैनिक और बच्चे जुड़े। थ्रीडी की वजह से ऐसे लगता है जैसे ये कहानी असल में हम होती देख रहे हैं। सॉयर का रोल करने वाले नाथन गैंबल 'ऑगस्ट रश' के मासूम से चाइल्ड एक्टर फ्रेडी हाइमोर की याद दिलाते हैं। हर एक्टर का इस फिल्म में संतुलित रोल है। इस तरह की फिल्मों को बना पाना इसलिए बहुत मुश्किल होता है क्योंकि इनमें इमोशन उभारने में सबसे ज्यादा जोर आता है। फिल्म के डायलॉग भी इसी तर्ज पर कम से कम शब्दों वाले और प्रभावी हैं। सबसे ज्यादा बोलते हैं तो मूवी के विजुअल्स।*************
गजेंद्र सिंह भाटी

प्युर्ते रिको की रम से लिखा नॉवेल

फिल्मः रम डायरी (अंग्रेजी)
निर्देशकः ब्रूस रॉबिनसन
कास्टः जॉनी डेप, एरॉन एकार्ट, माइकल रिस्पोली, जियोवानी रिबिसी, एंबर हर्ड
स्टारः ढाई स्टार, 2.5

ऐसी जो डायरी वाली फिल्में होती हैं, उनकी कोई मनचाही कहानी और अंत नहीं होता। ये दर्शक के भीतर छिपे नॉवेल पढऩे के इंट्रेस्ट और कुछ लिखने के लिए प्रेरणा ढूंढने की कोशिशों के कारण बहुत अच्छी लगती हैं। चाहे वो डायरेक्टर वॉल्टर सालेस की कम्युनिस्ट लीडर चे गुवेरा पर बनाई फिल्म 'मोटरसाइकल डायरीज' हो या 1961 में लिखे हंटर थॉम्पसन के नॉवेल पर बनी ये फिल्म 'द रम डायरी'। डायरेक्टर ब्रूस रॉबिनसन 19 साल बाद डायरेक्शन में लौटे हैं और शायद यही वजह है कि फिल्म में गहराई है, प्युर्ते रिको का खुरदरापन, धूल और नमी है पर कहीं-कहीं भटकाव है। तब के वक्त, जर्नलिज्म के हालात, निक्सन और अमेरिकी पूंजीवाद के रेफरेंस साफ दिखते हैं। पत्रकारिता में एड रेवेन्यू के लिए समस्याएं नहीं पॉजिटिव स्टोरी लाने की बात करता एडिटर-इन-चीफ है, जो लोगों को राशिफल बताकर राजी है। रियल एस्टेट माफिया प्युर्ते रिको के सुंदर तटों और टापुओं पर होटलें बनाने के प्लैन बना रहे हैं, उनके पास सारे साधन है और जब तक पॉल कैंप की कलम जागती है तब तक अखबार बंद हो जाता है। जॉनी डेप और जियोवानी रिब्सी को एक फ्रेम में देखना सुखद रहा। दोनों असाधारण एक्टर हैं। अफरा तफरी के सीन में ' नाइंथ गेट' के खोजी कॉर्सो की तरह लगते हैं। बाकी फिल्म में बॉब के मुर्गे की लड़ाई है, रम के जाम है, सिगरेट पर सिगरेट है और धूल मिला पसीना है। ढाई स्टार फिल्म की विस्तृत पहुंच नहीं हो पाने की वजह से है, फिल्म में किसी कमी के कारण नहीं।


रम डायरी में क्या
पॉल कैंप (जॉनी डेप) न्यू यॉर्क टाइम्स का जर्नलिस्ट है। 1960 के करीब आइजनहावर प्रशासन के वक्त की बात है। न्यू यॉर्क और अमेरिका से ऊबकर वह प्युर्ते रिको का रूख करता है। वहां एक छोटे अखबार 'द सेन जुआन स्टार' में काम करने के लिए। यहां की खुरदरी जमीन और सच्चाइयों से उसका वास्ता होता है। उसकी पत्रकारी कलम बोलना चाहती है, पर बोल नहीं पाती। बिजनेसमैन सैंडरसन (एरॉन एकार्ट) उसे अपने रियल एस्टेट प्रोजेक्ट में फायदा पहुंचाने के लिए छद्म लेख लिखने को कहता है। प्युर्ते रिको में रम की आदत पालने के अलावा उसका आकर्षण सैंडरसन की मंगेतर शेनॉल्ट (एंबर हर्ड) की तरफ होता है। वह नॉवेल लिखना चाहता है। उसके अनुभवों में अखबार का फोटोग्रफर बॉब साला (माइकल रिस्पॉली) साथी है। मोबर्ग (जियोवानी रिब्सी) भी यहां पूर्व रिलीजियस कॉरसपोंडेंट था, पर रम और जर्नलिज्म की रिएलिटी ने डुबो दिया। कुल मिलाकर यहां के अनुभव पॉल के नॉवेल और उसके भविष्य के जर्नलिस्टिक सिद्धांतों का आधार बनते हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

टावर में पड़ गया हंसी का डाका

फिल्मः टावर हीस्ट (अंग्रेजी)
निर्देशकः ब्रेट रेटनर
कास्टः बेन स्टेलर, एडी मर्फी, एलन एल्डा, टी लियोनी, केजी एफ्ले, मैथ्यू ब्रॉडरिक, माइकल पेना, गैबोरी सिडबी
स्टारः तीन स्टार, 3.0


किसी फिल्म में जब बेन स्टेलर, एडी मर्फी और मैथ्यू ब्रॉडरिक जैसे अलग-अलग किस्मों वाले कॉमिक एक्टर एक साथ हों तो फिल्म मामूली नहीं हो सकती। ये लोग अकेले कांधों पर फिल्में चला ले जाते हैं। 'टावर हीस्ट' अच्छी फिल्म है। दर्शकों को खुद से जोड़े रखती है। हंसाती है। एक्साइट करती है। रात के शो में मुंडे चिल्ला-चिल्लाकर बेन स्टेलर के कैरेक्टर से कह रहे थे कि 'मार गोल्फ स्टिक ऑर्थर की सोने की फरारी कार पर। शीशा तोड़ दे। तोड़ दे। बुड्ढे ने बड़ा धोखा किया सारे स्टाफ के साथ।' ठंडा पहलू ये है कि कहानी में 'ओशियंस इलेवन' जैसी बहुत की हॉलीवुड मूवीज के आजमाए प्लॉट और सब-प्लॉट हैं। खास है ऑस्कर के लिए नामित फिल्म 'प्रेशियस' की लीड अश्वेत अदाकारा गैबोरी सिडबी का कॉमिक रोल में होना। उनका अच्छा साथ देते हैं माइकल पेना, अपने भोले एशियाई चेहरे के साथ। एडी मर्फी शुरू के दो-तीन सीन में तो बैकग्राउंड में ही बड़बड़ाते पड़ोसी बने दिखते हैं। ये राहतभरा लगता है कि सीन में उन्हें ठूंसा नहीं जाता। उनका सटका हुआ भेजा यहां भी काम करता है। उस सीन में जब डकैती में शामिल होने के लिए वह शर्त रखते हैं कि बाकी चारों मेंबर मॉल में से 15 मिनट में 50 डॉलर की कोई चीज चुराकर लाए। फिल्म में एक-आध डायलॉग 'ए' सर्टिफिकेट वाले हैं, जो वैसे काफी स्मार्ट, फनी और नॉन-वल्गर हैं। फ्रेंड्स लोग जा सकते हैं। खूब एंजॉय करेंगे।

कहानी यूं है
न्यू
यॉर्क की इस फैंसी टावरनुमा ईमारत में वॉल स्ट्रीट का राजा ऑर्थर शॉ (एलन एल्डा) रहता है। बिल्डिंग के मैनेजर जॉश कोवेक्स (बेन स्टेलर) का काम पिछले एक दशक से भी ज्यादा वक्त में बेदाग रहा है। यहां का पूरा स्टाफ उम्दा काम करता है। पर भूचाल तब आता है जब ऑर्थर को दो बिलियन डॉलर की धांधली के आरोप में पेंटहाउस में नजरबंद कर दिया जाता है। एफबीआई एजेंट क्लैयर डेनहम (टी लियोनी) जॉश को बताती है कि अदालत में ऑर्थर का दोषी होना तय है और उसने बिल्डिंग स्टॉफ की पेंशन और इनवेस्टमेंट तक डकार ली है। पर कहीं उसने बहुत सारे पैसे छिपाकर रखे हैं। इस धोखे से नाराज जॉश ऑर्थर की आखिरी अदालती पेशी से पहले उसके पेंटहाउस में डकैती का प्लैन बनाता है। इसमें वह मदद लेता है पड़ोस में रहने वाले छोटे-मोटे चोर स्लाइड (एडी मर्फी) की। साथ हैं दरबान चार्ली (केजी एफ्लेक), दिवालिया वॉल स्ट्रीट इनवेस्टर फिट्जहग (मैथ्यू ब्रॉडरिक), लिफ्टमैन एनरीक डेवरॉ (माइकल पेना) और जमेका मूल की मेड ओडेसा (गैबोरी सिडबी)

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गजेंद्र सिंह भाटी

सोमवार, 7 नवंबर 2011

मुद्दे उठाती स्मार्ट फिक्शन मूवी

फिल्मः इन टाइम (अंग्रेजी)
निर्देशकः एंड्रयू निकॉल
कास्टः जस्टिन टिंबरलेक, अमांडा सेफ्राइड, एलेक्स पेटीफर, मेट बोमर, सिलियन मर्फी, विंसेंट कार्थाइजर
स्टारः तीन स्टार, 3.0

अफ्रीकन-कैनेडियन नील ब्लोमकांप ने 2009 में 'डिस्ट्रिक्ट 9' जैसी बेहद अदभुत, अनोखी, रियलिस्टक और इनोवेटिव एलियन फिल्म रची। इसमें आज के दौर के पलायन, विस्थापन, एंटी-गवर्नमेंट स्ट्रगल और अंतरराष्ट्रीय हमलों जैसे सीरियस मुद्दे थे। पर एंटरटेनमेंट के साथ। ये सब जेम्स केमरॉन की 'अवतार' में भी था। वीएफएक्स क्रांति, अच्छी स्क्रिप्ट, मुद्दों और मनोरंजन के साथ। अब आई है 'इन टाइम'। राइटर-डायरेक्टर एंड्रयू निकॉल पर हालांकि आरोप लगे कि ये फिल्म बरसों पहले लिखी एक शॉर्ट स्टोरी से प्रेरित है, पर आगे बढ़ते हैं। फिल्म में खास है टाइम को करंसी बनाकर वर्ल्ड की मौजूदा असमानताओं को देखना। कैपिटलिस्ट सिस्टम पर कमेंट करना। जिन्हें आप मौजूदा 'ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट' जैसे आंदोलन से जोड़कर भी देख सकते हैं। जिन्हें आप फ्रांस में बीते कुछ घंटों में दिए इंडियन पीएम मनमोहन सिंह के बयान से जोड़कर भी देख सकते हैं कि महंगाई बढऩे का मतलब ये है कि लोग समृद्ध हो रहे हैं, उनकी खर्च करने की क्षमता बढ़ रही है। यहां जस्टिन टिंबरलेक 'सोशल नेटवर्क' और 'फ्रेंड्स विद बैनिफिट्स' वाले नहीं लगते। फिल्म में अपनी मरी मां की लाश पर उनका फफक-फफक कर रोना यूं ही नहीं आ जाता। यहां तक कि गैंगस्टर फोर्टिस बने एलेक्स पेटीफर भी हर सीन में जान डाल देते हैं। न जाने अमेरिकी फिल्मों में उनका सही इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ। सिलियन मर्फी टाइमकीपर के रोल में बहुत दिन बाद फिल्मों में ठीक-ठाक दिखे हैं। 'इनसेप्शन' की तरह ये बिल्कुल अलग कल्पना वाली फिल्म है। हालांकि इसमें उतना मनोरंजन नहीं है, पर इतने उलझे सब्जेक्ट को सरल से सरल बनाकर ही फिल्म नंबर ले जाती है। क्लाइमैक्स किसी नतीजे पर नहीं पहुंचाता, एक नई शुरुआत लगता है। समझने के लिए मूवी में काफी कुछ है। बिल्कुल देख सकते हैं।

टाइम करंसी की कथा
कहानी थोड़ी काल्पनिक है, ध्यान से समझिएगा। 28 साल का विल सालेस (जस्टिन टिंबरलेक) ऐसे भविष्य में रहता है जहां उम्र करंसी का काम करती है। इंसान को 25 साल का होने के बाद और टाइम कमाना होता है वरना एक साल में मौत हो जाती है। हर सोशल क्लास टाइम जोन में रहती है। डेटन में गरीबों की बस्तियां हैं, वहीं न्यू ग्रीनविच में रईसों ने अपार टाइम जुटा रखा है। फैक्ट्री वर्कर विल, बार में हैनरी हैमिल्टन (मैट बोमर) नाम के आदमी को टाइम लूटने वाले गैंगस्टर फोर्टिस (एलेक्स पेटीफर) से बचाता है। हैनरी के पास 100 से ज्यादा साल हैं। वह विल को बताता है कि दुनिया में सबके लिए टाइम है पर अमीरों ने अमर होने के लिए उसे जमा कर रखा है। इसके पीछे सोच है 'फॉर फ्यू टु बी इममॉर्टल, मैनी मस्ट डाय।' रात में विल को सारा टाइम ट्रांसफर करके हैनरी मर जाता है। अब इस असमान सिस्टम को क्रैश करने और अपना बदला लेने के लिए विल न्यू ग्रीनविच जाता है। पुलिस यानी टाइमकीपर रेमंड लीयोन (सिलियन मर्फी) उसके पीछे है। न्यू ग्रीनविच में एक कैसीनो में विल का सामना टाइमलोन देने वाले बड़े रईस फिलीप वाइज (विंसेंट कार्थाइजर) और उसकी बेटी सिल्विया (अमांडा सेफ्राइड) से होता है।

इस दुनिया की झलकियां
# हर इंसान की त्वचा पर हरे अंकों में टाइम वॉच चलती है। यही उम्र है, यही करंसी।
# एक-एक दिन के मोहताज विल के पास 100 से ज्यादा साल देखकर दोस्त कहता है 'वेयर डिड यू गेट दिस' 'यू नो देट दिस विल गेट यू किल्ड'
# टाइम जोन के बॉर्डर पर टोल टैक्स की तरह एक महीना, दो महीना और एक साल तक डिपॉजिट करना पड़ता है।
# जिस गंदली बस्ती में कुछ घंटों या दिनों की चोरियां होती हैं, वहां 100 साल चोरी हो गए तो टाइमकीपर (पुलिसवाले) जांच कर रहे हैं।
# कार खरीदने की रेट है 59 साल प्लस टैक्स। डिलीवरी चार्ज अलग।
# सिंपल, सोबर, आधुनिक, सॉफिस्टिकेटेड और एलीट जमाने को दिखाने के लिए शहरों, कारों और ब्रिजों की डिजाइन स्लीक और सपाट सी है।
# आज वाले हालात हैं। बस्तियों में तकरीबन सारी आबादी बसी है और उनके हिस्से का टाइम यानी संपत्ति और भौगोलिक इलाका चंद एक-दो पर्सेंट रईसों के पास है।
# यहां होटलों में और पार्टियों में म्यूजिक वैसा बजता है जैसा मुंबई के ताज लैंड्स एंड या दूसरे फाइव स्टार होटलों में।

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गजेंद्र सिंह भाटी

शनिवार, 5 नवंबर 2011

क्या हम लुटने के लिए बने हैं

फिल्मः लूट
निर्देशकः रजनीश ठाकुर
कास्टः गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, प्रेम चोपड़ा, महेश मांजरेकर, दिलीप ताहिल
स्टारः दो स्टार, 2.0

ऑडी का रिबन हटने का इंतजार करते आपके कदम 'लूट' के पोस्टर के आगे ठिठक जाते हैं। सब किरदार हाथ में पटाखे थामे पोज दे रहे हैं। फिल्म दीपावली रिलीज के लिहाज से प्लैन की गई थी, हो नहीं पाई। ये फिल्म इन दिनों आ रही ज्यादातर मसाला फ्लॉप फिल्मों का मसाला लेकर आई है। अफसोस होता है कि करोड़ों रुपये और बेशकीमती संसाधन खर्च होते हैं और दर्शक ढाई घंटे बाद ठगा हुआ महसूस करते हैं। 'लूट' में सबसे बेस्ट है इसके डायलॉग। इन्हें बोलने में अव्वल रहते हैं अकबर के किरदार में जावेद जाफरी जो 'शोले' में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। बेहतरीन। उसके बाद हैं पंडित बने गोविंदा। ऐसा लगता है कि 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' में उनके नॉर्थ इंडियन डायलॉग फैंकू रोल की तर्ज पर ये रोल बुना गया। ये और बात है कि कैमरा और डायरेक्टर इन डायलॉग और सिचुएशंस को उतने ड्रमैटिक ढंग से नहीं कैप्चर कर पाते, जितना एक औसत फिल्म में भी होता है। कहीं शॉट ओके करने में, तो कहीं पटाया की गलियों में घूमते मीका और किम शर्मा को हैंडल करने में नए डायरेक्टर रजनीश ठाकुर साफतौर पर नौसिखिया लगते हैं। हां, जब रवि किशन गुलजार की लिखी मिर्जा गालिब पढ़ते हैं और प्रेम चोपड़ा 'पाकीजा' और 'वो कौन थी' जैसी फिल्मों की डीवीडी मंगवाते दिखते हैं तो लगता है कि ये फिल्ममेकर डफर तो नहीं हो सकता। बस उनका कॉमिक सेंस फिल्मी सेंस में कैरी नहीं हो पाता। क्या हमारे पास ऐसी कहानियों की कमी पड़ गई है जिसमें चंद रुटीन हीरो चोरी-चकारी और रास्कलगिरी न करते हों और जिन्हें पटाया बैंकॉक न जाना पड़ता हो? लगता तो यही है। फिल्म के म्यूजिक और एडिटिंग से बिल्कुल भी उम्मीद न करें। जरा सी डायलॉगबाजी पसंद करते हों तो जा सकते हैं, अन्यथा ये एक कंप्लीट एंटरटेनर नहीं है।

क्या है लूट की कहानी
ये ऐसी कहानी है जिसके राइटर का नाम भी ताउम्र दर्शकों को पता नहीं चल पाता। आगे बढ़ें। बिहारी एक्सेंट बोलते पंडित (गोविंदा) और कुछ सूरमा भोपाली-हैदराबादी सी जबान में अकबर (जावेद जाफरी) मुंबई में चोरियां करते हैं, बाटलीवाला (दिलीप ताहिल) के लिए। चोरियां कम होती हैं, गलतियां ज्यादा। इन्हें मूर्ख समझ बाटलीवाला अपने आदमी बिल्डर (सुनील शेट्टी) के साथ एक चोरी करने पटाया, बैंकॉक भेजता है। पटाया से परिचित मूर्ख से गुंडे विल्सन (महाक्षय चक्रवर्ती) को भी बिल्डर साथ ले लेता है। यहां ये चोरी गलती से कुख्यात पाकिस्तानी डॉन लाला उर्फ तौफीक उमर भट्टी (महेश मांजरेकर) के यहां कर लेते हैं। मुझे माफ करिएगा पर मैं कहानी का ये मोड़ भी बता रहा हूं। चोरी के इस माल में वो टेप भी होती हैं जिनमें बैंकॉक के सबसे बड़े लेकिन बुजुर्ग होते डॉन खान साहब (प्रेम चोपड़ा) की हत्या की साजिश रिकॉर्ड है। अब इन चारों के पीछे लाला के आदमी, इंडियन इंटेलिजेंस एजेंट वीपी सिंह (रवि किशन) और कुछ दूसरे लोग पड़े हैं। जाहिर है इन्हें बच निकलना है।

डायलॉग बाजी वैसे बुरी नहीं
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अगर अपने ही इज्जत नहीं करेंगे तो बाहर वाले क्या खाक करेंगे, और बिना इज्जत के भाईगिरी वैसे ही है जैसे बिना मीना कुमारी के 'पाकीजा।'
# अबे इसकी भैंस की तिल्ली मारूं।
# जब तिल्ली से काम चल सकता है तो तलवार की क्या जरूरत है।
# (तुम जानते नहीं मैं कौन हूं?) ... चोरी क्या जान पहचान के लिए की जाती है क्या।
# पचास साल पहले हिंदुस्तान को दिलाई गांधी जी ने आजादी और पचास साल बाद हिंदुस्तान की हो गई 100 करोड़ आबादी।
# लोग तो खजूर में अटकते हैं ये तो खजुराहो में अटक गए।
# गन्ना हिला के लपुझन्ना बना गई लौंडिया। (चीप डायलॉग्स वाले एक लंबे सीन में से एक नमूना)
# सूचना के लिए आभारी हैं, मगर हम चार इस शहर पर भारी हैं।
# मुकर जाने का कातिल ने अच्छा बहाना निकाला है, हर एक को पूछता है इसको किसने मार डाला है।


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गजेंद्र सिंह भाटी

न मिलें तो ही अच्छा

फिल्मः मिलें मिलें हम
निर्देशकः तनवीर खान
कास्टः चिराग पासवान, कंगना रनाउत, नीरु बाजवा, सागरिका घाटके, कबीर बेदी, पूनम ढिल्लों
स्टारः आधा स्टार, 0.5


'मिलें न मिलें हम' उन चंद फिल्मों में से है, जिन्हें मैं जिंदगी में दोबारा नहीं देखना चाहूंगा। किसी भी हाल में नहीं। कहानी किसी कन्फ्यूजन भरे कारखाने में मैन्युफैक्चर हुई लगती है। चिराग (चिराग पासवान) के पिता (कबीर बेदी) और मां (पूनम ढिल्लों) में बहुत पहले तलाक हो गया था। अदालत ने कहा था कि बच्चा छुट्टियों में एक महीने मां के पास रहेगा, एक महीने पिता के पास। दोनों संपन्न हैं। पिता अपने दोस्त की बेटी (नीरू बाजवा) से चिराग को ब्याहना चाहता है तो मां अपनी दोस्त की बेटी (सागरिका घाटके) से। पर दोनों से बचने के लिए वह झूठ ही कह देता है कि एक स्ट्रगलिंग एक्ट्रेस (कंगना रनाउत) से प्यार करता है। क्लाइमैक्स में वह ऑल इंडिया टेनिस चैंपियनशिप भी जीतता है। खैर, ये तो रही कहानी। लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम में खड़े मोम के पुतले भी चिराग पासवान से ज्यादा बेहतर एक्ट कर पाते होंगे। थोड़ा कहूंगा ज्यादा समझिएगा। पहली बार फिल्म में कलर तब आता है जब नीरू बाजवा के सलवार-सूटों और पंजाबियत की एंट्री होती है। फिर कंगना भी कुछ धक्का लगाती हैं। इसके बाद कुछ नहीं।
# हाय, हैलो, गुडमॉर्निंग, नाश्ता, ऑफिस, टेनिस प्रैक्टिस, चौड़े-चौड़े फोन, सिलिकन फेस और इमैच्योरिटी। फिल्म में लेखन और डायरेक्शन के नाम पर यही दिखता है।
# ऐसा लगता है कि फिल्म दर्शकों के लिए नहीं चिराग पासवान को लॉन्च करने के लिए बनाई गई है। फिल्म ये स्थापित कर पाती है कि चिराग की जिंदगी में टेनिस बहुत अहम हुआ। उसके मां-बाप के बीच की दूरी लॉजिकल लगती है और ही कंगना के साथ उसका प्यार स्थापित हो पाता है।
# इमोशनल कहानी का दावा करती इस मूवी में जब एक्टर्स के चेहरे पर मूवी में एक भी आंसू नहीं छलकता तो दर्शकों के कहां से आएगा।

आखिर में...
न चिराग के आगे मेहरा लगाने से कुछ हुआ, न टेनिस जैसे रईस गेम का सॉफिस्टिकेशन लाने से कुछ हुआ, न नीरू बाजवा का पंजाबी और सागरिका घटके का फॉरेन एंगल लाने से कुछ हुआ, न कंगना रनाउत को गजनी की स्ट्रगलिंग एड एक्ट्रेस जैसा दिखाने से कुछ हुआ, न राहत फतेह अली खान से गाना गवाने से कुछ हुआ और न ही आखिर में स्क्रीन पर फिल्मों के ट्रेड एनेलिस्ट तरन आदर्श को दिखाने से कुछ हुआ। इरादे और मेहनत हमेशा सुलझे हुए रहें तो फिल्म बनाने वाले के लिए भी ठीक रहता है और देखने वाले के लिए भी।

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गजेंद्र सिंह भाटी