सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

आत्मा की शान्ति में नफा नुकसान...'विशाल भारद्वाज की नीली छतरी'


रस्किन बांड ने एक कहानी लिखी ' द ब्लू अम्ब्रेला '। बाल फिल्मों के राजकोष को समृद्ध करते हुए फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने इस पर 2007 में एक फ़िल्म बनाई। नीली छतरी वाली अतिसुंदर फ़िल्म जो उनकी पूर्व फिल्मों के सामने इक्कीस ही ठहरती है उन्नीस नही।

हिमालय के उत्तर में बसे एक छोटे से गाँव की कहानी है। बर्फ़ीले पहाड़ों और हरी जाजम से ढका ......गाँव क्या है, धरती पर जन्नत है। लोग यहाँ सादगी का रसमय जीवन जीते हैं। इस रस के इर्द -गिर्द.... सुन्दरता, लोभ, प्रेम, गर्व, इच्छा और त्याग के मानवीय भावों के गुण-दोष भी चिपकते रहते हैं।

" मेरा टेसू यहीं अड़ा ...खाने को माँगे दही-बड़ा " गीत के साथ फ़िल्म का फीता घूमता है। खुशनुमा चहकती बाल नायिका बिनिया और गाँव के बच्चे यहाँ के सामूहिक धार्मिक आयोजन के लिए गली-गली, घर-घर नाचते-गाते चंदा माँग रहे हैं। महानगरों और उनकी प्रतिलिपि बनने की कोशिश में लगे छोटे शहरों में आज कथित विकास के साथ आपसी मौन और असंवाद की स्थिती है। मगर इस गाँव की गलियों की ही तरह पूरे भारत के ग्रामीण समाज में ऊर्जा और मुखर संवाद कायम है।

बच्चों की इस सामूहिक उछल-कूद के कुछ रूप आपको दिल्ली की गलियों में मिल जायेंगे। जन्माष्टमी की संध्या पर बच्चे ढोलकी लेकर " हाथी-घोड़ा पालकी ..जय कन्हैया लाल की " गाते-बजाते निकल पड़ते हैं। उफनते उत्साह और आनंद के साथ ढोलकी पर मासूम हाथों की थाप और जोर पकड़ती जाती है। नन्हे कंठों से निकलती जयकारे की आवाज निरंतर बढ़ती रहती है। दाँए-बाँए भौंचक खड़े पढ़े-लिखे नौजवान बगलें झाँकते नजर आते हैं। अपनी दार्शनिकता वश ......सामाजिक व्यवहार से दूर और महत्वाकांछी मौन के पास।
'ब्लू अम्ब्रेला' का सबसे रोचक किरदार नंदकिशोर खत्री उर्फ़ नंदू है। अधेड़ उम्र के इस परचूनिए की भूमिका पंकज कपूर ने निभाई है। नंदू का बचपनी लोभ उम्र के इस पड़ाव पर भी ठहरा हुआ है। जो रंग और खिलौने बच्चों को ललचाते हैं वे नंदू का सुख-चैन है। वह गाँव में सब को बड़ी आसानी से उधार देता है ताकि लौटा नही पाने की एवज में कुछ और ले सके। जैसे ..कोई दूरबीन या छतरी या कुछ और.... ।

गाँव में रात को माता का जागरण है। "कह दो ना , कह दो ना ...यू आर माय सोनिया " की तर्ज पर माता के भजन गाये जा रहे हैं। नंदू की नाक प्रसाद में बनी मिठाई पर टिकी है। छिप कर मिठाई खा रहे बच्चे से छीनकर वह ख़ुद खा लेता है। और अब उसकी आनंद-अनुभूति देखने लायक है।
बिनिया हिमाचल के इन हरे-भरे पहाड़ों पर अपने पशु चराती है। एक बार उसकी नज़र लकड़ी के बने एक बेहद सुंदर नीले जापानी छाते पर जा टिकती है। छाताधारी जापानी पर्यटक महिला की नज़र भालू के दो पंजों से बने ताबीज़ पर चली जाती है। छाता मनोरम है ...और बिनिया का ताबीज़ अनिष्ट से बचाने वाला शुभ जंतर.... । थोड़ी दुविधा के बाद बिनिया जंतर देकर छाता ले लेती है। नीली छतरी के साथ इस बच्ची के प्रकृति संग खेलने-कूदने के दृश्य ऐतिहासिक और विहंगम हैं।

छाता बेहद सुंदर है। गाँव की औरतों और नंदू का दिल ईर्ष्या से भरा है। लेकिन बिनिया बेहद खुश है। नंदकिशोर के लालच और झाँसे बिनिया को नहीं ललचा पाते हैं। फ़िल्म में नंदू की बेसब्री का चित्रण कमाल का है। नंदू के मानस में झाँकता एक संवाद देखिये .....उसकी दुकान में काम करने वाला चालाक लड़का राजाराम पूछता है ......" चाचा छतरी की लेकर कोई फ़ायदा होगा क्या ?" अब जरा जवाब सुनिए ...." इन्द्रधनुष को देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पानी में कागज़ की नाँव तैरा के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..पहाड़ों के पीछे ..सूरज को डूबते देख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ऐ ..तेरे जैसे निखट्टू को काम पे रख के कोई फ़ायदा होता है क्या ? ..आत्मा की सांति में नफा - नुस्का नहीं देखा जाता । ....कोई पिछले ही जनम का सम्बन्ध है । .....छतरी और खत्री का।

पशु चराने के दौरान एक दिन बिनिया की छतरी गुम हो जाती है। सुध-बुध खोई बच्ची को "गाँव के ईर्ष्यालु-छाता गुमने पर खुश होने वाले लोग" व्यंग्यमय सहानुभूति देते हैं। मगर बिनिया एक साहसी और चतुर लड़की है। गाँव के कोतवाल की दुलारी बिनिया उसके साथ नंदू की दुकान पहुँच जाती है। पुलिस तलाशी लेती है , पर कुछ मिल नहीं पाता है। अपमानित होने का ढोंग कर नंदू इकट्ठे गाँववालों के सामने प्रण लेता है कि "जब तक ऐसा का ऐसा छाता नहीं खरीद लेता ...अचार नहीं चखुंगा। " फ़िल्म का यह दृश्य बड़ा ही रोचक बन पड़ा है।

फ़िल्म में पंकज कपूर बताते हैं कि अभिनय किसे कहते हैं। " रुई का भार से लेकर...धरम तक " आते-आते उन्होंने फ़िल्म उद्योग के तथाकथित महासितारों का कद नाप डाला है। कोई भी उनके कंधे तक नहीं आता है। उनके अभिनय को जबां से बयां कर पाना संभव नहीं है। सिर्फ़ देखकर ही समझा जा सकता है।

एक लाल-सफ़ेद जापानी छाता कुछ दिन बाद नंदू के लिए कूरियर से आता है। पूरे गाँव में मिठाईयाँ बँटती हैं। अश्वमेघ यज्ञ के अश्व की तरह दमकता नंदकिशोर खत्री साइकिल पर छतरी टिकाए पूरे गाँव से जुलूस निकालता है। सारा गाँव अब नंदू से प्रभावित है। बिनिया को सब उलाहना भरी नज़रों से देखते हैं। नंदकिशोर की इज्ज़त गाँव वालों की नज़रों में बढ़ती ही जाती है। उसे वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिता का मुख्य अतिथि बनाया जाता है।

लेकिन चतुर बिनिया कूरियर लाने वाले से भेजने वाले का पता पूछती है। मालूम चलता है ....रंगरेज़ से रंगवाकर बिनिया का छाता ही भेजा गया था। असलियत सामने आते ही पंचायत गाँव को नंदू से सभी व्यवहार तोड़ लेने का फ़ैसला सुनाती है।

यहाँ से नंदू की दुर्दशा शुरू होती है। राजाराम दुकान छोड़ जाता है। पर्यटक अब यहाँ की चाय नहीं पीते हैं। " दो बिस्किट पर एक टॉफी फ्री " मगर बच्चे उससे बात भी नहीं करते हैं। गाँव वाले मखौल उड़ाते हैं। एक छाते के मोह में इस अधेड़ बच्चे को इतनी बड़ी सज़ा मिली है। बिनिया को यह बात भली नहीं लगती है। एक दिन वह बिस्किट लेने आती है और छाता वहीं छोड़ जाती है। नंदू देखकर गुस्से में उबलता छाते को लकड़ी से पीटता हैं । जैसे कोई बच्ची अपनी गुड़िया को डांट रही हो । जैसे कोई धोबी अपने गधे को पीट रहा हो।

बिनिया बर्फ की चादर पर चली जा रही है। पीछे से नंदू छाता लिए दौड़ा आ रहा है। नंदू कहता है ...." बेटी बिनिया तेरा छाता ?" बिनिया एक त्यागभरी चंचल मुस्कान लिए अंगूठा दिखाते बोलती है " मेरे ठेंगे से .... । " और छाता लिए बिना आगे बढ़ जाती है।

अब गाँव में परिदृश्य बदल जाता है। खत्री चायवाला से दुकान का नाम छत पर लगी लाल-सफ़ेद छतरी से छतरी चायवाला हो जाता है। बच्चे , नंदकिशोर , बिनिया और पर्यटक सभी खुश हैं।

संछिप्त संवाद और बारीक़ अभिनय निकलवाने में जो गलतियाँ रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मों में कर जाते हैं ...विशाल भारद्वाज नहीं करते हैं। उनकी फिल्में तुलनात्मक रूप से ज्यादा रोचक, बेहतर और वास्तविक लगती हैं। साहित्य से फिल्में बनाने में उनका कोई सानी नहीं है। लेखन, निर्माण, निर्देशन और संगीत तक देने वाले विशाल भारतीय सिनेमा के मौजूदा गर्व हैं।

गुलज़ार के लिखे गीत निर्झर बहते हैं। सुकून देते हैं। बिनिया की भूमिका में श्रेया श्रीवास्तव ने सम्पूर्णता दिखाई है। हालाँकि उन्हें अपेछित प्रशंसा नहीं मिल पाई है। फिल्म के निर्माता यू टी वी के रोनी स्क्रूवाला हैं। संपादन आरिफ शेख़ ने किया है जो फ़िल्म की श्रेष्ठता में बराबर के भागीदार हैं। इसका शानदार छायांकन हर दर्शक के लिए दावत है। हिमालय की वादियों से अटा फ़िल्म का हर एक फ्रेम सहेज कर रखने योग्य है।

" सिंग इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी, बचना ऐ हसीनों, गोलमाल रिटर्न्स, ता रा रम पम पम पम, चांदनी चौक टू चाइना ... " जैसी दैत्याकार बजट वाली भोथरी फिल्मों के सामने गौरवान्वित खड़ी यह नीली छतरी अनिवार्यतः सभी को देखनी चाहिए ।

गजेन्द्र सिंह भाटी